तो मैं अपने धर्म का त्याग क्यों करूँ ?

तो मैं अपने धर्म का त्याग क्यों करूँ ?


महात्मा आनंद स्वामी के पिता थे गणेशदास जी। वे एक रिटायर्ड कर्नल के यहाँ मुंशीगिरी करते थे। वहाँ रहते हुए धर्म पर से उनका धीरे-धीरे विश्वास उठता गया। एक दिन उन्होंने ईसाई बनने की ठान ली। सभी लोग इस निर्णय से हैरान परेशान हो गये पर ईसाइयों के लिए यह बड़ी विजय का सूचक था। ‘मंहतों के वंश का प्रतिनिधि ही ईसाई बन जायेगा तो उसके अनुयायी भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगे।’ यह सोचकर ईसाइयों ने खूब प्रचार किया। नगरों में पोस्टर लगाये, ढिंढोरे पीटे गये, दावतनामे भेजे, मिठाइयाँ और फल बाँटने की तैयारियाँ की गयीं।

मुंशी गणेशदास एक दिन पहले ही गाँव से नगर में पहुँचे जहाँ धर्मांतरण कराया जाना था। शाम को सैर पर निकले तो एक जगह ऋषि दयानंद प्रवचन दे रहे थे। मुंशी ने प्रवचन सुना। दयानंद जी ने ईसाई मत की पोल खोल दी।

प्रवचन के बाद मुंशी ने कहाः “महाराज ! आपने मेरी सारी दुविधा दूर कर दी मगर पछतावा इस बात का है कि कल ही मैं ईसाई बन जाऊँगा।”

“कारण ?”

“अपने धर्म में विश्वास नहीं रहा तो ईसाई बनने का संकल्प ले बैठा।”

”भोले मनुष्य ! यह संकल्प नहीं दुःसंकल्प है। संकल्प तो उत्तम भाव का होता है।”

“किंतु मैं वचन दे चुका हूँ।”

“तो उन्हें कहो कि एक संन्यासी ईसाई मत को पाखंडों की गठरी मानते हैं। यदि उन्हें ईसाई बना लो तो मैं भी बन जाऊँगा अन्यथा नहीं।”

मुंशी तत्काल गिरजाघर के पादरी के पास पहुँचे और शर्त उसके सामने रख दी। उसने तुरंत मुंशी के साथ जाकर दयानंद जी को अपने तर्कों के जाल में फाँसने की कोशिशें शुरु कर दीं किंतु उनके जवाबी तर्क सुनकर पादरी चुप हो गया। आखिर झुँझलाकर बोलाः “इस साधु के चक्कर में न पड़ो। इसमें हमारी बात समझने का सामर्थ्य नहीं है।”

मुंशीः “जब आपमें एक प्रकाण्ड विद्वान को भी अपनी बात समझाने की ताकत नहीं है तो आप मुझे क्या समझा पायेंगे ? इन्होंने मेरे सारे संशय दूर कर दिये हैं।”

पादरी जल भुनकर बोलाः “और जो इतनी मिठाइयाँ व फल खऱीदे गये हैं, इतना प्रचार किया गया है उनका क्या होगा ?”

“मैंने कब कहा था कि इस काम के ढिंढोरे पीटे जायें ? जब मुझे विश्वास हो गया कि हमारा धर्म ईसाइयों के धर्म से ऊँचा है तो मैं अपने धर्म का त्याग क्यों करूँ ?”

पादरी छोटा सा मुँह लेकर लौट गया। गणेशदास जी तो हिन्दू थे लेकिन इतिहास में ऐसे भी उदाहरण हैं कि अन्य धर्म के जिन विद्वानों और धर्मप्रचारकों, ईसाई पादरियों ने दोषदर्शन की दृष्टि से नहीं अपितु तटस्थ होकर हिन्दू धर्म का, उसके सत्शास्त्रों का, संतों-महापुरुषों के ज्ञान का अध्ययन किया है वे मुक्तकंठ से हिन्दू धर्म की महिमा गाये बिना नहीं रह सके। कइयों ने तो हिन्दुत्व की शिक्षा-दीक्षा ले ली। सनातन धर्म के ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः…’ सबका मंगल सबका भला… के  विश्वहितकारी सिद्धान्त में सचमुच सबका हित समाया हुआ है। किसी कीमत पर इस सिद्धान्त का त्याग नहीं किया जा सकता।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2016, पृष्ठ संख्या 25, अंक 287

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