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श्राद्धयोग्य तिथियाँ


 

ऊँचे में ऊँचा, सबसे बढ़िया श्राद्ध श्राद्धपक्ष की तिथियों में होता है। हमारे पूर्वज जिस तिथि में इस संसार से गये हैं, श्राद्धपक्ष में उसी तिथि को किया जाने वाला श्राद्ध सर्वश्रेष्ठ होता है।

जिनके दिवंगत होने की तिथि याद न हो, उनके श्राद्ध के लिए अमावस्या की तिथि उपयुक्त मानी गयी है। बाकी तो जिनकी जो तिथि हो, श्राद्धपक्ष में उसी तिथि पर बुद्धिमानों को श्राद्ध करना चाहिए।

जो पूर्णमासी के दिन श्राद्धादि करता है उसकी बुद्धि, पुष्टि, स्मरणशक्ति, धारणाशक्ति, पुत्र-पौत्रादि एवं ऐश्वर्य की वृद्धि होती। वह पर्व का पूर्ण फल भोगता है।

इसी प्रकार प्रतिपदा धन-सम्पत्ति के लिए होती है एवं श्राद्ध करनेवाले की प्राप्त वस्तु नष्ट नहीं होती।

द्वितिया को श्राद्ध करने वाला व्यक्ति राजा होता है।

उत्तम अर्थ की प्राप्ति के अभिलाषी को तृतिया विहित है। यही तृतिया शत्रुओं का नाश करने वाली और पाप नाशिनी है।

जो चतुर्थी को श्राद्ध करता है वह शत्रुओं का छिद्र देखता है अर्थात उसे शत्रुओं की समस्त कूटचालों का ज्ञान हो जाता है।

पंचमी तिथि को श्राद्ध करने वाला उत्तम लक्ष्मी की प्राप्ति करता है।

जो षष्ठी तिथि को श्राद्धकर्म संपन्न करता है उसकी पूजा देवता लोग करते हैं।

जो सप्तमी को श्राद्धादि करता है उसको महान यज्ञों के पुण्यफल प्राप्त होते हैं और वह गणों का स्वामी होता है।

जो अष्टमी को श्राद्ध करता है वह सम्पूर्ण समृद्धियाँ प्राप्त करता है।

नवमी तिथि को श्राद्ध करने वाला प्रचुर ऐश्वर्य एवं मन के अनुसार अनुकूल चलने वाली स्त्री को प्राप्त करता है।

दशमी तिथि को श्राद्ध करने वाला मनुष्य ब्रह्मत्व की लक्ष्मी प्राप्त करता है।

एकादशी का श्राद्ध सर्वश्रेष्ठ दान है। वह समस्त वेदों का ज्ञान प्राप्त कराता है। उसके सम्पूर्ण पापकर्मों का विनाश हो जाता है तथा उसे निरंतर ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।

द्वादशी तिथि के श्राद्ध से राष्ट्र का कल्याण तथा प्रचुर अन्न की प्राप्ति कही गयी है।

त्रयोदशी के श्राद्ध से संतति, बुद्धि, धारणाशक्ति, स्वतंत्रता, उत्तम पुष्टि, दीर्घायु तथा ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।

चतुर्दशी का श्राद्ध जवान मृतकों के लिए किया जाता है तथा जो हथियारों द्वारा मारे गये हों उनके लिए भी चतुर्दशी को श्राद्ध करना चाहिए।

अमावस्या का श्राद्ध समस्त विषम उत्पन्न होने वालों के लिए अर्थात तीन कन्याओं के बाद पुत्र या तीन पुत्रों के बाद कन्याएँ हों उनके लिए होता है। जुड़वे उत्पन्न होने वालों के लिए भी इसी दिन श्राद्ध करना चाहिए।

सधवा अथवा विधवा स्त्रियों का श्राद्ध आश्विन (गुजरात-महाराष्ट्र के मुताबिक भाद्रपत) कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि के दिन किया जाता है।

बच्चों का श्राद्ध कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि को किया जाता है।

दुर्घटना में अथवा युद्ध में घायल होकर मरने वालों का श्राद्ध कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को किया जाता है।

जो इस प्रकार श्राद्धादि कर्म संपन्न करते हैं वे समस्त मनोरथों को प्राप्त करते हैं और अनंत काल तक स्वर्ग का उपभोग करते हैं। मघा नक्षत्र पितरों को अभीष्ट सिद्धि देने वाला है। अतः उक्त नक्षत्र के दिनों में किया गया श्राद्ध अक्षय कहा गया है। पितृगण उसे सर्वदा अधिक पसंद करते हैं।

जो व्यक्ति अष्टकाओं में पितरों की पूजा आदि नहीं करते उनका यह जो इन अवसरों पर श्राद्धादि का दान करते हैं वे देवताओं के समीप अर्थात् स्वर्गलोक को जाते हैं और जो नहीं करते वे तिर्यक्(पक्षी आदि अधम) योनियों में जाते हैं।

रात्रि के समय श्राद्धकर्म निषिद्ध है।

श्राद्धयोग्य स्थान


 

समुद्र तथा समुद्र में गिरने वाली नदियों के तट पर, गौशाला में जहाँ बैल न हों, नदी-संगम पर, उच्च गिरिशिखर पर, वनों में लीपी-पुती स्वच्छ एवं मनोहर भूमि पर, गोबर से लीपे हुए एकांत घर में नित्य ही विधिपूर्वक श्राद्ध करने से मनोरथ पूर्ण होते हैं और निष्काम भाव से करने पर व्यक्ति अंतःकरण की शुद्धि और परब्रह्म परमात्मा की प्राप्ति कर सकता है, ब्रह्मत्व की सिद्धि प्राप्त कर सकता है।

अश्रद्दधानाः पाप्मानो नास्तिकाः स्थितसंशयाः।

हेतुद्रष्टा च पंचैते न तीर्थफलमश्रुते।।

गुरुतीर्थे परासिद्धिस्तीर्थानां परमं पदम्।

ध्यानं तीर्थपरं तस्माद् ब्रह्मतीर्थं सनातनम्।।

श्रद्धा न करने वाले, पापात्मा, परलोक को न मानने वाले अथवा वेदों के निन्दक, स्थिति में संदेह रखने वाले संशयात्मा एवं सभी पुण्यकर्मों में किसी कारण का अन्वेषण करने वाले कुतर्की-इन पाँचों को पवित्र तीर्थों का फल नहीं मिलता।

गुरुरूपी तीर्थ में परम सिद्धि प्राप्त होती है। वह सभी तीर्थों में श्रेष्ठ है। उससे भी श्रेष्ठ तीर्थ ध्यान है। यह ध्यान साक्षात् ब्रह्मतीर्थ हैं। इसका कभी विनाश नहीं होता।-वायु पुराणः 77.127.128

ये तु व्रते स्थिता नित्यं ज्ञानिनो ध्यानिनस्तथा।

देवभक्ता महात्मानः पुनीयुर्दर्शनादपि।।

जो ब्राह्मण नित्य व्रतपरायण रहते हैं, ज्ञानार्जन में प्रवृत्त रहकर योगाभ्यास में निरत रहते हैं, देवता में भक्ति रखते हैं, महान आत्मा होते हैं। वे दर्शनमात्र से पवित्र करते हैं।  – वायु पुराणः 79.80

काशी, गया, प्रयाग, रामेश्वरम् आदि क्षेत्रों में किया गया श्राद्ध विशेष फलदायी होता है।

श्राद्ध में पालने योग्य नियम


श्रद्धा और मंत्र के मेल से पितरों की तृप्ति के निमित्त जो विधि होती है उसे ‘श्राद्ध’ कहते हैं।

हमारे जिन संबंधियों का देहावसान हो गया है, जिनको दूसरा शरीर नहीं मिला है वे पितृलोक में अथवा इधर-उधर विचरण करते हैं, उनके लिए पिण्डदान किया जाता है।

बच्चों एवं संन्यासियों के लिए पिण्डदान  नहीं किया जाता।

विचारशील पुरुष को चाहिए कि जिस दिन श्राद्ध करना हो उससे एक दिन पूर्व ही संयमी, श्रेष्ठ ब्राह्मणों को निमंत्रण दे दे। परंतु श्राद्ध के दिन कोई अनिमंत्रित तपस्वी ब्राह्मण घर पर पधारें तो उन्हें भी भोजन कराना चाहिए।

भोजन के लिए उपस्थित अन्न अत्यंत मधुर, भोजनकर्ता की इच्छा के अनुसार तथा अच्छी प्रकार सिद्ध किया हुआ होना चाहिए। पात्रों में भोजन रखकर श्राद्धकर्ता को अत्यंत सुंदर एवं मधुर वाणी से कहना चाहिए कि ‘हे महानुभावो ! अब आप लोग अपनी इच्छा के अनुसार भोजन करें।’

श्रद्धायुक्त व्यक्तियों द्वारा नाम और गोत्र का उच्चारण करके दिया हुआ अन्न पितृगण को वे जैसे आहार के योग्य होते हैं वैसा ही होकर मिलता है। (विष्णु पुराणः 3.16,16)

श्राद्धकाल में शरीर, द्रव्य, स्त्री, भूमि, मन, मंत्र और ब्राह्मण-ये सात चीजें विशेष शुद्ध होनी चाहिए।

श्राद्ध में तीन बातों को ध्यान में रखना चाहिएः शुद्धि, अक्रोध और अत्वरा (जल्दबाजी नही करना)।

श्राद्ध में मंत्र का बड़ा महत्त्व है। श्राद्ध में आपके द्वारा दी गयी वस्तु कितनी भी मूल्यवान क्यों न हो, लेकिन आपके द्वारा यदि मंत्र का उच्चारण ठीक न हो तो काम अस्त-व्यस्त हो जाता है। मंत्रोच्चारण शुद्ध होना चाहिए और जिसके निमित्त श्राद्ध करते हों उसके नाम का उच्चारण भी शुद्ध करना चाहिए।

जिनकी देहावसना-तिथि का पता नहीं है, उनका श्राद्ध अमावस्या के दिन करना चाहिए।

हिन्दुओं में जब पत्नी संसार से जाती है तो पति को हाथ जोड़कर कहती हैः ‘मुझसे कुछ अपराध हो गया हो तो क्षमा करना और मेरी सदगति के लिए आप प्रार्थना करना।’ अगर पति जाता है तो हाथ जोड़ते हुए पत्नी से कहता हैः ‘जाने-अनजाने में तेरे साथ मैंने कभी कठोर व्यवहार किया हो तो तू मुझे क्षमा कर देना और मेरी सदगति के लिए प्रार्थना करना।’

हम एक दूसरे की सदगति के लिए जीते जी भी सोचते हैं, मरते समय भी सोचते हैं और मरने के बाद भी सोचते हैं।