‘स्कंद पुराण’ में कथा आती है कि पूर्वकाल में विष्णुभक्त हरिमेधा और सुमेधा नामक दो ब्राह्मण एक समय तीर्थयात्रा के लिए चले | रास्ते में उन्हें एक तुलसी – वन दिखा | सुमेधा ने तुलसी – वन की परिक्रमा की और भक्तिपूर्वक प्रणाम किया | यह देख हरिमेधा ने तुलसी का माहात्म्य और फल जानने के लिए बड़ी प्रसन्नता से बार – बार पूछा : “ब्रह्मन ! अन्य देवताओं, तीर्थो, व्रतों और मुख्य – मुख्य विद्वानों के रहते हुए तुमने तुलसी – वन को क्यों प्रणाम किया है ?”
सुमेधा : “विप्रवर ! पूर्वकाल में जब सागर मंथन हुआ था तो उसमें से अमृतकलश भी निकला था | उसे दोनों हाथों में लिये हुए श्रीविष्णु बड़े हर्षित हुए | उनके नेत्रों से आनंदाश्रु की कुछ बूँदे उस अमृत के ऊपर गिरीं | उनसे तत्काल ही मंडलाकार तुलसी उत्पन्न हुई | वहाँ प्रकट हुई लक्ष्मी तथा तुलसी को ब्रह्मा आदि देवताओं ने श्रीहरि की सेवा में समर्पित किया और भगवान ने उन्हें ग्रहण कर लिया | तब से तुलसीजी भगवान श्रीविष्णु की अत्यंत प्रिय हो गयीं |
सम्पूर्ण देवता भगवत्प्रिया तुलसी की श्रीविष्णु के समान ही पूजा करते हैं | भगवान नारायण संसार के रक्षक हैं और तुलसी उनकी प्रियतमा हैं इसलिए मैंने उन्हें प्रणाम किया हैं |”
सुमेधा इस प्रकार कह ही रहे थे कि सूर्य के समान अत्यंत तेजस्वी एक विशाल विमान उनके निकट दिखाई दिया | फिर जिस वटवृक्ष की छाया में वे बैठे थे वह गिर गया और उससे दो दिव्य पुरुष निकले, जो अपने तेज से सूर्य के समान सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे | उन दोनों ने हरिमेधा और सुमेधा को प्रणाम किया | वे दोनों ब्राह्मण आश्चर्यचकित होकर बोले : “आप दोनों कौन हैं ?”
दोनों दिव्य पुरुष बोले : “विप्रवरो ! आप दोनों ही हमारे माता – पिता और गुरु हैं, बंधु भी आप ही हैं |”
फिर उनमें से जो ज्येष्ठ था वह बोला : “मेरा नाम आस्तीक हैं, मैं देवलोक का निवासी हूँ | एक दिन मैं नंदनवन में एक पर्वत पर क्रीडा करने के लिए गया | वहाँ देवांगनाओं ने मेरे साथ इच्छानुसार विहार किया | उस समय उनके मोती और बेला के हार तपस्यारत लोमश मुनि के ऊपर गिर पड़े, जिससे मुनि क्रोधित हो उठे और मुझे शाप दिया : “तू ब्रह्मराक्षस होकर बरगद के वृक्ष पर निवास कर |”
मैंने विनयपूर्वक जब उन्हें प्रसन्न किया, तब उन्होंने इस शाप से मुक्त होने का उपाय बताया : “जब तू किसी भगवदभक्त, धर्मपरायण ब्राह्मण के मुख से भगवान श्रीविष्णु का नाम और तुलसीदल की महिमा सुनेगा, तब तत्काल तुझे इस योनि से मुक्ति मिल जायेगी |”
इस प्रकार मुनि का शाप पाकर मैं चिरकाल से अत्यंत दु:खी हो इस वटवृक्ष पर रहता था | आज दैववश आप दोनों के दर्शन से मुझे शाप से छुटकारा मिल गया |
अब मेरे इस दूसरे साथी की कथा सुनिये | ये पहले एक श्रेष्ठ मुनि थे और सदा गुरुसेवा में ही लगे रहते थे | एक समय गुरु की आज्ञा का उल्लंघन करने से ये ब्रह्मराक्षस बन गये | इनके गुरुदेव ने भी इनकी शाप – मुक्ति का यही उपाय बताया था | अत: अब ये भी शाप – मुक्त हो गये |”
वे दोनों उन मुनियों को बार – बार प्रणाम करके प्रसन्नतापूर्वक दिव्य धाम को गये | फिर वे दोनों मुनि परस्पर पुण्यमयी तुलसी की प्रशंसा करते हुए तीर्थयात्रा के लिए चल पड़े |
इसलिए तुलसीजी का लाभ अवश्य लेना चाहिए |
ऋषि प्रसाद – दिसम्बर २०१६ निरंतर अंक – २८८ से