भगवत्शरण और भगवत्स्मृति, भगवत्कथा तथा भगवज्जनों का संग मनुष्य जीवन से अगर हटा दिये जायें तो मनुष्य जैसा कोई अभागा प्राणी नहीं मिलेगा और ये चार चीजें अगर मनुष्य जीवन में हैं तो उससे बढ़कर कोई जीवन है ही नहीं, था नहीं, हो सकता नहीं !
गीता, गंगा और गाय को महत्त्व देने से ही देश का सर्वांगीण विकास होगा। ये तीनों स्वास्थ्य, सद्बुद्धि और संस्कृति के प्रतीक हैं।
यथाशक्ति समाज की भलाई करें और बदले में कुछ भी पाने की इच्छा न करें तो अंतर्यामी ईश्वर में विश्रांति मिलने लगती है।
त्रिकाल संध्या करने वाले को कभी रोजी रोटी के लिए चिंता नहीं करनी पड़ती।
तुम मरने वाला शरीर नहीं हो, दुःखी और भयभीत होने वाला मन नहीं हो, राग-द्वेष में फँसने वाली बुद्धि नहीं हो, तुम तो परमात्मा, गुरु के अमृतमय आत्मा हो। ॐ अमृतोऽसि। शाश्वतोऽसि। चैतन्योऽसि।
जो कष्ट दे के सुखी होना चाहता है वह भविष्य में बड़ा दुःख बुलाता है। जो कष्ट सह के दूसरों के दुःख हरता है वह भविष्य में तो क्या वर्तमान में ही आनंदस्वरूप ईश्वर का प्रसाद पाता है।
सत्ता या विद्या होने से ही कोई सेवा कर सकता है, धन होने से ही कोई निर्दुःख होता है ऐसी बात नहीं है। कुछ भी न हो, केवल सद्भाव, सत्संग हो और भगवान अपने लगें बस ! फिर वह शबरी की नाई अबला हो, सुकरात, अष्टावक्र जी की नाईं कुरुप हो तो भी वह व्यक्ति महान-से-महान बन सकता है।
ईमानदारी से किया हुआ व्यवहार भी भक्ति बन जाता है और बेईमानी, दिखावा और ठगने के लिए की हुई भक्ति भी बंधन बन जाती है।
जीवन में क्षमा का गुण लाने से सुख-शांति अपने-आप आ जाती है। आप चाहे घर में हों या नौकरी-धंधे में हो, अगर किसी से कुछ गलती हो जाय तो आपको उसे थोड़ा समझा-सुना के स्नेह कर लेना चाहिए, क्षमा कर देना चाहिए।
जीवन में अगर सुखी रहना हो तो दूसरों की की हुई बुराई और अपनी की हुई भलाई को भूल जाओ।
किसी भी चीज को ईश्वर से अधिक मूल्यवान कभी मत समझो।
बीते हुए समय को याद न करना, भविष्य की चिंता न करना और वर्तमान में प्राप्त सुख-दाःदि में सम रहना, ईश्वर-सुमिरन, सत्संग उन्नति का सर्वोपरि साधन है।
जो अपनी मति व योग्यता के सदुपयोग से दूसरों के दुःख मिटाता है, उसके दिल में दुःख टिकता ही नहीं।
अस्त्र-शस्त्र की चोट उतनी तेज नहीं होती जितनी जिह्वा की। अतः सदैव हितकर बोलो, मधुर सारगर्भित बोलो अथवा चुप रहो।
सबका मंगल हो। दुर्जनों को भगवान जल्दी सद्बुद्धि दे, नहीं तो समाज सद्बुद्धि दे। जो जिस पार्टी में है… पद का महत्त्व न समझो, सत्कर्म व सज्जना का महत्त्व, अपनी संस्कृति का महत्त्व समझो। पद आज है, कल नहीं है लेकिन संस्कृति तो सदियों से तुम्हरी सेवा करती आ रही है।
स्वार्थ में अंधे बन के आपस में लड़ाकर मारने वाले षड्यंत्रकारियों से बच के अपनी संस्कृति की रक्षा के लिए, सीमा पर तैनात प्रहरी की तरह सदैव सावधान रहो। अपनी दृष्टि को व्यापक बनाने का का अभ्यास करो। महापुरुषों का वेदांत-सत्संग सुनो।
संत श्री आशाराम जी बापू के संत्संगों से संकलित
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 2, अंक 295
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