मेरे गुरुदेव की कितनी नम्रता व सत्संग-निष्ठा !

मेरे गुरुदेव की कितनी नम्रता व सत्संग-निष्ठा !


 

(भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज महानिर्वाण दिवस)

आओ श्रोता तुम्हें सुनाऊँ महिमा लीलाशाह की।
सिंध देश के संत शिरोमणि बाबा बेपरवाह की।।…..

मेरे गुरुदेव (साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज) को 20 साल की उम्र में ईश्वर साक्षात्कार हो गया, 16 साल की उम्र तो अच्छी तरह से समाधि लग जाती थी। 12 साल की उम्र में खाली बारदान अनाज आदि से भर गये, इतना संकल्पबल ! ऐसे महापुरुष 84 साल की उम्र में भी बिना सत्संग के भोजन नहीं करते थे। एकांत में रहते थे नैनीताल के जंगल में तब भी, कोई सत्संग सुनने वाला नहीं है तो मेरे को और दूसरे दो को बुलाते। योगवासिष्ठ हो, उपनिषद् हो…. मैं पढ़ता और गुरु जी सुनते, फिर कृपा करके थोड़ी व्याख्या भी सुना देते। जैसे स्नान मनुष्य को स्वच्छ रखता है, ऐसे ही सत्संग हमारे मन को स्वच्छ रखने का एक अदभुत साधन है। कुछ लोग सत्संग पढ़ते हैं तो वह लिखकर दूसरे को सुना देते हैं। नहीं, नहीं, मेरे गुरु जी तो सत्संग सुनते-सुनते विश्राम पाते थे। मेरे गुरु जी जब 81 साल के हुए, मैंने अपनी आँखों से देखा कि हरिद्वार में एक जगह पर ‘पंचदशी’ का सत्संग चलता था, 20-25 श्रोता होते थे। गुरु जी अगर प्रवचन करते तो हजारों लोग उनके चरणों में आ जाते लेकिन गुरु जी जहाँ पंचदशी का सत्संग चलता था, वहाँ जाकर बैठ जाते थे। सत्संग करने वाले महामंडलेश्वर को जब पता चलता कि ये श्री लीलाशाह जी बापू हैं तो वे उठकर बुलातेः “आइये-आइये, गद्दी पर बैठिये।” अपनी गद्दी पर बिठा लेते थे।
गुरु जी बोलतेः “ठीक है, ठीक है।”
गुरु जी सामने बैठ जाते श्रोताओं के साथ। कितनी बहादुरी !
एक बार मेरे गुरुदेव घूमते-घामते रमण महर्षि तक पहुँच गये। उनसे बातचीत हुई। रमण महर्षि जी बोलेः “आपकी ऐसी ऊँची स्थिति ! फिर इधर-उधर सत्संग करने को इतना काहे को घूमते हो ? मैं तो इधर बैठा हूँ तो बैठा हूँ।”

मेरे गुरुदेव ने कहाः “सबके हृदय में वही है, फिर भी सभी दुःखी हैं। उनका दुःख देखकर मेरे को बैठने की इच्छा नहीं होती इसलिए मैं घूमता हूँ। इधर-उधर करके उनका दुःख हर के उनको आनंदित करता हूँ, उसका भी मेरे को आनंद है।”

रमण महर्षि जी की आँखें भर गयीं और “धन्य हो लीलाशाह जी ! आप धन्य हो !! इतना आनंद छोड़ के जीवों के दुःख से द्रवित होकर उनके मंगल के लिए घूमते हो !” ऐसा कहकर वे मेरे गुरुदेव लीलाशाह जी को गले लगे।

गुरुदेव का महाप्रयाण मेरी गोद में….
महाप्रयाण के समय मेरे गुरुदेव की कैसी लीला कि चौबीसों घंटे साथ रहने वाले सेवकों में से किसी को कुछ हुआ , किसी को शौच जाना हुआ तो किसी को तैयार होने के लिए नहाने को जाना पड़ा। मेरे गुरुदेव जब आखिरी श्वास लेने वाले थे तो इसी गोद में मेरे गुरु जी के महाप्रयाण का मंगल-कार्य, ज्ञानदाता का मस्तक इसी गोद में, निगाहें मेरी निगाह में तथा मेरी निगाहें उनके श्रीचरणों में और दृष्टि से जो कुछ बरसा-बरसाया, उसी का फल है कि अभी करोड़ों लोग लाभ ले रहे हैं।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 12,13 अंक 275
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