पूज्य बापू जी
(गीता जयंतीः 10 दिसम्बर )
गीता का ज्ञान मनुष्यमात्र का मंगल करने की सत्प्रेरणा देता है, सद्ज्ञान देता है। गीता की 12 विद्याएँ हैं। गीता सिखाती है कि भोजन कैसा करना चाहिए जिससे आपका मन तन्दुरुस्त रहे, व्यवहार कैसा करना चाहिए जिससे आपका मन तंदुरुस्त रहे और ज्ञान कैसा सुनना-समझना चाहिए जिससे आपकी बुद्धि में ज्ञान-ध्यान का प्रकाश हो जाय। जीवन कैसा जीना चाहिए कि मरने के पहले मौत के सिर पर पैर रख के आप अमर परमात्मा की यात्रा करने में सफल हो जायें, ऐसा गीता का दिव्य ज्ञान है। इसकी 12 विद्याओं को समझ लो-
1. शोक निवृत्ति की विद्याः गीता आशा का ग्रंथ है, उत्साह का ग्रंथ है। मरा कौन है ? जिसकी आशा, उत्साह मर गये वह जीते जी मरा हुआ है। सफल कौन होता है ? जिसके पास बहुत लोग हैं, बहुत धन है, वह खुश और सफल होता है ? नहीं, नहीं। जिसके जीवन में ठीक दृष्टिकोण, ठीक ज्ञान और ठीक उत्साह होता है, वही वास्तव में जिन्दा है। गीता जिंदादिली देने वाला सद्ग्रंथ है। गीता का सत्संग सुनने वाला बीते हुए का शोक नहीं करता है, भविष्य की कल्पनाओं से भयभीत नहीं होता, वर्तमान के व्यवहार को अपने सिर पर हावी नहीं होने देता और चिंता का शिकार नहीं बनता। गीता का सत्संग सुनने वाला कर्म-कौशल्य पा लेता है।
2. कर्तव्य कर्म करने की विद्याः कर्तव्य कर्म कुशलता से करें। लापरवाही, द्वेष, फल की लिप्सा से कर्मों को गंदा न होने दें। आप कर्तव्य कर्म करें और फल ईश्वर के हवाले कर दें। फल की लोलुपता से कर्म करोगे तो आपकी योग्यता नपी तुली हो जायेगी। कर्म को कर्मयोग बना दें।
3. त्याग की विद्याः चित्त से तृष्णाओं का, कर्तापन का बेवकूफी का त्याग करना। ……त्यागाच्छान्तिरनन्तरम्। (गीताः 12.12)
त्याग से आपके हृदय में निरन्तर परमात्म-शांति रहेगी।
4. भोजन करने की विद्याः युद्ध के मैदान में भी भगवान स्वास्थ्य की बात नहीं भूलते हैं। भोजन ऐसा करें कि बीमारी स्पर्श न करे और बीमारी आयी तो भोजन ऐसे बदल जाय कि बीमारी टिके नहीं। युक्ताहारविहारस्य….. (गीताः 6.17)
5. पाप न लगने की विद्याः युद्ध जैसा घोर कर्म करते हुए अर्जुन को पाप नहीं लगे, ऐसी विद्या है गीता में। कर्तृत्वभाव से, फल की इच्छा से तुम कर्म करते हो तो पाप लगता है लेकिन कर्तृत्व के अहंकार से नहीं, फल की इच्छा से नहीं, मंगल की भावना से भरकर करते हो तो आपको पाप नहीं लगता। यस्य नाहंकृतो भावो..… (गीताः 18.17)
यह सनातन धर्म की कैसी महान विद्या है ! जरा-जरा बात में झूठ बोलने का लाइसैंस (अनुज्ञापत्र) नहीं मिल रहा है लेकिन जिससे सामने वाला का हित होता हो और आपका स्वार्थ नहीं है तो आपको ऐसा कर्म बंधनकारी नहीं होता, पाप नहीं लगता।
6. विषय सेवन की विद्याः आप ऐसे रहें, ऐसे खायें-पियें कि आप संसार का उपयोग करें, उपभोग करके संसार में डूब न मरें। जैसे मूर्ख मक्खी चाशनी में डूब मरती है, सयानी मक्खी किनारे से अपना काम निकालकर चली जाती है, ऐसे आप संसार से अपनी जीविकाभर की गाड़ी चला के बाकी का समय बचाकर अपनी आत्मिक उन्नति करें। इस प्रकार संसार की वस्तु का उपयोग करने की, विषय-सेवन कीक विद्या भी गीता ने बतायी।
7. भगवद्-अर्पण करने की विद्याः शरीर, वाणी तथा मन से आप जो कुछ करें, उसे भगवान को अर्पित कर दें। आपका हाथ उठने में स्वतंत्र नहीं है। आपके मन, जीभ और बुद्धि कुछ भी करने में स्वतंत्र नहीं हैं। आप डॉक्टर या अधिकारी बन गये तो क्या आप अकेले अपने पुरुषार्थ से बने ? नहीं, कई पुस्तकों के लेखकों की, शिक्षकों की, माता-पिता की और समाज के न जाने कितने सारे अंगों की सहायता से आप कुछ बन पाये। और उसमें परम सहायता परमात्मा की चेतना की है तो इसमें आपके अहं का है क्या ? जब आपके अहं का नहीं है तो फिर जिस ईश्वर की सत्ता से आप कर्म करते हो तो उसको भगवद्-अर्पण बुद्धि से कर्म अर्पण करोगे तो अहं रावण जैसा नहीं होगा, राम की नाईं अहं अपने आत्मा में आराम पायेगा।
8. दान देने की विद्याः नश्वर चीजें छोड़कर ही मरना है तो इनका सदुपयोग, दान-पुण्य करते जाइये। दातव्यमिति यद्दानं….. (गीताः 17.20) आपके पास विशेष बुद्धि या बल है तो दूसरों के हित में उसका दान करो। धनवान हो, तो आपके पास जो धन है उसका पाँचवाँ अथवा दसवाँ हिस्सा सत्कर्म में लगाना ही चाहिए।
9. यज्ञ विद्याः (गीताः 17.11) में आता है कि फलेच्छारहित होकर शास्त्र-विधि से नियत यज्ञ करना ही कर्तव्य है – ऐसा जान के जो यज्ञ किया जाता है, वह सात्त्विक होता है। यज्ञ याग आदि करने से बुद्धि पवित्र होती है और पवित्र बुद्धि में शोक, दुःख एवं व्यर्थ की चेष्टा नहीं होती। आहुति डालने से वातावरण शुद्ध होता है। एवं संकल्प दूर तक फैलता है लेकिन केवल यही यज्ञ नहीं है। भूखे को भोजन देना, प्यासे को पानी देना, अनजान व्यक्ति को रास्ता बताना भी यज्ञ है।
10. पूजन विद्याः देवता का पूजन, पितरों का पूजन, श्रेष्ठ जनों का पूजन करने की विद्या गीता में। पूजन करने वाले को यज्ञ, बल, आयु और विद्या प्राप्त होते हैं। लेकिन जर्रे-जर्रे में राम जी है, ठाकुर जी है, प्रभु जी हैं – वासुदेवः सर्वम्.…. यह व्यापक पूजन-विद्या भी गीता में है।
11. समता लाने की विद्याः यह ईश्वर बनाने वाली विद्या है, जिसे कहा गया समत्वयोग। अपने जीवन में समता का सदगुण लाइये। दुःख आये तो पक्का समझिये कि आया है तो जायेगा। इससे दबें नहीं। दुःख आने का रस लीजिये। सुख आये तो सुख आने का रस लीजिये कि तू जाने वाला है। तेरे से चिपकेंगे नहीं और दुःख से डर के, दब के अपना हौसला दबायेंगे नहीं। तो सुख-दुःख विकास के साधन बन जाते हैं। जीवन रसमय है। आपकी उत्पत्ति रसस्वरूप ईश्वर से हुई है। आप जीते हैं तो रस के बिना नहीं जी सकते लेकिन विकारी रस में आप जियेंगे तो जन्म मरण के चक्कर में जा गिरेंगे और यदि आप निर्विकारी रस की तरफ आते हैं तो आप शाश्वत, रसस्वरूप ईश्वर को पाते हैं।
12. कर्मों को सत् बनाने की विद्याः आप कर्मों को सत् बना लीजिये। वे कर्म आपको सत्स्वरूप की तरफ ले जायेंगे। आप कभी यह न सोचिये कि ‘मेरे 10 मकान हैं, मेरे पास इतने रूपये हैं….’ इनकी अहंता मत लाइये, आप अपना गला घोंटने का पाप न करिये। मकान हमारे हैं, रुपये मेरे हैं…. तो आपने असत् को मूल्य दिया, आप तुच्छ हो गये। आपने कर्मों को इतना महत्व दिया कि आपको असत् कर्म दबा रहे हैं।
आप कर्म करो, कर्म तो असत् हैं, नश्वर हैं लेकिन कर्म करने की कुशलता आ जाय तो आप सत् में पहुँच जायेंगे। आप परमात्मा के लिए कर्म करें तो कर्मों के द्वारा आप सत् का संग कर लेंगे।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते।
‘उस परमात्मा के लिए किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक सत् – ऐसे कहा जाता है।’ (गीताः 17.27).
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2015, पृष्ठ संख्या 14,15,16 अंक 276
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