सेतुबंध रामेश्वर की स्थापना करने के लिए हनुमान जी को काशी से शिवलिंग लाने हेतु भेजा गया। हनुमान जी को लौटने में थोड़ी देर हो गयी।
इधर मुहूर्त बीता जा रहा था अतः राम जी ने बालू का शिवलिंग बना के स्थापित कर दिया। थोड़ी ही देर में हनुमान जी शिवलिंग लेकर पहुँच गये किंयु देरी हो जाने की वजह से उनके द्वारा लाये गये शिवलिंग की स्थापना नहीं हो सकी, अतः उन्हें दुःख हुआ। दुःख क्यों हुआ ? क्योंकि कर्ता अभी मौजूद है… सेवा करने वाला मौजूद है।
दयालु राम जी को पता चला तो वे बोलेः “हनुमान ! सेवक का कर्तव्य है कि तत्परता और कुशलता से सेवा कर ले। फिर स्वामी ने सेवा को स्वीकार किया या नहीं किया, इस बात का सेवक को दुःख नहीं होना चाहिए।
हे अंजनिसुत ! तुम्हें संतों की शरण में जाना चाहिए और अपना आपा पहचानना चाहिए। जब तक तुम अपना शुद्ध-बुद्ध स्वरूप नहीं जानोगे, तब तक सुख-दुःख के थप्पड़ इस मायावी व्यवहार में लगते ही रहेंगे। तुम्हें सावधान होकर ब्रह्वेत्ता संतों का सत्संग सुनना चाहिए। कर्म का कर्ता कौन है ? कर्म किसमें हो रहे हैं ? सफलता-विफलता किसमें होती है ? सुख-दुःख का जिस पर प्रभाव होता है, उसका और तुम्हारा क्या संबंध है ? इस रहस्य को तुम्हें समझना चाहिए।
हे केसरीनंदन ! जीव का वास्तविक स्वरूप अचल, निरंजन, निर्विकार, सुखस्वरूप है लेकिन जब तक वह अपने अहं को, अपने क्षुद्र जीवत्व को नहीं छोड़ता और पूर्णरूप से ब्रह्मवेत्ताओं की बिनशर्ती शरणागति स्वीकार नहीं करता, तब तक वह कई ऊँचाइयों को छूकर पुनः उतार चढ़ाव के झोंकों में ही बहता रहता है। जहाँ से कोई ऊँचाई और अधिक ऊँचा न ले जा सके एवं कोई नीचाई नीचे न गिरा सके उस परम पद को पाने के लिए तुम्हें अवश्य यत्न करना चाहिए। तुम्हें संतों का संग करके अपना चित्त के साथ का जो संबंध है उसका विच्छेद करना चाहिए। जिस पर सुख-दुःख, लाभ-हानि, मान-अपमान आदि का असर होता है उस अपने चित्-संवित् से तदाकारता हटाकर जब तुम अपने स्वरूप को जानोगे तब प्रलयकाल का मेघ भी तुम्हें विचलित नहीं कर सकेगा।
राग और द्वेष मति में होते हैं, सुख-दुःख की वृत्ति मन में होती है, गर्मी-सर्दी तन को लगती है – इन सबको जो सत्ता देता है, जो रोम-रोम में रम रहा है उस राम का आश्रय लो और उसी चैतन्य राम में प्रीति करो तब तुम जीवन्मुक्त हो जाओगे।”
राम जी की ज्ञानसंयुक्त वाणी सुन के हनुमान जी राम जी के चरणों में नतमस्तक हो गये और क्षमा-प्रार्थना करने लगेः “हे कृपानिधान ! मेरा अपराध क्षमा करें।”
हनुमान जी ने राम जी के संकेतानुसार अंतर्यामी, सर्वव्यापी, चैतन्यस्वरूप राम-तत्त्व का ज्ञान हृदय में धारण किया और उसके अभ्यास की तरफ बढ़ने लगे।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2018, पृष्ठ संख्या 23, अंक 302
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