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सच्चा धन और महाधनवान


(संत नामदेव जयंतीः 26 अक्तूबर)
पंढरपुर में एक दानवीर साहूकार रहता था। वह अपने शरीर के वज़न के बराबर धन सम्पत्ति आदि तौलकर याचकों को देता था। उसे अपने धन-वैभव, दानवीरता का बड़ा अहंकार था। एक बार उसने सोचा, ‘क्यों न नामदेव को कुछ दान दिया जाय। वैसे भी वह बेचारा गरीब है और रात दिन भगवान का नाम जपता रहता है।’
साहूकार ने नामदेव जी को बुलाकर उन्हें अपना हेतु बताया तो वे बोलेः “देखो भाई ! मैं भिक्षुक नहीं हूँ, अतः आपका दान लेने की मेरी इच्छा नहीं है। रही मेरी गरीबी की बात तो मुझे भोजन की आवश्यकता होती है तो भगवान पूरी कर देते हैं। उनकी कृपा से मेरे पास ऐसा अलौकिक धन है, जिसके सामने आपकी यह सम्पत्ति कुछ भी नहीं है।”
साहूकार बिगड़ते हुए बोलाः “ऐसा कैसे हो सकता है ?”
नामदेव जी बोलेः “तुम्हारी और हमारी सम्पत्ति की तुलना करने से इस बात का निर्णय हो जायेगा।”
साहूकार ने अपनी कुछ सम्पत्ति तराजू के एक पलड़े में रख दी और नामदेव जी ने एक तुलसी पत्र पर ‘राम’ नाम का पहला अक्षर ‘रा’ लिखकर दूसरे पलड़े में रख दिया। तुलसी पत्र वाला पलड़ा नीचे बैठ गया और साहूकार का पलड़ा ऊपर उठ गया। साहूकार के पास जो कुछ धन था, वह सब उसने पलड़े में लाकर रख दिया परंतु तुलसी-पत्र वाला पलड़ा ऊपर नहीं उठा। तब साहूकार ने अपना दान, धर्म, तीर्थयात्रा इत्यादि का पुण्य भी संकल्प करके उस पलड़े पर चढ़ा दिया लेकिन तब भी वह पलड़ा ऊपर ही रहा।
साहूकार का सारा गर्व गल गया। उसकी आँखों में आँसू आ गये। वह अत्यन्त भाव विभोर होकर नामदेव जी के चरणों में गिर पड़ा और प्रार्थनापूर्वक हाथ जोड़ते हुए बोलाः “परमात्मा के प्यारे महाराज ! मैं नाहक धन-वैभव के पद में चूर होकर अपने के बड़ा धनवान, दानवीर तथा हीरे मोती, जवाहरात को ही सब कुछ मानता था लेकिन आज तक आपकी करुणा कृपा से मेरा अहंकार चूर-चूर हो गया है। अब आप मुझ दास पर दया कीजिये कि मेरा शेष जीवन उस आत्मधन को पाने में लगे जिसे आपने पाया है।”
आत्मधन पाने का मार्गदर्शन ‘श्री गुरु ग्रंथ साहिब’ में संत नामदेव जी की वाणी में आता हैः
पारब्रह्म जी चीन्हसी आसा ते न भावसी।।
….छीपे के घरि जनमु दैला गुर उपदेसु भैला।।
संतह कै परसादि नामा हरि भेटुला।।
‘जो परब्रह्म की अनुभूतियों को संचित करेगा, उसे अन्य सांसारिक इच्छाएँ अच्छी नहीं लगेंगी। जो राम की (भगवान की) भक्ति को मन में बसायेगा, उसका मन स्थिर होगा। संसार सागर तो विषयों का वन (गोरख धंधा, उलझन) है, मन उसे कैसे पार कर सकेगा ? यह मन तो माया के मिथ्यात्व को ही (सत्य समझकर) भूला पड़ा है। नामदेव जी कहते हैं कि यद्यपि मेरा जन्म छीपी के घर हुआ, फिर भी सदगुरु का उपदेश मिल जाने से मैंने संतों की कृपा से प्रभु से भेंट कर ली है, परमात्मा को पा लिया है।’
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2015, पृष्ठ संख्या 10, अंक 274
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भगवान किसको बचाते हैं ?


जगन्नाथपुरी से लगभग दस कोस दूर पीपली नामक गाँव में रघु केवट नाम का एक जवान लड़का रहता था। घर में पत्नी और बूढ़ी माँ थी। रघु मछलियाँ पकड़ने का काम करता था लेकिन पूर्वजन्म के संस्कारों से रघु के हृदय में भगवान की भक्ति थी। मछली जब उसके जाल में फँस जाती और तड़पती तो उसका मन द्रवित हो जाता, वह सोचता, ‘मैं इसको दुःखी नहीं देख सकता, मैं यह धंधा नहीं करूँगा। यह अच्छा नहीं है पर पेट भरना है, क्या करें-बाप दादाओं का धंधा है !’ दूसरा कोई रास्ता न होने से छोड़ नहीं पाता था।
रघु ने एक संत से दीक्षा ले ली और सुबह-शाम गुरुमंत्र का जप करने लगा। अब तो उसने मछली पकड़ने के काम को छोड़ दिया। घर में जो अनाज था उसे 2-5 दिन खाया, जब खत्म हुआ तो फिर सोचा, ‘अब क्या करें? पत्नी भूखी, माँ भूखी…..’ तो भगवान के आगे रोया, ‘हे भगवान ! मैं यह पापकर्म नहीं करना चाहता लेकिन अब माँ भूखी रहेगी तो यह भी तो पाप है। मैं क्या करूँ ?’ पेट की ज्वाला तथा माँ और पत्नी के तिरस्कार से व्याकुल होकर रघु को फिर से जाल उठाना पड़ा। रघु मछली पकड़ने के लिए गया तो सही लेकिन मन में सोचता है, ‘यह अच्छा नहीं है, यह पाप है।’ बड़ा दुःखी होते-होते तट पर पहुँचा। समुद्र में जाल डाला और रोने लग गया। अपने अंतर्यामी परमात्मा को बोला, ‘प्रभु ! फिर वही काम करना पड़ रहा है। क्या तुम मेरे को इस काम से नहीं छुड़ा सकते ? तुम तो जन्म-मरण से छुड़ाते हो, दुःखों, चिंताओं से छुड़ाते हो। हे जगन्नाथ ! हे प्रभु !!’ वह अंतर्यामी भगवान समझ गया कि ‘यह पाप से बचना चाहता है। और किसको बोलेगा ? भगवान को ही बोलेगा। तो मैं इसकी रक्षा करूँगा।’ भगवान ने ऐसी लीला की कि एक लाल रंग वाली बड़ी मछली उसके जाल में फँसी। जाल खींचकर पानी से बाहर निकाला तो वह तड़पने लगी। रघु को हुआ कि ‘मैंने सत्संग में सुना है कि नर-नारी के अंतरात्मा नारायण है तो मछली में भी वे ही हैं।’ “तुम मछली के रूप में नारायण हो। अब मैं तुमको कैसे मारूँगा ? लेकिन छोड़ूँगा भी कैसे ? पेट भरना है न !”
अचानक मछली के मुँह से आवाज आयीः “हे नारायण ! मेरी रक्षा करो।”
‘मछली मनुष्य की भाषा में बोलती है !’ रघु चौंका।
मछली दूसरे छोटे से खड्ढे में डाल दी ताकि वह मरे भी नहीं, भागे भी नहीं। आँखें बंद करके बैठ गया। रघु भरे कंठ से बोलाः “मछली के भीतर से तुमने नारायण नाम सुनाया है, अब मैं तुम्हारा दर्शन किये बिना यहाँ से नहीं उठूँगा। हे नारायण ! मछली की भी रक्षा कर, मेरी भी रक्षा कर।”
रघु मछुआरा बड़ा विद्वान नहीं था लेकिन सरलता से भगवान के आगे रोया। रात बीत गयी, सुबह देखा तो मछली खड्ढे में है। उसने सोचा ‘अब इसको मारेंगे नहीं।’
एक दिन हो गया, दो दिन हो गये, तीसरा दिन हुआ, एक बूँद पानी तक उसके मुँह में नहीं गया। ‘नारायण ! नारायण !!’ पुकारकर कभी गिर जाय, कभी बैठे। परमात्मा तो जानता था कि यह मुझे पुकारता है। उस अंतर्यामी ईश्वर ने लीला की। भगवान एक ब्राह्मण के रूप में आकर बोलेः “ऐ मछुआरे ! यह क्या करता है ?”
रघु प्रणाम करके बोलाः “ब्राह्मण ! आपको क्या ? बातें करने से मेरे काम में विघ्न पड़ता है, आप जायें।”
ब्राह्मणः “अरे, मैं तो चला जाऊँगा पर तू सोच कि मछली भी कभी मनुष्य की तरह बोल सकती है ?”
“हैं !…. आपको कैसे पता चला ? ब्राह्मण वेश में आप कौन हैं ?” वह चरणों पर गिर पड़ा।
देखते-देखते चतुर्भुजी भगवान नारायण प्रकट हो गये, बोलेः “रघु ! तू पाप से बचना चाहता था तो मैंने तुझे पाप से बचाने के लिए मत्स्य के रूप में यह लीला की है। अब तुम वर माँग लो।”
रघु ने कहाः “प्रभो ! मैं यही वर माँगता हूँ कि पेट के लिए भी मैं कभी हिंसा न करूँ।”
“जाओ, तुमको मछली मार के पेट भरने की जरूरत नहीं पड़ेगी। तुम्हारा सब ठीक हो जायेगा।”
भगवान अंतर्धान हो गये। रघु मछुआरा अपने गाँव आया तो लोग बोलेः “अरे, तू कहाँ गया था ? पत्नी भूखी, माँ भूखी, कुछ लाया है ?”
रघुः “नहीं लाया।”
लोग इकट्ठे हो गये। गाँव के जमींदार को भगवान ने प्रेरणा की।
जमींदारः “यह पाप नहीं करता है तो इसके घर में जो भी सीधा लगेगा उसका खर्चा मैं देता हूँ।”
रघु नहा-धोकर भगवान का भजन करता और फिर कीर्तन करते हुए गाँव में घूमता।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।
गाँव के लोग भी पवित्र होने लगे। पास के गाँव में खबर पड़ी। भगवान के नाम से रघु मछुआरे को रघु भक्त, रघु संत, प्रभुप्रेमी बना दिया। लोग बोलतेः “हमारे गाँव में आओ, रघु जी ! हमारे घर में आओ !’ लोग आदर करने लगे। उसकी माँ को, पत्नी को लोग प्रणाम करने लगे कि “यह भक्त की माँ है, यह भक्त की पत्नी है।”
वे बोलतीं कि “हम तो मछुआरे हैं।”
बोलेः “नहीं। जो भगवान को प्रार्थना करता है, पाप से बचता है फिर वह मछुआरा हो, चाहे भील हो, चाहे सेठ हो, चाहे गरीब हो लेकिन वह भगवान की मूर्ति हो जाता है।” आसपास के गाँवों में रघु के भक्तिभाव का प्रचार हुआ लेकिन रघु के मन में बड़ा दुःख होता था कि ‘मैं तो तुच्छ मछुआरा ! मेरे को लोग पूजते हैं, संत बोलते हैं। हे भगवान ! मैं क्या करूँ ! इस वाहवाही में तो बहुत खतरा है। नहीं-नहीं, अब तो मैं इधर नहीं रहूँगा।’
रघु धीरे-धीरे संतों के पास जा के बैठता। संतों ने बताया कि “रघु ! कीर्तन करो, फिर कीर्तन के बाद श्वास अंदर जाय तो ‘राम’, बाहर आये तो एक, श्वास अंदर जाये तो ‘ॐ’, बाहर आये तो दो…. इस प्रकार अजपाजप करो” रघु अजपाजप करने लगा। करते-करते रघु ने जान लिया कि ‘शरीर मैं नहीं हूँ, मैं तो आत्मा हूँ, परमात्मा का हूँ, परमात्मा मेरे हैं।’ वह जिसको आशीर्वाद देता उसका काम हो जाता। रघु एक बड़े प्रभावशाली भक्त होने लगे लेकिन उनको पीपली गाँव में समय बिताना अच्छा नहीं लगा। वे घर छोड़ के निर्जन वन में रहने लगे।
एक बार ईश्वरीय प्रेरणा से जगन्नाथपुरी के राजा रघु के पास वन में जा के बोलेः “तुम्हें जगन्नाथपुरी में मंदिर के पास मकान देंगे। तुम्हारी पत्नी रहे, तुम्हारी माँ रहे। पुरी में तुम सत्संग-कीर्तन करना, भगवन्नाम का रसपान करना और दूसरों को कराना।” रघु ने जगन्नाथपुरी में निवास करके ऐसा ही महान काम किया।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2015, पृष्ठ संख्या 16, अंक 274
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2 साल से क्यों हैं बापू जी जेल में ?


पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू अथक मेहनत करके देश को, देशवासियों को उन्नत करक रहे हैं। बापू जी सच्चाई से मानवता व संस्कृति की सेवा कर रहे हैं। यही कारण है कि बापू जी के विरूद्ध ईसाई मिशनरियाँ तथा विदेशी ताकतें मीडिया को मोहरा बनाकर षड्यंत्र करती रहती हैं। थोड़ा विस्तार से जानते हैं-
पूज्य बापू जी सबको मंत्र-चिकित्सा, ध्यान, प्राणायाम, सादा रहन-सहन, स्वदेशी वस्तुएँ एवं स्वदेशी आयुर्वेदिक चिकित्सा को अपनाने की सीख देते हैं, फूँकने-थूकने वाले ‘हैप्पी बर्थ-डे’ की जगह भारतीय पद्धति से जन्मदिवस मनाने की प्रेरणा देते हैं। इससे विदेशी कम्पनियों का प्रतिवर्ष कई हजार करोड़ का नुकसान हो रहा है।
बापू जी के सत्संग से लोगों में सनातन धर्म व भारतीय संस्कृति के प्रति आस्था बढ़ने से देशविरोधी तत्त्वों को तकलीफ होती है।
बापू जी धर्मांतरण वालों के लिए भारी रुकावट हैं इसलिए वे लोग सत्ता की सहायता से बापू जी और हिन्दू संतों को हर प्रकार से झूठे इल्जामों में फँसा रहे हैं। बापू जी आदिवासियों में अन्न, वस्त्र, बर्तन, गर्म भोजन के डिब्बे, कम्बल, दवाएँ, तेल आदि जीवनोपयोगी सामग्रियाँ बाँटते रहे हैं। इससे धर्मांतरण करने वालों का बोरिया-बिस्तर बँध जाता है।
कई मीडिया वाले पैसों के लिए तो कई टी.आर.पी. बढ़ाने के लिए कुछ-का-कुछ दिखाते रहते हैं।
बापू जी की प्रेरणा से चल रहे ‘युवाधन सुरक्षा अभियान’ तथा गुरुकुलों व बाल संस्कार केन्द्रों के असाधारण प्रतिभासम्पन्न विद्यार्थियों द्वारा ओजस्वी-तेजस्वी भारत का निर्माण हो रहा है।
बापू जी के सत्संग एवं उनकी प्रेरणा से चल रहे ‘व्यसनमुक्ति अभियान’ से करोड़ों लोगों की शराब, सिगरेट, गुटका आदि व्यसन छूटते हैं। साथ ही लोग अश्लील सामग्रियों से भी बचते हैं। इससे विदेशी कम्पनियों का खरबों रूपये का नुकसान होता है।
इनके अलावा और भी कई कारण हैं जिनसे कभी ईसाई मिशनरियाँ, कभी विदेशी कम्पनियाँ तो कभी कोई और, मीडिया को मोहरा बनाकर हिन्दू संस्कृति व बापू जी जैसे संतों के विरुद्ध षड्यंत्र करते रहते हैं। – श्री. दैवमत्तु, सम्पादक, ‘हिन्दू वॉइस’ मासिक पत्रिका
हिन्दू धर्म को मिटाने के लिए खुला षड्यंत्र
– सूझ बूझ के धनी पं. श्रीराम शर्मा आचार्य, संस्थापक, अखिल विश्व गायत्री परिवार
“भारत में पादरियों का धर्म-प्रचार हिन्दू धर्म को मिटाने का खुला षड्यंत्र है, जो कि एक लम्बे अरसे से चला आ रहा है। हिन्दुओं का तो यह धार्मिक कर्तव्य है कि वे ईसाइयों के षड्यंत्र से आत्मरक्षा में अपना तन-मन-धन लगा दें और आज जो हिन्दुओं को लपेटती हुई ईसाइयत की लपट परोक्ष रूप से उनकी ओर बढ़ रही है, उसे यहीं पर बुझा दें। ऐसा करने से ही भारत में धर्मनिरपेक्षता, धार्मिक बंधुत्व तथा सच्चे लोकतंत्र की रक्षा हो सकेगी अन्यथा आजादी को पुनः खतरे की सम्भावना हो सकती है।” (संदर्भः ‘अखंड ज्योति’ पत्रिका, जनवरी 1967)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 27, अंक 273
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