Monthly Archives: March 2018

भगवान व संतों का अवतरण भारत में ही बारंबार क्यों ?


  • पूज्य बापू जी

यह प्रकृति का विधान है कि जिसे जिस समय जिस वस्तु की अत्यंत आवश्यकता होती है उसे पूरी करने वाला उसके पास पहुँच जाता है अथवा तो मनुष्य स्वयं ही वहाँ पहुँच जाता है जहाँ उसकी आवश्यकता पूरी होने वाली है।

मुझसे ‘विश्व धर्म संसद, शिकागो’ में पत्रकारों ने पूछाः “भारत में ही भगवान के अवतार क्यों होते हैं ? हिन्दुस्तान में ही भगवान जन्म क्यों लेते हैं ? जब सारी सृष्टि भगवान की है तो आपके भगवान ने यूरोप या अमेरिका में अवतार क्यों नहीं लिया ? आद्य शंकराचार्य जी, गुरु नानक जी, संत कबीर जी, स्वामी रामतीर्थ जी जैसे महापुरुषों की श्रृंखला इन देशों में क्यों नहीं है ?”

मैंने उनसे पूछाः “जहाँ हरियाली होती है वहाँ वर्षा क्यों होती है और जहाँ वर्षा होती है वहाँ हरियाली क्यों होती है ?”

उन्होंने जवाब दियाः “बापू जी ! यह तो प्राकृतिक विधान है।”

तब मैंने कहाः “हमारे देश में अनादि काल से ही ब्रह्मविद्या और भक्ति का प्रचार हुआ है। इससे वहाँ भक्त पैदा होते रहे। जहाँ भक्त हुए वहाँ भगवान की माँग हुई तो भगवान व संत आये और जहाँ भगवान व संत आये वहाँ भक्तों की भक्ति और भी पुष्ट हुई। अतः जैसे जहाँ हरियाली वहाँ वर्षा और जहाँ वर्षा वहाँ हरियाली होती है वैसे ही हमारे देश में भक्तिरूपी हरियाली है इसलिए भगवान और संत भी बरसने के लिए बार-बार आते हैं।”

मैं दुनिया के अनेक देशों में घूमा, कई जगह प्रवचन भी किये परंतु भारत जितनी तादाद में तथा शांति से किसी दूसरे देश के लोग सत्संग सुन पाये हों ऐसा आज तक मैंने किसी भी देश में नहीं देखा। फिर चाहे ‘विश्व धर्म संसद’ ही क्यों न हो। जिसमें विश्वभर के वक्ता आयें वहाँ बोलने वाला 600 और सुनने वाले 1500 ! भारत में हर रोज़ सत्संग के महाकुम्भ लगते रहते हैं। भारत में आज भी लाखों की संख्या में हरिकथा के रसिक हैं। घरों में गीता एवं रामायण का पाठ होता है। भगवत्प्रेमी संतों के सत्संग में जा के उनसे ज्ञान-ध्यान प्राप्त कर श्रद्धालु अपना जीवन धन्य कर लेते हैं। अतः जहाँ-जहाँ भक्त और भगवत्कथा-प्रेमी होते हैं वहाँ-वहाँ भगवान और संतों का प्राकट्य भी होता ही रहता है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 9 अंक 303

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बंधन बनाओ या मोक्ष, तुम स्वतंत्र हो


-स्वामी अखंडानंद जी सरस्वती

यह संसार क्या है ? स्वर्ग कि नरक ? सुख कि दुःख ? अरे, यह न नरक है न स्वर्ग। यह तो साक्षात् ब्रह्म है। तुम अपनी दृष्टि से इसे नरक बना के रो सकते हो और अपनी दृष्टि से इसे स्वर्ग बनाकर हँस सकते हो। दोनों से उदासीन होकर तुम आनंद में, मौज में रह सकते हो। यह मन ही सुख-दुःख का कारण हैः

मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।

बन्धाय विषयासक्तं मुक्तयै निर्विषयं स्मृतम्।। (शाट्यायनीयोपनिषद् 1)

बंधन का कारण मन है, मोक्ष का कारण भी मन है। जिसका मन विषयों में आसक्त है उसके लिए यह मन बंधन का हेतु है और तुम विषयों से आसक्ति नहीं करो तो मुक्त हो। मुक्ति कोई अपने दिल में रखने की चीज़ नहीं है। यह मुक्ति अपने स्वरूप में नहीं है, न बंधन अपने स्वरूप में है। बंधन और मोक्ष मन में ही हैं।

क्या तुम बंधन को निमंत्रण देते हो कि ‘हे बंधन ! तुम आओ, हमारे दिल में रहो ‘? मोक्ष को न्योता देते हो कि ‘हे मोक्ष ! तुम आओ, हमारे घर में रहो’ ?

तुम अपने घर में गाय पालो कि कुत्ता पालो, इसमें स्वतंत्र हो। ऐसी ही कुत्ते की जगह पर बंधन को समझो और गाय की जगह पर मोक्ष को समझो। ये दोनों पाले हुए हैं। इसमें भी स्वतंत्र हो और दोनों को न पालें तो ? उसमें भी तुम स्वंतंत्र हो।

तुम्हारा स्वरूप न गाय है न कुत्ता है। दोनों के बिना तुम रह सकते हो। यह मनुष्य अविवेक के कारण ही सुखी-दुःखी हो रहा है। अरे ! 20 वर्ष की जिंदगी हो तो भी वह जिंदगी होती है। उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। 20 वर्ष में भी अनुभव होते हैं। आप यह नहीं समझना कि नहीं होते हैं।

सांसारिक प्रेम ऐसा ही होता है

मैं 9  वर्ष का था तब रिश्तेदार के मित्र के घर ब्याह में गया था। वहाँ एक सज्जन मिले। दो तीन घंटे में ऐसा प्रेम किया, ऐसा उन्होंने खिलाया-पिलाया, ऐसा फुसलाया कि हम तो समझने लगे कि ‘इनसे बढ़कर हमारा कोई प्रेमी नहीं है।’ घर के लोग तो डाँटते थे कि ‘यह तुमने क्या किया, यह नहीं किया, स्कूल में नहीं गया….’ तो हमको लगने लगा कि ‘घर के लोगों को हमसे प्रेम नहीं है। प्रेम है तो हमसे इन्हीं का है।’

मैं 16 वर्ष का हो गया। इन 7 वर्षों में मिलने का मौका नहीं मिला। मन में यह था कि ‘ये हमारे बहुत प्रेमी हैं।’ फिर गया उनके पास, उन्होंने तो मुझे पहचाना ही नहीं।

ये प्रेमी लोग तो ऐसे बदलते हैं  जैसे छाया दिनभर में आगे-पीछे होती है न ! सवेरे पश्चिम की ओर हैं तो शाम को पूर्व की ओर हो जाती है, दुनिया के प्रेमी लोग भी ऐसे ही बदलते हैं। किसी के मन में स्थिरता कहाँ है ?

मैं जब लगभग 17 वर्ष का था तो घर से भागकर एक महात्मा के पास चला गया। एक महीना उनके पास रहा। जब मैं माला लेकर भजन करने बैठता तो ध्यान में मेरी माता जी आँखों से टपाटप आँसू गिराती हुई सामने आ जातीं। बोलतीं- “बेटा ! हम तुम्हारे लिए बड़े दुःखी हैं। जल्दी घर आ जाओ।”

पत्नी भी सामने आती। हमको लगता, ‘अरे ! बड़ा प्रेम होगा, लोग हमारे लिए रोते हैं।’

मैं महात्मा जी से आज्ञा लेकर चलने लगा तो उन्होंने कहाः “देखो, वहाँ तुम्हारे लिए कोई दुःखी नहीं है। यह विघ्न ही है जो तुम्हें भजन से अलग कर रहा है।”

लेकिन मैं लौट गया घर। गया तो घर के लोग खूब खुश थे। मालूम हुआ कि माता जी भी नहीं रोती थीं, पत्नी भी नहीं रोती थी। घर में किसी को किसी से प्रेम नहीं है। अपने मन में ही यह कल्पना होती है कि ‘ये हमारे बड़े प्रेमी हैं।’

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 22,23 अंक 303

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….फिर आपकी बुद्धिरूपी कौसल्या के यहाँ राम प्रकटेंगे


-पूज्य बापू जी

(श्रीरामनवमीः 25 मार्च 2018)

दशरथ व कौसल्या के घर राम प्रकट हुए।

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी।

कोसल देश की वह कौसल्या…. अर्थात् योगः कर्मसु कौशलम्। कुशलता पूर्वक कर्मवाली मति कौसल्या हो जायेगी और कौसल्या के यहाँ प्रकटेंगे दीनदयाला। इस कुशल मति का हित करने वाले सच्चिदानंद राम प्रकट होंगे। दस इन्द्रियों में रमण करने वाले जीव दशरथ हैं। दशरथ को रामराज्य की इच्छा हुई कि ‘अब बाल पक गये हैं…. कितना भी देखा, सुना, भोगा लेकिन आखिर क्या ?…. अब राम राज्य हो।’ दशरथ चाहते हैं रामराज्य। दस इन्द्रियों में रत रहने वाला जीव विश्रांति चाहता है वृद्धावस्था में, सुख शांति चाहता है, झंझटों से उपरामता चाहता है।

रामराज्य की तैयारियाँ हो रही हैं, राज्याभिषेक की शहनाइयाँ बज रही हैं, मंगल गीत गाये जा रहे हैं लेकिन दस इन्द्रियों में रत जीव की रामराज्य की तैयारियाँ होते-होते यह दशरथ कैकयी के कहे सुने मं आ जाता है अर्थात् कामनाओं के जाल में फँस जाता है। रामराज्य की जगह राम-बनवास हो जाता है। तड़प-तड़पकर यह दशरथ संसार से विदाई लेता है। यह दशरथ का जीवन, कौसल्या का जीवन आपके जीवन से जुड़ा है, राम का अवतरण आपके अंतर्यामी राम से जुड़ा है। राम करें कि आपको राम का पता चल जाय।

रमन्ते योगिनः यस्मिन् स रामः।

जिनमें योगी लोगों का मन रमण करता है वे हैं रोम-रोम में बसने वाले अंतरात्मा राम। वे कहाँ प्रकट होते हैं ? कौसल्य् की गोद में, लेकिन कैसे प्रकट होते हैं कि दशरथ यज्ञ करते हैं अर्थात् साधन, पुण्यकर्म करते हैं और उस साधन पुण्य, साधन यज्ञ से उत्पन्न वह हवि बुद्धिरूपी कौसल्या लेती है और उसमें सच्चिदानंद राम का प्राकट्य होता है। आपकी मतिरूपी कौसल्या के स्वभाव में राम प्रकट हों। वे राम कैसे दीनदयालु हैं ? ब्रह्मांडों में व्याप्त सच्चिदानंद नररूप में लीला करते हैं।

नराणामयनं यस्मात्तेन नारायणः स्मृतः। (वायु पुराणः 5.38)

नर-नारियों के समूह में जो सच्चिदानंद परमात्मा व्याप रहा है उसे ‘नारायण’ कहते हैं। रोम-रोम में रम रहा है इसलिए उसे ‘राम’ भी कहते हैं।

अर्जुन ने श्रीकृष्ण से प्रश्न किया था कि ‘प्रभु ! आपमें प्रीति कैसे हो और आपको हम कैसे जानें ?’ तब भगवान ने करूणा करके कहाः

एतां विभूतिं योग च मम यो वेत्ति तत्त्वतः।

सोऽविकम्पेन योगेन युज्यते नात्र संशयः।। (गीताः 10.7)

जो मनुष्य मेरी इस विभूति (भगवान का ऐश्वर्य) को और योग (अनंत, अलौकिक सामर्थ्य) को तत्त्व से जानता है अर्थात् दृढ़ता से स्वीकार कर लेता है वह अविचल भक्तियोग से युक्त हो जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है।

एक तो भगवान की विभूति और दूसरा भगवान का योग – इन दोनों को इस व्यापक, साकार संसार में निहारने का नजरिया आ जाय। सही नजरिया खो जाता है तो जीव आसुरी वृत्ति का आश्रय लेता है। कहता हैः ‘कुछ भी करो, सुखी हो जाओ। कुछ भी बोलो, सुखी हो जाओ। कुछ भी खाओ, सुखी हो जाओ।….’ अंत में बेचारा दुःखी हो जाता है। वही बोलो जो बोलना चाहिए, वही सोचो जो सोचना चाहिए, वही करो जो करना चाहिए, वही पाओ जिसे पाने के बाद कुछ पाना बाकी  नहीं रहता।

जो बिछड़े हैं प्यारे से,

दर बदर भटकते फिरते हैं।

उस प्यारे रोम-रोम में रमने वाले सच्चिदानंद से जो बिछुड़े हैं वे सोचते हैं, ‘यहाँ जाऊँ तो सुखी हो जाऊँ, यूरोप जाऊँ तो सुखी हो जाऊँ…..’ लाला ! तू एक ऐसी जगह जा कि जहाँ जाने के बाद तेरी दृष्टि ही लोगों को सुखी कर दे। ऐसा है तेरा सच्चिदानंद रामस्वरूप ! तू उसमें जा। उसमें जाने की बुद्धि ले आ। कैसे मिलेगी ? योगः कर्मुस कौशलम्। कर्म करने में कुशलता रखने से। कैसा कर्म ? स्वाद के लिए कर्म नहीं अपितु शाश्वत सुख के लिए कर्म हो तो आपका योग कुशलतापूर्वक हो जायेगा और फिर आपकी बुद्धिरूपी कौसल्या के यहाँ राम प्रकटेंगे।

बच्चा है न, उसके सामने लॉलीपॉप, चॉकलेट, बिस्कुट, हीरे-मोती, जवाहरात रख दो तो वह क्या करेगा ? हीरे-मोती, जवाहरात छू के छोड़ देगा और लॉलीपॉप, चॉकलेट जल्दी सुख का आभास देने वाले हैं, जल्दी ललक पैदा करने वाले हैं उनमें फँसेगा क्योंकि बुद्धि अकुशल है। वही बच्चा जब बड़ा हो जाता है तब उसके आगे, तुम्हारे आगे मैं हीरे जवाहरात रख दूँ और लॉलीपॉप, चॉकलेट रख दूँ तो तुम क्या उठाओगे मुझे पता है। आपकी जैसे इस जगत में बुद्धि कुशल हुई, वैसे इस जगत की गहराई में आत्मिक जगत है, उसका ज्ञान पाने में बुद्धि का कुशल हो जाना मनुष्य-जीवन का लक्ष्य है।

तीन जगत हैं। एक यह जो आँखों से दिखता है, इसे स्थूल जगत कहते हैं। दूसरा वह है जो इन आँखों और इन्द्रियों से नहीं दिखता फिर भी उसकी सत्ता के बिना यह शरीर और इन्द्रियाँ चल नहीं सकतीं। वह दिव्य जगत है। तीसरा होता है तात्त्विक जगत। यह सर्वोपरि सत्ता है जिससे स्थूल और दिव्य दोनों जगत संचालित होते हैं। आपके कर्मों में कुशलता आयेगी तो आप लौकिक कर्म करते हुए भी दिव्य जगत और फिर तात्त्विक जगत में प्रवेश पा लोगे।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2018, पृष्ठ संख्या 12 अंक 303

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