किसी सेठ ने एक महात्मा से कई बार प्रार्थना की कि “आप हमारे घर में अपने श्रीचरण घुमायें !” आखिर एक दिन महात्मा जी ने कह दियाः “चलो, तुम्हारी बात रख लेते हैं । फलानी तारीख को आयेंगे ।”
सेठ जी बड़े प्रसन्न हो गये । बाबा जी आने वाले हैं इसलिए बड़ी तैयारियाँ की गयीं । बाबा जी के आने में एक दिन ही बाकी था । सेठ ने बड़े बेटे को फोन कियाः “बेटा ! अब तुम आ जाओ ।”
बड़े बेटे ने कहाः “पिता जी ! मार्केट टाइट है, मनी टाइट है, बैक में बैलेंस सेट करना है । पिता जी ! मैं अभी नहीं आ पाऊँगा ।”
मँझले बेटे ने भी कुछ ऐसा ही जवाब दिया । सेठ ने छोटे बेटे को फोन किया तब उसने कहाः “पिता जी ! काम तो बहुत हैं लेकिन सारे काम संसार के हैं । गुरु जी आ रहे हैं तो मैं अभी आया ।”
छोटा बेटा पहुँचा संत-सेवा के लिए । उसने अन्न, वस्त्र, दक्षिणा आदि से गुरुदेव का सत्कार किया व बड़े प्रेम से उनकी सेवा की । बाबा जी ने सेठ से पूछाः “सेठ ! तुम्हारे कितने बेटे हैं ?”
सेठः “एक बेटा है ।”
“मैंने तो सुना है कि आपके तीन बेटे हैं !”
“वे मेरे बेटे नहीं हैं । वे तो सुख के बेटे हैं, सुख के क्या वे तो मन के बेटे हैं । जो धर्म के काम में न आयें, संत-सेवा में बुलाने पर भी न आयें वे मेरे बेटे कैसे ? मेरा बेटा तो एक ही है जो सत्कर्म में उत्साह से लगता है ।”
“अच्छा, सेठ ! तुम्हारी उम्र कितनी है ?”
“छः साल, दो माह और सात दिन ।”
“इतने बड़े हो, तीन बेटों के बाप हो और उम्र केवल इतनी !”
“बाबा जी ! जब से हमने दीक्षा ली है, ध्यान जप करने लगे हैं, आपके बने हैं, तभी से सच्ची जिंदगी शुरु हुई है । नहीं तो उम्र ऐसे ही भोगों में नष्ट हो रही थी । जीवन तो तभी से शुरु हुआ जब से संत-शरण मिली, सच्चे संत मिले । नहीं तो मर ही रहे थे, मरने वाले शरीर को ही ‘मैं’ मान रहे थे ।”
“अच्छा, सेठ ! तुम्हारे पास कितनी सम्पत्ति है ?”
“मेरे पास सम्पत्ति कोई खास नहीं है । बस, इतने हजार हैं ।”
“लग तो तुम करोड़पति रहे हो !”
“गुरुदेव ! यह सम्पत्ति तो इधर ही पड़ी रहेगी । जितनी सम्पत्ति आपकी सेवा में, आपके दैवी कार्य में लगायी उतनी ही मेरी है ।”
कैसी बढ़िया समझ है सेठ की ! जिसके जीवन में सत्संग है, वही यह बात समझ सकता है । बाकी के लोग तो शरीर को ‘मैं’ मानकर, बेटों को ‘मेरे’ मान के तथा नश्वर धन को ‘मेरी सम्पत्ति’ मान के यूँ ही आयुष्य पूरा कर देते हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2018, पृष्ठ संख्या 25 अंक 312
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