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कितना ख्याल रखते हैं अंतर्यामी गुरुदेव !


एक साधिका बहन ने अपने जीवन में घटित एक प्रेरणादायी प्रसंग बतायाः

लगभग सन् 1980 की बात है। पूज्य बापू जी गंगा-किनारे एकांतवास हेतु अहमदाबाद से हरिद्वार जाने वाले थे। उससे एक दिन पहले पूज्य श्री ने मुझसे कहाः “बेटी ! अपनी माँ की अच्छी तरह से सेवा करना।” मुझे आश्चर्य हुआ कि ‘बापू जी ऐसा क्यों बोल रहे हैं !’

मैंने कहाः “बापू जी ! मैं तो अच्छे से सेवा करती हूँ। उनको जो चाहिए वह समय से देती हूँ।”

“फिर भी, मैं बोल रहा हूँ न, अच्छे से सेवा करना।”

“जी।”

दूसरे दिन सुबह पूज्य श्री हरिद्वार चले गये।

लगभग 10 दिन बाद की बात है। एक दिन मैं सुबह 4 बजे जप कर रही थी तो बार-बार मेरे हाथ से माला गिर जाती थी। मुझे आभास हुआ कि आज कुछ घटना घटने वाली है।

माँ सो रही थी, जाकर देखा तो पेट फूला था। माँ बोलीः ‘मेरा दम घुट रहा है, पेट में तकलीफ हो रही है।” डॉक्टर को बुलाया, ऑक्सीजन लगायी, दवाएँ दीं पर 8-9 दिन बाद मेरी माँ चल बसी। तब मुझे बापू जी के हरिद्वार जाने से पहले कहे हुए वचनों का रहस्य समझ में आया।

मैं माँ के देहावसान के कारण बहुत शोकमग्न होकर रोती रही। जब मैं माँ के शव पर डालने के लिए चादर लेने अपने कमरे में गयी तो मुझे आवाज सुनाई दीः “तू किसलिए रो रही है ? माँ के लिए रो रही है कि माँ की दी हुई सुख-सुविधाओं के लिए रो रही है ?”

मैं आवाज पहचान गयी कि ‘यह विवेक-वैराग्यप्रद वाणी तो मेरे पूज्य गुरुदेव की है और पूज्य श्री के श्रीचित्र से आ रही है !’

मैंने बापू जी के श्रीचित्र की ओर देखा तो मुझे ऐसा लगा मानो तस्वीर नहीं साक्षात् बापू जी बात कर रहे हैं। कुछ देर के लिए मैं शांत हो गयी और विचार करने लगी कि ‘बात तो सही है ! मैं अपनी माँ से मिलने वाली सुख-सुविधाओं के लिए रो रही हूँ। ‘मेरी माँ नहीं रही, अब मेरा ख्याल कौन रखेगा ?….’ इस प्रकार सोच कर रो रही हूँ।’

मेरा शोक थोड़ा शांत हुआ।

उसी दिन की बात है। उधर हरिद्वार में पूज्य श्री बिरला घाट पर बैठे थे। पूज्य श्री ने वहाँ बैठे भक्तों से मेरे बारे में पूछा तो एक महिला ने खड़े होकर कहाः “जी बापू जी ! मैं उसे जानती हूँ। मैंने उसका घर भी देखा है।”

पूज्य श्री ने उन बहन को सत्संग की एक पुस्तक दी और कहाः “वह बहुत रो रही है, तुम जाओ और यह पुस्तक उसे दो।” बापू जी ने यह भी समझाने के लिए कहा कि “किसी की मौत हो जाय तो शोक न मनाकर उसकी सद्गति के लिए उसे मन ही मन कहना चाहिए कि हे चैतन्यस्वरूप आत्मा ! शरीर को त्यागने के बाद भी  आपका अस्तित्व है। मरणधर्मा शरीर में होते हुए भी आप अमर थे। शरीर के मरने पर भी आप नहीं मरे। देह नश्वर है, आप शाश्वत हो। अब पार्थिव शरीर की प्रीति से मुक्त होकर अपने अपार्थिव आत्मा को जानने का प्रयत्न करो।”

वह महिला मेरे घर आयी, सारी बात बतायी और कहाः “यह पुस्तक बापू जी ने आपको देने के लिए कहा था। साथ में ऐसा-ऐसा चिंतन करने के लिए भी कहा है।”

मैं तो आश्चर्य के सागर में डूब गयी कि ‘बापू जी को उसी दिन कैसे पता चला कि मेरी माँ का शरीर शाँत हो गया है !’

उस समय मोबाइल आदि नहीं थे, फोन की सुविधा भी सुलभ नहीं थी। चिट्ठियाँ लिखते थे लोग। और बापू जी तक मैंने या किसी ने कोई खबर भी नहीं भेजी थी।

भाव और प्रेम के कारण मेरी आँखों से प्रेमाश्रु बहने लगे, हृदय भर आया कि ‘बाहर से इतने दूर होते हुए भी कितने पास हैं, कितने अंतर्यामी हैं मेरे गुरुदेव ! हम भक्तों का कितना ख्याल रखते हैं गुरुवर !’

मैंने अपने जीवन में इसका प्रत्यक्ष एवं कई बार अनुभव किया है कि जब शिष्य श्रद्धा-भक्तिपूर्वक अपने गुरुदेव को पुकारता है तो उसके निखालिस हृदय से निकली प्रार्थना गुरुदेव अवश्य सुनते हैं और सत्प्रेरणा देकर या अन्य किसी भी माध्यम से उसकी मदद करते हैं।

और एक दिन में ही हड्डी जुड़ गयी !

एक दिन मेरा पैर फिसल गया, जिससे मेरे एक पैर के पंजे की हड्डी टूट गयी थी। मैंने खूब उपचार किये पर दर्द कम न हुआ। दर्द के कारण मैं चल-फिर नहीं पा रही थी इसलिए सत्संग-दर्शन के लिए भी आश्रम नहीं जा सकी। एक दिन गुरुदेव को किसी ने बताया कि मेरे पैर की हड्डी टूट गयी है।

पूज्य श्री बोलेः “उसको बोलना कि जहाँ हड्डी टूटी है वहाँ पर स्वमूत्र से मालिश करे, सब ठीक हो जायेगा।”

श्रद्धापूर्वक गुरुदेव की आज्ञा मानी तो तीन दिन से दवा लेने के बावजूद भी जो दर्द ठीक नहीं हो रहा था वह केवल दो बार मालिश करने से एक दिन में ही गायब हो गया ! बिना पट्टा-पट्टी बाँधे हड्डी भी ठीक हो गयी ! दूसरे दिन तो मैं चलकर सत्संग के लिए आश्रम पहुँच गयी।

गुरुदेव हमें कुछ उपचार या लौकिक उपाय बताते हैं तो वह तो केवल निमित्तमात्र होता है, मुख्य तो गुरुदेव के हृदय से निकला शिष्य की भलाई का संकल्प होता है। शिष्य की गुरुवचनों में अडिग श्रद्धा हो तो बड़ी-से-बड़ी कठिनाइयों से भी वह सहज में ही पार हो जाता है।

बापू जी ने मेरे पिता जी को दिया था नया जीवन

अहमदाबाद की मेनका चंदनानी जी, जिनको सन 1974 से पूज्य बापू जी के श्रीचरणों में प्रत्यक्ष सत्संग-श्रवण का सौभाग्य मिला, वे पूज्य श्री के सत्संग-सान्निध्य की महिमा से ओतप्रोत एक अनुभव बताती हैं-

मेरे पिता जी एक मिल में मैनेजर थे। वे धार्मिक तो थे पर संतों पर विश्वास नहीं करते थे। सत्संग में खुद भी नहीं जाते थे और हमको भी नहीं जाने देते थे।

1981 में उनको गले का कैंसर हो गया। डॉक्टरों ने बोलाः “इन्हें टाटा हॉस्पिटल (मुंबई) ले जाओ।” मेरे चाचा जी की बापू जी के प्रति बड़ी श्रद्धा थी। वे पिता जी से बोलेः “आपको कहाँ ले चलें, अस्पताल या बापू जी के पास ?”

पिता जी बोलेः “चलो, एक बार बापू जी के पास ले चलो।” यह सुनकर हमको आश्चर्य हुआ कि ‘संतों में श्रद्धा न रखने वाले पिता जी ऐसा बोले !’

चाचा जी पिता जी को पूज्य श्री के पास ले गये और प्रार्थना की तो बापू जी ने उनकी सारी जाँच रिपोर्ट लेकर अपने पास रख लीं और बोलेः “तुझे डॉक्टर के पास जाना है या यहाँ पर ठीक होना है ?”

पिता जी ने कहाः “साँईं जी ! आपसे ही ठीक होना है।”

पूज्य श्री बोलेः “ठीक है, फिर इधर आते रहना, सत्संग सुनते रहना और चिंता छोड़ देना, सब ठीक हो जायेगा।” सबको आश्चर्य हुआ कि ‘केवल सत्संग-श्रवण से व्यक्ति कैसे ठीक होगा !’

पिता जी नियमित रूप से आश्रम में आकर सत्संग सुनने लगे। सत्संग सुनने मात्र से उनकी चिंता दूर हो गयी। बापू जी उनको सांत्वना देते, धैर्य बँधाते, आत्मबल भरते, प्रसाद देते। सत्संग में आने से धीरे-धीरे कैंसर का वह फोड़ा 2-3 माह में ठीक होता गया।

बापू जी रोज मेरे पिता जी को प्रसाद देते थे। एक बार एक ऐसा सेवफल दिया जिस पर थोड़ा-सा काला दाग था। पूज्य श्री वह देते हुए बोलेः “इस सेवफल पर जितना दाग है उतना ही तेरा रोग रह गया है। अब इतना डॉक्टर से ठीक करा ले।”

तब तक पिता जी का श्रद्धा-विश्वास पक्का हो गया था, बोलेः “बापू जी ! अभी मुझे किसी डॉक्टर के पास नहीं जाना, अब आप ही मेरे डॉक्टर हैं। मुझे आप से ही ठीक होना है।”

“लेकिन मैं बोलता हूँ, तू अभी डॉक्टर के पास जा और थोड़ी-सी पट्टी करा ले।” आज्ञा मानकर पिता जी ने केवल एक बार ड्रेसिंग (मरहम-पट्टी) करवायी और कुछ ही दिनों में घाव पूरी तरह ठीक हो गया।

एक दिन पूज्य श्री ने वे ही जाँच रिपोर्टें पिता जी को वापस कीं और बोलेः “ये ले जा और उसी डॉक्टर को दिखा।” डॉक्टर को रिपोर्टें दिखायीं तो वह दंग रह गया कि ‘उस समय रिपोर्टों में कैंसर था पर अभी कहाँ गायब हो गया !’

फिर तो मेरे पिता जी को पूज्य श्री के सत्संग का गहरा रंग लग गया था। इस तरह बापू जी ने मेरे पिता जी को नया जीवन दिया था।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2017, पृष्ठ संख्या 14-16 अंक 296

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अमरदास जी ने पाया अमर पद – पूज्य बापू जी


(गुरु अमरदास जी पुण्यतिथिः 6 सितम्बर)

सिख धर्म के आदिगुरु नानकदेव जी के बाद उनकी गद्दी पर बैठे थे गुरु अंगद देव। अंगददेव जी की बेटी बीबी अमरो की शादी जिसके साथ हुई थी, उसके चाचा का नाम था अमरदास। अमरदास भगवान को तो मानते थे, हर साल तीर्थयात्रा करते और गंगा में नहाने भी जाते थे लेकिन उन्हें सदगुरु की दीक्षा नहीं मिली थी। 21 बार गंगा-स्नान किये। बड़ी उम्र के तो हो गये लेकिन बड़े-में-बड़ी समझ देने वाले किसी सदगुरु के नहीं हो पाये थे।

एक बार अमरदास की मुलाकात गंगा-स्नान की यात्रा के दौरान एक पंडित से हो गयी।

अमरदास उन्हें अपने घर में ले आये और भोजन करने के लिए कहा।

पंडित ने पूछाः “तुम्हारे गुरु कौन हैं, सदगुरु कौन हैं ?”

अमरदासः “मेरी गुरु तो गंगामाई है।”

“यह तो ठीक है लेकिन तुम्हारे सदगुरु कौन हैं ?”

“सदगुरु….?”

पंडितः “ऐसे महापुरुष जिनको सत्य का अनुभव हुआ हो, जो अंतर्यामीरूप से हमारी योग्यता जानकर हमें मंत्र दे देते हैं, उनको सदगुरु बोलते हैं। कोई मनुष्य सीधा नरक से आता है, कोई सीधा पशुयोनि से तो कोई सीधा स्वर्ग से आता है। अपने विषय में मनमानी साधना करेंगे तो मन कभी इधर ले जायेगा, कभी उधर ले जायेगा। जैसे विद्यार्थी की योग्यता देखकर शिक्षक ठीक ढंग से पढ़ाता है और विद्यार्थी तत्परता रखता है तो विद्वान हो जाता है, ऐसे ही शिष्य की योग्यता कौन से ढंग की है यह अनुभव करने  वाले सदगुरु मंत्रदीक्षा देते हैं और शिष्य आज्ञापालक है तो वह शिष्य सत्शिष्य होकर सत्य का अनुभव कर लेता है। तुमने अपने जीवन में सदगुरु नहीं किये ? तुम्हारे पास किन्हीं सदगुरु का मंत्र नहीं है क्या ?”

बोलेः “ये सब तो मेरे को पता नहीं था।”

पंडितः “अरे ! मेरे को पहले बताते तो तुम्हारे घर ठहरता ही नहीं।”

पंडित ने अपना झोली-डंडा लपेटा और चलता बना लेकिन अमरदास को मानो वह एक तीर मार गया। उन्होंने गुरु की खोज शुरु कर दी। वे गंगामाई को पुकारते कि ‘माँ ! मेरा अगर एक भी स्नान स्वीकार किया हो तो तू ही बता मैं किसको गुरु करूँ, कहाँ जाऊँ ?”

समय बीता। एक बार बीबी अमरो ‘जपु जी साहिब’ का पाठ कर रही थी। वह तो रोज पाठ करती थी लेकिन उस दिन उसका पाठ असर कर गया। अमरदास बीबी अमरो के चरणों में जा बैठे, मानो वहाँ परमात्मा की कोई व्यवस्था काम कर रही थी। जो बीज विकसित होने को होता है उसको पृथ्वी भी मदद करती है, जल भी मदद करता है, हवाएँ, वातावरण, खाद – सभी मदद करते हैं लेकिन जो बीज सेंका हुआ है उसको जलवायु, हवाएँ, तेज क्या मदद करेंगे ? ऐसे ही जो योग्य है उस व्यक्ति को प्रकृति भी मदद करती है। अमरदास ने भजन किया था तो मदद हो गयी, प्रेरणा मिल गयी। ‘जपु जी साहिब’ के पाठ को सुनकर अमरदास जी का रोआँ-रोआँ जागृत हो गया।

उन्होंने बीबी अमरो को कहाः “अंगददेव जी गुरु हैं, तेरे पिता हैं। तुम मेरे लिए उनसे थोड़ी सिफारिश कर दो, मुझे अपना सिख (शिष्य) बना लें, सीख दे दें रब को पाने की।”

बीबी अमरो ने कहाः “वे मेरे पिता थे जब तक वे गुरुगद्दी पर नहीं बैठे थे, अभी वे मेरे पिता नहीं हैं, गुरु जी हैं। मैं प्रार्थना कर सकती हूँ लेकिन पुत्री की नाईं आग्रह नहीं कर सकती हूँ। आप-हम उनके पास चलते हैं, अगर प्रार्थना स्वीकार हो जायेगी तो आपको दीक्षा मिल जायेगी।”

गुरु अंगददेव जी ने अमरदास की योग्यता के अनुसार उनको साधना बता दी। अमरदास जी को अमर पद की प्राप्ति थोड़े समय में ही हो गयी। 62 साल की उम्र में दीक्षा ली और ऐसे योग्य हो गये कि गुरु अंगददेव जी ने उनसे कहाः “अब तो गुरुनानक देव की इस पवित्र गद्दी को सँभालने के लिए आप जैसा कोई पुरुष नहीं है।” गुरु अंगददेव जी ने अमरदास जी को गद्दी सौंपी। गुरु नानक जी की गद्दी पर तीसरे गुरु अमरदास जी हुए।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2017, पृष्ठ संख्या 12, 13 अंक 296

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