श्रीयोगवासिष्ठ महारामायण में श्री वसिष्ठजी ने जीवन्मुक्त महापुरुष के लक्षण बताये हैं-
यथास्थितमिदं यस्य व्यवहारवतोऽपि च।
अस्तं गतं स्थितं व्योम जीवन्मुक्तः स उच्यते।।
इस समय हमारी वृत्यिओं के सामने जिस पर्वत, नदी और वनादि विशिष्ट जगत की प्रतीति हो रही है, जब यह हमारे सामने से देह-इन्द्रिय आदि के साथ समेट लिया जाता है अर्थात् जब इसका प्रलय हो जाता है, तब इन विभिन्नताओं के न रहने से यह अस्तंगत (नष्ट, लुप्त) हो जाता है। परंतु जीवन्मुक्ति में वैसा नहीं होता। यह सम्पूर्ण प्रपंच जैसे का तैसा बना रहता है और व्यवहार भी होता रहता है। प्रलय न होने से दूसरे लोग पूर्ववत स्पष्ट इसका अनुभव करते हैं किंतु जीवन्मुक्त में इसे प्रतीत कराने वाली वृत्ति के न होने से सुषुप्तिवत् इनको कुछ भी प्रतीत नहीं होता, अस्त हो जाता है। हाँ, सुषुप्ति की अपेक्षा विलक्षणता यह है कि सुषुप्ति में भावी वृत्ति का बीज संस्काररूप से रहता है और पुनः संसार का उदय होता है परंतु जीवन्मुक्त में बीज भी नहीं रहता। इसलिए पुनः कदापि संसार की प्रतीति नहीं होती।
नोदेति नाऽस्तमायाति सुखे दुःखे मुखप्रभा।
यथाप्राप्तस्थितेर्यस्य जीवन्मुक्तः स उच्यते।।
प्रारब्ध के अनुसार चंदन-पुष्पादि के सत्कार प्राप्त होने पर अथवा धन-जन हानि, धिक्कारादि दुःख के निमित्त उपस्थित होने पर संसारी पुरुषों की भाँति हर्ष या विषाद से जिसका मुख प्रसन्न या दुःखी नहीं होता, बिना विशेष चेष्टा के जो कुछ स्वयं प्राप्त हो गया उसी में शांति से जो स्थित रहता है, वह जीवन्मुक्त कहा जाता है। पहले तो स्वरूप में ही स्थिति होने के कारण जीवन्मुक्त को इन विषयों की प्रतीति ही नहीं होती और यदि यथाकथंचित् थोड़ी देर के लिए प्रतीत हो भी जाय तो भी ज्ञान की दृढ़ता से हेय-उपादेय बुद्धि का अभाव होने से हर्ष और विषाद का आभास नहीं होता। यहाँ यह ध्यान में रखने योग्य बात है कि प्रारब्ध से केवल सुख-दुःख के निमित्त ही आते हैं, न कि उन-उन निमित्तों के पश्चात आने वाले सुख-दुःख भी। कर्मचक्र के अनुसार घटनाएँ तो घटती ही रहती हैं परंतु आसक्ति के कारण हम सुखी-दुःखी होते हैं। जैसे प्रारब्ध के कारण हमें किसी दिन भोजन नहीं मिल पाता, इतना तो प्रारब्ध का काम है परंतु उससे हम दुःखी हों, यह आसक्ति का फल है और आसक्ति अज्ञान से होती है। संसार-चक्र की गति और स्वरूप से अनभिज्ञ होने से ही हम किसी देश, काल या वस्तु से आसक्ति करते हैं और सुखी-दुःखी होते हैं। जीवन्मुक्त भला इनसे प्रसन्न या दुःखी क्यों होने लगा ? यही तो इसकी विशेषता है।
जिन महापुरुषों को आत्मज्ञान होता है, उनके जीवन में अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों, मान-अपमान और बीमारी-तंदुरुस्ती में सत्-बुद्धि नहीं होती। वे अपने सत्यस्वरूप को ही नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त जानते हैं। साधारण आदमी को मिथ्या जगत सच्चा लगता है और अपने सच्चे स्वरूप का भान नहीं रहता इसलिए वह उलझता रहता है। जो सत्शिष्य में से सदगुरु तक पहुँचा, वह महान आत्मा, नित्य नवीन रस में परितृप्त रहता है। बाहर से सामान्य आदमी जैसा लगता हुआ भी आत्मानुभव की सूझबूझ और परम शांति से तृप्त रहता है। अज्ञान से जिनका आत्मज्ञान आवृत हो गया, वे ही इन बदलने वाली परिस्थितियों को सच्चा मानकर परेशान हो जाते हैं। जिनको शीघ्र ही परम सुख, परम वैभव चाहिए वे वेदांत शास्त्र, सद्ज्ञान से सम्पन्न होकर जीवन्मुक्ति का अऩुभव कर लेते हैं। कठिन नहीं है, दुर्लभ नहीं है, परे नहीं है, पराया नहीं है।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2015, पृष्ठ संख्या 28 अंक 267
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