बाल्यावस्था वही उत्तम है जो निरर्थक क्रीडाओं एवं संगदोषवश व्यसन-वासनाओं की पूर्ति में भ्रष्ट न होकर विद्याध्ययन में सार्थक हो।
युवावस्था वही उत्तम है जिसकी शक्ति से सद्गुणों का विकास हो, सद्ज्ञान का सुंदर प्रकाश हो। सदाचरण की ही रक्षा हो और धर्मपथ में चलते हुए सत्यानंदघन प्रियतम (परमात्मा) की प्राप्ति ही लक्ष्य हो। जिसकी शक्ति से अशुभ कर्मों की ओर प्रेरित हुई इन्द्रियों का दमन हो, दुर्विकारों का शमन हो तथा विषयों का वमन हो और शुभ कर्मों के लिए ही सदा तत्पर मन हो। विषय-वासनाओं के पथ में चंचल हुए मन का निरोध हो, स्वेच्छाचारिता का विरोध हो।
वृद्धावस्था वही उत्तम है जिसमें सांसारिक पदार्थों के प्रति मोह-ममता का त्याग हो, केवल परमात्मा में ही अटल अनुराग हो। अपनी ऐहिक सुख भोगों की तृष्णा पर क्रोध हो, बहिर्वृत्तियों का अवरोध हो और सत्य-असत्य का यथार्थ बोध हो।
बलवान वही उत्तम है जो निर्बलों, असहायों की मदद करने में शूर हो व जिससे आलस्य एवं भय सर्वथा दूर हो। संयम जिसके साथ में हो, इन्द्रियरूपी घोड़ों की मनरूपी लगाम जिसके हाथ में हो। इसके साथ ही जो बुद्धिमान हो व निरभिमान हो।
धनवान वही उत्तम है जो कृपण न होकर दानी हो, उदार हो और जिसके द्वारा धर्मपूर्वक न्याययुक्त व्यापार हो। जिसके द्वार पर अतिथि का समुचित सत्कार हो, दीन-दुःखियों का सदा उपकार हो। जिसके यहाँ विद्वानों एवं साधु-महात्माओं का सम्मान हो और जो स्वयं अति सरल और मतिमान हो।
बुद्धिमान वही उत्तम है जिसमें अपने माने हुए (मान्यता पर आधारित) ज्ञान से निराशा हो, यथार्थ सत्य (आत्मज्ञान) के प्रति सच्ची जिज्ञासा हो। सद्गुरुदेव के प्रति पूर्ण निर्भरता हो और उन्हीं के आज्ञापालन में सतत् तत्परता हो।
त्यागी वही उत्तम है जिसका मन भोग-वासनाओं से सदा वियुक्त (असंग) हो। जिसका अहं देहाभिमान से मुक्त हो। जिसमें किसी भी पदार्थ के प्रति अपनत्व न रहे। जो किसी को भी अपना न कहे। विचार की धारा में जिसकी आसक्ति, ममता बह जाय। जो नित्य है उसके सिवाय जहाँ अन्य कुछ भी न रह जाय।
प्रेमी वही उत्तम है जो आनंदघन प्रियतम में सदा योगस्थ (एकाकार) रहे और संसार-प्रपंच से सदा तटस्थ रहे। जहाँ प्रेमास्पद का स्वभावतः सतत ध्यान रहे, अपनी सुधबुध में उन्हीं का गुणगान रहे और प्रत्येक दशा में ‘वे ही एक अपने हैं’ केवल यही ध्यान रहे।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जुलाई 2017, पृष्ठ संख्या 21 अंक 295
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