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ऐसा महान स्वरूप है !


ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों ने मानव-समाज को ऐसे ऐसे खजाने दे रखे हैं कि संसार के हीरे-मोतियों के खजानों का मूल्य उनके आगे कंकड़-पत्थर जितना भी नहीं है। काली कमली वाले बाबा द्वारा रचित ‘पक्षपातरहित अनुभवप्रकाश’ ग्रंथ जो ‘आध्यात्मिक विष्णु पुराण’ के नाम से भी जाना जाता है, यह वह सद्ग्रंथ है जिसमें अपने परम आनंदमय आत्मस्वरूप के ज्ञान को खुले रूप में मानवमात्र को दिया गया है। यह सद्ग्रंथ पूज्य बापू को परम प्रिय है और पूज्य श्री ने यह ज्ञानामृत ‘ऋषि प्रसाद’ के माध्यम से अपने आत्मीय मानवमात्र तक पहुँचने का निर्देश दिया था। इसे उन्हीं का प्रसाद मानकर हम प्राशन करेंगे-
महर्षि पराशर जी शिष्य मैत्रेय को अपने स्वरूप का वर्णन संतों की स्थिति के माध्यम से बताते हुए कहते हैं कि वामदेव आदि संतों ने ध्रुव को कहाः “काम-क्रोधादिरूप भी हम ही स्वप्नद्रष्टा हैं तथा काम-क्रोध से रहित उनके साक्षीरूप भी हम ही हैं। अमानित्व आदि दैवी गुण तथा दम्भ आद आसुरी गुणरूप भी हम ही हैं और इनसे रहित इनका साक्षीरूप असंगी हम ही चैतन्य हैं। ज्ञान-अज्ञान, शुभ-अशुभ आदि सर्व द्वन्द्वरूप स्वप्न हम ही हैं तथा इनसे रहित इनका द्रष्टारूप भी हम ही स्वप्नद्रष्टा हैं। स्वप्न में ब्रह्मा, विष्णु, शिव आदि मूर्तिरूप होकर भी हम स्वप्नद्रष्टा असंग, निर्विकार इनके प्रकाशक चैतन्य साक्षीभूत हैं।
जीव-ईश्वरूप हम चैतन्य जीव-ईश्वर भाव से रहित हैं। आत्मा-अनात्मा भेद सहित भी हम चैतन्य इस भेद से रहित हैं। कायिक, वाचिक, मानसिक सर्व चेष्टा करते भी हम चैतन्य अकर्ता हैं। स्फुरणरूप भी हम चैतन्य वास्तव में अस्फुरणरूप है। माया से महाकर्ता, महाभोक्ता, महात्यागी हम चैतन्य आत्मा वास्तव में अकर्ता, अभोक्ता, अत्यागी हैं। सर्व देश, काल, वस्तुरूप भी हम पूर्ण चैतन्य आत्मा वास्तव में देश, काल, वस्तु से तथा इनके भेद से रहित हैं। धर्म-अधर्मरूप भी हम चैतन्य वास्तव में धर्म-अधर्म से रहित हैं। सुख-दुःखरूप भी हम अनंत आत्मा वास्तव में सुख-दुःख से रहित हैं।
हम चैतन्य ही इस मन आदि जड़ जगत की चेष्टा कराते हैं, जैसे तंत्री पुरुष जड़ पुतलियों की चेष्टा कराते हैं। हम चैतन्य आधाररहित भी सर्व के आधार हैं। हम चैतन्य ही सर्व मन आदि नाम-रूपमय जगत के प्रकाशक, द्रष्टा, अधिष्ठान हैं। हम चैतन्य का प्रकाशक, द्रष्टा, अधिष्ठान कोई नहीं। इसी से हम चैतन्य स्वयंप्रकाशरूप हैं। भूत, भविष्य, वर्तमान – तीनों कालों के तथा तीनों कालों में विद्यमान पदार्थों के हम चैतन्य ही सिद्धकर्ता हैं। हमारे चैतन्यस्वरूप में ज्ञान-अज्ञान नहीं। जैसे सूर्य में दिन रात नहीं उलटा सूर्य से ही दिन रात्रि की सिद्धि होती है, उसी प्रकार ज्ञान-अज्ञान की हम चैतन्य से ही सिद्धि होती है।
जैसे दो पुरुषों के झगड़े में साक्षी पुरुष को उनकी हानि-लाभ में किंचित भी कर्तव्य नहीं होता, उसी प्रकार सुख-दुःख आदि के साक्षी हम चैतन्य आत्मा को सुख-दुःख की प्राप्ति-निवृत्ति संबंधित किंचिन्मात्र भी कर्तव्य नहीं।”
(‘आध्यात्मिक विष्णु पुराण’ से)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 25, अंक 266
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ॐ सत्य के साक्षात्कार का एकमात्र मार्ग


सत्य का साक्षात्कार करने के लिए देशांतर कालांतर या वस्तवंतर (वस्तु-अंतर=अन्य-अन्य वस्तु) की ओर दौड़ना और उनके और-छोर को प्राप्त कर लेने का प्रयास करना निरर्थक है। उनके स्वरूप को जानने के लिए दृश्य की और से अनुसंधान का मुख मोड़ना पड़ेगा। द्रष्टा ही ज्ञान है, भान अनुभव है। अतः दृश्य से विमुख होकर अपने अतंरात्मा की ओर उन्मुख होना ही एकमात्र मार्ग है। इसी को जिज्ञासा अर्थात् ज्ञान का स्वरूप जानने की इच्छा कहते हैं। आप स्वयं देख सकते हैं कि आप सत्य को ज्ञान का विषय-ज्ञेय बनाना चाहते हैं अथवा स्वयं ज्ञानस्वरूप आत्मा से जो विमुखता है, अपना ही बनाया हुआ आवरण है, उसको भंग करना चाहते हैं ?
आप मानिये या मत मानिये, आप अपने विचार की तलवार से आवरण भंग करने के लिए चाहे जितना तलवार का वार कीजिये किंतु यदि दृश्य में महत्त्वबुद्धि है, चाहे वह कहीं भी क्यों न हो –अंतर्दृश्य में, बहिर्दृश्य में, अहं में, इदं में, त्वं में, तत् में तो आप अपनी उस मानी हुई महान वस्तु को काट नहीं सकेंगे। अतः कालांतर की समाधि की कल्पना छोड़िये, देशांतर के ब्रह्मलोक का लोभ छोड़िये, वस्त्वंतर की उपलब्धि का मोह छोड़िये। आप दृढ़ता से अपने उस भानस्वरूप आत्मा का अनुसंधान कीजिये सब प्रकाशित होता है और जिसको अपने को या किसी दूसरे को प्रकाशित करने के लिए प्रकाशांतर की आवश्यकता नहीं।
इसमें संदेह नहीं कि जब तक दृश्य की किसी भी आंतर-बाह्य रूपरेखा में महत्त्वबुद्धि, हेयबुद्धि (त्याज्यबुद्धि), उपादेयबुद्धि (ग्रहणबुद्धि), सुखबुद्धि, दुःखबुद्धि बनी रहेगी, तब तक आपकी बुद्धि अपने को प्रकाश देने वाले सत्य आत्मा का आवरण भंग करने में समर्थ नहीं होगी। यदि बुद्धि अपने द्वारा प्रकाशित को भी देखना चाहेगी और राग की रक्तिमा तथा द्वेष की कालिमा से दृश्य को सटाने-हटाने में संलग्न रहेगी तो विमल-धवल होकर अपने स्वप्रकाश अधिष्ठान से अभिन्नता को नहीं जान पायेगी, जो कि स्वतः सिद्ध है। इसी प्रक्रिया को श्रुति-शास्त्र ने निवृत्ति, वैराग्य अथवा अंतःशुद्धि के नाम से कहा है।
हमारे दुराग्रह के दो रूप हैं – एक तो अपने व्यक्तित्व में, चाहे वह स्थूल हो या सूक्ष्म हो या कारण ही क्यों न हो, यह नैसर्गिक है। दूसरा शास्त्र के द्वारा आरोपित लोक-परलोकगामी संसारित्व में। शास्त्र द्वारा आरोपित पदार्थ दुराग्रह शास्त्र के ही विचार से बाधित हो जाता है परंतु अपने व्यक्तित्व में जो नैसर्गिक आग्रह है, उसकी निवृत्ति तीव्र अभीप्सा एवं आत्मा के निरीक्षण-परीक्षण-समीक्षण की अपेक्षा रखती है। यह इतना दृढ़मूल है कि हम ईश्वर, समाधि अथवा मोक्ष की प्राप्ति के द्वारा भी अपने व्यक्तित्व को ही आभूषित करना चाहते हैं। परंतु सत्य का साक्षात्कार व्यक्तित्व का भूषण नहीं है, वह व्यक्त और अव्यक्त के भेद को सर्वथा निरस्त कर देता है।
अतः श्रुति, शास्त्र, सत्सम्प्रदाय एवं सदगुरुओं का यह कहना है कि अपने को दृश्य की किसी कक्षा की कुक्षि में मत बाँधो। जो अदृश्य, अग्राह्य है, अमृत है, अविज्ञात है, अदृश्य-द्रष्ट है, उस निर्विवाद सत्य की उपलब्धि ही राग-द्वेष की आत्यंतिक निवर्तक है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2015, पृष्ठ संख्या 20, अंक 266
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संस्कृत सभी भाषाओं की जननी हैः सर्वोच्च न्यायालय


 

संस्कृत भाषा भारतीय संस्कृति का आधारस्तम्भ है। यह संसार की समृद्धतम भाषा है। इसका अध्ययन मनुष्य को सूक्ष्म विचारशक्ति प्रदान करता है और मौलिक चिंतन को जन्म देता है। इससे मन में स्वाभाविक ही अंतर्मुख होने लगता है।

सनातन संस्कृति के सभी मूल शास्त्र संस्कृत भाषा में ही हैं। अतः उनके रसपान व ज्ञान में गोता लगाने के लिए इस भाषा का ज्ञान होना अति आवश्यक है। पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू पिछले 50 वर्षों से अपने सत्संगों द्वारा इसकी महत्ता बताते आये हैं और सत्संग में वेद, उपनिषद, गीता, भागवत के श्लोकों की सुंदर व्याख्या करके उनमें छुपे अमृत का रसास्वादन कराते रहे हैं। संस्कृत व संस्कृति के रक्षक पूज्य बापू जी कहते हैं- “संस्कृत भाषा देवभाषा है और इसके उच्चारणमात्र से दैवी गुण विकसित होने लगते हैं। अधिकांश मंत्र संस्कृत में ही हैं।”

इस भाषा का ज्ञान सभी भारतवासियों को होना ही चाहिए। विद्यालयों में इसकी शिक्षा आवश्यक रूप से सभी बच्चों को मिलनी चाहिए। माननीय सर्वोच्च न्यायालय को सरकार की ओर से पेश अटॉर्नी जनरल ने बताया कि “केन्द्रिय विद्यालयों में शिक्षा 6 से 8 तक संस्कृत ही तीसरी भाषा होगी। जर्मन पढ़ाया जाना गलत है और गलती को जारी नहीं रखा जा सकता।”

इस पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहाः “हमें क्यों अपनी संस्कृति भूलनी चाहिए ! संस्कृत के जरिये आप अन्य भाषाओं को आसानी से सीख सकते हैं। संस्कृत सभी भाषाओं की जननी है। सरकार अगले सत्र से इसे बेहतर तरीके से क्रियान्वित करे।”
संस्कृत का अखंड प्रवाह पालि, प्राकृत व अपभ्रंश भाषाओं में बह रहा है। चाहे तमिल, कन्नड़ या बंगाली हो अथवा मलयालम, ओड़िया, तेलुगू, मराठी या पंजाबी हो – सभी भारतीय भाषाओं के लिए लिए संस्कृत ही अंत-प्रेरणा-स्रोत है। आज भी इन भाषाओं का पोषण और संवर्धन संस्कृत द्वारा ही होता है। संस्कृत की सहायता से कोई भी उत्तर भारतीय व्यक्ति तेलुगू, कन्नड़, ओड़िया, मलयालम आदि दक्षिण एवं पूर्व भारतीय भाषाओं को सरलतापूर्वक सीख सकता है। आज तो ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज और कोलम्बिया जैसे प्रतिष्ठित 200 से भी ज्यादा विदेशी विश्वविद्यालयों में संस्कृत पढ़ायी जा रही है।

ब्रिटिश स्कूलों में संस्कृत अनिवार्य
‘संस्कृत से छात्रों में प्रतिभा का विकास होता है। यह उनकी वैचारिक क्षमता को निखारती है, जो उनके बेहतर भविष्य के लिए सहायक है।’ ऐसा मानना है लंदन के सेंट जेम्स कान्वेंट स्कूल का, जहाँ बच्चों को द्वितिय भाषा के रूप में संस्कृत सीखना आवश्यक है।

याद्दाश्त को भी बेहतर बनाती है संस्कृत
शिक्षाविद् पॉल मॉस के अनुसार ‘संस्कृत से सेरेब्रेल कॉर्टेक्स सक्रिय होता है। किसी बालक के लिए उँगलियों और जुबान की कठोरता से मुक्ति पाने के लिए देवनागरी लिपि व संस्कृत बोली ही सर्वोत्तम मार्ग है। वर्तमान यूरोपीय भाषाएँ बोलते समय जीभ और मुँह के कई हिस्सों का और लिखते समय उँगलियों की कई हलचलों का इस्तेमाल ही नहीं होता, जब कि संस्कृत उच्चारण-विज्ञान के माध्यम से मस्तिष्क की दक्षता को विकसित करने में काफी मदद करती है।’

डॉ. विल डुरंट लिखते हैं- ‘संस्कृत आधुनिक भाषाओं की जननी है। संस्कृत बच्चों के सर्वांगीण बोध ज्ञान को विकसित करने में मदद करती है।’ कई शोधों में यह पाया गया कि जिन छात्रों की संस्कृत पर अच्छी पकड़ थी, उन्होंने गणित और विज्ञान में भी अच्छे अंक प्राप्त किये। वैज्ञानिकों का मानना है कि संस्कृत के तार्किक और लयबद्ध व्याकरण के कारण स्मरणशक्ति और एकाग्रता का विकास होता है। इसके ताजा उदाहरण हैं गणित का नोबेल पुरस्कार कहे जाने वाले सर्वोच्च सम्मान ‘फील्डस मेडल’ के विजेता भारतीय मूल के गणितज्ञ मंजुल भार्गव, जो अपनी योग्यता का श्रेय संस्कृत भाषा को देते हैं। इसके तर्कपूर्ण व्याकरण ने उनके भीतर गणित की बारीकियों को समझने का तार्किक नजरिया विकसित किया।

मैकाले शिक्षा-पद्धति के पढ़े लोग अज्ञानवश इसे सिर्फ पूजा-पाठ, कर्मकाण्ड से जुड़ा मानकर इस भाषा को अवैज्ञानिक तथा अनुपयोगी बताते हैं परंतु वास्तविकता यह है कि वर्तमान में यह भाषा केवल साहित्य, दर्शन या अध्यात्म तक ही नहीं बल्कि गणित, विज्ञान, औषधि, चिकित्सा, इतिहास, मनोविज्ञान, भाषाविज्ञान जैसे विविध क्षेत्रों में भी अपना महत्वपूर्ण स्थान बना रही है। इसके साथ ही ऑर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और कम्पयूटर क्षेत्र में भी संस्कृत के प्रयोग की सम्भावनाओं पर भारत ही नहीं, फ्रांस, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, इंग्लैंड आदि देशों में शोध जारी है। वानस्पतिक सौंदर्य प्रसाधन (डर्बल कॉस्मैटिक्स) एवं आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति के तेजी से बढ़ते प्रचलन से संस्कृत की उपयोगिता और बढ़ गयी है क्योंकि आयुर्वेद पद्धतियों का ज्ञान संस्कृत में ही लिपिबद्ध है। अपनी सुस्पष्ट और छंदात्मक उच्चारण प्रणाली के चलते संस्कृत भाषा को ‘स्पीच थेरेपी टूल’ (भाषण चिकित्सा उपकरण) के रूप में मान्यता मिल रही है।
लौकिक नश्वर उन्नति, वैज्ञानिक प्रगति एवं सुख-सुविधा के लिए संस्कृत का लाभ लेने वालों को हमारा धन्यवाद है। परंतु यह तो बहुत छोटी चीज है, छाछ है, मक्खन तो संस्कृत साहित्य एवं शास्त्रों में छुपा अध्यात्मविद्या का ज्ञानामृत है, जो अनमोल है। मनुष्य जन्म के परम लक्ष्य परमात्मप्राप्ति हेतु वैदिक, औपनिषदिक एवं गीता, भागवत, रामायण, महाभारत का ज्ञान भण्डार तो केवल और केवल संस्कृत भाषा में ही है। अन्यत्र जो भी है संस्कृत से ही प्रसादरूप से प्राप्त किया गया है। व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्वम्।

जब विदेशी इसका भरपूर लाभ ले रहे हैं तो भारतीय इस अनूठी सभ्यता की अनमोल धरोहर से वंचित क्यों रहें ! भारतीय संस्कृति की सुरक्षा, चरित्रवान नागरिकों के निर्माण, सदभावनाओं के विकास एवं विश्वशांति हेतु भारत एवं पूरे विश्व में संस्कृत का अध्ययन-अध्यापन अवश्य होना चाहिए। इसी से होगा सबका मंगल, सबका भला…. सबका विकास, सच्चा विकास-मंगल और भला वाला।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2015, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 265
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