वर्णसंकर के हाथ का दिया हुआ पिण्डदान और श्राद्ध पितर स्वीकार नहीं करते और वर्णसंकर संतान से पितर तृप्त नहीं होते वरन् दुःखी और अशांत होते हैं। अतः उसके कुल में भी दुःख, अशांति और तनाव बना रहता है।
श्रीमदभगवदगीता के प्रथम अध्याय के 42वें श्लोक में आया हैः
संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः।।
वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने वाला ही होता है। श्राद्ध और तर्पण न मिलने से इन (कुलघातियों) के पितर भी अधोगति को प्राप्त होते हैं।
वर्णसंकरः एक जाति के पिता एवं दूसरी जाति की माता से उत्पन्न संतान को वर्णसंकर कहते हैं।
महाभारत के अनुशासन पर्व के अन्तर्गत दानधर्म पर्व में आता हैः
अर्थाल्लोभाद्रा कामाद्रा वर्णानां चाप्यनिश्चयात्।
अज्ञानाद्वापि वर्णानां जायते वर्णसंकरः।।
तेषामेतेन विधिना जातानां वर्णसंकरे।
धन पाकर या धन के लोभ में आकर अथवा कामना के वशीभूत होकर जब उच्च वर्ण की स्त्री नीच वर्ण के पुरुष के साथ संबंध स्थापित कर लेती है तब वर्णसंकर संतान उत्पन्न होती है। वर्ण का निश्चय अथवा ज्ञान न होने से भी वर्णसंकर की उत्पत्ति होती है। – महाभारतः दानधर्म पर्वः 48.1.2
श्राद्धकाल में शरीर, द्रव्य, स्त्री, भूमि, मन, मंत्र और ब्राह्मण ये सात चीज़ें विशेष शुद्ध होनी चाहिए। श्राद्ध में तीन बातों को ध्यान रखना चाहिए। शुद्धि, अक्रोध और अत्वरा यानी जल्दबाजी नहीं।
श्राद्ध में कृषि और वाणिज्य का धन उत्तम, उपकार के बदले दिया गया धन मध्यम और ब्याज एवं छल कपट से कमाया गया धन अधम माना जाता है। उत्तम धन से देवता और पितरों की तृप्ति होती है, वे प्रसन्न होते हैं। मध्यम धन से मध्यम प्रसन्नता होती है और अधम धन से छोटी योनि (चाण्डाल आदि योनि) में जो अपने पितर हैं उनको तृप्ति मिलती है। श्राद्ध में जो अन्न इधर उधर छोड़ा जाता है उससे पशु योनि एवं इतर योनि में भटकते हुए हमारे कुल के लोगों को तृप्ति मिलती है, ऐसा कहा गया है।
श्राद्ध के दिन भगवदगीता के सातवें अध्याय का माहात्मय पढ़कर फिर पूरे अध्याय का पाठ करना चाहिए एवं उसका फल मृतक आत्मा को अर्पण करना चाहिए।