गीता (3.9) में भगवान कहते है-
यज्ञार्थत्कर्मणओऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर।।
‘यज्ञ (परमेश्वर, कर्तव्य-पालन) के निमित्त किये जाने वाले कर्मों से अन्यत्र कर्मों में (अर्थात् उनके अतिरिक्त दूसरे कर्मों में) लगा हुआ ही यह मनुष्य-समुदाय कर्मों से बँधता है। इसलिए हे अर्जुन ! तू आसक्ति से रहित होकर उस यज्ञ के निमित्त ही भलीभाँति कर्तव्य-कर्म कर।’
आँख को दूसरे के प्रति ईर्ष्या न करने देना यह आँख की सेवा है, यह यज्ञार्थ कर्म है। जीभ को निंदा-चुगली में न लगाना-एक को एक बात बोले, दूसरे को दूसरी बोले, आपस में लड़ावे, झगड़ा करावे तो यह हो गया बंधन। लेकिन दो लोग लड़ रहे हैं तो एक को वह अच्छी बात करे, दूसरे को भी अच्छी बात करके दोनों का मेल कर दे, यह हो गया यज्ञार्थ कर्म। अपनी जीभ का सदुपयोग किया – किसी की श्रद्धा टूट रही है तो उसको सत्संग की बाते बताकर, भगवान की महिमा बता के उसका मन भगवान में लगाया, यह यज्ञार्थ कर्म है।
“हाँ जी ! यह तो ऐसा है।’, ‘क्या पता भगवान मिलेंगे कि नहीं मिलेंगे….!’, यह ऐसा-वैसा…. अपन तो चलो खाओ-पियो, पान-मसाला खाओ, मजा लो….’ तो यह जीभ का अन्यत्र कर्म हुआ। जो अन्यत्र कर्म है वह बन्धनकर्ता है और जो यज्ञार्थ कर्म है वह मुक्ति देने वाला है। जीभ है तो भगवन्ना-जप किया, सुंदर वाणी बोले, परोपकार के दो वचन बोले तो यह हो यज्ञार्थ कर्म हो गया। आपने जीभ की कर्म करने की शक्ति का सदुपयोग यज्ञ के निमित्त किया।
ऐसे ही कान के द्वारा तुमने निंदा सुनी, किसी की चुगली सुनी, किसी की बुरी बात सुनी तो तुमने यह अन्यत्र कर्म किया लेकिन कान के द्वारा तुमने सत्संग सुना, भगवान का नाम सुना, जिह्वा के द्वारा तुमने भगवान का नाम लिया, हाथों के द्वारा भगवान के नाम की ताली बजायी तो यह यज्ञार्थ कर्म हो गया, ईश्वर की प्रीतिवाला कर्म हो गया। मनुष्य को यज्ञार्थ कर्म करते हुए अपने कर्तव्य का पालन करना चाहिए।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 17, 23 अंक 311
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