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भारी कुप्रचार में भी डटे रहे संत टेऊँराम जी के साधक


(संत टेऊँराम जयंतीः 18 जुलाई 2018)

सिंध प्रांत में एक महान संत हो गये – साँईं संत टेऊँराम जी। ये दृष्टिमात्र से लोगों में शांति व आनंद का संचार कर देते थे। इनका सान्निध्य पाकर लोग खुशहाल रहते थे। (ब्रह्मज्ञानी संत की कृपादृष्टि व सान्निध्य से कैसी अनुभूतियाँ होती हैं यह पूज्य बापू जी के असंख्य साधक जानते हैं।)

इनके सत्संग में मात्र बड़े बुजुर्ग ही नहीं बल्कि युवक-युवतियाँ भी आते थे। इनकी बढ़ती प्रसिद्धि व इनके प्रति लोगों के प्रेम को देखकर कुछ मलिन मुरादवालों ने इनका कुप्रचार शुरु किया। कुप्रचार ने आखिर इतना जोर पकड़ा कि पंचायत में एक प्रस्ताव पास किया गया कि ‘टेऊँराम जी के आश्रम में जो जायेंगे उनको जुर्माना भरना पड़ेगा।’

कुछ कमजोर मन को लोगों ने अपने बेटे-बेटियों को टेऊँराम जी के पास जाने से रोका। कोई-कोई अविवेकी तो रुक गया लेकिन जिनको महापुरुष की कृपा का महत्व ठीक से समझ में आ गया था वे विवेकी बहादुर नहीं रुके बल्कि उन्होंने सहमे हुओं को एवं अन्य नये लोगों को संत के आश्रम में ले जाने का नियम ले लिया। उनकी अंतरात्मा मानो कह रही थी कि

हमें रोक सके ये जमाने में दम नहीं।

हमसे जमाना है जमाने से हम नहीं।।

ईश्वरप्राप्ति के पथ के पथिक ऐसे ही वीर होते हैं। उनके जीवन में चाहे हजार विघ्न-बाधाएँ आ जायें किंतु वे अपने लक्ष्य से च्युत नहीं होते। अनेक अफवाहें एवं निंदाजनक बातें सुनकर भी उनका हृदय गुरुभक्ति से विचलित नहीं होता।

अपने सदगुरु तोतापुरी महाराज में रामकृष्ण परमहंस जी की अडिग श्रद्धा थी। एक बार किसी ने कहाः “तोतापुरी जी फलानी महिला के घर बैठ के खा रहे हैं और उन्हें आपने गुरु बनाया ?”

रामकृष्ण जी बोलेः “अरे ! बकवास मत कर। मेरे गुरुदेव के प्रति एक भी अपशब्द कहा तो ठीक न होगा !”

“किंतु हम तो आपका भला चाहते हैं। आप तो माँ काली के साथ वार्तालाप करते थे, इतने महान होकर भी आपने तोतापुरी को गुरु माना ! थोड़ा तो विचार करें ! वे तो ऐसे ही हैं।”

रामकृष्ण जी बोल पड़ेः “मेरे गुरु कलालखाने (शराबखाने) जायें तो भी मेरे गुरु मेरे लिए तो साक्षात् नंदराय ही हैं।”

यह है सच्ची समझ ! ऐसे लोग तर जाते हैं, बाकी लोग भवसागर में डूबते उतराते रहते हैं।

… तो  वे साँईं टेऊँरामजी के प्यारे कैसे भी करके पहुँच जाते थे अपने गुरु के द्वार पर। माता-पिता को कहीं बाहर जाना होता तब ‘लड़के कहीं आश्रम में न चले जायें’ यह सोच के वे अपने बेटों को खटिया के पाये से बाँध देते और बाहर से ताला लगा के चले जाते। फिर वे सत्संग प्रेमी लड़के क्या करते ?…. खटिया को हिला डुलाकर जिस पाये से उनका हाथ बँधा होता उस पाये को उखाड़ के उसके साथ ही आश्रम पहुँच जाते।

कुप्रचारकों ने सोचा कि ‘अब क्या करें ?’ जब उन्होंने देखा कि हमारा या दाँव भी विफल जा रहा है तो उन्होंने टेऊँराम जी के भोजन, पानी व आवास को निशाना बनाया। उन्हें पानी देना बंद करवा दिया। टेऊँराम जी को पानी के लिए कुआँ खुदवाना पड़ा। दुष्ट लोग कभी कुएँ से उनकी पानी निकालने की घिरनी, रस्सी आदि तोड़ देते तो कभी उनका बना बनाया भोजन ही गायब करवा देते। उनके आवास को खाली कराने के लिए बार-बार नोटिसें भिजवायी गयीं। उन्हें जेल भिजवाने की धमकियाँ दी गयीं।

ऐसा कुप्रचार किया गया कि ‘ये संत नहीं हैं, नास्तिक हैं, स्वघोषित भगवान हैं।’ एक बार तो 50-60 दुर्जनों ने उनको लकड़ियों से  मारने का प्रयास किया। कैसी नीचता की पराकाष्ठा है ! कितना घोर अत्याचार ! टेऊँराम जी के कुप्रचार से जहाँ कमजोर मनवालों की श्रद्धा डगमगाती, वहीं सज्जनों और श्रद्धालुओं-भक्तों का प्रेम उनके प्रति बढ़ता जाता।

टेऊँराम जी अपने आश्रम में एक चबूतरे पर बैठ के सत्संग करते थे। उनके पास अन्य साधु-संत भी आते थे अतः वह चबूतरा छोटा पड़ता था। उनके भक्तों ने उस चबूतरे को बड़ा बनवा दिया। इससे उनके विरोधी ईर्ष्या से जल उठे और वहाँ के पटवारी द्वारा वह चबूतरा अनधिकृत घोषित करा दिया। उन संत के विरुद्ध मामला दर्ज करवा के आखिर चबूतरा तुड़वा दिया गया।

इस प्रकार कभी अफवाहें फैलाकर तो कभी कानूनी दाँव-पेचों में उलझा के  उन सर्वहितैषी संत को खूब सताया गया और ऐसा साबित किया गया कि मानो उन संत में ही दुनिया के सारे दोष हों। तब थोड़े समय के लिए भले ही दुर्जनों की चालें सफल होती दिखाई दीं पर वे दुष्ट लोग कौन-से नरकों व नीच योनियों में कष्ट पा रहे होंगे यह तो हम नहीं जानते लेकिन लोक-कल्याण पर समाजोत्थान में जीवन लगाने वाले उन महापुरुष के पावन यश का सौरभ आज भी चतुर्दिक् प्रसारित होकर अनेक दिलों को पावन कर रहा है – यह तो सभी को प्रत्यक्ष है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद जून 2018, पृष्ठ संख्या 11,12 अंक 306

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जीवनपथ को कल्याणमय बनाने के लिए


ऋग्वेद (मंडल 5, सूक्त 51, मंत्र 15) में आता हैः

स्वस्ति पन्थामनु चरेम सूर्याचन्द्रमसाविद। पुनर्ददताघ्नता जानता सङ्गमेमहि।।

हम लोग सूर्य और चन्द्रमा की तरह कल्याणमय, मंगलमय मार्गों पर चलें। ‘ददता’ अर्थात् लोगों को कुछ-न-कुछ हितकर देते हुए, बाँटते हुए चलें। ‘अघ्नता’ अर्थात् किसी का अहित न करते हुए, तन-मन-वचन से किसी को पीड़ा न पहुँचाते हुए चलें। ‘जानता’ अर्थात् जानते हुए चलें, गुरुज्ञान का – वेदांत ज्ञान का आश्रय लेते हुए चलें। दूसरों को समझते हुए चलें, अपने स्वरूप को समझते हुए आगे बढ़ें। हमेशा सजग रहें। ‘संङ्गमेमहि’ अर्थात् सबके साथ मिल के चलें, सबको साथ ले के चलें।

हम ‘सत्’ हैं अतः न मौत से डरें न डरायें, जियें और जीने में सहयोग दें। हम ‘चित्’ यानी चैतन्य हैं अतः न अज्ञानी बनें न बनायें, ज्ञान-सम्पन्न बनें और बनायें। और हमारा स्वरूप है ‘आनंद’ अतः हम दूसरों को दुःखी न करें और स्वयं दुःखी न हों, सुखी करें और  सुखी रहें।

वेद भगवान स्नेहभरा, हितभरा संदेश देते हैं- ‘सङ्गमेमहि….. हम मिलते हुए चलें। एक स्वर में बोलें। मतभेद नहीं पैदा करें। जहाँ तक हमारा मत दूसरों के मत के साथ मिल सकता हो वहाँ तक मिलाकर रखें और जब मतभेद हो जचायें तब जैसे आपको स्वतंत्र मत रखने का अधिकार है वैसे ही दूसरे को भी अपना स्वतंत्र मत रखने का अधिकार है। ऐसे में आप अपने मत के अनुसार चलो और दूसरों को उनके मत के अनुसार चलने दो। सब हमारे ही मत के अनुसार चलें यह विचारधारा बहुत तुच्छ, हलकी और गंदी है। यदि आपको कभी किसी में दोष दिखे तो उस दोष को आप जरा पचाने की क्षमता रखो और उसका हो सके उतना मंगल चाहो, करो।

हमारे हृदय में सबके प्रति निर्मल प्रेम हो। हम सभी की जानकारी लें और सँभाल रखें। हमारे द्वारा सबकी सेवा हो, हित हो और हम सबसे मिलते हुए आगे बढ़ते चलें। हम मंगलमय पथ पर नयी उमंग व कुशलता के साथ प्रसन्नचित्त होकर चलें और दूसरों को भी प्रसन्नता देते हुए चलें। जब हम स्वयं प्रसन्न रहेंगे तब दूसरों को भी प्रसन्नता दे सकेंगे और यदि हम स्वयं उदास, दुःखी या सुस्त रहेंगे तो दूसरों को प्रसन्नता कहाँ से देंगे ? अतः हमें हर परिस्थिति में सम और प्रसन्न रहना चाहिए।

वेद भगवान का उपरोक्त मंत्र सफलता-प्राप्ति हेतु भगवत्प्रसादस्वरूप है।

स्रोतः ऋषि प्रसाद जून 2018, पृष्ठ संख्या 2, अंक 306

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