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ज्ञान के शिखर पर


 

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः । 

प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु॥

 

गीता के सातवें अध्याय का यह आठवां श्लोक है । यहाँ कहते है श्रीकृष्ण जी कि हे अर्जुन मैं जल में रस हूँ, चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार हूँ,  आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ  ।

यह विश्व सब है आत्मा ही, इस भाँति‍ से जो जानता
यश वेद उसका गा रहे, प्रारब्धवश वह बर्तता 
ऐसे विवेकी सन्त को, निषेध है विधान है
सुख दुःख दोनों एक से, सब हानि लाभ समान है ।

 

रसोऽहमप्सु  कौन्तेय. . .

अप माना जल. . जल में जो रस है वह रस परमात्मा है । विज्ञान की दृष्टि से जल को खोजोगे तो हायड्रोजन और ऑक्सिजन दो गैस मिलेंगे । दो गैस से रस पैदा नहीं  होता विज्ञान बाहर की आँखों से देखना चाहता है और विज्ञान की आँख से जो दिखेगा वो दृश्य दिखेगा । दृश्य के भीतर जो अदृश्य रस है वो विज्ञान की आँख से नहीं  दिखता । जैसे इस आँखों से फूल दिखा गुलाब का फूल दिख रहा है,  तो इस गुलाब के फूल को देखा तुमने कहा कि “वाह वाह !बड़ा सुंदर है!”कोई तार्किक, कोई वैज्ञानिक “आहा!बड़ा सुंदर है!” कहा है सुंदरता? हाँ बोलोगे ये गुलाबी है. . .  गुलाबी है तो  है इसमें. . . बड़ा रस आया देखने में जरा   तो रस तो भीतर आएगा ! तो, भीतर रस कहाँ आता है ये  बाह्य साधनों से नहीं  देखा जाता । भीतर का रस जो है वो भीतर बहुत अत्यंत सूक्ष्म गहरे जो लोग जाते है उनको पता चलता है । जैसे कोई एक मित्र दूसरे मित्र से मिले . . मिले, बिछड़े हुए साथी थे, दोस्त थे, मिले. .  एक पहले क्षण एक दूसरे का हाथ हाथ में आ गया बड़ा आनंद आया और प्रथम मित्र ने दूसरे मित्र का हाथ पकड़ के अपने गले लगा दिया उसका हाथ प्रेम में आके . . बड़ा रस हुआ, बड़ा रस टपका, बड़ा आनंद आया । अब आप देखते है कि हाथ ले जाओ लेबोरेटरी में चमड़ा,  हड्डी, माँस,  रगें होंगी । लेबोरेटरी में जाँच करो तो भाई इनमें रस कैसे आया? हाथ हाथ से मिला और रस आया और गले लगा दिया हाथ को गले पे लगा दिया ऐसे एकदम प्रेम में आके लगा देते है हृदय से गले से  । तो इसमें क्या कौनसी चीज है जो एक दूसरे को रस आया?   और हाथ हाथ में मिलता है तो कहते रहेंगे कि “यार, हम तो जन्म जन्म के साथी है, तुम तो जन्म जन्म के मित्र बने रहो” आदि आदि ।
जो सूक्ष्म है वह इन्द्रियों का विषय नहीं  है । जो वास्तविक में रस है वो कर्णों  का विषय नहीं  है । विज्ञान इन इन्द्रियों को जो जैसा दिखता है ऐसे का निर्णय करता है और वेदांत और योगदर्शन- आध्यात्मिक विज्ञान ये इन्द्रियाँ जिससे देखती है वह मन और मन को जो सत्ता देता है वो चित्त और चित्त को जो चेतना देता है उसकी तरफ इशारा है ।
श्रीकृष्ण कहते हैं जल में रस मैं हूँ. . . अब जल में जो रस है, वैसे विज्ञान की तरफ से हम खोजेंगे तो जल में तो दो गैसेस है. . जल कहीं खारा होता है, कहीं कड़वा होता है, कहीं मीठा होता है. . कहीं… वोही जल एक प्रकार का हम पीते है तो हमारे अंदर भी  अपने स्वाद के होंगे . . पसीना आदि भिन्न भिन्न   . . . श्रीकृष्ण कहते हैं कि उसमें जो रस है वो मैं हूँ । तो जल में जो रस है वो मैं हूँ. . तो जल में रसत्व कहाँ से आया? कैसे आया ?  और जल में रसत्व यदि पकड़ में आ जाये
भगवान शंकर ने पार्वती को कहा विज्ञान भैरव नाम के ग्रन्थ में कि “हे उमा,  अकार,  उकार, मकार ॐ जो है उसमें अकार और उकार को छोड़के जो मकार में ठहर जाता है वो मुझे प्राप्त हो जाता है । तो, हम तो ॐ ॐ बोलते है, अकार भी बोलते है उकार भी बालते है, मकार भी बोलते है . . . बोलते है लेकिन उसमें अत्यंत सूक्ष्म वृत्ति जबतक नहीं  होती तबतक उसके रस स्वरूप में हम नहीं  ठहर पाते! ऐसे जल तो हम पीते है,  जल पीने से . . किसीने गंगा जल पीया, किसीने यमुना का जल पीया, किसीने कुछ पीया,  किसीने शराब पी, किसीने कोका पीया,  तो किसीने फैंटा पी . . पीने की बोतले अनेक लेकिन पीते वक्त जल में जो रस आया . . . सच पूछो तो जल में जो रस आया वो तुम्हारे अंदर भीतर रस था और वो भीतर अत्यंत सूक्ष्म रस तुम्हारा  बाहर के जल में भी अत्यंत सूक्ष्म रस रूप में जो चेतना है उसका स्वाद आया ! और भीतर जिसके पास रस नहीं  है,  जो भीतर की यात्रा नहीं  कर पाया उसको हायड्रोजन ऑक्सीजन के सिवा तीसरा कोई तत्व दिखेगा नहीं ! और जिसने भीतर की यात्रा किया वो जल को  देख द्रवीभूत हो जाएगा! आप जाएँगे गंगा किनारे या नदी के किनारे जाएँगे,  आँखों से तो दिखेगा कि पानी बह रहा है लेकिन हृदय तुम्हारा रस से भर जाएगा । तुम्हारा माना हुआ, जाना हुआ कोई जगह होगा,  कोई सागर पे गए,  नदी पे गए, तालाब पे गए, कोई ऐसी जगह तो तुम थोड़े फ्री हो जाते हो, तुम थोड़े आनन्दित हो जाते हो, तुम थोड़े रसपूर्ण  हो जाते हो! तो,  जल में जो रस तत्व है उसने तुम्हारे भीतर छुपे हुए रस को प्रगट करने का मौका दिया! जैसे परफ्यूम आदि होते है गंधें, तो गंध. . . . हे अर्जुन जल में रस हूँ , चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, सम्पूर्ण वेदों में ओंकार,  आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व मैं हूँ  । तो पृथ्वी में जो गंध है वो भी उस चैतन्य सत्ता की है । और गंध. . .  आगे चलकर कहेंगे. . कि  वो वो गंध जो पवित्र गंध मैं हूँ  ।  तो पृथ्वी में पवित्र गंध. . . सुगंध कह देते. . . नहीं ! सुगंध पवित्र नहीं  होती । पवित्र जो गंध है वोही पवित्र होती है । सुगंध तो . . कईं ऐसी सुगंधे है, पैरिस आदि में इसके स्पेशलिस्ट लोग है कि कौनसी सुगंध से आदमी की काम वासनाएँ जगती है, कौनसी सुगंध से आदमी के चित्त में विकार हावी हो जाते है, कौनसी सुगंध से आदमी वैश्या के करीब खींच जाए, वैश्या को कौनसी सुगंध लगानी चाहिए,  दूसरों को संसार के खड्डे में उतारने के लिए कौनसी सुगंध होनी चाहिए ।

तो श्रीकृष्ण ने सुगंध नहीं  कहा, पवित्र गंध कहा । दुर्गंध और सुगंध हम तो दो ही समझते है लेकिन श्रीकृष्ण ने बड़े माप तौल के शब्द यूज़ किया कि सुगंध! सुगन्ध वही है जो सु . . सु माना श्रेष्ठ मार्ग पर लगा दे . . जिस मार्ग से जिस सुगंध से हमारा जीवन उर्ध्वगामी हो जाये वो  सुगंध है । और जिन गंधों से हमारा जीवन विकारों की तरफ आ जाए वे पवित्र गंधें नहीं  है. .  सुगंधें भले हो. . गुलाब में सुगंध है अच्छी है ठीक है, परफ्यूम में सुगंध है लेकिन ये सारी सुगंधे जो बाह्य सुगंधे है वे हमें विकारों में ले जाती है अहंकार में ले जाती है और इन्द्रियों की जगत में खिंचती है । बुध्द की सुगंध,  महावीर की सुगंध,  पवित्र गंध,  कोई ज्ञानवान की पवित्र गंध. . है तो उनका शरीर भी पंच भौतिक, हमारा शरीर भी पंच भौतिक, है तो पेड़ वृक्षए  पृथ्वी पर एक पेड़ है मिर्च का उसमेंसे तीक्ष्णता आती है , दूसरा है गन्ने का पौधा लगा है, गन्ने में  मधुरता आ रही है, मिर्ची में तीक्ष्णता और  खड़े तो उसी जगह पे है, वोही खेत, वोही हवा, वोही प्रकाश, वोही आकाश, वोही धूप, वोही किसान, वोही पानी . . तो ऐसे ही हमारा शरीर वैसे ही पाँच भूतों के है लेकिन जिस बीज में, बीज में जैसे जैसे संस्कार है ऐसा ऐसा. . मिर्च पृथ्वी से वो ले लेता है तीक्षणता,  गन्ना पृथ्वीसे मधुरता ले लेता है, ऐसे ही हमारे चित्त में जैसे जैसे संस्कार है तो उस प्रकार की हमारी यात्रा होती है और हमारी गंध उस प्रकार की प्रगट होती है । कुछ ऐसी गंधें है जिससे हमारे विकार पैदा हो, कुछ ऐसी गंधें है जिससे हमारे चित्त में द्रविभूतता आ जाती है, कुछ ऐसी गंधें है जिससे हमारे चित्त में कामुकता आ जाती है लेकिन भगवान बोलते है पवित्र गंध…  अब पवित्र गंध आ जाये तो जैसे आदमी काम की तरफ गिर पड़ता है ऐसे ही राम की तरफ भी चल पड़ता है  ।   तो पृथ्वी में पवित्र गंध मैं हूँ तो जल में रस मैं हूँ . . .

महात्मा लोग यात्रा करके आ रहे थे  । रास्ते में भंडारा करने का विचार किया । कुछ महात्मा सीधा-वीधा माँगकर ले आये  । एक बाबाजी को कहा उस टोली के महात्मा के आगेवान ने कि तुम जरा घी चेता के लाओ, घी माँग के लाओ । वो सीधे सादे महात्मा थे, वो गए दुकानदार के पास, ग्राहकी थी. .  थोड़ी देर ठहरे, बाद में करमण्डलु का ढक्कन खोलकर दुकानदार के आगे हाथ लंबा किया कि सेठजी जरा इसमें सवा तोला घी दे देना,  दान में । सेठ ने कहा महात्मा आया हुआ है साधु बना है और घी खाने का शौक नहीं  गया ? मोफत का है? तुम्हारे बाप का है?  चल यहाँ से! . . डाँट दिया. . वो महात्मा आये. . बोले “घी तो नहीं  मिलता” ।  दूसरे महात्मा को बुलाया जिसका नाम था पलटू.. उनको बोला कि भंडारा करना है अभी सवा तोला घी से तो क्या सवा सेर घी चाहिए । तुम जाओ चेता के लाओ । ”  वो गए गाँव मे और गाँव के नम्बरदार अपने कहे मुखी -सरपंच, वो अखबार पढ़ रहे थे, ये महात्मा जा के खड़े हो गए । तो अखबार पढ़ते पढ़ते उन्होंने कहा “कहिए महात्मा कैसे आये? ” . .
बोले, “पहले अखबार छोड़ो और हमको कहो बैठिए महाराज”

सरपंच ने कहा “महाराज बैठिए”. . .

“कुर्सी मंगाओ!”. .

कुर्सी मंगाई. . .

“महाराज कैसे आना हुआ? “. .

बोले, “अभी हाथ जोड़ो प्रणाम करो कि संत आये हो बड़ी कृपा हुई  ”

“महाराज,  संत आये हो बड़ी कृपा हुई, कैसे आये हो?  ”

बोले,  “और तो कुछ नहीं , तुम गाँव के सरपंच हो, नम्बरदार हो  । साधु बद्रीनाथ की यात्रा करते करते . . आजतक तो भिक्षा माँग के खाते थे, आज अपना भंडारा बनाने की इच्छा हुई  । आटा,  दाल, चावल, मिर्च, मसाला सब आ गया है केवल सवा सेर घी की आवश्यकता है । तुम गाँव के सरपंच हो तुम्हारे घर में तो भगवान ने दिया ही होगा, अगर तुम्हारे पास इस समय न हो तो अडोस पड़ोस से या दुकान से दिलवा दो हमको । हमको सवा सेर घी चाहिए और कुछ ज्यादा जरूरत नहीं  है । ”
वो सरपंच ने सवा सेर घी दिला दिया बोले “मेरे घर में ही पड़ा है ले जाइए महाराज”

अब सवा तोला जो भीख माँगने गया उसको नहीं  मिला और सवा सेर कुर्सी पे बैठकर आर्डर से और बड़े ठाठ से लेकर लौटा  । क्यों?  कि जिसके चित्त में दीनता, हीनता, दरिद्रता,  नकारात्मक होता है तो बाहर से भी ऐसा आता है । और जिसके चित्त में अंदरसे अपनी स्फूर्ति अपना आत्म विश्वास होता है उसको बाहर की परिस्थितियाँ भी अनुकूल हो जाती है !तो आपके अंदर भीतर रस है. . . जिव्हा पे कोई रोग हो जाए,  जिव्हा सूखी हो जाए तो मिर्च रखो, निम्बू का आचार रख दो, साखर रख दो, रसगुल्ला रख दो, तो आपको रस नहीं  आएगा! क्यों? . . कि रस तुम्हारे अंदर नहीं  है तो बाहर में रस नहीं  आएगा । आप समझना जरा बात को . . . जीभ पर कोई भी व्यंजन रख दो लेकिन जीभ गीली न हो. . हमारे शरीर . . है तो चमड़ा. .  शरीर के किसी भी हिस्से पे कोई व्यंजन रख दो तो मिठास नहीं  आती क्योंकि वहाँ सूखापन है और जिव्हा में रस है. . रस है इसीलिए और रस आते है ।  तो ये रस है, जिव्हा में जो रस है वो जल में छुपे हुए अत्यंत  सूक्ष्म रस का ही तो प्रभाव है!जिव्हा में जो,  मुँह में जो रस आ रहा है  . . . कोई पदार्थ आप खा रहे है तो जल में जो भगवान का रसस्वरूप है वह जल का रसस्वरूप आप जल पीते है और वह सूक्ष्म रसस्वरूप आपके मुख में है और वही रस तुम्हें बाहर के विषयों में रसपना देता है! तो जल में जो रस है भगवान कहते है मैं हूँ! विज्ञान की दृष्टि से देखेंगे तो दो गैसे मिलेंगी तीसरी कोई बात नहीं  मिलेगी लेकिन गैसे दो मिलेगी हायड्रोजन ऑक्सिजन लेकिन गैसों को ही देखें तो इन्द्रियों इन्द्रिय के दृष्टि से देखे तो गैसे मिलेगीं लेकिन सूक्ष्म दृष्टि से देखे तो गैसों को सत्ता देने वाला जो चैतन्य स्वरूप रस स्वरूप है वो जल में द्रवीभूत हो रहा है ।

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः ।

सूर्य और चाँद में. . ये जिज्ञासु के लिए भगवान की सर्व व्यापकता का अनुभव करें. .   भगवान की भावना करना,  ब्रह्म भावना करना, भगवद बुद्धि करना,  भगवद भावना करना एक बात है और भगवद तत्व का साक्षात्कार करना दूसरी बात है ।  शालिग्राम में भगवद भावना की, शिवजी के बाण में शिवजी की भावना की, अंबाजी की प्रतिमा में माँ की भावना की . . ऐसे किसी वस्तुओं में भगवद भावना अच्छा है. . लेकिन भगवद भावना एक बात है . . . भगवद भावना, भावना  करनेवाले के आधीन रहती है. . भाव हमेशा भाव करनेवाले के आधीन होता है । ज्ञान भाव करनेवाले के आधीन नहीं  होता, ज्ञान वस्तु तंत्र होता है . . जो वस्तु जैसी है उस वस्तु को वैसी का वैसी जानना ज्ञान है और जो  जैसी है हमने नहीं  जानी और भावना की . . तो भावना में परिवर्तन हो जाता है . . . भावना अन्तःकरण की एक . .

किसी ने पूछा के महाराज,   भगवान के दर्शन में और आत्मसाक्षत्कार में क्या फर्क  है?  प्रभु का दर्शन हो जाए श्रीकृष्ण का, श्री रामचन्द्रजी का . .  और भगवान का दर्शन और आत्मसाक्षत्कार में क्या फर्क  है? भगवान का दर्शन ये चित्त की भाव प्रधान वृत्ति है. . . भगवान का दर्शन ये चित्त की प्रेम, माधुर्य भरी वृत्ति है और आत्मसाक्षात्कार चित्त को जो चैतन्य सत्ता देता है, अनंत अनंत चित्त, अनंत अनंत सूर्य, अनंत अनंत चन्द्रमा, अनंत अनंत नक्षत्र जिस तत्व से चल रहे है और अपने-अपने नियम से काम कर रहे है उस तत्व को “मैं” रूप में अनुभव करना ये साक्षात्कार है!

युधिष्ठिर को. . अभी जिसको दिल्ली बोलते है उस समय हस्तिनापुरी बोलते थे । महाभारत के युद्ध के बाद युधिष्ठि‍र का राज्याभिषेक हुआ ।  युधिष्ठिर को राज्याभिषेक करके भगवान श्रीकृष्ण सुभद्रा के साथ द्वारका लौट रहे थे । मारवाड़ देश में मातंग ऋषि नाम के एक ऋषि बडे सात्विक ऋषि थे । खूब तप करते थे ।  ब्रह्मचर्य का ओज और भृगु के घर जन्म लिया हुआ. . ब्रह्मचर्य,  जप, तप ने उन्हें चमका दिया था । भगवान श्रीकृष्ण ने उनका सत्कार किया । श्रीकृष्ण उनके दर्शन करने गए । उत्तंग ऋषि का श्रीकृष्ण ने सत्कार किया बाद में उत्तंग ऋषि ने श्रीकृष्ण का भी आदर किया, पूजन किया, सत्कार किया । बातचीत चली. . बातचीत करते करते श्रीकृष्ण ने बताया कि महाभारत के युद्ध का पूर्णविराम हुआ राज्याभिषेक करके आये, कौरव ऐसे मारे गए, पांडवों का विजय हुआ. . . जब कौरवों के विनाश की बात सुनी उत्तंग ऋषि ने,  कुपित हो गए. .

“कुरु वंश में  इतने महारथी थे इतने बलवान व्यक्ति और उन सबका विनाश तुमने करवा दिया? तुम चाहते तो उनकी रक्षा कर सकते थे, तुम्हारे में बल था उनको बचाने का और फिर तुमने उनको मरवा दिया? ”

कुपित होकर श्राप देने को तैयार हो गए ।  श्रीकृष्ण ने कहा कि उत्तंग ऋषि तुम श्राप देने के पहले मेरी जरा बात सुन लो । आप भृगु के कुल में हुए हो,  ब्रह्मचर्य का बल है आपमें,  जप का, तप का,  धारणा, ध्यान का तुम्हारे पास सामर्थ्य है लेकिन मेरी बात जरा सुन लो. . तुम्हारे जप से, तुम्हारे ब्रह्मचर्य व्रत से, तुम्हारे सत्य व्रत से, तुम्हारे पास तो शक्ति है लेकिन सब शक्तियों का जो मूल कारण है वो मैं हूँ!  मैं तुम्हारे इन शापों से प्रभावित नहीं  होता हूँ । कारण कभी कार्यों से प्रभावित नहीं  होता ।  बुदबुदे कईं उछल पाथल करें,  लहरें कईं उछल पाथल करें उससे समुद्र कहीं सूख नहीं  जाता । सब लहरियाँ समुद्र में भले ही खेल करे लेकिन समुद्र का कुछ बिगड़ता नहीं , ऐसे ही सब भूतों का मैं आदि कारण हूँ  ।  मुझपर तुम्हारे श्राप का कोई असर होगा नहीं ,  पहले तुम सुन लो मेरे को । मैं जिस जिस देश में,  जिस जिस काल में,  जिस जिस रंग में, जिस जिस रूप में अवतरित होता हूँ उस-उसकी मर्यादा तो मैं करता हूँ ! गन्धर्वों के शरीर में जब उतरता हूँ तो गन्धर्वों के अनुकूल आचार करता हूँ ।  रामावतार में जब प्रगट होता हूँ तो फिर मर्यादा के अनुसार आचार व्यवहार करता हूँ । ऋषि के वहां प्रगट होता हूँ तो ऋषि के जैसा शोभे  ऐसा करता हूँ ।  ठीक मानव रूप  में मैं आया धर्म की स्थापना करने साधु संतों का आदि . . आपने सुना होगा न कि

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत  ।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥४७॥

परित्राणाय साधूनां विनाशाय दुष्कृताम्  ।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४८॥

 

 

इसलिए मैंने जो मेरेसे हुआ परित्राणाय साधुओं के लिए, दुष्ट लोगों को विनाश करने के लिए मेरा जिस वक्त जिस हेतू के लिए जन्म होता है मैं करता हूँ और मैं अपनी मर्यादा भी निभाता हूँ  । मानव तन में आया तो मैंने कुरु वंश में पैदा हुए कौरवों को पहले दूत होकर जाके समझौता करने के लिए संधि करने के लिए मैंने उनको प्रार्थना की । पाँच गाँव पांडवों को दे दो तो भी मैं समझौता करा दूँ  यहाँ तक मैं बात को ले आया लेकिन उन्होंने मेरी एक बात नहीं  मानी और मेरे को कहा कि सुई की नोक पर धूली का दाणा भी टिक सके उतना भी हम इनको रजकण भी देने को तैयार नहीं  इसलिए मुझे युद्ध करवाना पड़ा । और युद्ध करवाना पड़ा,  युद्ध हुआ . . . युद्ध तो हुआ लेकिन कौरवों को मैंने वीरगति प्राप्त कराई है और पांडवों को मैंने राज्य दिया, मैंने तो कुछ लिया नहीं  क्योंकि मुझे कुछ लेने की आवश्यकता नहीं , सबके रूप में. .  पांडव होकर मैं भोग रहा हूँ, कौरव होकर मैं भोग रहा हूँ,  ऋषि होकर मैं तप कर रहा हूँ, मुझ कारण को किसी कार्य के पदार्थों की  आवश्यकता नहीं ,  मैं आदि कारण सबका हूँ ।

तब ऋषि का क्रोध शांत हुआ और भगवान कृष्ण की पूजा की ।

कृष्ण को देखा तो ऋषि ने पहले था ! इन आँखों से तो श्रीकृष्ण दिख गए थे  ।  भावना से किसीको भगवान दिख जाए उसकी अपेक्षा इस आँखों से वैसे ही दिख जाए वो तो अच्छा है. . आप ध्यान करते है, समाधि करते है, जप करते है, कीर्तन करते है,  भगवान की भावना करते करते आपको भगवान के दर्शन हुए  श्रीकृष्ण के, श्रीरामचन्द्रजी के, किसी देव के दर्शन हुए . . दर्शन होना अच्छा है लेकिन इस देव के पास तो साक्षात श्रीकृष्ण गए! ऋषि की पहली मुलाकात में श्रीकृष्ण के दर्शन और बाद में श्रीकृष्ण के तत्व को समझने के बाद उसकी दृष्टि बदल गयी! तो,  दर्शन में और ज्ञान में. . भगवान का दर्शन एक बात है और भगवान के तत्व का साक्षात्कार दूसरी बात है ! भगवान का दर्शन. . . ऐसे ही जल का दर्शन एक बात है और जल में जो रस है उसका साक्षत्कार दूसरी बात है ।  जल का दर्शन तो होता है हमको . . सागर लहरा रहा है . . देखा कि आहाहा कितना सुंदर है कितना मधुर है बड़ा आनंद आ रहा है . . पानी चखो तो खारा ! और उसके विश्लेषण करो तो दो गैस ! लेकिन तुम्हारे ह्रदय को जाँचो तो रस आ रहा है ! तो  जैसे तुम्हारे अंदर, तुम्हारे शरीर को,  तुम्हारे हृदय को विज्ञानी लोगों के टेबल पर टुकड़े, टुकड़े कर के अणु अणु करके रख दे तो रस कहा था नहीं  दिखेगा ! फिर भी रस आ रहा है! ऐसे ही उस पानी को तुम टुकड़े टुकड़े करके रखो तो रस नहीं  दिखेगा,  फिर भी सूक्ष्म अत्यंत सूक्ष्म जो इन्द्रियों का विषय नहीं  अनुभव गम्य है वैसा जल में रस मैं हूँ,  सूर्य में तेज मैं हूँ, जिन आँखों से तुमको ये प्रकाश दिखता है. . सच पूछो हम प्रकाश हम नहीं  देख पाते है,  चन्द्रमा का प्रकाश और सूर्य का प्रकाश . . . श्रीकृष्ण कहते है सूर्य और चन्द्रमा में जो प्रकाश है वो मैं हूँ  ।  ये  बता रहे है कि जो तुम हो वो मैं हूँ तो तुम अपने को सूर्य और चन्द्रमा में और जल में जो रस है ऐसा अपने को नहीं  समझते हो लेकिन कृष्ण समझते है . . . समझते है और तुम्हारे आगे दोहरा रहे है कि शायद तुम भी अपनेआप को ऐसे समझ लो ! यही बड़पन है कि तुम्हे बड़ा बनाने के लिए अपनी वास्तविकता का बयान कर रहे है ।

दो प्रकार के व्यक्ति होते है ।  एक होते है शोषण करके तुमपर अधिकार करके राजा होके बैठ जाए  ।  दूसरे ये होते है कि तुमको जगाकर तुमको राजा बना दे ! तो जो तुमको जगाकर तुम्‍हे राजा महाराजा बना देते है,  राजा बना देते है,  वे महाराज होते है ! श्रीकृष्ण महाराज बोले जाते है . . . भगवान श्रीकृष्ण . . श्रीकृष्ण महाराज ने कहा !. . . . कभी कभी महाराज भी बोलते है उनको  . . जो राजा बनाता है तो वो महाराज हो जाता है. . राजाओं को बनाने वाला !एक्टरों को नचाने वाला डिरेक्टर होता है न ऐसे ही राजाओं को बनानेवाला महाराज होता है ! महान राज्य उनके पास है ।

हमको जो प्रकाश दिखता है,  सच पूछो तो इन आँखों से प्रकाश दिखता नहीं , प्रकाश जिन पदार्थों पर पड़ता है वे रूपांतरित होकर हमको अभास दिखता है ! अँधे आदमी को भी प्रकाश नहीं  दिखता और आँख वाले को भी प्रकाश नहीं  दिखता  ।  अँधे आदमीको तो ये आँखे नहीं , इसलिए प्रकाश नहीं  दिखता और आँख वाले को ये रूपांतर दिखता है प्रकाश नहीं  दिखता ।  प्रकाश जिन पदार्थों पर पड़ता है और रूपांतरित होता है तो रूपांतर दिखता है वास्तविक प्रकाश नहीं  दिखता ।  और जो सूर्य में, चंद्रमा में जो वास्तविक प्रकाश है . . जैसे जल दिखता है हमको,  जल को तोड़ दिया तो हाइड्रोजन ऑक्सीजन दिखा,  लेकिन जल में जो रस है वो दिखता नहीं  वो अनुभव में आता है! ऐसे ही सूर्य में और चंद्रमा में जो प्रकाश है वो प्रकाश “मैं” हूँ! तो इस सूर्य को और चन्द्रमा को देखते हुए, इनकी इतनी प्रभा देखते हुए इन्‍ही से सारा जगत संचालित हो रहा है और यही जगत का. . भौतिक जगत के मूल कारण साधन दिखते है, लेकिन ऐसे सूर्य और चन्द्रमा भी कई है,  ऐसी पृथ्वि‍याँ भी कईं है ! और इन पृथ्वि‍यों में गंध गुण,  पवित्र गंध गुण . . सुगंध नहीं  कहा. . पवित्र गंध कहा! सुगंध. . पर्फ्यूम आदि जो गंधे है, सुगंध है वो पवित्र नहीं  है . . उन गंधों से, उन सुगंधों से तो आदमी के अंदर सुषुप्‍त जो सेक्स एनर्जी है,  सुषुप्त जो विकार है, सुषुप्त जो ममताएँ है,  सुषुप्त जो अहंता  है वो जागृत होते है । इसलिए श्रीकृष्ण ने पृथ्वी में जो पवित्र गंध है वो मैं हूँ . . . ऐसा नहीं  कहा-सुगंध. .  सुगंध  कहते तो दुर्गंध भगवान नहीं  है!. . . सुगंध भगवान है?  ना! भगवान का वास्तविक स्वरूप न सुगंध है न दुर्गंध है . . . पवित्र गंध! सुगंध तुम्‍हे  विकारों की तरफ ले जाती है और दुर्गंध तुम्हें ग्लानि की तरफ ले जाती है, और पवित्र गंध तुम्हे अपने पवित्र स्वरूप की तरफ ले आती है !

कईं लोग अपने को भग्यशाली मानते है, परफ्यूम वेरफ्यूम लगाते है इधर उधर यहाँ वहाँ . . शौक. . आ हा हा. . लेकिन वो अपने केंद्र से नीचे गिराने की चीजें हैं  ।  पेरिस में तो इसके विशेषज्ञ है कईं लोग . . परफ्यूम. . कौनसे पर्फ्यूम से, कौनसे गंध से आदमी की कौनसी ऊर्जा विकसित होगी और वह ऊर्जा, जीवन शक्ति नीचे की तरफ जाएगी . . उन लोगों ने ऐंद्रिक खोज किया . . ऐंद्रिक खोज ने आदमी को सुख के तो साधन दिए लेकिन सुख के साधनों के साथ साथ वो सुख के साधन आदमी को परमात्म गंध से, परमात्म पवित्रता से, प्रमात्म शांति से, प्रमात्म रस से वो साधन दूर ले जाते है ।  इसीलिए जो अत्यंत भोगी है उसके जीवन में विक्षेप ज्यादा होता है ।  जो अत्यंत भोगी है उसके जीवन में भय ज्यादा होता है ।  जो भोगी है उसके जीवन में विकार ज्यादा होते है, क्रोध ज्यादा होता है, अशांति ज्यादा होती है और जो कम भोग भोगता है उसमें क्रोध, अशांति, विकार कम होते है । लेकिन जो भोग और योग, राग और द्वेष,  इन पवित्र अपवित्र,  इन दोनों  से परे. . सुगंध और दूर्गंध दोनो से परे. .  जहाँ से पवित्र गंध का भी ज्ञान होता है उस स्वरूप को “मैं” मान लेता है उसकी तुलना . . अष्टावक्र कहते है- तुलना केन जायते . . . ऐसे बुद्ध पुरुष की तुलना हम किससे करे ?  श्रीकृष्ण कहते है,  ये साधक को,  जिज्ञासु को सर्वत्र ब्रह्मज्ञान कराने का एक तरीका है ! कि जल दिखे तो जल में जो सूक्ष्म रस है वो मैं हूँ ।  आपने पेय पदार्थ कोई भी पिया, पानी पिया अथवा कोई मीठा पिया, कोई खठ मीठा पिया, कुछ भी पिया . . तो ग्लास में तो किसीको पानी दिखेगा. . , दूर से ग्लास में शरबत दिखेगा. . . आँखों से तो वो शरबत दिखा,  आँखों से तो फैंटा आदि. . बात वात में जा में रंग जो होय कोका कोला संग !. . . ॐ ॐ ॐ. . तो आँखों से तो कोका कोला दिखा , रस नहीं  आया. . जब पिया तो . . आ हा हा. . श. . ठंडक बड़ी!. . . अगर उसमें ही रस होता तो वो कोई बेचता नहीं  ! कोका कोला के बाह्य स्वरूप में रस नहीं  है. . तुम्हारे अंदर,  तुम्हारे जिव्हा में रस है इसलिए वह रस ने,  बाहर के रस ने,  तुम्हारे जिव्हा के रस ने,  दोनो के अद्वैतता का अनुभव किया ! बाहर का ग्लास का पेय और तुम्हारे जिव्हा की रस में दोनों में जो सूक्ष्म एकतानता आई एक ऐसी क्षण आई, जो सूक्ष्मता,  नितांत सूक्ष्मता आई तुम्हें मजा आया! अगर तुम ज्यादा पीते हो तो ऊब जाते हो, थक जाते हो  ।  तो ज्यादा पेय तो इन्द्रियों के विषयों में आदमी थक जाता है लेकिन इन्द्रियों से परे जो सूक्ष्म रस है उनको पाने के लिए अथवा तो यूँ कहे कि श्रीकृष्ण ने ये सोचकर कहा हो कि जल  दिखे तो जल में भी सूक्ष्म अति सूक्ष्म, जल का नाम रूप बाध करके जो  प्रिय परब्रह्म है वहाँ दर्शन कर सके साधक इसलिए जल में रस मैं हूँ और सूर्य में प्रभा मैं हूँ,  चंद्रमा में प्रकाश मैं हूँ,  प्रणवः में वेदों में . . वेदों में प्रणव मैं हूँ !ये बड़ा सूक्ष्म विषय आ रहा है ! प्रणवः सर्व वेदेशु . . .

 

विज्ञानियों का, शरीर शास्त्रियों का ऐसा मानना है कि पति पत्नी जब सेक्स में उतरते है,  विकार में उतरते है . . विकार तो नीचे के केंद्र में आदमी को ले आते है जैसे तलाव के नीचे आप जाओ तो ज्यादा देर नहीं  ठहर सकते, तलाव के ऊपर तो हाउस बोट बनाकर आप घण्टों तक रह सकते है, महीनों भर रह सकते है  ।  ऐसे ही शवासन में आप घण्टों रह सकते है तलाव के ऊपर, सरोवर के ऊपर और सरोवर के नीचे गहराई में आप ज्यादा देर नहीं  रह सकते ।  ऐसे ही राम के जो केंद्र है, शांति के केंद्र है ऊपर है . . ऊपर आदमी प्रेम में, पवित्र प्रेम में, पवित्र शांति में आदमी महीनों भर समाधि में रह सकता है,  घण्टों भर आदमी  सुनसान शांति में, पवित्र शांति में रह सकता है लेकिन घण्टों भर आदमी सेक्स विकार में नहीं  रह सकता  । जैसे सरोवर के तले में आप ज्यादा देर नहीं  रह सकते ऐसे ही आदमी को जब सेक्स उत्पन्न होता है काम विकार, तो काम विकार की घड़ि‍यों में वो ज्यादा देर नहीं  रह सकता फिर उसे ऊपर आना  पड़ता है और नीचे जाते समय उसकी सुषुप्त जो पड़ी हुई शक्तियाँ है उसका जब ह्रास होता है उतनी घड़ी उसको सुख आता है और वो काम का जो सुख है वो काम का सुख राम के सुख से आदमी को नीचे ले आता है ।  शरीर शास्त्रियों का तो इतना भी कहना है कि जिस वक्त आदमी काम सुख भोगता है उस वक्त पत्नी और पुरुष, पुरुष और स्त्री दोनों के शरीर से एक दुर्गंध निकलती है उस पॉइंट पर ।  इतनी गंदी दुर्गंध निकलती है कि उस दुर्गंध को अगर देखे तो एक दूसरे से उबान आ जाये ।  और तुम गृहस्‍थी जीवन में जरा सतर्कता से इसका अनुभव करोगे न तो काम विकार से बचने का सौभाग्य भी मिल जाएगा  ।  जिस वक्त काम विकार में आदमी अत्यंत नीचे उतरा हुआ होता है,  आखरी पॉइंट पर विकार के आखरी पॉइंट पर फिर तुम चेक करना कि मजा के साथ साथ कितनी बदबू आ रही है, कितनी दुर्गंध आ रही है ।

तो श्रीकृष्ण ने दर्गन्ध भी नहीं  कहा,  सुगंध भी नहीं  कहा,  पवित्र गंध कहा है । पवित्र गंध कैसी?  कि जैसी महावीर . . महावीर को तो हम . . प्रसिद्ध है इसलिए उनके नाम का सतउपयोग करते है . . कोई भी योगसाधना करे तो उसके शरीर से एक ऐसी पवित्र गंध निकलती है,  जो तुमको इस नाक से अनुभव नहीं  होगी ।  तुम्हारा कोई कोई तुम्हारे बीच कोई कोई ऐसा प्रेमी हृदय हो, कोई कोई सात्विक पवित्र दिल हो,  कोई कोई जो झेल सकता हो जैसे मछुअन को मच्छी की गंध अच्छी लगती है और दुसरी सुगंध बेकार लगती है,  और किसीको कोई सुगंध अच्छी लगती है ।  ऐसे ही जो आध्यात्मिक जगत में  कुछ ऊँचे उठे हुए है वे आध्यात्मिक पुरुषों की सूक्ष्म अतिसूक्ष्म पवित्र गंध को झेलकर उनका चित्त द्रवीभूत हो जाता है,  उनका चित्त आन्दोलित हो जाता है,  उनका चित्त ईश्वर की तरफ करवट लेने लगता है ।  महावीर के शिष्यों के कहना था कि महावीर इस रेंज में आ गए है ये हम कैसे जानते है?  जिस वक्त हमारे अमुक रेंज में,  अमुक इलाके में . . आप अंधेरे में महावीर को न भी दिखे हमारे गुरुजी को, लेकिन हमको एहसास होता है कि आ गए है! क्योंकि वो आये उसके पहले ही उनको छूकर आने वाली जो हवा है वो गंध पहुँचा देती थी, खबर पहुँचा देती थी कि गुरुजी महाराज आ रहे है,  महावीर आ रहे है ।
तो जिन लोगों ने साधना करके काम रस से ऊपर उठकर पवित्र रस, राम रस लिया है ऐसे व्यक्ति बोलते तो अच्छा है लेकिन ऐसे व्यक्तियों को छूकर जो हवा आती है, ऐसे व्यक्तियों को छूकर जो आँखों के जो वेव्ज आते है वे वेव्ज भी हमारे चित्त को शांति देते है और हमारे चित्त को काम से हटाकर राम के तरफ लगा देते है । इसीलिए कहा गया कि

 “हे गुरुजनों तुम तसल्ली दो सिर्फ बैठे ही रहो महफ़िल का रंग बदल जाएगा, गिरता हुआ दिल भी संभल जाएगा

हमारा दिल गिर रहा है क्रोध में,   हमारा दिल गिर रहा है काम में,   हमारा दिल गिर रहा है विकारों में,   लेकिन जो निर्विकारी पुरुष है, जिसने राम रस को ठीक से जाना है . . . राम रस  की भावना की अलग बात है . . . भगवान राम की भावना किया, अल्लाह मियाँ की भावना किया, खुदा की भावना किया, ये अलग बात है लेकिन खुदा जिससे खुद खुदा है, राम जिससे राम है, कृष्ण जिससे कृष्ण है . . . कर्षति आकर्षति इति कृष्ण. . जो आकर्षित कर दे आनन्दित कर दे उसका नाम कृष्ण है, तो आकर्षित सब आदमियों को प्राणी मात्र को, मनुष्य मात्र को नहीं,  प्राणिमात्र को आकर्षित करता है आनंद,  आकर्षित करता है सुख. . .  चिड़िया भी सुख चाहती है चकोर भी सुख चाहते है, पहलवान भी सुख चाहता है गरीब भी सुख चाहता है ।

एक सेठजी थे । सेठजी ने सुन रखा था कि दो कौवों को एकसाथ देखनेसे आदमी का भाग्य खुलता है, दो कौवों को देखना शुभ माना जाता है ।  नौकर को कह रखा था कि दो कौवे साथ में बैठे हुए मिले तो मुझे खबर करना ।  नौकर इंतजार में था मौका मिल जाय कहीं दो कौवे देखूँ,  दो कौवे देखूँ. . . दो-चार दिन के बाद एक ही जगह पर दो कौवे नौकर ने देखे, तो भागा गया,  सेठजी तो चौथे रूम में थे और सेठजी को बुलाने गए, सेठजी चप्पल वप्पल पहन के बाहर आए  देखा कि दो कौवे तो है नहीं ! एक कौवा तो चला गया था एक ही रहा  ।  सेठ ने नौकर को थप्पड़ मारी,  पिटाई की कि बेवकूफ कहीं का मैं आराम में लेटा था. . जब दो कौवा बैठने वाला ही नहीं  था एक ही कौवा रहा तो फिर  मेरे को तकलीफ क्यों दी । उन्‍होने मारपीट की इतने में कोई मित्र उनके लिए भोजन ले आया  । मेरे घर मेरी माँ नहीं  थी ऐसा ऐसा और आप भेाजन करो । नौकर ने कहा कि सेठजी अच्छा हुआ कि अपने एक कौवा देखा,  एक कौवा देखा तो आपको दावत मिली, एक कौवा देखा तो भोजन मिला और दो कौव्वे देखते तो मेरे जैसी मार मिलती तुमको,  मैंने दो कौवे देखे तो मार खाई और तुमने एक कौवा देखा तो भोजन खा रहे हो ।  ऐसे ही जल में जो रस है, तुम्हारे अंदर रस ये है दो कौवे लेकिन जल के अंदर जो रस है और तुम्हारे अंदर है इन दोनों कौवों में भी रसरूप में एकता है! ग्लास में जो तुमने पेय पिया है तो पीने जैसा, पीने योग्य और पीने वाला इन दोनों के वास्तविकता में एकता है,  दोनों के गहराई में अद्वैत है, बाहर से जल अलग है और तुम अलग हो,  हकीकत में जल और अन्न से ही तुम बने हो और तुम्हारे से ही जल और अन्न  बनता है. . . घास से माँस और माँस से घास. .  अगले इतवार को इसकी मीमांसा किया था कि ये जो कुछ भी दिखता है घास ये घास खाकर माँस बनता है और माँस फिर जला, गला,  सड़ा,  जलाया,  राख बच गयीं, और राख से फिर घास हुआ, शरीर को जला दिया बाष्प हो गया फिर बरसा तो इसमें जो जल तत्व है, पृथ्वी तत्व है, तेज तत्व है, वायु तत्व. . .  तो ये बदलता रहता है घास से माँस,  माँस से घास । हकीकत में देखा जाए तो इनमें जो मूल है. . . इस पुष्प में जो आकर्षण है. . इस पुष्प को देखकर जो तुम्हारे अंदर रस उत्पन्न होता है इसमें वो सुषुप्त रस है, इसमें वो परमात्मा की चेतना है,  सुषुप्त है और तुम्हारे वहाँ जागृत है इसलिए इसको देखकर आप आनंदित होते हो लेकिन तुमको देखकर ये आनंदित नहीं  होता! तुमको देखकर ये गुलाब का फूल आनंदित नहीं  होता लेकिन इसको देखकर तुम आनंदित होते हो. . . यहाँ जगने का सुअवसर है और यहाँ जगने में देर है ! इस गुलाब को तुम खाओ अथवा कोई पशु खाए ,  पशु में से फिर दूध बने और दूध में से फिर वो तुम बनो और फिर  देखो तो गुलाब में से तुम बने और तुम्हारे में से कालांतर में गुलाब बनता है ।  तो जिसको तुम मानते हो “मैं” उसमें तो रूपांतर होता रहता है लेकिन जिसको श्रीकृष्ण “मैं” मानते है उसमें रूपांतर नहीं  होता है ।  ये विषय जरा सूक्ष्म है. . . जिसको हमलोग मैं मानते है उसमें तो रूपांतर होता है. . जिसको श्रीकृष्ण मैं मानते है उसमें रूपांतर नहीं  होता ।

अब दृष्टि . . . कौनसी दृष्टि अच्छी? किसकी दृष्टि में सुख है?  किसकी दृष्टि में शांति है?  किसकी दृष्टि में आनंद है? भगवान की दृष्टि में सुख है? भगवान की दृष्टि सच्ची ?  भगवान की मान्यता
सच्ची की जीव की मान्यता सच्ची? भगवान को जगत जो दिखता है वो सच्चा दिखता है कि हमको
जो जगत दिखता है वो सच्चा दिखता है? मानना पड़ेगा कि हमको जो दिखता है वो हमारे अन्तःकरण की कल्पना, हमारे अन्तःकरण की भावना,  हमारे अन्तःकरण में जिस वक्त विकार है,
हमारे अन्तःकरण में जिस वक्त मलीनता है उस वक्त विकारी भोजन हमे प्यारा लगेगा  ।  हमारे अन्तःकरण में जिस वक्त सत्वगुण है उस वक्त सात्विक भोजन हमे प्यारा लगेगा  । हमारे अन्तःकरण में हमारे हृदय में तुम्हारे लिए, किसी व्यक्ति के लिए यदि राग है तो उसके गुण दिखेंगे,  अगर द्वेष है तो उसके अवगुण दिखेंगे ।  राग, द्वेष तो प्रकृति के है और वो बदलते रहते है इसलिए हम कभी मित्र को शत्रु बना लेते है,  शत्रु को मित्र बना लेते है. . मित्र और शत्रु हम बनाते है क्योंकि हमारे चित्त में जैसे जैसे भाव उठते है, जैसा जैसा विकार होता है तो हमको जगत विकारवाला दिखता है,  हमको जगत बदलनेवाला दिखता है !लेकिन हम तठस्थ ज्ञान में आ जाए . . ईश्वर की आँख से हम जगत को देखने लग जाएं तो मित्र का वास्तविक स्वरूप और शत्रु का वास्तविक स्वरूप दो नहीं  है, दोनों दिखते है लेकिन एक ही है ।  इसलिये सूफी फकीर  कहते है-

दोनों की सूरत एक है, किसको ख़ुदा कहूँ

तुझको खुदा कहूँ,  कि इसको ख़ुदा कहूँ?

दोनों की सूरत एक है जैसे तुम्हारा जीना, तुम्हारा वास्तविक स्वरूप और परमात्मा का वास्तविक स्वरूप एक है,  तुम शरीर को मैं मानते हो, कृष्ण अपने मैं को मैं मानते है । तो वेदों में जो प्रणव है. . सर्ववेदेषु . . . प्रणवः सर्ववेदेषु. . आदि में वो परमात्मा का वास्तविक स्पंदन,  वास्तविक शब्द,  अकार उकार मकार. . . ये  अकार उकार मकार   प्रणवः  ये प्रणव सब वेदों में. . . वेद का कोई अंत नहीं . . . वेद माना ज्ञान. . . ज्ञान का कोई अंत नहीं  है,  जिसका अंत आ गया,  जिसकी सीमा हो गयी वो  ज्ञान नहीं  होता है,  वो भावना होती है,  वो माप होता है लेकिन उस ज्ञान की चार संहिताएँ है इसलिए उस ज्ञान को हम. . वेद माना ज्ञान, जानकारी. . . तो हम चार वेद मानते है । इसकी  1121 अथवा 1127. . . कईं आचार्य 21 मानते है कईं 27 मानते है 1121 या 1127 उपनिषदें है और इन सब उपनिषदों का निचोड़, सार कठवली. .  और इन सब कठवली आदि का सबका सार बीज रूप में, कुँजी रूप में ओंकार है ! अकार उकार मकार . .

विवेकानंद कहते थे सब धर्मग्रंथ, सब शास्त्र, सब सम्प्रदायों के  शास्‍त्र नितांत तलाव में चले जाए, रसातल में चले जाए,  फिर भी जबतक कोई सद्गुरु और सतशिष्य धरती पर मौजूद है तो धर्म फिरसे उठेगा । सतशिष्य कौन है?  कि ॐ की व्याख्या सुन सके और सतगुरु कौन है?  जिसके चित्त से ओमकार का अनाहद नाद गूँज सके  ।  तो – प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु

हे अर्जुन मैं जल में रस हूँ,  चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ,  संपूर्ण वेदों में ओंकार हूँ. . . अकार उकार और मकार. . “अ”  को छोड़कर आप  क नहीं  बोल सकते है. . . कोई भी आप स्वर बोले. . . स्वर और व्यंजन होते है न. . . तो बिना अकार के कोई आप बोले . . नहीं  होगा!. . तो,  अकार जो है सृष्टि का स्थूल विश्व,  उकार तेजस,   मकार प्राज्ञ और ॐ की जो अर्ध मात्रा है वो तूर्य ।  अभी तो रशिया के वैज्ञानिक चकित हो गए कि कोई भी शब्द आदमी भीतर कुछ सोचे और बाहर कुछ बोले तो दोनों उसकी कंप्यूटर में आ जाते है  ।  लेकिन ओमकार को भीतर से सोचता है और बाहर कुछ बोलता है तो भी दोनों जगह वो ही ओमकार आ जाता है । बाहर ॐ बोले और भीतर कुछ सोचे तो भी दोनों जगह ॐ आ जाता है ।  तो ये ॐ जो है वो और शब्दों से बिल्कुल अलग पड़ता है और ऋषियों ने इस ॐ की आकृति भी निराली बना दी कि तुम इसको अपने लौकिक भाषा के शब्दों में नहीं  लिखते  ।  इस ॐ की आकृति निराली है । तो ऐसा कोई मंत्र नहीं  जिसमें ॐ का उपयोग न किया गया हो, जिसमें ॐ का उपयोग नहीं  है वो बीज मंत्र से रहित, ॐ जो है सबका बीज है, सबका माय बाप है मूल कारण है  ।  और ये ॐ तुम्हारे जन्म से लेकर मृत्यू तक और मृत्यू से लेकर जन्म तक ये जो चैतन्य स्वरूप परमात्मा है इसी परमात्मा का वास्तविक ध्वनि प्रणवः ।  सब वेदों में सब ज्ञानों में जो ॐ है वो मैं हूँ ।

बच्चा पैदा होता है तो उसका ध्वनि देखो उआं  उआं  उआं,  मरीज जब हार जाता है चादर ओढ़ के पड़ा है तो उसकी ध्वनि देखो उं उं उं उं बोलता है  ।  तो ये ओमकार जो है,  तुम्हारा जो चैतन्य आत्मा
है इसका वास्तविक ध्वनि ओमकार है । शब्द दो प्रकार के होते है, एक अनाहत होते है, दूसरे आहत होते है ।  आहत शब्द जो टकराव से, तालू से,  शरीर से कहीं भी भाग से टकराके निकलते है वो आहत होते है और ओमकार जो है वो अनाहत है. . . अनाहत चक्र. .

किन्नाराम नामके संत हो गए काशी में बड़े प्रसिद्ध संत,  बड़े चमत्कारी सामर्थ्य वान । उनके शिष्यों का कहना था कि हमारे गुरुजी साधना बताते है कि नाभि केंद्र ऊपर शब्द अनुसंधान योग किया जाय ।  तो नाभि केंद्र पर ॐ की ध्वनि हो रही है उसका अनुसंधान करके ये शब्द ब्रह्म की उपासना करते है  ।  कुछ लोग यहाँ आज्ञा चक्र पर ज्योत निरंजन ओमकार सोहं सतनाम राधा स्वामी वाले इस प्रकार का जप देते है अपने शिष्यों को और वो जप करते है, ये शब्द की उपासना है । कुछ लोग हृदय में  इस शब्द का चिंतन करते है । तो,  जल में भगवान के सूक्ष्म स्वरूप को, तेज में भगवान के
सूक्ष्म स्वरूप को और शब्द में भगवान के सूक्ष्म स्वरूप को, अनाहत स्वरूप को जानकर सर्व ब्रह्म की जो भावना करता है वो आगे चलकर सर्व ब्रह्म तक पहुँच जाता है । दो प्रकार के व्यक्ति होते है । रमण महर्षी के पास भी ऐसे ही दो प्रकार के पार्टियाँ बन गई । जिनकी बुद्धि तत्वज्ञान को समझने में तत्वज्ञान को जानने में असमर्थ है वे भावना का अवलंबन लेते है । और जिनकी बुद्धि सुयोग्य है, तत्वज्ञान को समझने में कुशल है वे लोग तो शब्द को,  उपदेश को, गुरु के उपदेश को सुनकर उस गुरु के उपदेश को अपना अनुभव बनाके मुक्त हो जाते है ।  तो रमण महर्षी के इर्द गिर्द दो प्रकार के व्यक्ति हो गए . . एक पार्टी ऐसा कहती थी कि रमण महर्षी तो साक्षात भगवान है । इनके करीब बैठते है तो मन निर्विकारी होने लगता है, इनकी दृष्टि पड़ती है तो मन में शांति आने लगती है, और भगवान को तो हमने सुना है लेकिन इस भगवान को तो हमने देखा है! तो एक
पार्टी जो थी रमण महर्षी को भगवान मानती थी . . भावना से. . भावना वाली पार्टी । और दुसरी जो थी, रमण महर्षी कहते थे कि खोज करो “मैं कौन हूँ ” . . . अब”मैं कौन हूँ ” उसकी खोज करते करते अनाहत तत्व में ठहर जाते थे और वो ज्ञान के रास्ते चल पड़ते थे । दोनों अच्छे  है लेकिन भावना प्रधान वाले के लिए भावना एक साधन है लेकिन ज्ञान  प्रधान वाले के लिए तो श्रोतव्य है ।  बार बार कोई शब्द सुना जाय . . . तो शब्द में बड़ी शक्ति है. . मैने यहाँ शब्द कहा. . मैं यहाँ बोलता हूँ  ये रेडियो स्टेशन के यंत्र हो तो मेरा अभी यहाँ का शब्द हजारों माइल दूर ऑल इंडिया रेडियो दिल्ली में बोलता है 2-4सेकंड, 6 सेकंड में यहाँ बात पहुँच जाती है । वहाँ से बात 2 सेकंड में यहाँ पहुँच जाती है,  तो शब्द का नाश नहीं  हुआ,  यंत्रों ने 2 सेकंड में, 4 सेकंड में पकड़ लिया. . जो 2 सेकंड के बाद पकड़ सकते है तो ऐसे यंत्रों का विकास हो जो 10 सेकंड के बाद भी पकड़े दूरी के शब्द. . और ऐसे कई साधनों का विकास हो . .  विज्ञानी लोग बोलते है कि श्रीकृष्ण ने यदि गीता कही है तो हम कुछ वर्षों के बाद वहीं गीता श्रीकृष्ण की गीता फिर पकड़ लेंगे क्योंकि शब्द का नाश नहीं  होता,  शब्द आकाश में गूँजते रहते है, शब्द हमें भले  सुनाई न पड़े . . लेकिन वो यंत्र होते है तो यहाँ अभी के बोले हुए शब्द आप देस परदेस में इसी समय कुछ घड़ियों के बाद,  कुछ मिनट में, कुछ सेकंड में पहुँच जाते है । तो जो  कुछ सेकंड में पहुँचते है तो उसके ऐसे कुछ यंत्र है कि कुछ वर्षों के बाद भी उनको खोज लिया जाय । तो शब्द का नाश नहीं  होता इसलिए कईं उपासक, कईं साधक लोग,  कईं भक्त लोग, कईं अच्छे अच्छे सन्त अपने भक्तों को बोलते है कि बुरा कभी बोलना नहीं   ।  क्योंकि तुम कुछ बुरा बोलकर अपशब्द बोलकर भी उस आकाश में, उस व्यापक जो शब्द को एकत्रित करने का जो जगह है उसमें कुछ खलल पहुँचाते हो । तो जो कुछ तुम बोलते हो तो बढिया बोलो, अच्छा  बोलो, वो तुम्हारा सब पड़ा रह जाता है ।  अच्छा नहीं  बोल सको तो बुरा तो कभी न बोलो  । तो आकाश में जो शब्द गुण है वो मैं हूँ, सूक्ष्म. .  वेदों में जो ओमकार है वो मैं हूँ । तो सूक्ष्म तत्व की तरफ इशारा किया कि शब्द में मैं हूँ,  ओमकार. .  वेदों में जो ओमकार है,  वचनों में ओमकार  वेदों में जो ओमकार है वो मैं हूँ । तो ॐ को हम दो ढंग से देखें. .  एक तो स्थूल रूप से ॐ की आकृति . . उस स्थूल रूप से आकृति को हम आज्ञा चक्र पर ध्यान लगाकर अथवा हृदय में उसकी भावना करें अथवा नाभि केंद्र पर उसका ध्यान धरे तो वे हमारी सुषुप्त ओमकार की जो सूक्ष्म शक्तियाँ है वो विकसित हो सकती है ।  दूसरा, हम ओमकार का उच्चारण करते है वैखरी के द्वारा,  वैखरी से जप करते करते फिर मध्यमा में जाएँ,  मध्यमा से फिर पश्यंति में जाए,  पश्यंति से फिर हम जब परा में आ जाते है तो अत्यंत सूक्ष्म अवस्था मौन को हम उपलब्ध हो जाते है और वो जो मौन कि अवस्था है वैखरी मध्यमा पश्यंति और परा . . परा वाणी में पहुँच जाता है तो उस आदमी को जो रस मिलता है उस आदमी को जो सुख मिलता है,  उस आदमी को जो जीवन धन्य-धन्यता का जो अनुभव होता है उसके आगे इस पृथ्वी के राज्य की तो कोई बात नहीं  त्रिलोकी का राज्य भी तुच्छ हो जाता है ।

मैंने वो मारवाड़ के संत की बात बताई तुमको उत्तंग ऋषि की. . तो उत्तंग ऋषि के साथ श्रीकृष्ण की बातचीत हुई . . . श्रीकृष्ण की बातचीत से एक बार तो उत्तंग ऋषि कुपित हो गए क्योंकि कौरवों का नाश हुआ ।  फिर जब श्रीकृष्ण ने बताया अपनी व्यापकता, अपनी सूक्ष्मता तो उत्तंग ऋषि प्रसन्न हो गए । और श्रीकृष्ण का आदर किया । श्रीकृष्ण का आदर करते हुए उत्तंग ऋषि ने उनको विदाई दी तो भगवान श्रीकृष्ण ने कहा कि “ऋषि तुम कुछ माँग लो” ।

बोले,  “भगवान जब तुम सभी हो तो तुम्हारे विश्व रूप का, तुम्हारे सर्व व्यापक रूप का मुझे दर्शन कराओ” ।

भगवान प्रसन्न होकर सर्व व्यापक रूप का  दर्शन कराए । और फिर अपने ही कृष्ण रूप में आ गए और कहा कि “उत्तंग और कुछ तुम माँग लो । ”

“भगवान यहाँ मारवाड़ में जल नहीं  है, जल की बड़ी तंगी रहती है कोई कृपा करो यहाँ जल हो जाये । ”

भगवान ने कहा ” ऋषि जब तुम्हे  प्यास लगे, जब तुम  जल का स्मरण करोगे तो उस वक्त जल तुमको पीने को मिल जाएगा। ”

ऐसा कहके सुभद्रा के साथ श्रीकृष्ण चल दिए द्वारका की तरफ  ।  गर्मियों के दिन थे । मारवाड़ भूमि में और गर्मी. . ऋषि को बहुत प्यास लगी, पानी की तकलीफ रही उसमें समय स्मरण हो आया कि मुझे श्रीकृष्ण ने वरदान दिया है कि जब जब जल की जरूरत पड़े तो मुझे स्मरण करना ।

उत्तंग ऋषि ने श्रीकृष्ण का स्मरण किया . . श्रीकृष्ण का स्मरण किया,  घड़ीभर में देखा तो कोई चांडाल आ रहा है । चांडाल कुत्तों से घिरा हुआ आ रहा है, मलिन वस्त्र है, और भी अद्भुत उसने देखा कि चांडाल पेशाब करता हुआ आ रहा है, धार बहती आ रही है उसकी पेशाब की और नजिक आ कर खड़ा हो गया ।

“ऋषि तुम्हें प्यास लगी है?  पी लो । ”

गुस्सा उत्तंग ऋषि को तो क्रोध आया कि. . .
“तू समझता क्या है?  तुम्हे शरम नहीं  आती एक साधु को इस रूप में तुम पानी पिलाना चाहते हो श्राप देता हुँ”

इतना सुनकर वो तो चांडाल उसी वक्त अंतर्ध्यान हो गया कुत्तों सहित और वहाँ भगवान श्रीकृष्ण प्रगट हुए । श्रीकृष्ण पर उत्तंग ऋषि नाराज हो गए कि तुम मेरे को वरदान दे गए थे कि जब प्यास लगे तो प्यास ऐसे ढंग से मिटाने के लिए?   ऐसा चांडाल मेरे पास भेजा तुम क्या समझते हो? ”

श्रीकृष्ण ने कहा”वो चांडाल नहीं  था,  वो इंद्र था । इंद्र को मैंने मनाया कि तुमको जब प्यास लगे तो वो तुम्हें अपना अमृत पिलाए लेकिन इंद्र नहीं  मान रहा था । फिर इंद्र ने शर्त डाला कि आप यदि केशव कहते है तो मैं उनको पिलाऊँगा लेकिन मैं ऐसा रूप बनाकर जाऊँ और वो मुझे स्वीकार कर ले तभी तो वो स्वर्ग का अमृत  पिएँगे । तो मैंने तुमको स्वर्ग का अमृत पिलवाकर अजर अमर करना चाहा था लेकिन तुम अच्छे रूप में तो मेरेको देखते हो लेकिन बुरे रूपों में भी सत्ता मेरी है वो तुम्हारेको तत्वज्ञान नहीं  है! इसीलिए तुम वो अमृत का मौका चूक गए! चलो,  फिर भी कोई बात नहीं , अब मैं जाता हुँ, अब तुम्हें जब जब प्यास लगे तो आकाश की तरफ निहारना और बादल घिर जाएँगे, बरसेंगे और तुम्हारी प्यास तृप्त हो जाएगी । और उन बादलों का नाम उत्तंग बादलों में उत्तंग मेघ होगा ।

तबसे कहा जाता है कि मारवाड़ में जो बरसते है वो उत्तंग मेघ होते है कभी कभी ऐसी लोक वायका भी है और पुराणों में बात आती है ।

खैर. . . जो आदमी. . . दुसरी एक बात थी कि मैंने एक बार बताया था कि तुलसीदास जी गोस्वामी तुलसीदास जी . . वो यात्रा करने को जा रहे थे रामेश्वर की तरफ. . . भगवान जिस रास्ते से पैदल पैदल गए उसी जंगल झाड़ियों के रास्ते से गोस्वामी तुलसीदास यात्रा करने को जा रहे थे । यात्रा में एक सिकुड़ा रास्ता आया और झाड़ी. . .  छोटासा रास्ता था, उस रास्ते से कोई दुर्जन आदमी किसी वैश्या के साथ भोग विकार कर रहा था । अब यदि वापस जाते है तो उसको संकोच होता है और वहाँ से गुजरते है तो भी संकोच होता है, क्या करूँ? क्षणभर में बुद्धि ने निर्णय दिया कि आँखे बंद करके अंधे का ढोंग कर लो! तुलसीदास ने आँखे बंद कर दी और लकड़ी ठोकते ठोकते “भाई अंधे को कोई रास्ता दिखा दे, अंधे को कोई रास्ता दिखा दे”. . . विकारी व्यक्ति ने देखा कि ठीक है ये बाबा है तो सही अंधा है कोई बात नहीं ! अपने  ए बाबा जहाँ से तुम आये वहाँ से गुजर जाओ सीधे ही रास्ता है चले जाओ”

ये तो अंधे का ढोंग कर रहा था!अंधे तो थे नहीं !आँखे बंद करली थी खाली. .  थोड़ा दूरी गए उस घाटी से निकले आँखे खोली तो सियारामजी खड़े मिले! तो तुलसीदास जी पूछते है कि प्रभु इस जंगल मे ऐसी जगह पर आप कैसे?
“महाराज! अच्‍छों में अच्छी अच्छी चीजों को तो सब कोई प्यार करता है . . अच्छी अच्छी अनुकूल अवस्थाओं को तो सब लोग स्वीकार करते है, भगवान की प्रसादी मानते है लेकिन जो प्रतिकूलता को भी प्रभु की लीला मानता है, प्रभु की प्रसादी मानता है. . जो अच्‍छों में तो ईश्वर का दर्शन करते है ऐसे लोग तो बहुत है लेकिन जो बुरों में भी ईश्वर का दर्शन करें ऐसों का दर्शन करने को मैं आ जाता हुँ !

तो हमारा चित्त अमुक प्रकार से अमुक भावों से भर जाता है तो हमारी कुछ आदत पड़ जाती है . . तो हमारे आदत के अनुकूल कोई बात होती है, हमारे आदत के अनुकूल कोई पदार्थ होता है, हमारे आदत के अनुकूल कोई घटना होती है तो हम हर्षित होते है । और हमारे आदत के प्रतिकूल जो होती है तो हम शोकातुर होते है! हर्ष भी तुम्हारे चित्त को हिलाता है शोक  भी तुम्हारे चित्त को हिलाता है ! तो ये ज्ञान नहीं  हुआ,  ये दशाएँ हुई चित्त की. . चित्त की दशा में जबतक आप रहो फिर चाहे भगवान कृष्ण के साथ रह लो चाहे भगवान विष्णु के साथ रह लो चाहे प्राइम मिनिस्टर के साथ रह लो लेकिन चित्त की दशा में जबतक बना रहा हमारा जीना तबतक हमारा मरना भी मौजूद है । वेदांत हमें ऐसी चीज बताता है कि चित्त . . एक चित्त नहीं  हजारों हजारों चित्त जिस चैतन्य में त्रसरेणु कई नाईं फुरफुरा रहे है वो चैतन्य तुम्हारा आत्मा  है  । उसको अगर तुम जान लो तो अनुकूलता में तुम हर्षित नहीं  होओगे और प्रतिकूलता में तुम विक्षोभ को नहीं  प्राप्त होओगे,  तुम असंग द्रष्टा सुख रूप अपने आप को जानकर सदा के लिए मुक्त हो जाओगे । मरने के बाद मुक्ति नहीं  जीते जी मुक्ति!

मुआ पछिनो वायदो नकामो को जाणे छे काल . . .

आज अत्यारे अब घड़ी साधु जोइलो नकदी  रोकड़ माल…

तुम इस श्लोक से इतना तो जरूर समझ सकते है कि . . .

प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु 

भगवान  ये बताते है कि हे अर्जुन मैं जल में रस हुँ,  चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश हुँ, संपूर्ण वेदों में ओमकार हुँ,  आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व मैं हुँ. . पुरुषों में पुरुषत्व. . . पुरुषों में पुरुषत्व क्या है? पुरुष वह है जो पुरुषार्थ करें. . .

पुरुषार्थ क्या है? . . कि पुरुषः अर्थः इति पुरुषार्थ. . जो परब्रह्म परमात्मा पुरुष है उसको पाने के लिए जो प्रयत्न करें उसको पुरूष बोलते है ।

 

इतवार को कहा था कि हमारे मुँह मे बत्तीस दाँत है । एक दाँत टूट जाए तो जीभ बार बार वहीं जाती है. . जो इकत्तीस है तो उसकी कोई कदर नहीं , बत्तीस थे तब कोई कदर नहीं  और जब नहीं  है तब जीभ बार बार जाती है । एक बार दो बार देख लिया कि टूट गया बात खत्म हो गई. .  नहीं !फिर भी वहीं जाती है अभाव में. . तो हमारे मन का स्वभाव है अभाव में जाता है! जो नहीं  है उसको पाने के लिए जाता है और जो मिल गया तो उसकी कोइ कीमत नहीं !

तो परमात्मा सदा मिला हुआ है उसके तरफ हमारा मन नहीं  जाता और संसार हमारे पास है नहीं  और रहेगा नहीं  . . तो जो हैं नहीं  उसको पा रहे है . . उसको पा रहे है नहीं , जो है वो भी तो जा रहा है! ये बात आपको जरा सूक्ष्म लगेगी थोड़ी सूखी लगेगी थोड़ी कठिन लगेगी लेकिन है नितांत आपके हित की, ध्यान से सुन लेना ।

पुरुष वह है पुरुषार्थ करके जो है उसको ठीक से समझ ले. .  जो सदा मौजूद है और जिसको पाने के बाद कुछ पाना नहीं , जिसको जानने के बाद कुछ जानना नहीं , जिसमें स्थिर होने के बाद बड़े भारी दुःख भी तुम्हें चलित न कर सके ऐसे तत्व को पाना पुरुषार्थ है ।

लोग तो क्या समझते,  जिसके पास यश नहीं  वो यश पाने को पुरुषार्थ समझ लेता है, धन नहीं  है तो धन पाने को पुरुषार्थ समझ लेता है, बाहर की पढ़ाई लिखाई नहीं  है तो पढ़ने पुरूषार्थ समझ लेता है, कार नहीं  है तो कार लाने को पुरुषार्थ समझ लेता है, हलवा नहीं  है यो हलवा बनाने को पुरुषार्थ मान लेता है. . जो हलवा अभी नहीं  है उसको तुमने बनाया, थोड़ी देर में तो नहीं  हो जाएगा भैया! कितनी देर पेट में रखोगे?  कितनी देर संभालोगे? जो नहीं  था उसको तुमने बनाया, जो नहीं  है उसको तुमने लाया, जो जगत को जो नहीं  है और नहीं  की तरफ जा रही है, पहले नहीं  था बाद में नहीं  रहेगा तो अभी भी तो नहीं  की तरफ जा रहा है. . जो नहीं  की तरफ जा रहा नश्वर भोग नश्वर सत्ता नश्वर पद उसको जो थामने में लग जाय उसको अज्ञानी बोलते है शास्त्रीय भाषा में और जो पहले था अब भी है बाद में रहे उस तत्व को प्राप्त करके उस तत्व को जानकर जो निहाल होने को तत्पर है उसको बोलते है पुरुषार्थ,  उसको बोलते है मनुष्य, पूरुषः . . .

पुरुषः अर्थ इति पुरुषार्थ . .

उस पुरुष को जिसको पाने के बाद कुछ पाना नहीं . .  जो सदा प्राप्त है उसकी तरफ हमारी नजर नहीं  जाती और जो सदा छूट रहा है उसीको हम संभालने में लग रहे है ।   शरीर सदा मौत की तरफ बढ़ रहा है । शरीर एक एक श्वास हमारा मौत की तरफ बढ़ रहा है, छूट रहा है । जब शरीर छूट रहे है तो शरीर के भोग क्यों नहीं  छूटेंगे? शरीर के पद क्यों नहीं  छूटेंगे? शरीर के नाम रूप के तरफ हम . . जो  नहीं  है, जो शाश्वत नहीं  है उसकी तरफ हम लगे है और जो शाश्वत है उसके तरफ की कोई खबर नहीं ! कोई लोग लगते है  भजन को पूजन को तो भाव करते है. . . हे भगवान हे दयालू तू दर्शन दे!. . जो अभी आकृति‍ नहीं  है वो आ जाय! अभी जो अभी नहीं  है वो आएगी तो भी तो नहीं  हो जाएगी !जय श्रीकृष्ण! अभी जो पत्नी नहीं  है वो एक दिन नहीं  हो जाएगी, अभी जो कार नहीं  है आएगी तो एक दिन नहीं  हो जाएगी, अभी जो प्रतिष्ठा नहीं  है वो एक बार आएगी तो फिर हमारे जैसे तुम्हारे जैसे कईं प्रसिद्ध प्रतिष्ठित लोग हो गए होंगे जिनकी गिनती रखना असंभव है  । लेकिन जो सदा के साथ  तुम्हारे साथ था, अब भी है, और मृत्यु के बाद भी तुम्हारे साथ रहेगा और उस तत्व को जो पाने को पुरुषार्थ करे वो पुरुष है!तो पुरुषों में जो पुरुषत्‍व है, वो पुरुषार्थ करने का जो पवित्र पुरूषार्थ करने की जो हिम्मत है. .  तो भगवान हिम्मत भी देते है और हिम्मत का फल जो अपना स्वरूप वो भी उसको भी प्रगट कर देते है । तो. .

प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषम् नृषु

नरों में, मनुष्यों में जो पुरुषत्व है वो मैं हूँ और आकाश में जो सूक्ष्म शब्द है वो मैं हूँ. . . तो पृथ्वी में जो पवित्र गंध है, पवित्र गंध है वो मैं हूँ, जल में जो रस है वो मैं हूँ, सूर्य में और चंद्रमा में जो प्रकाश है वो मैं हूँ, पुरुषों में जो पुरुषत्व है वो मैं हूँ. . . तो बताओ तुम्हारे में थोडा पुरुषत्व है कि नहीं ?  तुम्हारे जीभ  में रस है कि नहीं ? तुम्हारे में अंदर प्रकाश है इसलिए बाहर  के प्रकाश को तुम समझ सकते हो, सुन सकते हो । जो कृष्ण में था वही का वही उतने का उतना वैसे का वैसा पूरे का पूरा . . . मैंने अगले इतवार को बताया था मेरे पास जो रूप है, रंग है, जो चेहरा है, जो चीज है, हो सकता है कि वैसी की वैसी उतनी की उतनी दूसरे के पास नहीं  है और जो दूसरे के पास है वो तीसरे के पास नहीं . . तो एक चेहरा दूसरे चेहरे से नहीं  मिलता,  एक व्यक्ति की धन सम्पत्ति दूसरे के पास उतनी बराबर नहीं  होती  । ऐसा कोई जोड़ा नहीं  मिलेगा कि दोनों को एक जितना ही धन एक जितना ही रूप एक जैसा ही रंग एक जैसा ही बुद्धि ऐसे दो व्यक्ति पूरी पृथ्वी पर नहीं  मिलेंगे पूरे ब्रम्हांड में नहीं  मिलेंगे!

छे कोई ऐवो माणस, एना ने एना जेवो बीजो माणस सोधी लावे एवी कोई बेन छे के एना ने एना जेवी बीजी  सोधी लावे एटलाज दिवसनी एटलाज  महीनानी एटलाज रूप नी एटलाज रंग नी एटलीज उंची एटलीज लांबी   एटलीज पौडी एटलीज जाड़ी एटलीज पातडी एटलीज काली एटलीज धोली ऐवी न ऐवी बीजी कोई सोधी लावे अने एनी पासे जेटला पैसा छे जेटला छोकरा छे एटला न एटला पेली ने होय एने जवा छोकरा छे तेने तेवा न तेवा छोकरा होय…

छोकराओं की बात नहीं  अपना चेहरा दूसरों से मिला के ले आओ!नहीं  होता!. . तो बाहर की जो नहीं  चीजे है वो बराबरी की दो व्यक्तियों को नहीं  मिलती । ठीक है न? इस बात को तो मानोगे न तुम?

भावना की, भगत की बुद्धि से मानोगे  कि वकील की बुद्धि से मानोगे? वकील बुद्धि से भी मान सकते हो भगत की बुद्धि से भी मान सकते है. . . बाहर की चीजें दो व्यक्तियों को एक जैसी नहीं  है  । लेकिन करोड़ों करोड़ों व्यक्तियों को भीतर का तत्व एक का एक! ईश्वर. . जो चैतन्य आत्मा मेरे पास है वही का वही उतने का उतना वैसे का वैसा तुम्हारे पास है! जिस सत्ता से मेरी आँख देखती है वही की वही सत्ता तुम्हारे आँखों को देखने की शक्ति देती है । जिस सत्ता से मेरी वाणी चलती है उसी सत्ता से तुम्हारी जीभ भी चलती है । जिस सत्ता से मेरे कान सुनते है उसी सत्ता से तुम्हारे कान सुनते है । तो भगवान, भगवद सत्ता सबमें वही की वही! तो जगत के पदार्थ मिलते है तो बराबरी के दूसरे को नहीं  मिलते,  लेकिन भगवान जब मिलता है तो सबको बराबरी का मिलता है. .  जो परमात्मा मेरेको मिला है तुमको भी उतने का उतना जो वशिष्ठ जी को मिला था, जो कबीर को मिला था, जो नानक को मिला था, जो श्रीकृष्ण के हृदय में चमका है, जो श्रीराम के हृदय में चमका है, जो मोहम्मद के हृदय में चमका है, जो ईसा के हृदय में चमका है . . तुमको साक्षात्कार होगा तो तुम्हारे अंदर भी उतने का उतना,  वैसे का वैसा और वही का वही होता है तो इसलिए ज्ञानी अनेक होते हुए भी उनका अनुभव एक हो जाता है!

ऋषि कहता है. .

पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।  पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ 

वह पूर्ण है! और पूर्ण का मतलब ऐसा नहीं  कि आधा – पूरा . . हमारा जो गणित है. .  एक लाख रुपये से एक नया पैसा निकालो तो आंकड़ा टूट जाएगा और दो पैसे डालो तो भी आंकड़ा टूट जाएगा. . वो पूर्ण  में से  तो कितना भी निकले तबभी पूर्ण, कितना भी  प्रविष्ट हो जाये तबभी पूर्ण! ऐसा जो पूर्णस्वरूप है वो पूर्ण स्वरूप सबका आत्मा है,   जो कृष्ण का आत्मा है । अगले इतवार को सातवा  और छठा श्लोक चला था

सुत्रे मणी गणा एव. .

जैसे सूत की मणियाँ सूत के धागे में ऐसे ही वो चैतन्य सारे जगत में ओतप्रोत है । इस प्रकार  का ज्ञान यदि साधक को. . .  शब्द में इतनी शक्ति है  कि बार बार जो शब्द सुने जाते है उस प्रकार की चित्त की वृत्ति बन जाती है  । तो बार बार श्रवण करनेसे . . .

दो प्रकार के व्यक्ति होते है -चित्त मलीन अकृतउपासक और दूसरे होते है कृत उपासक  ।  अकृत उपासक माना जिसने धरम, करम, सेवा, पूजा करके अपने हृदय को पवित्र नहीं  किया ।  उसको भीतर की शांति, भीतर का सुख का कोई पता नहीं  और उसकी तरफ उसका लगाव भी नहीं  होता । मन की मलीनता के कारण हृदय में छिपे हुए आत्मा की तरफ, हृदय में छिपे हुए परमात्मा की तरफ झुकाव नहीं  होता और भीतर बैठे हुए रसस्वरूप परमात्मा का रस नहीं  आता और आदमी बाहर के रसों में अपना जीवन गंवा देता है । अच्छा. . .

तो बाहर के रसों में जीवन न गंवाकर भीतर का रस पाने की इच्छा  करनेवाले दो प्रकार के व्यक्ति होते है. . एक होते है कृत उपासक, दूसरे होते है अकृत उपासक ।  कृत उपासक क्या?  जिसने उपासना की है. . .  धरम,  करम,  करके दान, पुण्य,  सेवा, स्मरण, परोपकार आदि करके जिसने अपने हृदय को सुयोग्य बनाया है ऐसे व्यक्ति को तत्वज्ञान की थोडीसी बातें सुनकर आत्म विश्रांति‍ हो जाएगी,  आत्म दर्शन हो जाएगा, प्रभु का दर्शन ही जायेगा, प्रभु तत्व का रस मिल जाएगा ।  दूसरे वे व्यक्ति है कि जिन्होंने उपासना नहीं  की है ।  तो वे लोग  सुनेंगे तो आत्मज्ञान तो नहीं  होगा, साक्षात्कार तो नहीं  होगा.
. . . लेकिन सुनते सुनते कल्मष कटते जाएँगे,  सुनते सुनते पाप कट जाएँगे,   समझ में आ जाए तो तो बेड़ा पार है,  लेकिन जैसे बार बार पानी की धार पड़ते हुए अति बरसात पड़ती है तो मारवाड़ में भी हरियाली हो जाती है । ऐसे ही जिसका पूरा थोथा हॄदय है  वो भी बार बार ये तत्वज्ञान की बातें सुनता है तबभी उसमें शांति, आनन्द और उपासना के योग्य हृदय बन जाता है ।

वेद के एक लाख मंत्र है । 80हजार मंत्र कर्मकांड के है,  16 हजार मंत्र उपासना के है और 4हजार मंत्र है ज्ञान के ।  तो 80हजार मंत्र,  हररोज नये मंत्र से तुम कर्मकांड करो तो भी कर सकते हो,  ऐसे  विभिन्न विभिन्न मंत्र है सुंदर  ।

वेदांत को बार बार श्रवण करे तो 80हजार मंत्र के अनुष्ठान का फल -अन्तःकरण की शुद्धि हो जाएगी । सुना हुआ. . तुम न भी चाहो तबभी सुने हुए शब्द तुम्हारे चित्त में वही भावना पैदा कर देते है. . . वही विचार पैदा कर लेते है. . इसलिए सुनने में खबरदारी रखो. . मलीन वचन सुनो नहीं . . तुम्हारे को जीवभाव में, विकारों में बाँध ले ऐसे  साहित्य को, ऐसे वचनों को सुनो नहीं , पढ़ो नहीं  ।  तो वेदांत को बार बार सुनने से 80 हजार मंत्र कर्मकांड का काम पूरा हो जाता है!

बार बार सुने हुए को फिर मनन करने लग जाओ तो 16हजार मंत्र जो उपासना कांड के है वेद के उसका काम पूरा हो जाता है, उसका फल मिल जाता है ।

बाकी के रहे 4हजार. . . 4हजार को. .  सुने हुए को मनन करो. . मनन किये हुए को करते करते निदिध्यासन. . उसी रस में डुबकी मारते जाओ तो 4हजार मंत्रों का काम भी पूरा हो जाता है, फिर प्रणवः सर्व वेदेशु . . . उस प्रणवः के तत्व का ज्ञान मिल जाय. . . उसी वक्त साधक कृत कृत्य हो जाता है,  जो पाने योग्य था जिसके लिए मनुष्य जन्म हुआ था वो सिद्ध हो जाता है ।

अगर इस तत्व को पुरुषार्थ करके नहीं  पाया तो मनुष्य जन्म व्यर्थ गंवा दिया! धन इकठ्ठा किया, यश इकठ्ठा किया, कुछ किया,  कुछ किया, मृत्यु के झटके में सब छूट जाएगा । इसलिए सबकुछ पाने के बाद भी ये पाना बाकी रह जाता है और इसको पा लिया तो सबकुछ न भी पाओ तोभी कोई परवाह नहीं ! एक साधे सब सधे, सब साधे सब जाए. . . सब इकठ्ठा कर लो, सब पा लो लेकिन जिससे पाया जाता है उसकी तरफ पीठ करके जीओ तो तुम्हारे पाए हुए की कोई कीमत नहीं ! और जिससे पाया जाता है उसको जरा तुमने समझा, उसको पाने के लिए तुमने थोड़ी महनत की तो तुमने अपना तो कल्याण किया अपनी 21 पीढ़ियों का भी कल्याण कर दिया !

जनक आदि की कईं कथाएँ आती है. . .  कर्नल का साथी था नौकर, उससे किसीने पूछा कि तुम्हारे साहब को मच्छर नहीं  काँटाते ?  मच्छरदानी नहीं  लगाते?  बोले,  हमारे साहब इतना पीते है, इतना पीते है कि आधी रात तो बेहोश होते है, उनको पता ही नहीं  होता और जब वो होश में आते है तो मच्छर बेहोश हो जाते है! मच्छरों ने जो साहब को काँटा तो ब्लड में जो अल्कोहल था न वो भी तो आया न तो फिर मच्छर बेहोश हो जाते है!. . . नहीं  समझा अभी तुम?  दारू इतना पीते है कि होश में भी नहीं  होते है, मच्छर काटते है तो पता नहीं !और जब होश में आते है तो मच्छर स्वयं ब्लड के असर से बेहोश होते है ।   दारू तो कभी होश में और कभी बेहोशी में लाता है लेकिन आत्मज्ञान का दारू एक बार पीओ, एक बार होश में आ जाओ फिर बेहोशी कभी नहीं  होती । एक बार होश में आ जाओ उस परमात्म तत्व को देख जान के, फिर कभी बेहोशी नहीं  आती । सो ज्ञानी को सोते समय नींद में भी होश में होता है ।  प्रगाढ़ निद्रा में भी वो निद्रा को देखता रहता है,  निद्रा से पृथक होता है । सच पूछो तो तुम सो जाते हो लेकिन तुम्हारा वो यार तो जगता ही रहता है,  वो कभी थकता ही नहीं !प्राणों को वोही तो चला रहा है, बालों को वोही बढ़ा रहा है, तुम्हारे रक्त वाहिनियों में  दबकार्य उसीकी सत्ता है । तुम्हारी आँख की निगाहें उसीकी सत्ता है,  तुम्हारा हर सोच विचार का केंद्र अभ्युदान, अभ्युदय स्थान. . . जैसे तरंग का अभ्युदय स्थान क्या है, तरंग का उद्गम स्थान क्या है?  सागर, सरोवर! ऐसे ही तुम्हारे हर विचार का उद्गम स्थान तो चेतना है, लेकिन विचार संस्कारों से आक्रांत हो जाते है . . इसीलिए हम समझते है कि कुछ दूर है कहीं पाना है, कहीं जाना है, कुछ लाना है, इतना करे तब सुख हो, इतना पाए तब सुख हो. . . सुख तो . . .

बंदगी का था कसूर बंदा मुझे बना दिया 
मैं खुदसे था बेखबर तभी तो सिर झुका दिया,
वो थे मुझसे दूर मैं उनसे दूर था 
आता था नजर तो नजर का कुसूर था! 
जी में आता है किसीको देखू 
सूरत जो दिखा दी तो ले जाओ नजर भी . . .

इस भेद की नजर, तेरे मेरे की नजर अब न रहे तो भी हरकत नहीं . .  क्योंकि तेरा मेरा सब . . सागर के किनारे खड़े हुआ सागर की गहराई की एकाकारता को  क्या जाने?  लहरों को देखकर सागर का माप मापनेवाला लहरों की गहराई में तो एकता है उसको क्या दिखेगी?  ऐसे ही हम लोग सब सागर की लहरें है  गहराई में तो देखो शांत पानी है. . . शांत पानी के आधार से ही अशांत लहरियाँ दिखती है. . शांत पानी को हटा लो तो अशांत लहरियाँ कहाँ रहेगी? तो अशांति भी है तो उसीकी सत्ता से है और शांति भी है तो उसीकी सत्ता से है, ऐसा जो समझता है वो परम् शांति को पा लेता है!

अशुद्ध मन में भय होता है और भय खड़ा होता है, जैसे भूत नहीं  होता है न तबभी आदमी को भूत दिखता है और काँपने लगता है ।  अशुद्ध मन में चिंताएँ,  भय, खिन्नता और शुद्ध मन में प्रेम, आनंद,  प्रसन्नता, निर्भयता ये सद्गुण आने लगते है ।

तो मन को शुद्ध करने के लिए सेवा,  स्मरण,  जप,  तप, उपासना, ये जो है मन को शुद्ध करती है । ऐसा नहीं  है कि जप तप करनेसे भगवान आ जाते है, अथवा जप तप करनेसे भगवान हृदय में बन जाते है,  अथवा जप तप करनेसे भगवान अपना मुँह दिखाते है. . . भगवान तो सदा मुँह दिखाने को तैयार, बोलनेको तैयार! लेकिन जैसे सूरज नहीं  ढकता,  हमारी आँखों के आगे बादल आ जाते है,  ऐसे ही भगवान तो नहीं  ढकता,  हमारे आगे अज्ञान का पर्दा आ जाता है, मन मलीन होता है तो ईश्वर का रस नहीं  आता, ईश्वरीय शांति का अनुभव नहीं  होता । तो मन की मलीनता दूर करने के लिए उपासनाएँ है ।  तो साकार उपासक जो है साकार  अवलंबन लेकर मूर्ति का,  जलाशय का, देवी का, गुरु का,  गोविंद का चित्र रखकर अपने मन को शुध्द करता है एकाग्र करता है ।  दान करके, यज्ञ करके, होम करके, हवन करके, सेवा करके, बुहारी करके आदि आदि ये सब चित्त को शुद्ध करने के साधन है  ।

निराकार उपासक क्या करते है. . निराकार उपासक निःशब्द में जाते है . . . आहत शब्द जो ध्वनि है टकराकर निकलती है . . . क ब ज घ जो भी हम बोल रहे है. . लेकिन ॐ  तो आहत है लेकिन उसको शांति से हम एकाग्र होकर देखें,  ध्यान करें ध्वनि का तो अत्यंत सूक्ष्म अनाहत नाद  सोहं चल रहा है. . उसको सुनने से भी आदमी का चित्त शुद्ध एकाग्र हो जाता है. . और एकाग्र चित्त में जो भी संकल्प उठता है वो सिद्ध हो जाता है! इसीको गुरु नानक ने कहा . .

अनहद सुनो वडभागि‍या सकल मनोरथ पूरे. . .
अनहद सुनो. . आहत नहीं . . अनहद सुनो वडभागि‍या

. . . अभागे लोग तो नहीं  सुन सकते, भग्यशाली लोग को तो यश मिलेगा धन मिलेगा लेकिन जिसके बड़े भाग होंगे वो अनहद सुनेगा ।  अनहद  सुनो वडभागीया   सकल  मनोरथ पूरे . . सकल मनोरथ पूरे का दूसरा अर्थ भी है कि आदमी सुख चाहता है और अनहद सुनेगा तो ऐसा सुख आएगा कि फिर संसार के मनोरथ नश्वर मनोरथ उठेंगे ही नहीं  . . .
इसलिए सकल  मनोरथ पूरे . . ऐसा भी कहा जाता है. . खैर. . . कुछ भी हो . . . प्रणवः सर्व वेदेषु  . .

सब वेदों का सार . . . त्रिपदा गायत्री . . .

त्रिपदा गायत्री का भी सार बीज रूप में अकार उकार मकार. .  प्रणवः. .

भैरव विज्ञान में भगवान शिव ने कहा कि – “हे उमा,  इस ॐ को जो जानता है वो मेरे को जान लेता है,  इस ॐ को जो समझ लेता है उसने मेरेको समझ लिया,  इस ॐ को जिसने पा लिया उसने मेरे को पा लिया”

तो ॐ अक्षर तो सबने पा लिया है . . . नहीं !. .  अ उ और म. . . तो अ और म  को छोड़कर उ बीच की संधी. .  बीच की संधी में यदि कोई टिक गया तो उसने सारे ब्रम्हांड के राज को जान लिया! एक विचार उठता है दूसरा उठने को है उसके बीच की अवस्था में यदि टिक गया, बेड़ा पार हो गया! फिर तुम्हारे और कृष्ण में बाहर से फर्क दिखेगा,  अंदर से तुम एक ही हो!तुम्हारे में शिव में तुम्हारे में अष्टावक्र में बाहर से फर्क दिखेगा लेकिन भीतर से तुम वही हो! ऐसी ऊँची अवस्था है! ॐ  ॐ  ॐ

पहले समझ ले कि दर्शन छः प्रकार के है ।  आस्तिक दर्शन,  छः प्रकार के नास्तिक दर्शन है . . नास्तिक दर्शन ईश्वर को नहीं  मानते. . . जैसे यंत्र एकत्र करनेसे घड़ी बनती है, चक्रपति चक्र कमान उसको चलाती है ऐसे ही वे लोग बोलते है कि ऐसे ही दुनिया बन गयी अणुओं से परमाणुओं से और चल रही है, रेल गाड़ी चल रही है, बोल रही है  प्रकाश डाल रही है सब,  ऐसे ही हम लोग भी बन गए अपने आप, ईश्वर विश्वर कुछ नहीं ! रेल गाड़ी तो चल रही है लेकिन उसको बनानेवाला तो है, उसको कंट्रोल करनेवाला तो है, अगर अपनेआप चलती तो अपनेआप बनती! अपनेआप व्हिसल बजाती अपनेआप रुकती !  यंत्र ऐसे  आएँगे कि अपने आप ही व्हिसल बजेगी अपनेआप ही रुकेगी ऐसी गाड़ियाँ भी बनेगी, ऐसी कारें बनेगी  बिना ड्राइवर के तुमको छोड़ के चली आए कार वापस लेकिन उनके कंप्यूटर सिस्टम में वो काँटे स्विच दबानेवाला तो फिर व्यक्ति चाहिए चैतन्य !

तो शार्ट में इतना समझे कि छः नास्तिक दर्शन है . . . विचार तो करते है लेकिन उनके विचार में ईश्वर का कोई स्थान नहीं . . ईश्वर का स्वीकार नहीं  करते  । ऐसे तर्क लडाके, दुनिया ऐसे बनी, ऐसे बनी, ऐसे बनी, जैसे बच्चे है सोचते है यार ये पानी इतना बह रहा है इतना सारा पानी कहाँ से आता होगा?  नदी के किनारे खड़े बच्चे बोलते है इतना सारा पानी कहाँ से आया? बोले, वो बड़ा बड़ा बड़ा बड़ा बड़ा आदमी होगा. .  अपने थूकते है, अपने मुंह में से पानी आता है अपने छोटे है तो छोटा पानी,  एक कोई ऐसा बड़ा आदमी होगा कहीं दूर पर उसके मुँह से लार निकलती होगी  ।  दूसरे ने कहा ऐसा नहीं  हो सकता. . लार इतनी नहीं  हो सकती, हम कोई बुद्धू नहीं  है, उसने तर्क लड़ाया . . बोले वो गर्मी के दिन है और दंड बैठक करता होगा , बड़ा बड़ा बड़ा आदमी होगा उसके सारे शरीर से पसीना छूटता होगा,  बड़े में बड़ा आदमी  उसका ही चलता होगा । तीसरे ने कहा ये भी नहीं  हो सकता है । एक दूसरे से बढ़िया तर्क लड़ा रहे थे, एक दूसरे को हरा भी रहे थे  । तीसरे ने कहा ऐसा नहीं  हो सकता है. . अपने सीटी बजाते है न, तो छोटे है तो थोड़ी देर सीटी बजाते है वो इतना बड़ा होगा इतना लंबा लंबा लंबा बड़ा बड़ा बड़ा उसकी सीटी बजती है तभी नदी चलती है । तो ये बाल तर्क है !

ऐसे ही जो बुद्धि में जीते है, मन में ही जीते है और बुद्धि में कोई सत्व नहीं  है. . खाओ,  पीओ, ऐश करो. . इन लोगों की अल्प मति, वे लोग विचार तो करते है, कल्पनाएँ करते है लेकिन ईश्वर -विश्वर को कुछ मानते नहीं ! उन लोगों ने भी दर्शन बनाए । जैसे नॉवेल वॉवेल कथा लिखनेवाले ऐसे होते है कि पढ़नेवाले को कभी आँसू टपक आते है,  कभी खून में गर्मी आ जाती है नॉवेल की कथा पढनेसे । लेकिन नॉवेल लिखने वाले के मन की उल्टी ही तो होती है . . वो कोई सत्य घटना थोडे ही लिख रहा है! उसकी कल्पना में और कल्पनाओं को आक्रांत करके तुम तुम्हारे चित्त में आंदोलन पैदा हो जाए, तुम द्रवीभूत हो जाओ, तुम रस में आ जाओ वीर रस में, भाव रस में, श्रृंगार रस में, किसीभी रस में, नव रस में, किसीभी रस में आ जाओ ये नॉवेल का   । फ़िल्म में गए. . है तो पर्दा. . लेकिन ऐसे दृश्य खड़े हुए . . कभी तुम हँसे,  कभी तुम रोए,  कभी तुम्हारे में गुस्सा आया, कभी भय आया. . तो इससे तुम तरंगित होते गए  . . और बाहर आये कि आहाहा बहुत मजा आया, रुमाल तो गीला है आँसुओं से लेकिन मजा आया क्योंकि तुम तरंगित हुए, तुम बिखरे . . तुमने आत्मरस लिया ऎसी बात नहीं  लेकिन तुम क्या हो तुमको पता नहीं  लेकिन तुम बिखरे!तो ऐसे नास्तिक दर्शन छः है ।  वो ईश्वर को नहीं  मानते ।

दूसरे है अस्तिक दर्शन छः ।  वे ईश्वर को मानते है ।  उन्हें दर्शन शास्त्र कहा जाता है ।  वो दर्शनशास्त्र है पूर्व मिमांसा, उत्तर मिमांसा, न्याय,  दैशेषिक,  सांख्य और योग । ये छः दर्शन है, षड्दर्शन बोला जाता है उसे । इन छः दर्शनों में, ईश्वर को . . . पाँच दर्शनों में ईश्वर को भेद बुद्धि से माना जाता है । ईश्वर का तो स्वीकार है, उसकी प्रकृति आदि का. . . लेकिन ईश्वर अभिन्न  हमारा आत्मा है ऐसा अद्वैत ज्ञान नहीं  । वे आस्तिक दर्शन तो है लेकिन भेदवादी है, भेद रखते है, आत्मा परमात्मा में भेद, दूरी. . देश विशेष में, काल विशेष में ईश्वर मानते है कोई ।

एक ही है वेदांत दर्शन जिसको समझने से सब दर्शनों का समावेश हो जाता है उसमें  ।  अपनी अपनी जगह पर अपनी अपनी यात्रा तक कईं लोग ऊँचे गए है और उन्होंने जो सोचा है, बोला है, नीचे खड़ा हुआ है  वो अपने से एक कदम ऊपरवाले को भी श्रेष्ठ मानता है, दो कदम ऊपरवाले को भी श्रेष्ठ मानता है, पाँच कदम ऊपरवाले को भी श्रेष्ठ मानता है. . तो संसारी आदमी कोई भी दर्शन पढ़ेंगे तो उनको लगेगा बात ये सच्ची है, ये ठीक है. . न्याय पढोगे तो बोलेंगे ये ठीक है,  वैशिष्य पढ़ेंगे तो बोलेंगे हाँ ये सिद्धांत सच्चा है, सांख्य पढ़ेंगे तो बोलेंगे ये सच्चा है, योग पढ़ेंगे तो बोलेंगे ये सच्चा है ।  लेकिन जो वेदांत दर्शन को, अद्वैत ज्ञान को जो उपलब्ध हुए महापुरुष, आखरी तत्व को. .  उनको लगेगा कि ये दर्शन अपनी अपनी जगह पर ठीक है लेकिन हमारा इष्ट, हमारा सुख,  हमारा आनंद अभी नहीं  है,  इतना इतना करेंगे मरने के बाद आनंद मिलेगा इससे वो राजी नहीं  होता, वेदांत दर्शन को जाननेवाला । वो बोलता है

बिछड़े है जो ऐसे दर बदर भटकते फिरते है
हमारा यार है हममें हमको बेकरारी क्या?

 

वेदांत दर्शन के रास्ते जानेवाले अपने सुख को, अपने इष्ट को, अपने आनंद को मरने के बाद पाने की इच्छा में नहीं  रहते. . अपना सुख, अपना आनंद अपना ही स्वरुप है . . हम जिस चीज को प्यार करते है वो चीज आनंद देती है और जिस चीज को घृणा से देखते है वो दुःख देती है ।

अनुकूलवेदनीयं सुखं . .
प्रतिकूलवेदनीयं दुःखं. . .

 

ये मन की अनुकूलता प्रतिकूलता से सुख और दुःख की प्रतीति होती है लेकिन मनकी प्रतीति जिस परमात्मा से होती है . . कुछ नहीं , कुछ नहीं , कुछ नहीं ,   शून्यम. . .   शून्य को जो देखनेवाला है वो शून्य तो नहीं  . . नहीं  को जो देखनेवाला है, कुछ नहीं  को जो देखनेवाला है वो सबकुछ है, वही सत,  चित, आनंद रूप है ऐसा वेदांत दर्शन को जाननेवाले वेदांत दर्शन मानता है । तो उस दर्शन को समझाने के लिए दो प्रकार के ग्रंथ चले ।

 

एक है प्रक्रिया ग्रंथ और दूसरे है सिद्धांत ग्रंथ । जैसे KG  से फिर एकड़िया, बगड़ा,  तिगड़ा ऐसे करते करते आदमी चले. .  तो ये विचारचंद्रोदय,  विचारसागर,  पंचीकरण, पंचदशी ये सब प्रक्रिया ग्रँथ है. . छोटा छोटा समझा के फिर बड़ी बात,  फिर उससे बड़ी, फिर उससे बड़ी,  फिर उससे बड़ी,  ऐसे . . . उनको प्रक्रिया ग्रँथ कहा जाता है । दूसरे होते है सिद्धांत ग्रँथ. . सिद्धांत, जो लक्ष्य है उसको समझाने के लिए  ऐतिहासिक कथाएँ कहेंगे, पुराणिक कथाएँ कहेंगे लेकिन फिर कह के बोलेंगे ये चित्त के फुरणे से प्रतित होता है. . . चित्त के शांत होने से कुछ बना नहीं . . हे रामजी जगत तीनों काल में बना नहीं  ।
अध्यारोप अपवादाभ्यां. . .

निष्प्रपंच में प्रपंच की कल्पना करें . . क्योंकि हमलोग कल्पना में जीते है कहानि‍यों में जीते है . . हमारा जीवन भी तो एक कहानी है! हमारा जीवन कहानी है तो हमको कहानी में रस आता है!जैसे वो कृष्ण की और ऋषि की कहानी बताई,  एक बार सुन ली आपको याद रह जाएगी! आप दूसरे को भी सुना देंगे ।  तो ये कहानियाँ,  घटनाएँ . . तो हमारा जीवन भी   घटनाओं और कहानियों में जीता है तो फिर वो तत्ववेत्ता महापुरुष को उस प्रकार की बातें उस प्रकार की कहानियाँ, कथाएँ सुनाकर फिर बोलेंगे कि ये सब स्वप्न मात्र है, सब बीत गया ।  राजा वयम   के शरीर से, जाँघ से पुत्र की प्राप्ति हुई, उसने राज्य किया, राजा रहोगुण ने राज्य किया,  अम्बरीष ने राज्य किया, फलाना किया लेकिन हे रामजी बना कुछ नहीं , सब स्वप्ना हो गया!श्रीकृष्ण आये और अर्जुन को विषाद योग हुआ और श्रीकृष्ण ऐसा कहेंगे, ऐसा कहेंगे और अर्जुन फिर ऐसा पूछेगा  ये पूरा भविष्यवाणी वशिष्ठ ने बता दी । फिर कहा कि हे रामजी बना कुछ नहीं . . वही आत्मा कृष्ण होकर मुस्कुरा रहा है, वही आत्मामलीन संवित है श्रोता बनी हुई है, शुद्ध संवित है वक्ता बनी हुई है. . ये सब संवित का विलसमात्र है बाकी एक ही परम सत्य अद्वैत परब्रह्म परमात्मा है ।

पूरी वार्ता कहेंगे . . कर्कटी राक्षसी नीने तप किया,  हिमालय गयी ब्रम्हाजी ने वरदान दिया फिर दूसरों के हृदय में घुस जाती थी खून पीती थी और जो ॐ का जप करता था उसका वो पिंड छोड़ देती थी । इसप्रकार लोगों के हृदय का रक्तपान करते करते कर्कटी राक्षशी आखर परेशान  हो गयी । फिर उसने जाकर हिमालय  में समाधि की ।
वो कर्कटी राक्षशी सूक्ष्म शरीर से किसी गिद्ध में घुस गई उसके श्वास के द्वारा,  और गिद्ध को प्रेरित करके हिमालय ले गई और उसको फिर वहाँ अंदर खड़बड़ाहट करके उल्टी करा दी उसने और उल्टी में वो बाहर निकली, गिद्ध तो चला गया, गिद्ध पक्षी  । फिर उसने वहाँ समाधि की, ध्यान किया  ।  ध्यान करते  करते उसको शुद्ध संवित में विश्रांती मिली  ब्रम्हाजी आये वरदान देने को, अब उसकी कोई रुचि नहीं  रही ।  ब्रम्हाजी ने कहा कि “बेटी तू बैठी थी जिस हेतु से वो इच्छा तेरी पूरी होगी।”

बोली “अब पितामह मेरे को कोई इच्छा नहीं  है । ”

ब्रम्हाजी ने कहा “जबतक शरीर है, ज्ञानी का, अज्ञानी का तो शरीर का आहार, व्यवहार उसको चाहिए ।   तो राक्षसी  ये तेरा भोजन मनुष्य है, तेरा भोजन माँस है ।   पहले आसक्त होकर खाती थी, वासना तृप्त करने के लिए खाती थी, खाने के लिए जीती थी । अब जीने के लिए तू भक्षण कर लेना, अज्ञानी,  मूढ़ों का भोजन करना ताकि वो अज्ञानी मूढ़ जो है पृथ्वी पर बोझा है, पापाचारी है उनका भोजन करनेसे वो भी पापकर्म से छूट जाएँगे,  तेरा शरीर की भी रक्षा होगी,  उनकी भी थोड़ी बहुत सद्गति होगी । ”

इसप्रकार वरदान पाकर वो कर्कटी राक्षसी जंगलों में विचरने लगी । और वो सोचती थी कि ऐसा कोई भोजन करू जो अज्ञानी हो, मूढ़ हो ।  कभी ज्ञानी के ऊपर मेरा अन्याय न हो जाए । अमुक राजा रात को जंगल में गया और कर्कटी राक्षसी ने अपना विक्राल रूप प्रगट किया भयंकर! मानो एक विशाल काली सी बादली है, काली कलूट
काली काली भैंस जैवी  वीभत्‍स ने    हाथ लांबा लांबा नख लांबा लांबा बोयां मोटा मोटा ने राजा ने बवडावा लागी

राजा को डराने लगी ।  तब राजा ने कहा कि “अरे, जो तेरा इष्ट हो, जो तुझे जरूर है वो बात कर  । ऐसा वीभत्‍स रूप बनाकर तू क्या डराती है?  तेरे जैसी मखियों को तो कईयों को मैंने उड़ा दिया । ” निदान इतनी विराट वीभत्‍स रूप धारण की हुई कर्कटी राक्षशी को राजा ने जब ललकारा तो राक्षसी कहने लगी कि “तुम मेरे भोजन हो, मैं तुम्हारा भक्षण करूंगी । ”
“तो न्याय से हमारा भक्षण करेगी तो ठीक है, अन्याय से हमारे पर हावी होगी तो तेरे सिर के हजार टुकड़े हो जाएँगे! तेरे को चाहिए क्या? ”

बोली “मेरे को चाहिए कि. . तुम अगर ज्ञानी हो,  मैं तुम्हारे से प्रश्न पूछती हूँ. .  अगर मेरे प्रश्नों का तुमने ठीक से उत्तर दिया तो मैं तुम्हारे से मित्रता करूँगी,  तुम्हारी सेवा करूँगी ।  और मेरे प्रश्नों का तुमने ठीक से उत्तर नहीं  दिया तो मैं तुम्हारे को अज्ञानी समझकर भक्षण कर जाऊँगी । ”

जो अज्ञानी,  मूढ़ होते है उनको ही भूत, प्रेत, राक्षसों का प्रभाव पड़ता है । और भूत, प्रेत भी उन्ही लोगों को नोचते है,  डाकिनी शाकिनी उन्ही लोगों को नोच सकती है,  ज्ञानवान को भी नहीं  नोचती और ज्ञानी  गुरु का जिसने गुरु मंत्र लिया है उनके ऊपर भी भूत, प्रेत का प्रभाव नहीं  होता । . . .

“तो तुम अगर ज्ञानवान हो तो मैं तुम्हारे ऊपर अपना जोर नहीं  लगा सकती और अज्ञानी होंगे तो मैं तुमको खा जाऊँगी ।  धड़ाक धड़ाक करके भस्म करूँगी ! मेरे प्रश्न का उत्तर दो ।

ऐसा कौनसा चिद अणु है जो सबमें समाया है और दिखता नहीं  ?

ऐसा कौनसा शुद्ध संवित है जिससे सारा जगत दिखता है लेकिन जहाँ से उठता है उसको नहीं  देखता ?

ऐसा कौनसा त्रिसणु है कि जिस त्रिसणु से अनंत अनंत ब्रम्हांड फुड़े है?

ऐसा कौनसा तत्व है जिसको जानने के लिए बड़े बड़े बुद्धिमान कोशिश करते है और हार जाते है ?  और जो पाते है वो समझते है हमने पाया नहीं  पहले से था ?

ऐसा कौनसा वो चिदवपू है कि जिसको पाए बिना जीवन में सबकुछ पाया तो व्यर्थ !और जिसको पाने से कुछ भी न पाया फिर भी वो शहनशाह है?  दुनिया मे हर इज्जतवाले से भी ऊँची इज्जत वो व्यक्ति पाता है जो उस तत्व को जानता है, ऐसा कौनसा तत्व है?

जिसको न जानने के कारण व्यक्ति की सारी बुद्धिमत्ता, सारा अकल सारी होशियारी तुच्छ हो जाती है और जिसको जानने के बाद बड़े बड़े होशियार अकलमंद, बुद्धिमान से भी वो व्यक्ति पूजनीय हो जाता है और उसे पूजाने की कभी इच्छा ही नहीं   होती !

ऐसा कौनसा तत्व है जिसको पाने से कुछ पाने की इच्छा नहीं  होती और कुछ खोने का भय नहीं  होता, जीने की इच्छा नहीं  होती और मरने का भय नहीं  होता . . आप तो, अपना तो कल्याण कर लेता है, अपना तो उद्धार हो जाता है लेकिन उसके संपर्क में आने वाले व्यक्तियों का भी उद्धार हो जाता है ।

ऐसा कौनसा तत्व है जिसको पाने से सब पाया जाता है? ”

इसप्रकार अपने ढंग के उसने प्रश्न पूछे ।

तब राजा ने कहा कि “अरे कर्कटी राक्षशी, तूने एक ही उस परब्रह्म परमात्मा के विषय में अलग अलग पॉइंटों से, अलग अलग व्यू से प्रश्न पूछे! वही चिद अणु है जिसके फुरणे से सारा जगत भासता है, वही चैतन्य वपु है जिसको जानने से सब जाना है, जिसको पाए से सब पाया जाता है । ”

तो कर्कटी ने प्रश्न किए और उन सब प्रश्नों  का उत्तर राजा ने दिया । कर्कटी की मित्रता हो गयी । राजा उसको ले गया अपने राज्य में और जो फाँसी देने योग्य थे, अपराधी थे उन मनुष्यों को अर्पण कर दिया कर्कटी को,  जैसे बाज चिड़िया को ले जाता है ऐसे ही ये राक्षसी अपना शिकार लेकर जंगल में चली गई,  उनको भक्षण किया और छः महीना तक उसको फिर कुछ जरूरत न पड़े इतना भोजन कर लिया ।  फिर राजा के साथ ज्ञान की चर्चा करती । ऐसे आती,  अपना आहार ले लेती, ज्ञान चर्चा करती और समय बिताती ।

हे रामजी, एक बार ऐसा हुआ कि वो कर्कटी गई तो आयी नहीं  । राजा ने देखा बहुत दिन हो गए आई नहीं . . सोचा कि कर्कटी हिमालय में चली गई और पद्मासन बाँधकर,  समाधिस्त होकर देह छोड़ दिया! थी वो राक्षसी तो थी. . . कर्कट कर्कट शब्द करके डराती थी, हुँकार करके लोगों को डराती थी और डरा के बाद में शिकार करके खाती थी. . . खाती थी फिर भी उनका मंगल करती थी ।  अब वो चली गई तो राज्य के लोगों का कल्याण हो इसलिए उसकी स्मृति वे करते रहे इस हेतु से राजा ने दो मंदिर बनवाए ।

हुँकार करके लोगों का मनोबल हरण कर लेती थी  बाद में शिकार करती थी और शिकार करने के लिए पहले मनोबल हरना पड़ता है ।  शेर जब शिकार करता है तो दहाड़ता है ।  बंदर तो होते है पेड़ के ऊपर, डाली पर.. शेर की गुँजाइश नहीं  जाने की,  वो नीचे बैठके खड़े होके दहाड़ता है,  तो एक धड़ाके में तो वो लोग लैट्रिन बाथरूम कर देते है, फिर दहाड़ता है तो उसमें जो कमजोर है वो डर के मारे उसकी नाड़ियाँ जो है अपना शक्ति छोड़ देती है, अपना कार्य छोड़ देती है, धड़ाक ! आप जब देखेंगे बंदर को या किसी प्राणी को गधे को या अमुक व्यक्ति को तो जो डर गया न तो नाड़ियाँ अपना अपना काम  छोड़ देती है उसको लैट्रिन बाथरूम हो जाता है, वो रोकने का काम है नाड़ियों का वो छोड़ देती है । कभी कोई आदमी जाता है और हाथ में कुछ है और आपने जैसे छूट जाता है, नाड़ियाँ काम अपना छोड़ देती है डर में । तो पहले भय. . .  तो हुँकार कर वो राक्षसी भयभीत कर देती थी और भयभीत करने के बाद भी उनका मंगल कर देती थी क्योंकि उसके तन में  माँस होता तो राक्षसी  को तो आत्म शांति थी तो उनको सब सद्गति हो जाती  । इसलिए राजा ने उसके दो मंदिर बनवाए,  और मंदिर के दो नाम रखे हिंगलादेवी और मंगलादेवी  ।

भूतपूर्व जो कर्कटी राक्षसी थी अभी हिंगलादेवी और मंगलादेवी के नाम से पूजी जाती है । आपने हमने  ये नाम सुने माताजी के ।

इतना तो कह दिया फिर कहा कि हे रामजी ये सब स्वप्ने जैसे संसार में है, तत्व से कुछ बना नहीं  तीनों काल में. .  लो. . अख्खी रामायण कह दी, हिंगलानी मंगलानी कर्कटीनी लेकिन सिद्धांत की बात समझाए जा रहे है कि कुछ बना नहीं , ये तो व्यवहार में जब चित्त का फुरणा फुरता है, जगत सत्य  भासता है तब ये तुमको सच्चा लगता है,  चित्त का फुरणा तुम्हारा शांत हो जाए रात्रि को तुम सो जाते हो तो कहा हिंगला, कहा कर्कटी,  कहा मंगला,  कहा तुम और कहा हम?  चित्त की वृत्ति कंठ में आती है तब स्वप्ना, चित्त की वृत्ति ह्रदय में विश्रांती करती है तब नींद, चित्त की वृत्ति नेत्रों में जब आती है तो जागृत . . ये है संवित का फुरणा मात्र, ये फुरणा मात्र  जगत है वैसा वास्तविक में जगत बना नहीं  ।  चित्त में फुरणा आया सत्संग हॉल बने, इतना लंबा चौड़ा सत्संग हॉल. . अब चित्त तो छोटा दिखता अब ये सत्संग हॉल बड़ा दिखता है उसमें ये शरीर  छोटा और शरीर से भी छोटा अपना हृदय और हृदय में  एक भाग में नाड़ी और नाड़ी में  संकल्प उठा कि सत्संग हॉल बने ।  फुरणा तो छोटा था ! तो निराकार तत्व जो है न वो आकृती में छोटा है लेकिन सूक्ष्मता में सारे ब्रम्हांड में फैला है ।  उसको जो जान लेता है वो कृष्ण को जान लेता है,  उस तत्व को जो मैं रूप में स्वीकार कर लेता है उसके लिए सारा बंह्मांड  अपना स्वरूप हो जाता  है ।

ऐसा एक अद्भुत आत्मा नंद में रमण करनेवाला कोई ब्रह्मवेत्ता था,  ब्रह्मज्ञानी  । किसी सेठ को हुआ कि चलो ब्रह्मज्ञानी की सेवा  सौभाग्यशाली को मिलती है ।  नौकर को आदेश कर दिया कि ये बाबाजी को रोज शाम को दूध पिला के आया करो, दिन को भोजन करते, रात को नहीं  करते होंगे तो दूध पिला के आया करो ।    निदान,  नौकर को काम सौंप दिया और वो सेठ भी कोई होगा प्लास्टिक का बना हुआ. . ब्रह्मज्ञानी की सेवा नौकरों से कराई!  नौकर क्या था. . . नौकर भी कोई आधुनिक रहा होगा, वो क्या करता था कि वो दूध के पैसे तो जेब में डाल देता था,  छाँछ मुफ्त में मिल जाती थी कहीं से, नमक मिर्ची मिलाके और छाँछ का प्याला भरके बाबाजी को पिला के आता था ! जय जय! सेठ घूमते घामते एक बार दर्शन करने गए  और गुरुजी को बोला महाराजजी को कि स्वामीजी हमारा नौकर आपको शाम को दूध पिला जाता है ?  बाबा ने सब स्वीकारा. .  बोले हाँ पिला जाता है ।

उसने पूछा -दूध पिला जाता है स्वामीजी? सेठ ने पूछा हमारा नौकर आपको दूध पिला जाता है ?  बोले-पिला जाता है ।  अब सेठ ने पिला जाता है सुना. . क्या पिला जाता है कहीं विश्लेषण नहीं  किया  ।    समय पाकर नौकर  को कोढ़ हुआ,  बीमारी हुई, घर में कोई मांदा पड़ा,  समाज में बेइज्जती होने लगी ! अब ब्रह्मवेत्ता को तो कोई फरियाद नहीं . . लेकिन प्रकृति से सहन नहीं  हुआ!  तब किसीने पूछा कि तेरे को चारों तरफ से मुसीबतों ने घेर लिया है बात क्या है सच बता ?   बोले, और तो कुछ नहीं  किया,  मैने कोई चोरी, पाप तो नहीं  किया लेकिन दूध के पैसे जेब में धरता था और बाबाजी को भीख माँग के  छाँछ पिला देता था ।

तो जो प्रणवः के वास्तविक स्वरूप को जानता है उसके लिए सब स्वीकार है ।  कोई आदर करो तो क्या,  कोई अनादर करो तो क्या, कोई अपमान करो तो क्या, कोई धोखा करो तो क्या ! अब बाबाजी के हृदय में पता चला होगा कि नहीं  चला होगा कि ये दूध के बदले छाँछ पिलाता है? पता तो चला होगा. . हो सकता है लेकिन उसको महत्व नहीं  दिया !और हो सकता है पता न भी चला हो !अगर पता चलाने का संकल्प करके एक क्षण के लिए शांत हो गए तो पता चल जाता है,  और पता चलाने का विचार ही नहीं  किया तो पता नहीं  भी चलता है!  इसलिए ज्ञानी,  अंतर्यामी इन तुच्छ चीजों में नहीं  हुआ करता ! अंतर में जो चैतन्य है उस चैतन्य स्वरूप आत्मा को “मैं ” रूप से जो जान लेता है वो फिर बाहर के तुच्छ तुच्छ चीजों को सबको जाने ये कोई जरूरी नहीं  ।  हे रामजी ये जगत सारा चित्त का विलास मात्र है ।  और इस चित्त के विलास को चित्त का विलास समझकर जो पृथक हो जाता है वो भी वेदांत के अनुकूल तत्व ज्ञान को उपलब्ध हो जाता है ।   जिज्ञासु के लिए द्रष्टा और दृश्य . . . मैं द्रष्टा और ये दृश्य ऐसी भावना करके दृश्य में से राग हट जाता है, दृष्टा स्वरूप में स्थिर जो जाता है । दृष्टा स्वरूप में स्थिर हो जाने के  बाद फिर उसके लिए दृश्य और द्रष्टा दो नहीं  बचता,  उसका तन, मन, उसका जीवन उनके लिए अणु अणु में परब्रह्म परमात्मा जड़  और चेतन. .  जहाँ चैतन्य की घनिभूत अवस्था  है उसको जड़ बोलते है और जहाँ सूक्ष्म अवस्था है उसको चेतन बोलते है. .  ज्ञानी का शरीर फिर चिन्मय रूप में माना जाता है,  तो ज्ञानी के चरणों को छूकर जो रज आती है वो भी कल्याणकारी हो जाती है, पवित्र हो जाती है ऐसा वो आत्मदेव है ! तो उस आत्मदेव को समझने के लिए प्रक्रिया ग्रन्थ होते है और सिद्धांत ग्रन्थ होते है ।  किसी को सिद्धांत ग्रन्थ से अनुकूल होता है, किसीको प्रक्रिया ग्रन्थ से अनुकूल होता है ।  लेकिन ये प्रक्रिया ग्रन्थ या सिद्धांत ग्रन्थ की पद्धति से उस परमात्मा का ज्ञान मिल जाए तो उन्ही लोगों को जल्दी ज्ञान हो जाता है जिनका अंतःकरण मलीन नहीं  है, जिनका  अंतःकरण शुद्ध है,  जिनका मन पवित्र है,  उनको तो जल्दी ज्ञान हो जाता है ।  और जिनका अंतःकरण पवित्र नहीं  है वे बार बार सुनते है तो अंतःकरण पवित्र हो जाता है ।  और मैं पवित्र आत्मा हूँ ऐसा बार बार विचार करते है. .   मैं साक्षी हूँ,  मैं चैतन्य हूँ,  शुद्ध हूँ,  बुद्ध हूँ, आत्मा हूँ,   सर्व हूँ, सबमें हूँ,   सबमें हूँ, सर्वोहं,  शांतोहं,   शुद्धोहं,  बुद्धोहं,  आनंद स्वरूपोहं,  प्रेम स्वरूपोहं,  मैं प्रेम स्वरूप हूँ,  आनंद स्वरूप हूँ,   शांत स्वरूप हूँ,  मैं आत्मा हूँ,  चैतन्य हूँ,  इसप्रकार का जो चिंतन करते है तुरंत पवित्र होने लगते है !  और परमानंद उनके रुए रुए से फूट निकलता है ।  तो मैं चाहता हूँ  ऐसा आप थोड़ी देर के लिए खुली आँख रखे,  आधी बंद रखे-आधी खुली रखे,  स्वभाविक बैठे रहे . .

तुम कुछ करो मत केवल इतना पवित्र सोचो कि जैसा आत्म ज्ञान पाने के पॉइंट पे आने वाले साधक सोचते है ऐसा सोचो. . . मैं शांत हूँ,  जगत बना नहीं , सब स्वप्ना मात्र है, सब कल्पना मात्र है,  सब मन का विलास है,  ये मन का फुरणा है,  दुःख भी मन का फुरणा सुख भी मन का फुरणा. . . इस प्रकार के जो जो तुमने वेदांत के पवित्र वचन सुने है उन वचनों को दोहराते दोहराते खुली आँख. . .  आप ज्ञान समाधि को उपलब्ध  हो सकते है ।  ज्ञान की समाधि लगे तब लगे . . अभी हृदय शुद्ध हो सकता है, पवित्र हो सकता है,  हजारों यज्ञ करने से जो चीज नहीं  मिले वो ऐसा पवित्र आत्म चिंतन करने मात्र से तुम्हारे हृदय में वह शांति मिलने लगेगी,  वह आनंद फुरने लगेगा. . . मैं सबमें हूँ,  मैं सबमें हूँ. . . जहाँ से शब्द उठते है, मैं वही हूँ जहाँ से   मन उठता है,  मैं वही हूँ जहाँ से बुद्धि के निर्णय उठते है, मैं वही हूँ जहाँ से ऋषियों को खबरें मिलती है, मैं वही हूँ जहाँ से श्री रामचन्द्रजी चेष्टा करते है, मैं वही हूँ जहाँ से रावण चेष्टा करता है,  मैं वही हूँ जहाँ से श्रीकृष्ण चेष्टा करते है, मैं वही हूँ जहाँ से श्रीकृष्ण और कंस दोनों चलते है, मैं वही आत्मा. . प्रणवः. .   अनाहत शब्द वाह वाह ! मेरा ही नाम आत्मा है,  मेरे को  ही ब्रह्म बोलते है,  मैं ही चैतन्य आत्मा हूँ इसप्रकार की पवित्र भावना करते करते . . देह नहीं  है हम तो देह की भावना करने से देहा का अध्यास आ गया,  आत्मा तो हम है ही है ! हृदय को खूब प्रेम से,  धन्यवाद से, ब्रह्म भाव से भर जाने दो. . . अपने इष्ट को स्नेह करो, आपकी जिसमें श्रध्दा,  भक्ति,  प्रीति हो उस उस देव को उस उस परमात्मा को भगवान को स्नेह करते करते तुम्हारा अहं बह जाए और ब्रह्म भाव रह जाए. . .

रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः

प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु ।  ।


हे अर्जुन मैं जल में रस हूँ,  चंद्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ, संपूर्ण वेदों में ओमकार हूँ, आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।

यह विश्व सब है आत्मा ही
इस भांति से जो जानता 
यश वेद उसका गा रहे
प्रारब्ध वश वह वर्तता
ऐसे विवेकी संत को
निषेध है विधान  है
सुख दुःख दोनों एक से
सब हानि लाभ समान है

खूब समान सत्ता में,  अंतःस्थल  सत्ता में,  उस असीम आत्मसत्ता में हमारा मन शांत हुआ चला जाए . . .

हे मेरे मन तू बाहर कहाँ जाएगा ? कबतक भटकेगा? इस फुरणे के अनुसार तो तू कईं सदियाँ  बिता बिता कर फुरणे में फुरफुराते जन्‍मता रहा मरता रहा . . अब तू अजन्मा आत्मा में विश्रांति‍ कर ।  हे मेरे मन,  जैसे राजा जनक आत्म शांति को उपलब्ध हुए, जैसे तीतल ऋषि के चरणों में भारत का विख्यात सम्राट भगीरथ आत्म शांति को उपलब्ध हुआ, जैसे उद्दालक ऋषि आत्मशांति में आरामी हुए . . हे मेरे मन तू भी उस प्रकार आत्मशांति में आराम कर,  बाहर तेरे कोई शत्रु और मित्र सदा नहीं  रहेंगे, बाहर का शरीर तेरा सदा न रहेगा,  बाहर का देह तेरा न रहेगा,  लेकिन तेरा अंतर्यामी परमात्मा देह में रहते हुए भी विदेही देह से परे उस परमात्मा की भावना कर . .

हे मेरे मन जैसे कीड़ा भंवरे का चिंतन करते करते भंवरी हो जाता है ऐसे ही हे मेरे मन तू ब्रह्म का चिंतन करते करते तू ब्रह्म रूप हो जा ! जनक झरोखे में बैठकर अपने मन को समझाते है,  भगीरथ राजा तीतल ऋषि के चरणों में गए . . तीतल ऋषि कहते है कि हे राजन राजपाट का त्याग करके शत्रुओं के घर की भीक्षा माँगकर फिर मेरे आश्रम में आ . . मैं श्रेष्ठ हूँ ऐसी तेरी कल्पना चली जाएगी  ।  राज्य का त्याग करनेसे शत्रुओं के घर भीक्षा माँगने से तेरा अहं गल जाएगा  ।  ”

वे बड़भागी है जो परमात्मा के लिए राज्य को और अपने अहं को दांव पर लगा देते है  ।  वे सौभाग्यशाली है जो राज्य को और अहंकार को ईश्वर प्राप्ति के लिए दाँव पर लगा देते है, भगीरथ राजा ऐसा सौभाग्यशाली था . . राज्य पाट छोड़कर शत्रुओं के घर भीक्षा माँगता माँगता गुरु के द्वार पर पहुँचा  ।

तीतल ऋषि कहते है कि ” राजन, तेरा चित्त मान रहा था ” मैं राजा हूँ राज्य मेरा है” लेकिन हे राजन,  तेरे जन्म के पहले ये राज्य यहीं पड़ा था,  मरने के बाद भी रह जायेगा . . राज्य पुण्यों से मिलता है  और पुण्य अन्तःकरण करता है,  सुख अन्तःकरण को होता है,  राज्य पापों से छीना जाता है,  पाप अन्तःकरण करता है,  दुःख अन्तःकरण को होता है. .  इस सुख और दुःख दोनों को तू देखने वाला तू इन दोनों का स्वामी है राजन ! तू उस अपने स्वामी पद में जाग! कबतक चित्त के संवेदन में अपने जीवन और मृत्यु के गोते  खाते खाते युग बिताए . . हे राजन,  तू अपनी आत्मा की ओर आ जा !”

तीतल ऋषि कहने लगे  “हे भगीरथ, मनुष्य वह है जो छोटी चीज को बड़ी में मिला दे,  जो अल्प जीवन को महान में बदल दे यही मनुष्य के पुरुषार्थ का लक्ष्य है ! जिसने अपनी सेवा नहीं  की,  जिसने आत्म सेवा नहीं  की वो दूसरों की सेवा करने पर अहंकारी हो जाएगा ! जो दूसरों की सेवा करता है आत्म सेवा के लिए ही आत्मभाव से वह आत्म विश्रांती पाकर अपनेआप में जग जाता है ! हे राजन,  मोहनिशा में सब लोग सो रहे है तू कबतक सोता रहेगा?  ”

वसिष्ठ जी कहते है “हे रामजी,  इसप्रकार तीतल मुनि के उपदेश को प्राप्त करके भगीरथ राजा ज्ञातज्ञेय हुआ । अज्ञानी की दृष्टि से आदमी अज्ञानमय सोचकर संसार में आवागमन में भटकता है,  ज्ञानी के अनुभव को,  भगवान के अनुभव को सुनकर,  सोचकर आदमी भगवान के अनुभव के अनुसार मुक्तता का अनुभव करता है  ।  भगवान को जैसा जगत दिखता है वो सच्चा होता है,  जीव को जैसा जगत दिखता है वो उसकी कल्पना होती है . . भगवान को जो दिखता है वो सही है, संत को जो दिखता है वह सही है, हमको जो दिखता है वो कल्पना मात्र है  । ”

तीतल ऋषि के उपदेश से भगीरथ ने अपनी कल्पना छोड़ी. . गुरु और भगवान के दृष्टि में अपनी दृष्टि मिला दी. . गुरु और भगवान को जैसा जगत दिखता है ऐसा ही वे जगत को निहारके अपने जगदीश्वर स्वभाव में जगने लगे   ।  भगीरथ ने बाद में ध्यान करके भगवान शिवजी को गंगाजी जटा में धारण करने के लिए प्रसन्न कर लिया  ।  स्वर्ग से गंगाजी को लाए जिसका एक प्रवाह पाताल में है एक स्वर्ग में है,  उसका एक प्रवाह मृत्यूलोक में भी लाकर जीवों का उपकार करनेवाले भगीरथ राजा   आत्मज्ञान पाकर जीवन मुक्त होकर विचरे  ।  ऐसे ही तुम अपने को आत्मा शुद्ध चैतन्य, शांत,  निरामय, आनंद स्वरूप, प्रेम स्वरूप मानकर उस परमात्मतत्व को जानकर अपनेआप में आराम पाओ !

अपनेसे कब निभाओगे


 

श्रीकृष्ण ने कहा उद्धव को …

यदिदं मनसा वाचा चक्षुभ्र्यां श्रवणादिभिः।

नश्वरं गृह्यमाणं च विद्धि मायामनोमयम्।।

जो आँखों से ,कानों से देखा जाता है,सुनाई पड़ता है ,जीभ से बोला जाता है, नाक से सूँघा जाता है,मन से सोचा जाता है या बुद्धि से निर्णय किया जाता है वो सब माया मात्र है,मिथ्या है। इस मिथ्या जगत को सत्य मानने वाला व्यक्ति चाहे कितनी भी ऊँची पदवी पर पहुँच जाए फिर भी अंदर से परम् शांति नहीं  पा सकता है और जबतक परम् शांति नहीं  पाई तबतक ये जीव बेचारा अभागा रह जाता है।

भाई होकर भाई के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया,पिता होकर पुत्र के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया,बेटा होकर बाप के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया,वकील होकर असिल के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया,और न्यायाधीश होकर वकीलों के साथ और कोर्ट के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया,मठाधीश होकर मठ के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया, महाराज.. साहब होकर ऑफिस के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया, सेठ होकर दुकान के साथ, नौकरों के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया, लेकिन समय की धारा में कर्त्‍तव्‍य निभाना और कर्त्‍तव्‍य का परिणाम ये समय की ..विशाल समय की धारा में सब छू होता जाएगा।
कर्ता की जब मृत्य होती है.. तो कर्ता ने कईयों से कर्त्‍तव्‍य निभाए लेकिन कर्त्‍तव्‍य निभाने का सुख दुःख , हर्ष शोक और प्राप्ति अप्राप्ति … अंत में कर्ता के हाथ में कुछ रहता नहीं , मृत्यु के समय कर्ता अभागा रह जाता है, अनाथ रह जाता है।

कर्ता ने भाई के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया, पत्नी के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया, पुत्र के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया, जमाई
के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया, वैवई के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया, अरे कर्ता ने जीव होकर
ईश्वर के साथ कर्त्‍तव्‍य निभाया,लेकिन कर्ता ने अपने मूल स्वरूप को नहीं  खोजा तो कर्ता बेचारा अनाथ रह जाता है!
तो ये थोपे हुए कर्त्‍तव्‍य कर्ता ने  ..जिस वक्त कर्ता अपनेको जैसा मानता है ऐसा उसके ऊपर कर्त्‍तव्‍य आ जाता है। अपने को पिता मानता है तो पुत्र पालन का कर्त्‍तव्‍य आ गया, अपने को जमाई मानता है तो  सासु ससरा के आगे नाक रगड़ना कर्त्‍तव्‍य आ गया, और महाराज, अपने को कुटुंब का बड़ा मानता है तो  पालन पोषण और कुटुम्बियों के मन को खुश रखना ये कर्त्‍तव्‍य आ गया, कर्ता जिस समय अपने को जैसा मानता है उस समय कर्ता के सिर पर उसी प्रकार का बोझ आ जाता है! लेकिन कर्ता जब अपने को ब्रम्ह रूप में जानता है तो उसका कोई कर्त्‍तव्‍य नहीं  है ! सहज स्वभाव उसका जीवन हो जाता है । कर्ता अपने को खोज ले,ब्रम्ह रूप में निहार ले तो फिर कर्ता का कोई कर्त्‍तव्‍य नहीं, कर्ता सहज स्वभाव में जग जाता है!

जो आँखों से दिखता है,इंद्रियों से सोचा जाता है,पकड़ा जाता है,देखा जाता है,सूँघा जाता है,चखा जाता है,स्पर्श किया जाता है, वो सब माया मात्र है,कल्पना मात्र है..उद्धव उसमें तुम मत पड़ो लेकिन जिससे ये संवित स्फुरित होती है उस आत्मा में विश्रांति पाने के लिए बद्रिकाश्रम चले जाओ एकांत में। कुछ समय के लिए साधकों को एकांतवास करना चाहिए ताकि इंद्रियों का,बुद्धि का,चित्त का जो स्वभाव है संसार की तरफ आकर्षित होने का, तो उनके स्वभाव में थोड़ा परिवर्तन आ जाए और तुम अपने स्वभाव में जाने के लिए थोड़ा समय निकाल सको।

दुनिया की सब चीजें किसी आदमी को दे दो लेकिन जिसको एकांतवास नहीं  और आत्म विचार नहीं  है तो समझो कर्ता अनाथ हो जाएगा ! और जिसके पास आत्म विचार और एकांत है,दुनिया की हर चीज उससे छीन ली जाए फिर भी महाराज जिसके पास आत्मविचार और एकांत है वो परम् सौभाग्य को पा लेता है.. क्यों?.. कि परमात्मा को तो कोई छीन नहीं  सकता, अपने आत्मा को तो कोई छीन नहीं  सकता! और संसार की वस्तू को आज तक कोई रख नहीं  सका है! तो जो नहीं  रख सकते उस चीजों को किसी ने छीन लिया तो क्या बड़ी बात है? लेकिन जो सदा साथ में है उसको जानने के लिए अगर समय मिल गया बेड़ा पार जो गया !

ये वास्तविक नहीं  है! संसार मिथ्या है तो देह भी मिथ्या है और तुम्हारी बुद्धि भी माया से स्फुरी है, तो बुद्धि में जो शोक आता है, दुःख आता है ,चिंता आता है,तो चिंता को,दुःख को, शोक को अपने में जो लोग लगा देते है  वे दुःखी हो जाते है। जय जय !  चिंता को,शोक को ,परेशानी को जो लोग अपने में मान लेते है वो परेशान रहते है, लेकिन जब चिंता आए, शोक आए या हर्ष आए तो समझ लेना चाहिए कि आने जाने वाली चीजें है।
भाई वेदांत तो खपे…लाइफ में वेदांत तो होना चाहिए लेकिन वेदांत को स्वीकार करने के लिए तैयारी भी तो होनी चाहिए।

दुनिया के सब लोग मित्र हो जाए लेकिन जबतक तुम्हारा विचार वेदांती नहीं  हुआ तबतक तुम्हारे दुःख दूर नहीं  होंगे सब ! जय रामजी की ! और दुनिया के सब लोग शत्रु हो जाए और तुम्हारा वेदांतनिष्ठा में मन ठीक है तो आपको सब लोग मिलके भी दुःखी नहीं  कर सकते। कोई सूली चढ़ा सकते है, थप्पड़ मार सकते है, दोस्त अपशब्द कह सकते है लेकिन जब वेदांत के विचार से आप अपने आप में आ गए तो शब्द भी आपके शरीर तक पहुँचेंगे, आपके मन तक पहुँचेंगे, आपकी बुद्धि तक पहुँचेंगे, आप तक तो संसार का कोई दुःख पहुँच ही नहीं  सकता! अभी इस  समय तुम इतने पवित्र हो कि संसार का कोई दुःख पहुँच नहीं  सकता..ये जो बम बने है ना ..एक बम नहीं  एक करोड़ बम, अरबों बम..अभी जो बने है उससे हजार गुने और भी बन जाए फिर भी तुम्हारे वास्तविक स्वरूप का तो बमों के बाप कुछ नहीं  बिगाड़ सकते, तुम ऐसी चीज हो ! लेकिन जब तुम देह को मैं माना तो ये बम नहीं  गिरते है तभी भी विचारों का, किसी का छोटा-सा बम भी तुम्हारे चित्त में धड़ाके पैदा कर देगा ! तो ऐसा दुःख नरक में भी नहीं  है जैसा दुःख अज्ञानी
बना लेता है! और ऐसा सुख स्वर्ग में भी नहीं  है जैसा सुख ज्ञानवान के सान्निध्‍य मात्र से प्राप्त होता है! और ये ब्रम्हविद्या के वचन तुम आदर से सुनो ,जाने अनजाने या अंदर उन्‍डे बैठ जाएँगे तो हजारों हजारों जन्म के तुम्हारे कर्म कट जाएँगे, हजारों हजारों जन्म के माता और पिता के शरीरों से पसार होने की मजूरी तुम्हारी दूर हो जाएगी! इसलिए इस ब्रम्हविद्या को खूब आदर से सुनो,खूब अहोभाव से सुनो, ऐसा नहीं  कि बापू चलो, आजे  तो बार वागे निकली जउं पहुंची जउं फलाणे देत्‍या ने आवती काले कथा हांभणीस रतलाम मां…. नहीं ! जितनी मिल जाए, जो ब्रम्हविद्या मिल जाए, जहाँ पर मिल जाए…

योगवासिष्ठ में आता है कि रामचंद्र जी घर में जैसा भोजन है वैसा खा ले और जो कपड़ा मिले वो पहन लें,जहाँ नींद आ जाए वहाँ पड़ जा लेकिन ब्रह्मज्ञान का सत्संग सुनता रहा बस! वो मुख्य बात है!.
भक्त होकर तुमने मंजीरे कूट लिए, तपी होकर तुमने तप कर लिया, जपी होकर तुमने जप कर लिया, विद्यार्थी होकर तुमने विद्या अध्य्यन कर लिया.. तुमने कुछ कुछ बनकर कुछ कुछ पा लिया लेकिन ब्रम्हविद्या नहीं  जाना तो तुम्हारा सब कुछ जाना हुआ और पाया हुआ व्यर्थ हो जाएगा ।और महाराज ! तुमने ब्रम्हविद्या के लिए, आत्मज्ञान के लिए अगर चित्त को एकाग्र किया…उपनिषद कहता है

स्नातम तेन सर्व  तीर्थम

उसने सारे तीर्थो में स्नान कर लिया , उसने सारे तीर्थों में स्नान कर लिया, उसने सब यज्ञ कर लिए ,उसने सब हवन कर लिए ,उसने सारे पितरों को तर्पण कर लिया…

ये न क्षणम मन ब्रम्‍ह विचारें स्थिरम कृत्वा ll

जिसने एक क्षण के लिए ब्रम्हज्ञान में मन को स्थिर किया है..इतना पुण्य देती है ब्रम्हविद्या! सनकादि ऋषियों को ब्रम्हविद्या पाने के लिए  ब्रम्हाजी के पास जाना पड़ा और  ब्रम्हाजी  को ब्रम्हविद्या देने  के लिए सृष्टि करने  के संकल्प से  बुद्धि जरा रजोप्रधान हो गई थी इसलिए मन शांत करके बुद्धि के अधिष्ठानस्वरूप आदिनारायण का आह्वान किया और तब ब्रम्हविद्या का उपदेश हुआ और हँसगीता इसका नाम पड़ा। ये ऐसी ऊँची विद्या है!
पहले के जमाने में संत लोग ऐसा माईक लगाके ब्रम्हविद्या का उपदेश नहीं  करते थे ..वो तो जंगलों में एकांत में रहते, राजे महाराजे आते , साधू सेवा करते, झाड़ू बुहारी करते महाराज ! उनको प्रसन्न करते तब कहीं थोडा-सा ब्रम्हज्ञान का थोड़ा-सा अमृत पिलाते.. फिर देखते पचा है कि नहीं  पचा है, नहीं  तो फिर समेट लेते थे ।
लेकिन आज अगर ऐसा करे तो एक भी ग्राहक नहीं  मिलेगा!  कलजुग मां मंदी जो थई है नी तो तपस्‍या नी ने ब्रह्मविद्या नी मंदी थई है बीजा तो बूं बर चाले….

पहले के जमाने के आदमी के पास जो विवेक था , जो अपने जीवनदाता को पहचानने की जो तत्परता थी , जो ब्रम्हज्ञान पाने की जो तत्परता थी , जो जिज्ञासा होती थी वैसी जिज्ञासा रही नहीं  क्योंकि मन मलीन होता है!मलीन मन में आत्मज्ञान पाने की इच्छा नहीं  होती । मलीन मन में आत्मरामी संतों के चरणों में बैठने की रुचि नहीं  होगी ।

स्वल्प पुण्यवंता राजन विश्वासों नैव जायते |’ 

जिसके स्वल्प पुण्य है न उसको तो ब्रम्हविद्या में, ब्रम्ह वेत्ताओं में विश्वास नहीं  होगा।वो संसार में कूट कूट के दस जिंदगी बर्बाद कर देंगे ,सारा जीवन बर्बाद कर देंगे लेकिन जीवनदाता के करीब आनेवाली,  लानेवाली जो ब्रम्हविद्या है उसको वो श्रवण नहीं  कर सकते और बिना ब्रम्हज्ञान के श्रवण के महाराज! समाधि भी कर दे ,निर्विकल्प समाधि कर ले, चांद्रायण व्रत कर ले, उपवास कर ले, नंगे पैर तीर्थयात्रा कर ले ,केवल जल पर रह ले, खाली पानी पे रह ले, खाली हवा पे रह ले.. ऐसे योगियों को मैं जानता हूँ.. एक योगी ऐसे मिले थे पवनहारी, 138 साल की उनकी उमर थी और पेड़ पे ही रहते थे ,झाड़ पे ही ऊपर रहते थे,नीचे उतरते ही नहीं  थे। कभी 2-4 दिन में उतरे और गंगाजी में गोता मार के वो झाड् पर झोंपड़ी थी छोटीसी झोपड़ी थी, 3-4 फीट चौड़ी होगी और
6 सवा 6 फीट लंबी होगी झोपड़ी,झाड़ पे झोपड़ी बनाई थी,उसमें बैठे रहते थे।ऐसे योगियों को भी हमने मिलके देखा,उनसे वार्तालाप करके देखा लेकिन ज्यां लगी आत्म तत्व चिन्यो नहीं त्यां लगी साधना सर्व झूठी…

इसका मतलब ये नहीं कि ध्यान नहीं करे योग नहीं करे.. योग और ध्यान करने के बाद भी ब्रम्हविद्या चाहिए अथवा तो ब्रम्हविद्या सुनते सुनते सुनते उसका विचार करते करते योग हो जाए,उसका चिंतन करते करते ध्यान हो जाए! चिंतन ऐसा करो कि अचिंत्य पद में विश्रांति मिल जाए! ध्यान ऐसा करो कि सारे मिथ्या जगत का ध्यान छूट जाए!  ये शरीर जैसे मिथ्या है ऐसे बुद्धि में आनेवाला शोक,मोह,भय , चिंता भी मिथ्या है। इसको मिथ्या मानने से आप निर्दुख हो जाते है! आपके बुद्धि में भय आया,शोक आया, चिंता आई तो आप ये विचार करना कि बुद्धि आत्मख्याति.. बुद्धि बदलती रहती है , जो बदलने वाली बाई  है उसमें आनेवाला दुःख सुख अबदल कैसे हो सकता है? वो भी बदलने वाला है! जब शरीर बदलता है,  बुद्धि बदलती है,मन बदलता है तो दुःख सुख सदा थोड़े रहेगा !  पहले क्षण जब घटना घटती है और दुःख लगता है दो घँटे के बाद वैसा नहीं  होता ! और वो घटना को आप स्वीकृति नहीं  देते उतना दुःख जोर मारता है।

कोई महिला का पति स्वर्गवास हो गया, अब वो स्वीकृति दे दी विधवा होने को, क्‍योंकि पति तो चला गया है ,चलो जीवन जी लेंगे, बच्चों को पढ़ा लेंगे, कुछ कर लेंगे तो उसका दुःख कम हो जाएगा लेकिन ..” अब मेरे पति तू कहां है रे… छोरों का कांयं होगा रे…” पकड पकड धूम पछाडा करे… उससे पति तो वापस आएगा नहीं  लेकिन अपनी पकड़ के कारण बुद्धि में शोक, मोह भर जाएगा ।लोग क्या कहेंगे ? माम छांछ वलां …
इस प्रकार का बुद्धि में  ममता डालते जाओगे तो लोगों के तुम कठपुतलियाँ हो जाओगे।लेकिन अपनी ओर से हम ठीक कर रहे है तो लोगों की जैसी बुद्धि होगी वैसा कहेंगे… हरिओम तत्सत और सब गप शप! ऐसा करके जीवन जीने का ढंग आ गया तो लोगों के आप खिलौने नहीं  बनेंगे।

हम लोग लोगों के खिलौने क्यों बनते है ? कि बुद्धि वृत्ति में जैसा जैसा संस्कार पड़ जाता है वैसे वैसे हम अपनेको मान लेते है।इसीलिए हम कल्पनाओं के शिकार बन जाते है।और ऐसा कोई मनुष्य नहीं  है जो संसार को सत्य मानकर बुद्धि वृत्ति में जो कल्पना आई उसको सच्ची मानकर संसार में जीया हो और सुखी हुआ हो ऐसा असंभव है।फिर चाहे भगवान कृष्ण साथ मे हो अर्जुन के लेकिन अर्जुन की बुद्धि में जो कल्पनाएँ पकड़ रखी है अर्जुन ने तो अर्जुन पूरा सुखी नहीं  हो रहा है। उद्धव ने जो  कल्पनाएँ पकड़ रखी है और श्रीकृष्ण के साथ में वो है फिर भी उद्धव पूरा निश्चिंत नहीं  हुए। संसार को मिटाना नहीं  अथवा भगवान को पाना नहीं  लेकिन बुद्धि से बेवकूफ़ी मिटाना है और बुद्धि को परमात्मा में प्रतिष्ठित करना है!जय जय !

परमात्मा तुमसे दूर नहीं  तुम परमात्मा से दूर नहीं  ।सुख सदा रह नहीं  सकता, दुःख सदा रह नहीं  सकता और भगवान कभी हट नहीं  सकता, लेकिन देखो तो सदा सुख दुःख दिखता है और भगवान दिखता ही नहीं  ये बुद्धि का दोष है न यार !

 

सेवा ही भक्ति


और अपनी सेवा वही है कि अपने को परस्थितियों का गुलाम ना बनाये । परिस्थितियों की दासता से मुक्त करे । वही स्वतंत्र व्यक्ति है और जो स्वतंत्र है वही सेवा कर सकता है । पद और कुर्सी मिलने से सेवा होगी और बिना कुर्सी के सेवा नहीं होगी ये नासमझी है । जो अपनी सेवा कर सकता है वह विश्व की सेवा कर सकता है । चाहे उसके पास रुपया पैसा नहीं हो, फिर भी वह सेवा कर सकता है । किसी को रोटी खिलाना, वस्त्र देना इतना ही सेवा नहीं है, किसी को दो मीठे शब्द बोलना, उसके दुःख को हरना, यह बड़ी सेवा है। निगुरे को गुरु के द्वार पर पहुँचाना, ये बड़ी सेवा है। असाधक को साधक बनाना ये भी सेवा है । अनजान को जानकारी देना, ये भी सेवा है। भूखे को अन्न देना यह सेवा है। प्यासे को पानी देना यह सेवा है। अभक्त को भक्त बनाना यह सेवा है। उलझे हुए की उलझने मिटाना यह सेवा है और जो देता है, वो पाता है । जो दूसरों को कुछ न कुछ देता है और नहीं तो दो मीठे शब्द ही सही और नहीं तो दो भगवान की बात ही सही। और सेवा में जो बदला चाहता है वह सेवा के धन को कीचड़ में डाल देता है। सेवा करे और बदला कुछ मिले, हमारा यश हो, हमें पद मिले, हमें मान मिले, तो वह सेवक व्यक्तित्व बनाना चाहता है और व्यक्तित्व हमेशा सत्य से विरोध में खड़ा रहेगा। व्यक्तित्व सत्य से विरोध में खड़ा रहेगा तो सत्यस्वरुप से सेवा नहीं करने देगा।  जो सच्चाई से सेवा नहीं करने देगा तो सच्चाई से मुक्ति भी नहीं पाने देगा।  सच्चाई तो ये है कि सेवा के बदले कुछ न चाहना। जब कुछ न चाहेंगे तो जिसका सब कुछ है वो संतुष्ट होगा अपना अंतरात्मा तृप्त होगा खुश होगा। जब अंतरात्मा खुश होगा तृप्त होगा तो सब कुछ न चाहनेवालो को तो सब कुछ मिलता है। जो किसी-किसी को प्रेम करता है वो किसी को द्वेष करेगा। जो कुछ चाहता है वो कुछ गँवाता है। लेकिन जो कुछ नहीं चाहता वह कुछ नहीं गँवाता है। और जो किसी को प्रेम नहीं करता वो सबको प्रेम करता है और जो सबको प्रेम करता वो किसी व्यक्तित्व में परिस्थितित्व में बंधता नहीं है और वो निर्बंध हो जाता है । जो निर्बंध हो जाता है तो दूसरों को भी निर्बंध बनाने का सामर्थ्य उसका निखरता है। जो निर्दुःख हो जाता है वो दूसरों के दुःख दूर करने में सक्षम हो जाता है। जो निरहंकार हो जाता है वो सच्ची सेवा में सफल हो जाता है। औरों को निरहंकार होने के रास्ते पे ले जाता है। तो सच्ची सेवा का उदय उसी दिन से होता है कि सेवक प्रण कर ले कि मुझे इस मिटनेवाले नश्वर शरीर को, कब छूट जाये कोई पता नहीं । इस नश्वर शरीर इस नश्वर तन से अगर हो सके तो, शारीरिक क्षमता हो तो तन से सेवा करुँ। और भाव सब के लिए अच्छा रखूं ये मन से सेवा करुँ। और लक्ष्य सब का ईश्वरीय सुख बनाऊंगा ये बुद्धि से सेवा करने का निर्णय कर ले और बदले में मेरे को कुछ नहीं चाहिए । बदले में मुझे कुछ नहीं चाहिए क्योंकि शरीर प्रकृति का है मन प्रकृति का है बुद्धि प्रकृति की है । और जहाँ सेवा कर रहे है वह संसार प्रकृति का है। संसार के लोग प्रकृति के है। संसार की परस्थिति प्रकृति की है । तो प्रकृति  की चीजे प्रकृति में अर्पण कर देने से आप प्रकृति के दबाव से और प्रकृति के आकर्षण से मुक्त हो जाते है। जब प्रकृति के दबाव से और प्रकृति के आकर्षण से आप मुक्त हुए तो आप परमात्मा में टिक गए।

वो आपका स्वतः स्वाभाव था आप उसमे टिक गए। उसके आनंद में आप आ गए। ये एक दिन की बात नहीं है धीरे-धीरे होगा लेकिन रोज ये मन को ये बताएं कि हमको तो सेवा करनी है। सेवा लेनेवाला गुलाम रहता है और सेवा करनेवाला स्वामी हो जाता है। सेवक न आये तो स्वामी लाचार होता है कि  ‘अरे आज फलाना नहीं आया’ लेकिन जो सेवा करता है स्वामी आये न आये सेवक तो अपना उनकी पराधीनता महसूस नहीं करता। नौकरानी की याद में सेठानी दुःखी होती है लेकिन सेठानी की याद में नौकरानी दुःखी नहीं होती नौकरानी तो रुपये की याद में दुःखी हो सकती है, सेठानी की याद में नौकरानी दुःखी नहीं होती।  सेवा लेनेवाला भले सेवक को याद करे लेकिन सेवा करनेवाले की गाडी तो ऐसे ही चल जाती है। तो ईश्वर के नाते सेवा करे और उस सेवा में और सुगन्धि लाये कि ईश्वर की नाते सेवा करे और जिसकी भी सेवा करते है वो सब ईश्वर की भिन्न-भिन्न अभिव्यक्तियाँ है। आप जिस किसी व्यक्ति को नीचा दिखाना चाहते होतो समझो कि उसके अन्दर बैठे हुए ईश्वर को आप नीचा दिखाना चाहते हो। जिस किसी व्यक्ति की इर्ष्या करते होतो समझो कि व्यापक ईश्वर सब में बैठा है तो ईश्वर की उस अंग की, उस खंड की आप इर्ष्या करते हो।  तो हमारे चित्त में अपना अहंकार पोसने की और दूसरों को नीचा दिखाने की और सेवा का प्रदर्शन करने की, जो आदत है या कमजोरी है उसको निकालने से हमारी सेवा सेव्य को प्रगट कर देगी। निष्कामकर्मयोग अपना स्वतंत्र योग है। जैसे तत्त्वज्ञान, ज्ञानयोग, सांख्ययोग मुक्ति देने में स्वतंत्र है। वैसे ही भक्तिध्यानयोग भी मुक्ति देने में स्वतंत्र माना गया है, ठीक ऐसा ही दर्जा है निष्कामकर्मयोग का। निष्कामकर्मयोग भी स्वतंत्र है। मुक्ति देने में स्वतंत्र है। अपने स्वार्थ को पोसने का, अहंकार को पोसने का, दूषित वासनाओ को पोसने का, जो भी कोने-खाचरे में वासनाये या बेवकूफियां भाव है उसको उखाड़ के फेंक दे। बड़े-बड़े जोगियों को समाधी करने में जो सुख मिलता है वो सुख सतियों को अपने घर में ही मिला। बड़ा-बड़ा सामर्थ्य जिन योगियों के जीवन में सुना जाता है उससे भी बढ़ा-चढ़ा सामर्थ्य सतियों के जीवन में सुना गया। सतियों ने क्या किया सतियों ने अपनी इच्छा छोड़ दी, पति की इच्छा में अपनी इच्छा मिला ली, पति की इच्छा में पति की ख़ुशी में,  पति के संतोष में अपनी ख़ुशी को रख लिया। पति की…..बस मेरी इच्छा नहीं। पति की इच्छा में अपनी इच्छा मिलाने से उनकी अपनी इच्छा हटती गयी, अपनी इच्छा हटती गयी और उनकी सेवा चमकती गयी और वो सतिया इतनी महान हो गयी कि सूर्य की गति को थाम लिया। शांडिल्य का रूप, लावण्य, सौंदर्य देखकर ग़ालब ऋषि और गरुड़जी मोहित हो गए कि ऐसी तेजस्विनी, ऐसी सुंदरी इस धरती पर और तपस्या कर रही है। नहीं नहीं तू तो भगवान विष्णु की भार्या होने के योग्य है। विष्णु भगवान से तेरा विवाह करेंगे।  शांडिल्य ने कहा ‘नहीं नहीं मुझे तो ब्रह्मचर्यव्रत पलना है’।  शांडिल्य तपस्या में लग गयी, ध्यान भजन में लग गयी। अपने शुद्ध-बुद्धस्वरुप की तरफ यात्रा करने लग गयी। गरुड़ और ग़ालब को हुआ कि इतनी सुंदरी ! मानो अप्सरओं को भी मात दे, ये धरती की युवती, कही तपस्या-वपस्या में जोगन बन जाएगी तो बात मानेगी नहीं, इसको उठा ले जाये और जबरन भगवान विष्णु के पास पहुंचा दे और शादी करा दे। एक प्रभात को ग़ालब और गरुड़ आये, शांडिल्य को उठा के ले जाने के लिए और शांडिल्य की दृष्टि पड़ी कि इनकी अपने लिए नहीं लेकिन अपनी मनमानी इच्छा पूरी करने के लिए इनकी नियत बुरी हुई है। जब मेरे में इच्छा नहीं तो मैं किसी की इच्छा से क्यों दबू?  मुझे तो ब्रह्मचर्यव्रत पालना है और ये मुझे जबरन गृहस्थ में घसीटते है, विष्णु की पत्नी !  मुझे पत्नी नहीं होना है, मुझे तो अपने स:स्वभाव को पाना है,  पत्नी शब्द प्रकृति है, मुझे तो प्रकृति में जन्मना-मरना नहीं है मुझे तो प्रकृति के आधार को जानना पहचानना है और ये क्या कर रहे है मुझे निराधार बनाने के लिए। शांडिल्य ने, गरुड़ तो बलवान था और ग़ालब भी कम नहीं थे, लेकिन शांडिल्य की निस्वार्थ सेवा, निस्वार्थ परमात्मा में विश्रांति की यात्रा ने ऐसा तो भर दिया था कि शांडिल्य ने देखते-देखते उन पर पानी का छींटा मारा ‘ग़ालब तुम गल जाओ और ग़ालब को सहयोग देने वाले गरुड़ तुम भी गल जाओ’ उन दोनों के शरीर महसूस हुआ की उनकी शक्ति क्षीण हो गयी, मानो वो गल ही रहे है भीतर-भीतर से… बड़ा प्रायश्चित किया, क्षमा-याचना की, तब कही उस भारत की कन्या ने उनको माफ़ किया और जैसे थे वैसे बना दिया और अपनी शक्ति बचाकर भागे। जिसमे निस्वार्थतता होती है और ब्रह्मचर्य संयम होता है उसके आगे प्रकृति के नियम भी बदलने को राजी हो जाते है। जो रुग्न मन का अनुसन्धान करके मनोवैज्ञानिक बोलतेहै कि काम आये तो कोई बात नहीं रोको मत, सम्भोग से समाधी की ओर जाओ तो उन बिचारे वैज्ञानिको की जो किताब है और आचार्य और विद्वानियों ने पढ़े तो वैज्ञानिकों का अन्वेषण था कि रुग्न मनो का अध्ययन करके। तीन प्रकार के रुग्ण मन होते है और दो प्रकार के स्वस्थ मन होते है। क्षिप्त, विक्षिप्त और मूढ़ ये रुग्न मन होते है और आम आदमी के रुग्न मन होते ही है। निरुद्ध और एकाग्र ये स्वस्थ मन होते है। स्वस्थ मन था अर्जुन का, अप्सराऐ गिडगिडायी उर्वशी, लेकिन अर्जुन ने कमर नहीं तोड़ी अपनी। स्वस्थ मन था युधिष्ठिर का, कई परस्थितिया आई, लेकिन युधिष्ठिर मन अडिग रहा। स्वस्थ मन था जनक का कई विक्षेप आये,  भोग-वासना में गिरने का अवसर आया लेकिन जनक भोगवासना में रहते भी योगवासना में रहे, ये स्वस्थ मन है। तो स्वस्थ मन का अनुसन्धान करके,  अध्ययन करके वैज्ञानिक अगर अविष्कार करते,  घोषणा करते तो वो ये नहीं कह सकते कि काम न रोको, क्रोध न रोको, आवेग है उनको गुजर ने दो, आने दो ऐसा नहीं कहते, अपितु ये कहते कि काम को रोको, क्रोध को रोको, युक्ति से रोको। लेकिन उनको अगर ओर कोई सतगुरु मिल जाये तो वो सज्जन भी कह देंगे कि काम को रोकना पर्याप्त नहीं है, काम की जगह पर राम को प्रकट करो। क्रोध की जगह पर क्षमा और सहानभूति को प्रगटाओ, यही तुम्हारे में विशेष क्षमताएँ है। झूठ न बोलो ये तो ठीक है, सत्य बोलो ये भी ठीक है, लेकिन स्नेह भरा बोलो। चोरी न करो ये तो ठीक है लेकिन जहाँ चोरी करने की आदत है वहाँ दान करों। उदार बनो  “ दो”  आपके पास शारीरिक बल हो, मानसिक बल हो, बौद्धिक बल हो, जितना हो चाहे मुट्ठी भर हो , जितना भी हो उसे आप ईश्वर की विराट सृष्टि में, ईश्वर के लिए, ईश्वर की प्रसन्नता के लिए उसका सदुपयोग करो। सदुपयोग मतलब सेवा करो। आपके पास जितना, थोड़े से थोड़ा भी है उसको ईमानदारी से सेवा के लिए लगाओ, तो आप पाओगे, ज्यों-ज्यों आप अपनी योग्यताएं सेवा में लगा रहे है और बदले में कुछ नहीं चाहते, त्यों-त्यों आपकी योग्यताएं जादुई ढंग से बढ़ती जाएगी। देखे बढ़ती है कि नहीं ऐसा अधेर्य मत करो। बढ़े न बढ़े हमें कोई जरूरत नहीं। हमारे पास जो योग्यता है देनेवाले की है और देनेवाले की सृष्टि सवारने के लिए है। देनेवाले की सृष्टि की सेवा करने के लिए है। न सेवा का बदला चाहो और न सेवा का प्रचार चाहो, न सेवा का दिखावा चाहो । आपके हृदय की शांति और समझ सूझ-बूझ बढ़ती जाएगी और आदर्श सेवक हनुमान हो गए। इसी ढंग से अपने को देखने की इच्छा करो। सेवक और मान चाहे,  सेवा के बदले में मान चाहे, सेवा को बेच रहा है फेंक रहा है। शरीर का अहंकार पोसने के लिए सेवा को नष्ट कर रहा है। सेवक और मान की इच्छा?  सेवा करोगे लोग मान देंगे लेकिन आपको उस मान से कोई फायदा नहीं होता अपितु अहंकार जगने का अवसर आता है। सेवा के बदले में मान न चाहो। सेवा के बदले में भोग न चाहो। सेवा के बदले में दूसरों को दबाने की क्षमता ना चाहो। सेवा करते जाओ जो तुम्हारा हरीफ़ है उसका ह्रदय भी जीतो। हरीफ़ जिस कारण दुखी है उसे हटते जाओ। तुम्हारा दुश्मन जिन कारणों से दुखी है वे कारण आप हटाते जाओ। दुश्मन की भी सेवा करो। फिर देखो उस दुश्मन पर आपकी कैसे विजय होती है। दुश्मन को मार देना ये दुश्मन पर विजय नहीं है। दुश्मन का गला दबा देना या नीचे गिरा देना, यह दुश्मन की विजय नहीं है, इसमें दुश्मनी तो बनी रहेगी। दुश्मन को अगर जीतना है तो दुश्मन जिन कारणों से दुःखी है वे कारण हटाना शुरू करो। ये ऎसी सेवा है महाराज! गजब कर देगी ! आपको स्वामी पद पे बिठा देगी। आप विश्वजीत हो जायेंगे। दुर्योधन युधिष्ठिर को दुश्मन मानते थे लेकिन दुर्योधन कहते थे कि युधिष्ठिर…नहीं…युधिष्ठिर झूठ नहीं बोलेंगे। अगर फंस जाते दुर्योधन, कोई निर्णय नहीं कर पाते तो युधिष्ठिर से निर्णय करवाते। दुर्योधन युधिष्ठिर का भगत था भीतर से। जयरामजी की। ऐसा कह लो कि दुर्योधन युधिष्ठिर का शिष्य हो गया था भीतर से। शकुनि युधिष्ठिर का शिष्य हो गया था भीतर से।

रावण रामजी का विरोधी था, लेकिन रामजी यथायोग्य रावण की खिदमत करते है। उसको स्वधाम पहुँचाना, यह भी रामजी के चित्त में द्वेष नहीं है, खिदमत का भाव है। नहीं तो हार्ट अटैक कर देते ओर उपाय ऐसे बुरी तरह मारते, नहीं,मौका दिया अवसर दिया। तो अगर जरूरत पड़ती है किसी को कुछ करने की तो अंदर में द्वेष रखकर नहीं, जैसे रामजी उसकी खिदमत की भावना से युद्ध करके उसे स्वधाम भेज देते है। तो सेवक को जो विघ्न बाधा आये और जो तत्त्व विघ्न बाधा डालते है। तो उन तत्वों की बुराई नहीं लेकिन उन तत्वों का जिसमें भला हो, ऐसी कोशिश करे। उनकी वासना और उनका अहंकार घटे ऐसी कोशिश करे। खिदमत भाव से उन तत्वों को,  उन विरोधो को हटाये, तो वो सेवक….वो सेवक सेव्य पद को पा लेगा। गुरुलोग शिष्य को डांटते है, गुरुलोग शिष्य को निकाल देते है। गुरुलोग शिष्य को भर सभा में उठ-बैठ कराते है ऐसा आपने देखा है, हमनें भी देखा है। हमनें हमारे गुरुदेव के चरणो में देखा है और आपने मेरे संपर्क में देखा है। लेकिन मेरे ह्रदय में उनको खुलेआम उठ-बैठ कराना या डांटना द्वेष बुद्धि नहीं है अपितु उनमें जो दुर्गुण है, जो उनको ऊपर उठाने से रोकते है, खुलेआम उनको वाहवाही मिलती है तो फिर अकेले में कहते है तो अहंकार में परिवर्तन नहीं होता, इसलिए खुले में उनको उठ-बैठ कराते थे ताकि उनका खुलेआम अहंकार विदा हो जाये। मेरे गुरुदेव अपने एकदम निकटवर्ती सेवक को खुलेआम उठ-बैठ कराते। एकबार सेवक ने पूछा की ‘स्वामीजी! आप कृपालु तो है ये तो हम अनुभव करते है,लेकिन आप जब नाराज़ होते है तो छक्के छुड़ा देते है। आप अगर डांटे और कुछ हमारी गलती बताये तो एकांत में कह दे। दिनभर आपकी सेवा करते है, सभा भरती है सत्संग होता है और आपके हाथ में माइक आता है तभी आप हम को बोलते हो। बिना माइक के कह दिया करो गुरुदेव ! सहा नहीं जाता ! कहाँ तो इतने लोग हमको पूजते है, जानते है और इतने लोगो के बीच आप हमको माइक…गुरुदेव ने फिर करुणा की डांट बरसते हुए कहाँ  ‘ बेवक़ूफ़ ! गधा ! पता नहीं है तेरे को वीरभान का बच्चा! वाहवाही लोगों के बीच होती है। फुगा लोगों के बीच भरता है तो हवा लोगों के बीच क्यों नहीं निकलेगी? यही तरीका है बेटा तेरे को पता नहीं है। ‘ वो जो वीरभान लड़का था, वो सब्जी बेचने की लारी चलता था और खूब सुलखे पीता था। वो तो खुद बोलता था कि ‘ मैं छटांग-छटांग अफीम उड़ा देता था। चरस गांजा जो भी बोलते है। मैं ऐसा था और देखो धीरे-धीरे स्वामीजी के पास आया हूँ और स्वामीजी का अंगद सेवक हो गया हूँ.. .देखो ! संत कितने दयालु है’ वो ऐसी प्रशंसा भी करता था। और कभी-कभी ऐसा जुनून चढ़ जाता था कि उठा के बिस्तर बोरी की’ नहीं नहीं रहना है … दस साल में क्या मिला है तुम्हारे पास? हम जाते है। तो स्वामीजी बोलते थे कि ‘ले जाओ साले को उठाके, एक मिनट मत रखो, निकालो आश्रम से इसको ‘वो आश्रम से निकल के बोरी-बिस्तर बांधकर रवाना होता तो बोलते थे की ‘अकेला जायेगा फिर लौट के आएगा हरामी! जाओ! ये पैसे लो इसे बस स्टैंड पे जाके बस में धक्का मारके घुसेड़ के फिर आना। और साइड में उसको समझाते गए कि सचमुच जाता है न, तो धीरे-धीरे समझा के ले आना। सचमुच चला जाये तो फिर चरस अफीम पीयेगा, लॉरी चलाएगा, बर्बाद हो जायेगा। अगर अहंकार मिटाने के लिए अपन ये करते है तो देखो, ध्यान रखना अगर सचमुच जाये तो समझा के ले आना।  अब देखो ! बाहर से कितने कठोर! और अंदर से कितने करुणामय! ऐसे स्वामी की विजय हुयी और ऐसा सेवक सफल जीवन बीता गया। अब जैसे साधुओं की पूजा होती है ऐसे ही सब्जी चलानेवाले, गांजा चरस फूकनेवाले व्यक्ति की पूजा आदिपुर में होती है। जो लोग लीलाशाह का दर्शन करते वो लीलाशाह के हनुमान का भी दर्शन करते, माथा टेकते। ये स्वामियों ने स्वामी बना दिया महाराज!  नारायण हरी। नारायण हरी। नारायण हरी।

श्री कृष्ण कहते है’ अनाश्रित: कर्मफलं। कार्यं कर्म करोति य:। स सन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रिय:

जो आसक्ति रहित होकर, करने योग्य कर्म करता है, फल की आकांक्षा नहीं। सेवा करता है लेकिन वाहवाही की आकांक्षा नहीं। सेवा करता है लेकिन दिखावे की आकांक्षा नहीं। सेवा करता है पर बदले में सेवा चाहता नहीं। सेवा करता है और बदले में मान चाहता नहीं। सेवा करता है पर दूसरों को हीन दिखाकर आप श्रेष्ठ होने की बेवकूफी करता नहीं। ऐसा जो सेवक है उसे तुम संन्यासी समझो। उसे तुम अर्जुन योगी समझो।  ‘अनाश्रित: कर्मफलं ‘  कर्म के फल की आशा न रखे। ‘कार्यं कर्म करोति य:’ करने योग्य।  ऐसा नहीं की सेवा का मतलब है कोई चाहते है कि भाई हमें पिक्चर में जाना है और आप जरा लिफ्ट दे दीजिये। तो उसको पिक्चर में न जाये उस का भला हो तो कोई लिफ्ट दे उस को वहाँ रोकना ये भी सेवा है। जयरामजी की। मेरे को जरा फलानि पार्टी में जाना है और पैसे नहीं है तो आप जरा थोड़ा ,  आप तो जाने माने हो , स्वामीजी के शिष्य हो, जरा थोड़ा मेरे को २०० रुपये दो न , फलानि पार्टी अटेंड करनी है, तो आप तो नहीं लेकिन कोई दूसरा देता होतो बोलना  ‘भाई ये पार्टी अटेंड कर रहा है वो भी चिकन की ! इसमें उनका अहित है ! कृपा करके आप उन को न दे तो अच्छा है।’ ये भी सेवा है। उसको पतन करने में आप विघ्न डाले ये भी सेवा है  और ईश्वर के रास्ते में जाने में वो न भी मांगे फिर भी आप सहयोग करे ये भी एक सेवा है। सामने वाले व्यक्ति की उन्नति किसमे होगी, ये ख्याल करके जो कुछ चेष्ठा करनी है और बदले न चाहना इसका नाम सेवा है। भले उस वक़्त वो आदमी आपको शत्रु मानेगा लेकिन देर सबेर आपका जो शुद्धभाव है वो आपका ही हो जायेगा। मेरे अपने आपके कितने हो गए। क्या मैंने जादू मारा या क्या मेरे पास कोई कुर्सी है या मेरे पास कोई बाहर का प्रलोभन है। नहीं, मेरे पास वह है कि मेरे पास जो आता है उसका कैसे मंगल हो ये भाव मेरे मन में उठते रहते है। लाइन में आते है दर्शन के बहाने तभी भी में देखता हूँ किसी को साखर बूटी की जरूरत ,है किसी को पुस्तक की जरूरत है, किसी को खाली मुस्कान की जरूरत है, और किसी को डांट की जरूरत है, जिसकी जो जरूरत है भगवन उनका करता है मेरा इसमें क्या होता है?

‘देनेवाला दे रहा है दिन और रैन। लोक मुझे दानी कहे उस लिए नीचे नैन’ ऐसा एक दाता ने कहाँ है वो बात भी हमें याद रहती है। तो देनेवाला परमात्मा ही दे रहा है दिन रैन दे रहा है। मति को शक्ति वो ही दे रहा है। मन को प्रसन्नता वो ही परमात्मा दे रहा है। शरीर को सामर्थ्य उसी की सृष्टि से आ रहा है। इसमें अपना क्या है? बस अपना कर्ज चुकाओ बस! ऋण मुक्त हो जाओ, ऋणमुक्त हो गए तो जन्म-मरण मुक्त हो गया। विवेकानंद बोलते थे कि तुम सेवा करते तो ये न सोचो कि ये तो दीन-हीन है, मैं न होता तो इस बिचारे का क्या होता? नहीं नहीं यह तो ईश्वर की कृपा है और सेवा लेनेवाले की, सेवा लेनेवाले की भी कृपा है कि हमें अवसर दे रहा है ऐसा मानो। ईश्वर ने हमें क्षमता ये दी उसकी ईश्वर कृपा है और ईश्वर ने हमें सेवा करने की क्षमता ये दी वो ईश्वर की कृपा है। और कोई हमारी सचमुच में सेवा ले रहा है सतमार्ग में तो उसको भी धन्यवाद है। नहीं तो गाड़ी में लोक नहीं बैठे तो गाडी किस काम की ? सड़क पर लोग नहीं चले तो सड़क किस काम का? ऐसे ही हमारी वस्तुओं का और योग्यताओं का लोगों के लिए उपयोग न होवे तो वस्तु और योग्यताएं किस काम की? अपनी वासनाएं बढ़ने के लिए वस्तु और वासनाएं का उपयोग होता है तो हम बर्बाद हो गए। अपना अहंकार बढ़ने में वस्तु और योग्यताओ का उपयोग होता है तो बर्बाद हो गए। हमें तो आत्मिक आबादी चाहिए। तो हिटलर, सिकंदर जैसे-तैसे आदमी नहीं थे, अच्छे थे, लेकिन सेवा के बदले वस्तु और योग्यताओं को अहंकार बढ़ाने में थोडी-सी गलती की, उन्होंने और इससे बड़ी गलती कोई होती नहीं है। रावण और कंस क्यों विफल गए? और क्यों अभी तक फटकार पाते है कि  उनमें योग्यताएं बहुत सारी थी, वस्तुएँ बहुत सारी थी लेकिन अहंकार विसर्जन करने में, सेवा में नहीं लगाकर, अहंकार को पुष्ट करने में और वासनाओ को भड़काने में लगाई। इसीलिए वे विफल है। रामजी के पास और कृष्णजी के पास जो वस्तु और योग्यताएं थी वो सेवा में लगा दी, रामजी और कृष्णजी अभी तक भारत के हर दिल पर राज्य कर रहे है। धरती पर कई राजा आये और कई चले गए, लेकिन दो राजाओ का नाम अभी भी भारतवासियों के हृदय पर है वह राजारामचन्द्र और राजा कृष्णचन्द्र उन का राज्य है क्योंकि वो भलाई ही अपनी योग्यता और वस्तु का सदुपयोग करने की कला थी उनमें। ऐसे ही जनक राजा का और महात्माओं का भारतवासियों पर राज्य है। गांधीनगर की कुर्सियों पर चाहे किसी का राज्य हो, भोपाल की कुर्सी पर, दिल्ली की कुर्सी पर, चाहे किसी का भी राज्य हो लेकिन भारत के दिल की कुर्सियों पर अभी भी निष्कामकर्म प्रेमी संतों का ही राज्य हो रहा है। बस यह प्रत्यक्ष प्रमाण को देखकर आप जीवन में जो सेवा करते है वो भाग्यशाली तो है लेकिन असावधान न रहे सावधान रहे की सेवा का बदला अगर लिया तो सेवा, सेवा ही नहीं रही। सेवा से अगर दूसरा हमारी सेवा चाहे तो ये दुकानदारी हो गयी। और सेवक के अंतकरण में ईर्ष्या नहीं होती। सिंधी संत हो गए। स्वामीसाब उनका नाम था। उन्होंने श्लोक बनाये उस ग्रन्थ का नाम है ‘स्वामी जा श्लोक ‘ स्वामी के श्लोक  ग्रन्थ का नाम है। उन्होंने लिखा है

‘सेवा सच्ची उस ग्रन्थ में “सेवा सच्ची माँ जिन लधो। लधोलाल आणमुलोम से स्वामी सच्ची सिक सा सदा सेवा कन। लता मुका मोचड़ा सदा सिर सहन रतारंग रहन अठे पहर अजीब रे।‘

सच्ची से सेवा जिन्होंने जो पाया वो लाल अनमोल लाल पाया। आत्मा लाल पाया। आत्मसंतोष पाया। वे तो सदा सच्चाई से सेवा करते है। सेवा के बदले में कभी किसी के गुरु की या माता-पिता की लात सेह लेते है। तो कभी कोई खट्टी बात भी सह लेते है फिर भी हँसते-हँसते सेवा करते रहते है जिन्होंने सेवा का मूल्य जाना है। जो सेवा के द्वारा कुछ चाहता है वो तो सेवा के नाम को कलंकित करता है और जो सेवक होकर सुख चाहता है वो भी सेवा के महत्त्व को।

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गुरुदेव दया कर दो मुझ पर …. सिर पर छाया घोर अँधेरा हो,,,, सिर पर छाया घोर अँधेरा हो

सेवक चही ही सुख लाही।

नहीं, नहीं सुख की अभिलाषा सेवक नहीं करता। मान की अभिलाषा सेवक नहीं करता। जब सुख और मान की अभिलाषा को हटाने के लिए सेवक सेवा करता है तो सुख और मान पे उसका अधिकार हो जाता है। वो अंदर से ही सुख और अंदर से ही सन्मानित जीवन उसका प्रगट होने लगता है । नारायण हरी। नारायण हरी। नारायण हरी।

कुछ लोग सेवा से मुकरने की आदत रखते है।  ‘अच्छा ये तू कर ले, अरविन्द आ तू करी ले, फलाना भाई ! आ तू वे करी ले, अला अति नै करू तू तया आ लया जाओ तू करू, करू आ करो, आ करो’ ।  ऐसे सेवक विफल हो जाते सेवा में। दो भाई थे। एक बड़ा एक छोटा। दोनों को बराबर संपत्ति मिली। कुछ वर्षो बाद बड़े भाई ने मुक़दमा कर दिया छोटे भाई पर। न्यायलय में खटला गया। न्यायाधीश ने केस चलाया, चेम्बर में बुलाया, बड़े भाई को, छोटे भाई को। बोले बड़े तुम कंगाल कैसे रह गए और तुम छोटे इतने अमीर कैसे हो गए ?  जब तुम बोलते हो कि हमने भले लिखा-पढ़ी नहीं की, लेकिन आधी-आधी संपत्ति मिली थी। तो बराबर की संपत्ति मिलने पर, एक कंगाल और एक अमीर कैसे हुए? तो छोटे ने कहा ‘मेरे बड़े भाई क्या करते थे कि जाओ-जाओ ये कर लो!  अरे, तेरे को बोला ये कर तूने नहीं किया अभी तक?  अरे, ये कर ले , वो कर ले, जाओ जाओ, ये करो, जाओ जाओ तो इन का सब कुछ चला गया और मैं मित्रो से, साथियों से, नौकरों से, मुनिमों से मिलकर कहता था कि ‘आओ ! अपन ये करे, आओ ये कर लेंगे, आओ ये कर लेंगे, । मैंने आओ-आओ सूत्र रखा और उसने जाओ-जाओ रखा इसीलिए उसका सब कुछ चला गया और मेरे पास सब कुछ आ गया। तो अच्छा उद्योगपति होना हो, अच्छा सेवक होना हो, अच्छा सेठ होना हो, अच्छा संत होना हो, अच्छा नेता होना हो तो ‘जाओ’ ये कर दो नहीं, ‘आओ’ ये करें। आओ ये करें। आओ, आओ जाओ नहीं। अटलु करी दे तू आम ख़रीदे अपडा ऊ करी दे। भले आपके पास समय नहीं, आपका डिपार्टमेंट नहीं फिर भी चलो, अपन ये कर ले। अपन ये कर ले, जिससे करवाते उसको विश्वास में लेकर फिर शुरू करो। तो उसको अपना लगे काम। जिससे काम करवाते उसको आपका काम अपना लगे। ऐसा नहीं की उसको ऐसा लगे कि ये तो इनका सौंपा हुआ काम है, ये इनका सौंपा हुआ बोझा है। नहीं जो सेवक दूसरों से सेवा लेकर सेवाकार्य को बढ़ाना चाहता है वो उनसे ऐसा पेश आये, ऐसी बातचीत करे कि ‘ देखो ! अपना ये कर्तव्य है’। अपन लोगो को ये ऐसा करना चाहिए, ऐसा मेरा विचार है, आपका क्या विचार है ? अच्छा विचार होगा, तो मानेगा क्या? तो अपन कैसे करे?’

उसी को ही दूल्हा का बाप बनाओ। एन जवर्णो बाप बनाओ। तमारा सेवाना निर्णयों ऐना मोडेतीच कढ़ाओ। आणि पछि हडी मली ने कर्म करी छे सेवानु कार्य चालू करे न तमे खसी जाओ ओ पाछे बीजे सुरु कराओ। जय श्रीकृष्ण। एम ने के तमे खसकी गया न ज्ञानयश मळेते अरे हागळ आगळ आया। ह ने सेवा करवानु आते बीजा लोकों करते सेवा में भली वार निने तमार ह्रदय साचा सुख भली वरी ने।

जो बेईमानी से सेवा का यश लेना चाहते उन बेईमानो को सच्चा सुख मिलता भी नहीं है। काम तो कोई करे और यश का अवसर आये तो खुद हार पहनाने को खड़े हो गए। क्योंकि हार बदले में गले में पड़े । अरे ! हार तो हार ही है भाई ! जयरामजी की। अगर ईमानदारी से सच्चाई से सेवा करते तो अहंकार को हरा दे। अगर बेईमानी से तुम
फूल-हार चाहते हो तो खुद को ही हरा रहे हो। सत्यम शिवम सुन्दरम। और जो सत्य है वही शिव कल्याणकारी है और वही सुन्दर है तो ह्रदय को सुन्दर बनाने के लिए सच्चाई से सेवा करे। सच्चाई से ईश्वर के हो और सच्चाई से गुरु के हो। सच्चाई से समाज के हो। समाज का, गुरु का, ईश्वर का विश्वास संपादन कर लेता है सेवक। गुरु कहेगा कि मेरा सेवक है ये ऐसा भद्दा काम नहीं कर सकता है। ये मेरा सेवक है। गुरु को संतोष होना चाहिए कि ये मेरा सेवक है। ईश्वर को संतोष होना चाहिए कि ये मेरा जीव है इतना घटिया काम नहीं कर सकता है। समाज को विश्वास होना चाहिए कि ‘फलानो भाई ! ना ना वो न हुअ बिदु झूठु छे ‘ सेवक पर आरोप भी आएंगे। सेवक यशस्वी होगा, उन्नत होगा, उसे देखकर लोग ईर्ष्या भी करेंगे, दाह भी करेगे, आरोप भी करेंगे और विघ्न भी आएंगे। लेकिन ये विघ्न,  ये आरोप, ये दाह सेवक की क्षमता विकसित करने के लिए आते है ऐसा सेवक को सदैव याद रखना चाहिए। और फिर सेवक को सुबह उठकर अपना आत्मबल बढ़ाना चाहिए। लम्बे श्वास ले, प्राणशक्ति को बढ़ाएं, भावशक्ति को बढ़ाएं, क्रियाशक्ति को बढ़ाएं, ऎसा ध्यान सीख लेना चाहिए। ऐसा ध्यान करना चाहिए। तो और सेवा में चार चाँद लग जायेंगे। हरीॐ। हरीॐ।

बुद्धि से तत्त्वनिष्ठ हो। मुक्त अवस्था को इस जनम में ही पाओ। आत्मबल जगाओ। सेवक को सुन्दर बनाने का संकल्प बढ़ाओ। सच्चा सेवक दुःख मिटाने की चिंता नहीं करता, वो तो सुख बांटने में लग जाता है, तो दुःख अपनेआप भाग जाता है लोगों का। सुख बांटने की कोशिश करनेवाला सेवक सुखी होता जाता है। दुःख मिटाना ही सेवा नहीं सुख बांटना सच्ची सेवा है। जब सुख बांटे तो दुःख रहेगा कहाँ? और सुख बांटोगे तो सुख खुटेगा क्यों? जिनके जीवन में सेवा का सदगुण नहीं। जिनके पास संपत्ति है, जिनके पास शक्ति है, जिनके पास योग्यता होते हुए भी सेवा नहीं करते, वे आलसी है। वे प्रमादी है। वे सुख के आसक्त है। वे अहंकार भोगी है। वे अहम पोषक है। जिनके पास शक्ति, संपत्ति, योग्यता, मति-गति है अगर वे लोग उसका सदुपयोग सेवा में नहीं करते तो वे चीज़े उनको संसार के जनम-मरण में बांधती रहती है। सेवा चाहता वे दुःखी? ना ना सेवा चाहनेवाला दु:खी नहीं होता है सेवा लेनेवाला दु:खी रहता है। जो सेवा चाहता है, सेवा करना चाहता है, वो सुखी होता है, लेकिन जो सेवा का लाभ लेना ही चाहता है या बदला चाहता है वो दु:खी रहता है। जो सेवा चाहता है, सत्कर्म चाहता है, दूसरों की सेवा करना चाहता है वो सुखी रहता है। चाहे बाहर से उसके पास साधन कम हो फिर भी अंतकरण से वो सुखी रहता है, राजा रहता है।

हमेशा के लिए रहना नहीं इस धारे फानी में। कुछ अच्छा काम कर लो चार दिन की जिंदगानी में।

तन से सेवा करो जगत की, मन से प्रभु के हो जाओ। शुद्ध बुद्धि से तत्वनिष्ठ हो जाओ, मुक्त अवस्था को तुम पाओ।

निस्वार्थ सेवा हो, सदा मन मलिन होता स्वार्थ से। जब तक रहेगा मन मलिन नहीं भेट होगी परमार्थ से।

द्वेष को, कपट को, अहंकार को त्याग कर संघटित होकर सेवा करो ऐसा स्वामी विवेकानंद बोला करते थे। समाज को आध्यात्मिकता की आवश्यकता है। समाज को स्नेह की आवश्यकता है। समाज को स्वास्थ्य की आवश्यकता है। समाज को अच्छे संस्कार पोषने की आवश्यकता है और समाज को अच्छे में अच्छे पिया के प्रेम बांटनेवालों की सेवको की आवश्यकता है। और यही उम्मीद आशाराम अपने साधकों से करेगा। हरीओम ओओम ओम। राम

ऐसी शक्ति देना ओ मेरे ओलिया ! कि मैं दुनिया में दिलबहार करता रहूँ। जो मुझसे मिले मैं निहाल करता रहूँ। ऐसी शक्ति मुझे देना मेरे ओलिया ! राम

हे आनंददाता तेरी जय हो

हे सुखदाता तेरी जय हो

हे प्रेमदाता तेरी जय हो

हे परमेश्वर तेरी जय हो

म्हारा वाळूड़ा तेरी जय हो

म्हारा गुरुदेव तुम्हारो जय हो

म्हारा लीलाशाह बापा तुम्हारो जय हो

म्हारा सदगुरु ना सदगुरु तुम्हारो जय हो

हरीओम ओओओम

“भारतीन जो भलोकर शाद ते आबाद रख। अनाथ नाथ तू मेहर कर हाण सब खे

“भारतीन जो भलोकर शाद ते आबाद रख। अनाथ नाथ प्रभू मेहर कर हाण तु

‘ ये मेरे गुरुदेव गया करते थे।

“लीलेश के लालन हण रख जाई सांण तू। “भारतीन जो भलोकर शाद ते आबाद रख। अनाथ नाथ प्रभु मेहर कर हाण सब तु  ।

सब जा सतार साईं वाली सारे जग जा लीले के लालन हण रख जई सांण तू। भारतीन जो भलोकर … डाडाडाडाडाडाडा कैसा है? “ऐसा बोलते थे और सदा मस्त रहते थे।

मस्ती बांटनेवाले उस दाता की जय हो। मेरे सदगुरुदेव तुम्हारी जय हो। हरी हरीओम ओओम ओओम ओओओओओम।

पुस्तको की गठरी उठा कर जाते थे नैनीताल के गाँवों में। एक पहाड़ से उतरके दूसरे पहाड़ पर। गाँव बसा है वहां जा रहे। गाँव के लोगों को एकठ्ठा करते। उनको प्रसाद देते। काजू किशमिश जैसा प्रसाद ले जाते थे और कोई प्रसाद तो वजन उठाना पड़ता और एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ जाने में कितना श्रम होता है वो तो जो जाते है वही जानते है। अस्सी साल की उम्र में मैंने उनको देखा और पच्चासी साल की उम्र में भी उनको ये सेवा करते देखा कि गठरी बांधकर पुस्तको की अपने आश्रम से दूसरे गाँव जाते तो आश्रम जो पहाड़ी पर था। पहाड़ी पे तो और कुछ भी नहीं था। तो सामने नीचे तलेहठी में भी गाँव था और पहाड़ियों पे भी गाँव। कभी किसी गाँव में जाते। सौ दो सौ के छपड़े के गाँव थे। कभी किसी गाँववालों को एकठ्ठा करते, प्रसाद देते सत्संग सुनाते फिर उनको पुस्तक दे आते। नारी है तो ‘नारीधर्म’ जैसी पुस्तके। और युवान है तो ‘यौवन सुरक्षा’ जैसी पुस्तके। और कोई साधक भक्त है तो ‘ईश्वर की और’ जैसी पुस्तकें। भक्तों के और साधकों के अनुभव ‘योगयात्रा’ जैसी पुस्तके और उसी जैसी कोई और पुस्तकें। भक्तों की चर्चा पढ़ते-पढ़ते लोगों में भक्ति आ जाये। संयम की चर्चा पढ़ते-पढ़ते लोगों में संयम आ जाये। और कहते की ‘देखिये! ये पुस्तक तो आपको दे जाता हूँ। आज गुरुवार है अगले गुरुवार फिर आऊंगा। तबतक ये पुस्तक अच्छी तरह से पढ़ना पांच बार पढ़ लो तो अच्छी तरह से तो बहुत अच्छा, चार बार पढ़ लेंना तो अच्छा लेकिन पढ़ लेना कृपा करके, जो अच्छा लगे वो याद रखना और लिख लेना, हो सकता है कि मैं कभी कुछ पूछ लूँ तो मेरे को बताना। तो फिर ये पुस्तक में तुम्हारे से ले जाऊँगा और फिर दूसरी दे जाऊंगा। ऐसे करके वो मोबाइल लाइब्रेरी चलाते थे अपने सिर पर। अस्सी साल की उम्र में भारत के लीलाशाह बापू गाँवों-गाँवों जाके पुस्तक बांटते और उनकी ही निष्काम सेवा आज गाँव-गाँव ‘ऋषिप्रसाद’ रूप में साधकों के द्वारा हो रही है ये उन्ही का तो सनातन बीज है। उन्ही की ही तो प्रेरणा है कि हम लोग भी सेवा का लाभ उठाके अपना जीवन धन्य कर रहे है। वो धन भागी है सेवक जो स्वामी के दैवी कार्य में अपने को लगा देते है।  वही दैवी अनुभव में मस्त हो जाते है। तो क्या करेंगे ?  हरी हरीओम ओओओम

यह तन काचा कुम्भ है फुटत न लागे बाट। फटका लागे फूटी पड़े गर्व करे वे गवार।।

पानी केरा बुलबुला यह मानव की जात।  देखत ही छुप जात है जो तारा प्रभात।।

तो क्या करोगे ? हरी हरीओम ओओओओओमओम ओम । राम

कभी रोग का चिंतन न करो।  कभी शत्रु का चिंतन न करो।  कभी द्वेष के विचार को न आने दो। शत्रु की गहराई में छिपा मित्र ऐसा चिंतन करके शत्रु से यथायोग्य सावधानी से जीना पड़ता है। युक्ति से, लेकिन उसका बुरा न चाहो, फिर देखो शत्रु तुम्हारे देर सबेर या तो तुम्हारे मित्र हो जायेंगे या प्रकृति उनको घुमा-घुमाकर देगी। दे धमाधम करके देगी। ये ईश्वर का दैवी विधान है।  हरीओम ओओमओओमओओओओओम

“गीतगोविन्द” के कर्ता जयदेवजी ने कथा की और दक्षिणा मिली।  दक्षिणा लेके गए रास्ते में डाकू ने छीन लिया और “गीतगोविन्द” के कर्ता जयदेव को कुँए में फेक दिया उंगलिया काटकर।  जयदेव वहां भी “गीतगोविन्द” के गा रहा है। राजा घूमने निकला और राजा ने आवाज सुना कि ‘ये जयदेवजी प्रभु है खुद’।  कुँए के नजदीक आये और जयदेव को आदमियों द्वारा निकलवाया जयदेवजी को और ऐसी स्थिति किसने की ऐसा पूछा।  बहुत पूछने पर भी जयदेव ने नहीं बताया तो राजा की बड़ी श्रद्धा हो गयी। राजा अपने राजमहल के सात्विक खंड में जयदेव को रखता और सेवा सुश्रा करके जयदेव को स्वस्थ कर दिया। जयदेव की अध्यक्षता में राजा ने एक यज्ञ का आयोजन किया और उस यज्ञ में सत्संग हो, भजन हो, कीर्तन हो, होम-हवन हो आदि और पूर्णाहुति जयदेव के हाथ से हो और साधुसंत को दक्षिणा भी जयदेव की प्रेरणा से बंटेगी। जब साधुसंतों को दक्षिणा बांटने का दिन आया तो वो जो चार डाकू थे, चोर थे, वे भी साधुओं का वेश लेकर आये। दक्षिणा लेने की लाइन में। नजदीक आकर देखते कि अरे ! ‘ये तो जयदेव जिसको हमने पैसे छीन के कुएँ में फेंका था’। जयदेव की नजर उन पर पड़ी और उनकी नजर जयदेव पर पड़ी। “गीतगोविन्द” के कर्ता जयदेव बड़े प्रसिद्ध पुरुष हुए। अब उनको कही सुकड़न न हो, कही दुखी न हो, ऐसा समझकर जयदेव ने अपनी और से ही बुला के कि ‘राजन ! ये मेरे चार मित्र है’।  वो डकैतों ने समझा कि ‘ये अभी हमारा पोल खोलेगा’। लेकिन जयदेव ने पोल नहीं खोला और मित्र की अदा से ही सारा व्यवहार किया। उनको दान-दक्षिणा खूब दिलाई। राजा ने देखा कि जयदेव के मित्र है और साधु है, तो हो सकता है कि आपको दक्षिणा दिया था और आपको लूट लिया, तो इन साधु बाबाओं को ना कोई लूट ले, इसलिए मैं सिपाहियों की एक टुकड़ी भेजता हूँ।  ये जहाँ से आये उनको पहुंचा दे। सिपाहियों की टुकड़ी लेकर सिपाहियों का अगवा।  उन लूटेरों को साधुवेश में आये थे, साधु समझकर पहुँचाने गए थे, तो रस्ते में पूछा कि ‘जयदेव तुम्हारा इतना सत्कार क्यों करता है’ ? तो उन बदमाशो ने कहा कि ‘जयदेव कि हम पोलपट्टी जानते है। जयदेव हमारे गाँव का है और उसने बड़ी चोरी की थी, तो उसको राजा ने उसे मार-काट के कुएँ में फेंकने का आदेश दिया था, लेकिन हमने उसको बचाया इसलिए हमारा कही पोल न खोले, जयदेव ऐसा सोचते इसलिए हमारा अगता-स्वागता करते’। ऐसा झूठ बोला। जयदेव ने सज्जनता की, लेकिन दुर्ज्जन का स्वभाव तो फिर सांप का स्वाभाव है कि विष बनाना दुर्ज्जन ने तो दुर्ज्जनता बनायीं। जयदेव को तो पता नहीं लेकिन जो सबके दिल का पता रखता है, उस दिलबर से सहा नहीं गया।  सृष्टिकर्ता से सहा नहीं गया। जहाँ वो बोलकर वाकिया पूरा करते है, जयदेव की ग्लानि करते, निंदा करते, वहां चलते-चलते वो धरती वहां से फटी और चारों के चारों बदमाश, जो साधु का वेश बना के ईर्ष्या करते थे, वे चारों बदमाश वहां रीवा-रीवा के मर गए। टुकड़ी वापस आई और राजा तक बात पहुंची, राजा ने जयदेव के पैर पकड़े की  ‘महाराज! हकीकत क्या है ? ‘ महाराज ने कहा कि “मैंने समझा कि इन्होने लूटा है, तो इनको जरूरत होगी तो दे दे, फिर आये तो उनको सुकड़न न हो, इनका मंगल हो भला हो, इसीलिए इनका सत्कार भी किया और दक्षिणा भी दिलाई ताकि ये सुधर जाये।  लेकिन महाराज उस ढंग से नहीं सुधरे तो प्रकृति ने दंड के ढंग से उनको सुधारने का ही काम किया है ईश्वर ने”। तो सेवक में इतनी शक्ति होती है कि सेवक अपनी सेवा में विफल होता है।  ईमानदारी से सेवा करता है और विफल होता है तो स्वामी परमात्मा फिर उसको सहाय करता है।  जहाँ दंड की जरूरत है वहां दंड भेज देता है और जहाँ पुरस्कार की जरूरत है वहां पुरस्कार भेज देता है। सृष्टिकर्ता के ह्रदय में सबका मंगल छुपा है।  ऐसे ही सेवक के ह्रदय में सबका मंगल छिपेगा, मंगल छुपा रहेगा सबक तो सृष्टिकर्ता के साथ अपने स्वाभाव का तालमेल करके बहुत सुखी और उंचाईओं का अनुभव कर सकता है। तो अभी क्या करेंगे? हरी हीओमओओमओओमओओओओओम।

रामराम

निस्वार्थ सेवा हो सदा। मन मलिन होता स्वार्थ से। जब तक रहेगा मन मलिन नहीं भेट होगी परमार्थ से।

हमेशा के लिए रहना नहीं इस धारे पानी में। कुछ अच्छा काम कर लो इस चार दिन की ज़िंदगानी में।

शक्ति, संपत्ति और योग्यता होने पर भी जो सेवा नहीं करते वे आलसी प्रमादी है। सुख आसक्त है और भाग्यहीन है। जो मनुष्य जनम पाके सेवा का भाग्य नहीं पाते, वे भाग्यहीन है। किसी के दुःख मिटने के बदले उसको सुखी करने का पौरुष करने वाला सेवक ज्यादा सफल होता है। और जो सुख देने की भावना से सेवा करता है तो दुःख तो मिटा ही देगा। दुःख मिटा ना पर्याप्त नहीं उसे सुखी करना उसे प्रसन्न करना और सच्चे सुख की राह पे लगा देना ये बहुत-बहुत ऊँची सेवा है। सेवा चाहो मत सेवा करो उत्साह से। सेवा का फल चाहना सेवा धर्म को भ्रष्ट करना है। सेवा के फल को तुच्छ करना है। हमें तो कुछ नहीं चाहिए। जिसको कुछ नहीं चाहिए उसको सब कुछ जिसका है वो खुद मिल जाता है। बलि देता ही जाता है कुछ नहीं चाहता है तो सब कुछ जिसका है वही वामन होके आता है। उससे भी कुछ नहीं चाहता है तो वामन उनका द्वारपाल हो जाता है। भगवान वामन बलि राजा का द्वारपाल हो जाता है। जिसका द्वारपाल भगवान है उसको कमी ही क्या रहेगी? शत्रु उनका क्या बिगाड़ेंगे? ऐसे ही तुम्हारे इन्द्रियों के द्वारपाल श्रीहरी को कर दो। हे मेरे परमात्मा ! तुम ही रक्षक रहिये। तुम ही प्रेरक और पोषक रहिये। हे मेरे नाथ ! मेरे गुरु,  मेरे हरी, मेरे इष्टदेव! प्रभु तेरी जय हो !हरीओओम ओओओओओम। रामराम। खूब आनंद !  मधुर आनंद ! आत्मिक आनंद परमेश्वरिय आनंद का भाव करो। मस्ती….  माधुर्य …. विश्रांति

मैं सदा स्वस्थ हूँ। क्योंकि बीमारी मुझ तक कभी आती ही नहीं मैं वो चैतन्य आत्मा हूँ। मैं सदा सुखी हूँ क्योंकि दुःख मेरे तक कभी पहुँचता नहीं है। दुःख कभी-कभी मन को होता मुझको कभी नहीं छूता। मैं अमर हूँ। मौत शरीर तक आती है मुझ तक मौत की दाल नहीं गलती। मैं ईश्वर का ईश्वर मेरे ! मैं गुरु का गुरु मेरे। ईश्वर और गुरु सद्चिदानन्दस्वरुप है तो मैं भी उन्ही का चिंतन, अनुसरण और उनकी प्रसन्नता से मैं भी वही हुए जा रहा हूँ। खूब आनंद, मधुर आनंद, सद्चिदानन्दमय का आनंद। वाहमौला! तेरी जय हो! प्रभु तेरी जय हो।

मधुरं मधुरे भ्योपि मंगले भ्योपि मंगलम।

पावनं पावने भ्योपि हरे नामैव केवलम।

हरी हरीओम ओओओओओओम। रामराम

मधुर शांति अथवा तो मधुर शांति में शांत होते जाओ नहीं तो श्वासो श्वास को गिनाते जाओ अथवा तो मन के विचारों को देखते जाओ नहीं तो जो सत्संग सुना है उसी को अपना बनाते जाओ।

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नारायण नारायण नारायण !!

 

छठे अध्याय का पहला श्लोक में

अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः,

स सन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चक्रिय: ||

 

जो आसक्ति रहित होकर अपना नित्य कर्म, नैमेतिक कर्म करता है| संध्या, वंदन आदि नित्य कर्म है| दानपुण्य, सेवा, पूजा आदि नित्य कर्म है और किसी नीमित से जो कर्म मिल जाते है उसको नैमितिक कर्म बोलते है।  नित्य कर्म और नैमेतिक कर्म जो करता है लेकिन फल की आकांक्षा नहीं रखता। जैसे नित्य रात को नींद करते है, तो सुबह संध्या करने में फल की इच्छा न रखे। रात को सोये तो सुबह स्नान कर लिया इसमें फल की इच्छा क्या रखें? तो रात की नींद का तमस दूर करना है तो सुबह का स्नान चाहिए। ऐसे ही मन का तमस दूर करना है तो संध्या प्राणायाम चाहिए। रात्रि में जो श्वासोश्वास में जो जीवाणु मरे, सुबह की संध्या प्राणायाम से वो पातक नष्ट हो गये।  ह्रदय स्वच्छ हो गया, शुद्ध हो गया तन और मन। सुबह से दोपहर तक जो कुछ खाने पीने में, हिल चाल में जो कुछ वातावरण में जीव जंतु को हानि हो गया अंजाने में, फिर दोपहर की संध्या करके स्वच्छ हो गए। फिर शाम की संध्या करके स्वच्छ हो गए। संध्या करके स्वच्छ हो गए, ध्यान और जप करके थोड़े ऊपर उठे। ये है नित्य कर्म।

 

पंचयज्ञ है नित्यकर्म।  गौ को, ब्राह्मण को, जीव जंतु को, अतिथि को कुछ न कुछ देना करना ये पाँच यज्ञ नित्य कर्म। दूसरे होते है नैमेतिक कर्म। पर्वीय कर्म उत्तरायण पर्व आया, चेटीचंड  का पर्व आया, शिवरात्रि का पर्व आया ,गुढी पर्व आया, उन पर्व के निमित् जो कर्म करे। तो नित्य कर्म, नैमेतिक कर्म करे।

 

तीसरे होते है ईश्वर प्रीत्यर्थे कर्म। नित्य नैमेतिक कर्म से तन मन स्वस्थ रहेगा| स्वर्ग तक की यात्रा कर लेंगे। कुछ और शुभ कर्म स्वर्ग की इच्छा करेंगे तो स्वर्ग तक की यात्रा कर लेंगे नहीं तो यहाँ स्वर्गीय जीवन जीयेंगे। पैसे से अगर स्वर्गीय जीवन मिल जाता तो धनाढ्य लोग टेंशन में नहीं होते। टेंशन नरक है। डर और टेंशन नरक है।

 

क्योंकि नित्य कर्म और नैमेतिक कर्म छूट गए। इसलिए तन की और मन की सात्विकता कम हो गयी। तनाव और टेंशन दो कौड़ी  बिमारी का शिकार हो गए। चौथा होते है “काम्य कर्म” काम धंधा रोजी-रोटी  पेट की कामना से जो कुछ किया वो होते है काम्य कर्म । काम्य कर्म का कुछ अंश निष्काम कर्म।  ईश्वर प्रीत्यर्थे कर्म करे।   ईश्वर प्रीत्यर्थ कर्म करने को श्रीकृष्ण ने कहा “अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः, स सन्यासी च योगी च ” वह सन्यासी है वह योगी है जो आसक्ति, फल की आकांक्षा रहित सत्कर्म कर लेता है।

 

सेवा चाहे और सेवा के बदले में नाम चाहे तो सेवा के कर्म में आसक्ति हो गयी।  यश चाहे, पद चाहे एक दूसरे का टाटिया खींचना चाहे और आप बड़ा बनना चाहे तो वे आदमी आध्यात्मिक जगत में विफल होते है और व्यवहारिक जगत में लम्बा समय सुखी नहीं रहते।  बिल्कुल पक्की सच्ची बात।  सुख के लिए फिर उनको दुराचार करना पड़ेगा। शराब, कबाब, हस्तमैथुन ये सब इसी का फल है कि कर्म में निष्कामता नहीं। काम्य कर्म, नित्य कर्म और नैमेतिक कर्म। नित्य और नैमेतिक सतकर्म तो छूट गए काम्य कर्म में हम लोग सब लगे हुए है। कामनाएं बढती जाती है और हल्की कामनाएं घुसती जाती है। जीवन में चारो तरफ दुःख ही दुःख। इसी कामनाओं को निकलने के लिए निष्कामता चाहिए। कांटे से कांटा निकलेगा। तो निष्काम कर्म करनेवालों को ही योग में वास्तविक प्रवेश मिलेगा, टिकेगा मन ।

दूसरे तीसरे श्लोक में भगवन कहते है

पहिले श्लोक है छठे अध्याय का

आरुक्षोमुनेयोर्गम ” कर्म  कारणमुच्यते |

अनाश्रित: कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः,

स सन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चक्रिय:

 

अग्नि का त्याग कर दिया, क्रिया का त्याग कर दिया और सन्यासी हो गया | उसका सन्यास योग फला नहीं अभी। लेकिन कर्म तो कर रहा है काम्य कर्म नित्य नैमितिक कर्म तो करता है उसमे फल की इच्छा का सवाल ही नहीं होता।  स्नान करना उसमे फल की इच्छा क्या है? श्वास ले रहे छोड़ रहे, उसमे फल की इच्छा क्या करोगे ? भोजन कर रहे हो भूख मिट रही है | उसमें फल की इच्छा क्या करोगे ? तो फल की इच्छा रहित नित्य नैमितिक कर्म तो करे लेकिन काम्य  कर्म, जो जीवन खाने पीने के लिए है,रहने के लिए , जो कामना वाले कर्म है, उसमें से भी समय बचाकर निष्काम कर्म करें।

 

ईश्वर प्रीत्यर्थ कर्म करें। बोले मैंने स्नान कर लिया निष्काम भाव से तो बड़ा काम कर लिया।  मैंने रोटी खाली निष्काम भाव से, तो ये तो हँसी का विषय है। मैंने पानी पी लिया निष्काम भाव से। ऐसे ही संध्या, प्राणायाम और कमाई का कुछ हिस्सा, ये जो सत्कर्म है निष्काम भाव से किया ये तो भाई कर्त्तव्य है ! नित्य कर्त्तव्य ! नैमितिक कर्त्तव्य ! तो निष्काम कर्म, नित्य कर्म, नैमितिक कर्म , काम्य कर्म कामना वाले कर्म और फिर ऊँचा दर्जा आता है।  निष्काम कर्म !

 

हाथी बाबा से किसी ने पूछा की भजन करे तो क्या फायदा होगा ? तो रोने लग गए। बोले ‘महाराज में कोई बुरा तो नहीं किया ? ‘ बोले ‘मेरा कौनसा दुर्भाग्य है? की जरा जरा बात में क्या लाभ होगा ऐसे बनिये, स्वार्थी टट्टू का दर्शन हुआ सुबह सुबह ! जरा जरा बात में क्या लाभ होगा? क्या लाभ होगा? मेरा मन ख़राब होगा तुम्हारे जैसे व्यक्ति के बीच में मैं  रहूँगा तो। ‘ सब काम केवल बाह्य  लाभ देख कर नहीं किये जाते। कोई लाभ की जरूरत ही नहीं है।  मेरा स्वाभाव है सत्कर्म करना। नित्य कर्म, नैमेंतिक कर्म तो करता है, काम्य कर्म भी करता है लेकिन वो कुछ ऐसा भी समय निकाले की कोई बाह्य लाभ की जरूरत ही नहीं।

 

द्रौपदी ने पूछा की “आप तो संध्या करते, ध्यान करते, घंटो भर बैठे युधिष्ठिर जी ! और हम लोग इतने दुखी है और वो दुष्ट राज्य का मौज लेता है तो क्या भगवन से या अपने आप से आत्मा से ये संकल्प नहीं कर सकते की हम इतने दुखी क्यों है ?” युधिष्ठिर ने कहा की “मैं दुःख मिटाने के लिए भजन नहीं कर रहा हूँ। लेकिन भजन करने से सुख मिल रहा है। आनंद मिल रहा है और मेरा कर्त्तव्य है, स्वाभाव है इसलिए मैं भजन कर रहा हूँ।“

 

गुरुओ ने वहां झाडू लगवाएं, बुहारी करवाई। निष्कामता होते होते योग्यता आई तब गुरु ने दिया तो पचा, नहीं तो नहीं पचता।  राजा की सवारी जा रही थी, बड़ा यशोगान हो रहा था। बचपन में ही बाप छोड़ कर रवाना हो गया, ऐसा बालक अपनी विधवा माँ को बोलता है कि “ माँ ! ये राजा साहब देखो  हाथी पे जा रहे है …. रथ पे जा रहे है …मुझे इस राजा से मिलना है।’ ‘माँ ने कहा बेटा राजा से मिलना है तो एक ही उपाय है।  कि राजा का नया महल बन रहा है। वहां जाके काम कर। हफ्ते हफ्ते में पगार देते  है।  तू लेना कुछ मत। आपने आप राजा मिल जायेगा तुझे।’

लड़के ने काम शुरू किया और हफ्ते हफ्ते की जो खर्ची मिलती थी उसे एक बार लेना है तो बोले नहीं लेना है।  पैसा नहीं ,लेता पैसा नहीं लेता और काम कर रहा है। और  दिल लगाके कर रहा है।  इसकी खबर ऊँचे अधिकारी को पहुंची। फिर ऊँचे को पहुंची।  यहाँ तक वजीर तक पहुंच गयी  और वजीर उस लड़के को देखने आया और वजीर ने जाके राजा को कहाँ की एक लड़का है। अभी जवां है और जवानी उभर रही है और काम खूब करता है। और पैसा नहीं ले रहा है। बोले ये कैसे? बोले क्या पता?

जाँच करो !! वजीर ने जाँच किया कि

” क्यों नहीं पैसा ले रहा?

“नहीं ! राजा साहब का महल है।  इतनी तो सेवा हमें मिल जाये। ”

“तो तेरे को पैसे की जरूरत नहीं है ?”

“जरूरत नहीं है ऐसी बात नहीं है।  मेरी माँ विधवा है। पिता मर गए। खेत में तो बहुत थोड़ा सा आता है। लेकन गुजारा हो जाता है।  मैं सेवा कर रहा हूँ ”

 

राजा तक खबर गयी।  राजा ने देखा की ‘नपातुला है,बचपन में पिता छोड़कर मर गए। विधवा माता है। डेढ़ एकड़ का खेत है उससे गुजारा कैसे होता? और काम कर रहा है दिल लगा के और कुछ  नहीं लेता है। उसको जरा बुलाओ। राजा ने अपने महल में बुलाया। और कुछ नहीं लेता है तो उसको भोजन-वोजन कराया और बड़ा मान दिया। और राजा उस पर बड़ा खुश हो गया। ‘अच्छा ! तूने इतने दिन तक मेहनताना नहीं लिया। तो अब क्या करो दस-पांच हजार रूपया तुमको दे देते है ‘वैसे तो दो सौ –चार सौ होता था, अब दस-पांच हजार आ रहा  है। बोले ‘ नहीं ! नहीं ! दस-पांच हजार क्या करना है ? मेरा तो ये भावना था कि में राजा साहब से मिलु ,तो माता ने कहा कुछ मत लेना।  सेवा करना।  सेवा से तुम्हारा जो भी संकल्प हो फलेगा।  तो मुझे आप मिल गए बस ! अब मुझे और  कुछ नहीं चाहिए।

राजा कहता है की ‘ मैं तो तुझे मिल गया लेकिन मुझे तेरे जैसा निष्कामी पुत्र मिल गया अब तू मेरा बेटा है। ‘  कुछ दिन आता जाता रहा तो रानी साहिबा ने भी उसके स्वभाव को परख लिया, राजा ने उसकी निष्कामता को परख लिया कह दिया की तू मेरा बेटा है।

कथा तो बड़ी रसप्रद  है लेकिन राजा ने उसको बेटा बनाकर राजतिलक कर दिया।  जब शोभायात्रा निकली तो पिता और पुत्र…नूतन राजा…..और पास में भूतपूर्व राजा बैठे….नगर में यात्रा निकली तो वो माँ राजा की सवारी देखने को निकली। राजा को बताया नूतन राजा ने की वो मेरी माता है। बोले

 

“वो तेरी माता नहीं मेरी भी माता है।  जय हो तेरे जैसे निष्कामी को जन्मा दिया। तू तो रथ से उतर कर प्रणाम करने जाता है ,लेकिन मैं भी उस माता को प्रणाम करने चलता हूँ। उसके आगे तू भी बेटा  है मैं भी बेटा हूँ।”

 

महाराज निष्काम में इतनी शक्ति है लेकिन अंधे लोग जानते नहीं। जिसके पास धन है, बुद्धि है, स्वास्थय  है , योग्यता है अगर वो सत्कर्म नहीं करता है ईश्वर प्रीत्यर्थ कर्म नहीं करता है तो वो स्वार्थी है। विषयलम्पट्टू है, वो दण्ड का पात्र है, अशांति का पात्र है, विनाश का पात्र है ऐसा शास्त्र कहते है।

 

ये हमारा कर्तव्य हो जाता है सेवा कार्य करना। अपनी भलाई के लिए हमारा कर्त्तव्य हो जाता है। और जिनको सेवा मिलती है वो लोग टालते रहते है या छटकबारी करते दूसरे के कंधे बन्दुक रखते है उनकी खोपड़ी में ही बन्दुक जैसी अशांति हो जाती है। अपना कार्य तो तत्परता से हम करे  लेकिन दूसरे के कार्य में भी हाथ बटायें।

 

एक फौजी आता था। छ: -आठ साल पहले की बात है। एम.ए. पढ़ा था। गुजर जाति का  था सरदार था। तो बड़ी श्रद्धा उसकी आँखों में। मैं कभी घूमने गया तो हाथ जोड़ कर पीछे चलता था सरदार।  मैंने कहा “तुम कहाँ से आते हो?”

बोले “स्वामीजी ! मैं इतवार – बुधवार को आपकी कथा होती है  एक बार आ गया था। फिर मेरे को अच्छा लगा में आता रहा। स्वामीजी अब तो मेरी बदली हो रही है। लेकिन मैं बहुत बहुत  आभारी हूँ। कि में यहाँ आया मेरी शराब छूट गयी।  मेरे हिस्से का शराब दूसरों को दे देता था। नहीं तो मैं शराब के लिए लड़ मरता था। मेरा मांस खाना छूट गया, आपने तो छुड़वाया नहीं। केवल इस रेंज में आया तो छूट गया। और स्वामीजी ! पहले में अपना काम टालम -टोल करता था अभी मैं मेरे ऑफिस का,ये हनुमान कैंप में जो ऑफिस ,ये अपना आश्रम के सामने वो नदी के उस किनारे जो है।  नदी के एक किनारे अपना आश्रम और दूसरे किनारे फौजियों का डेरे है। स्वामीजी! मैं वहां काम करता हूँ।  फ़ौज में हूँ।  पहले तो मैं अपना काम भी असिस्टेंट या दुसरे में दे देता था। लेकिन अब अपना भी कर लेता हूँ बॉस का भी कर लेता हूँ।  अपना कोई साथी है उनका भी कर लेता  हूँ। काम करने में भी मजा आ रहा है महाराज ! ध्यान में थोड़ा सा मजा आया तो अब पता चलता है कि  सेवा में कितना मजा है महाराज ! मैं तो ढूंढ लेता हूँ सेवा ”

 

इह मुखा कोन पुजिंदो  इ जबाबदारी हूँ नहीं लउ इ टेंशन हूँ नई लउ पण म्हारा शेर ऐसी हजार पीना न सचु सचु तो मरी जाऊ जाये इको नाना खड़ा मातु

 

निष्काम कर्म के बिना जीवन निखरेगा नहीं। ईश्वर प्रीति अर्थ के बिना जीवन का विकास होगा ही नहीं। कुछ लोग करते थोड़ा काम तो फिर अधिकार के लिए झपट झपट के मर रहे है। पद और प्रतिष्ठा के लिए मर रहे है।  अपनी योग्यता को उसी में मार रहे है।

आचार्य विनोबा भावे के यहाँ कोई समिति वाले ने आखरी राम राम किया

“महाराज ! की हम आश्रम में से जायेंगे। हमको यहाँ का वातावरण सूट नहीं होता।”

बोले  “क्यों?” बोले  “नए संचालक आ गए। उनके कहने के अनुसार थोड़ा थोड़ा बात भी उनके कहने के अनुसार करनी पड़ती है। हम करेंगे ये सेवा भूदान यज्ञ की लेकिन स्वतंत्र होकर करेंगे।”

विनोबा ने कहा “स्वतंत्र स्व के तंत्र को जाना है। स्व तो आत्मा है उसको तो जाना नहीं है बेटा ! मतलब तेरे मन में जैसे आयेगा वैसी सेवा करेगा। “”हाँ ” “मन तो अपना नौकर है। मतलब गुरुभाई की या गुरु सिद्धांतों की बात नहीं मानूंगा। जैसा मेरा नौकर कहेगा ऐसा ही करूँगा यही हुआ ना तेरा ?”

 

जैसा मेरा नौकर कहेगा वैसा करूँगा। शास्त्र कहते है जो गुरुकहे , गुरुभाई कहे वैसा में नहीं करूंगा जैसा मेरा मन करे ऐसा करूंगा यही तेरी बात हुई।

उस युवक की थोड़ी बहुत सेवा थी तुरंत लाइट हुयी और चरणों पे गिर की नहीं ये द्वार छोड़ कर कही नहीं जाऊँगा। करूँगा सेवा अभी।

 

 

मेरे गुरुदेव किताबों की गठरी बांधकर गांव गांव जाते।  नैनीताल के पहाड़ से हनुमान गढ़ी के पास में एक पहाड़ है सीतला मंदिर आश्रम का । उस पहाड़ से उतरते ही नीचे गांव फिर दूसरे पहाड़ पे चढ़ते ही छोटा सा गांव। सिर पर गठरी बांध के किताबों की अस्सी साल की उम्र में साईं लीलाशाह जी महाराज। अस्सी साल की उम्र में सिर पर गठरी किताबों बांधके की पहाड़ उतरते। गावों में किताबें बांटते । यौवन सुरक्षा जैसी पुस्तक , नारी धर्म जैसी पुस्तक स्त्रियों को, छोकरों को योगासन और  योगयात्रा जैसी  पुस्तके….योगयात्रा उस समय नहीं थी लेकिन उसी प्रकार की पुस्तकें दे आते और प्रसाद भी दे आते। फल फ्रूट ले जाये तो वेट बढ़ जायेगा इसलिए काजू और किशमिश खरीद लेते थे। और वो सबको इकठ्ठा करके दो दो दाने देके, यथायोग्य देके,थोड़ा सत्संग सुनकर एक एक किताब देकर ये सुनाते ये कहते  “आज शुक्रवार है तो अगले शुक्रवार को इस गावों में आऊंगा। और ये जो किताब दी है वो आप पढ़ लेना अच्छा लगे वो याद करना और लिख लेना और पूरी किताब दो-तीन-चार बार जरूर पढ़ना। और हो सकता है कि मैं कुछ पूछूँ भी इसीलिए तैयार रहना। और अगले शुक्रवार को आऊंगा। ये किताबें वापस ले जाऊँगा दूसरी किताबें दे जाऊँगा ”

जिस महापुरुष के संकल्प मात्र से पेड़ चल पड़ा है, जिस महात्मा को बीस-बाईस साल की उम्र में परमात्मा का साक्षात्कार हुआ है। वो महापुरुष अस्सी साल की उम्र में सर पे गठरी बांध के किताब को गांव गांव पहुंचाता है, क्या उनके पास कोई फालतू समय था? अगर वो ऐसा नहीं करते, गांव गांव नहीं घूमते और घूमते-घामते गोधरा नहीं आते तो मेरे को उनका दर्शन भी नहीं होता। और मेरे वैराग्य को पुष्टि भी नहीं मिलती। मैंने एक बार दूर से दर्शन किया, उनके दर्शन मात्र से मेरा जो सोया हुआ वैराग्य जगा और फिर सब कुछ छोड़कर उनके चरणों तक पहुँचने की हिम्मत भी आ गयी। ये उन महापुरुषों के निष्काम कर्म योग का फल हम लाखों लोगों को मिल रहा है। उन्होंने तो ये नहीं कहा की जय लीलाशाह   ‘जय जय लीलाशाह बोलना। नहीं….लेकिन उनकी जय किये बिना रहा नहीं जायेगा। मुर्ख लोग समझते है की जरा सा काम करे तो ‘ओहो !पद अधिकारी बन जाये ‘

हमारा नाम अख़बारों में आ जाये। हमें सब मिल जाये।

 

हिरन की चोरी करे सुई का करे दान। झाकता रहे आकाश में की कब आवे विमान। ” ऐसे निष्काम कर्म करने वाले लोगों को लोग राजनेता बोलते। जय राम जी की।

 

किसी को आज के ज़माने में बड़ी गाली देनी हो तो  बोल दो या तो राजकारणी छ्हे। ए ये तो राजकारणी छे, पति गयो। जय श्री कृष्णा।

 

अर्थात निष्काम की जगह पर कामना आ गयी तो उनके नाम पर भी बट्टा लग गया।  राजनीती कोई बुरी नहीं वो नीतियों की राजा है लेकिन वो निष्कामता की जगह कामना आ गयी तो क्रोध भी आएगा, द्वेष भी आएगा, इर्ष्या भी आएगा, कपट भी आएगा, बईमानी भी आएगी ,अंदर न जाने क्या क्या होता है। दुर्गुणों को निकालने के लिए सदगुण चाहिए और सद्गुण ईश्वर की प्रीति अर्थ कर्म करने से ही आएंगे दूसरा कोई उपाय नहीं है। मुर्ख लोग काम टालते है।  वो उसपे टालेगा, वो उसपे टालेगा। और जब यश और सफलता होगी तो छाती फुलाके आगे आएगा। और विफलता होगी तो ‘वु तो कहतो तो के। वु तो कहतो तो के। नौकर बुजे हाणी यां करी पहला यां करी’

अथवा तो काम बिगड़ गया तो बोले ईश्वर की मर्ज़ी। अच्छा काम करता है तो बोले हमने किया हमने किया और जो बिगड़ा है वो ईश्वर की मर्ज़ी। इसका मतलब बिगड़ने के काम सब ईश्वर करता है और बढ़िया काम तू ही कर रहा है। ऐसी मति अंध हो जाती है स्वार्थ से। और सेवा से मति हो जाती है शुद्ध।

बढ़िया काम होता है तो बोले ईश्वर की कृपा थी। महापुरुषों का प्रसाद था। शास्त्रों का प्रसाद था। मेरे कार्य के पीछे ईश्वर का हाथ था। गाँधी कहते

गुरूजी कहा करते थे जुदा जुदा जगह पर काम करने वाली  कोई महान शक्ति है।  लोग बोलते है लीला ने किया, लीला ने किया, लीला नहीं करता है।

नाम तो लीलाशाहजी है।  लेकिन अपने आप को वो ‘लीला नहीं ! कुछ नहीं किया ? जुदा जुदा जगह पर काम करने वाली  कोई महान शक्ति है। हम लोग तो निमित्तमात्र है ‘

और कही गलती हो गयी तो भाई ! क्या करू? हम तो पढ़े लिखे नहीं है ? हमारी गलती हो तो आप क्षमा कर देना। कितनी नम्रता है उन महापुरुषों में। निष्कामता आएगी तो नम्रता आएगी और नम्रता आएगी तो जैसे सागर में बिन-बिलाए नदियां चली जाती है वैसे यश, धन, ऐश्वर्या, प्रसन्नता, ख़ुशी ये सब सदगुण आपने आप आ जायेंगे। गंगा-यमुना जैसे सागर में बिन बुलाए भागती जाती है ऐसे ही सदगुण बिना बुलाए आ जायेंगे। नम्रता और निष्कामता से।  और जहाँ नम्रता और निष्कामता अहंकार फाका आया तो फटकार और विफलता बिन बुलाए आएगी। जीवन जीने का ढंग, हम बेसिक बात भूल जाते है इसीलिए विश्व भर में अशांति दुःख।  और फिर दूसरों को दबोच के दुनिया की चीज़े इक्कठी करते मुर्ख लोग सुखी होना चाहते। उनसे भी सुख नहीं तो बिचारे वाइन पीकर सुखी होना चाहते। उससे भी सुख नहीं लेडी बदल के सुखी होना चाहते।उससे भी सुख नहीं हवा बदलके सुखी होना चाहते। उससे भी सुख नहीं हवा बदल, लेडी बदल, लेडे बदल जब तक तू समझ  नहीं बदलेगा तो बदल बदल के चौरासी लाख जन्म बदलता रहेगा।

चौरासी लाख जन्म बदलता रहेगा।  चौरासी लाख शरीर बदलता रहेगा। कभी न छूटे पिंड दुखों से जिसे निष्कामता का ज्ञान नहीं ब्रह्म का ज्ञान नहीं। ज्यों ज्यों चित्त  निष्काम कर्म करेगा त्यों त्यों उसकी क्षमताएँ बढ़ेगी। कामना से आपकी क्षमताएं और योग्यताएं कुंठित हो जाती है। और जो जो निस्वार्थ एक आदमी डंडा लेके पानी कूट रहा है।  अरे क्या करता है ? बोले में निष्काम कर्म करता हूँ। कुछ भी मिलाने वाला नहीं फिर भी कूट रहा हूँ। अरे मुर्ख! ये निष्काम नहीं ये निष्प्रयोजन प्रवृत्ति है।

निष्प्रयोजन प्रवृत्ति न करे। निष्काम प्रवृत्ति करे। दूसरे का दुःख मिटाना तो ठीक है लेकिन दुःख मिटने पर भी इतनी दृष्टी जोरदार न रखे जितनी रखेगी उतना सुख मिले।

जब सुख मिलेगा तो दुःख के सिर पर पैर रख देगा वो तो। और सुख तुम कहाँ से लाओगे तुम्हारे पास फैक्ट्री है क्या ?सुख तुम लाओगे महाराज! जितने जितने तुम निष्कामी होंगे उतना उतना आपका अंतकरण सुखी होगा और दूसरों को सुखी करने के विचार भी उसी में उठेंगे। भक्तियोग है, ज्ञानयोग है ऐसे कर्मयोग है। ये तीनो योग स्वतंत्र है मुक्ति देने में। निष्काम कर्म योग से कई लोग सफल हो गए। कही भक्तियोग से सिद्ध हो गए, कई ज्ञानयोग से सिद्ध हो गए। और किसीने भक्ति और ज्ञान साथ में रखा, तो किसीने निष्कामता और ज्ञान को साथ में रखा। अपन तो तीनो  ले चलते है भाई ! थोड़ा थोड़ा सब हो कोई बात नहीं। रोटी भी चाहिए, सब्जी भी चाहिए, छाछ   का कटोरा है तो घाटा क्या पड़ता है ?चलो! वो भी रखो थोड़ा साथ में। समिति के भाइयों के मन में विचार उठा के ‘सेवा करने के लिए जैसे दो दिये. अकेला होता है तो दिए के निचे अँधेरा होता है और दो दिए रख दो आमने सामने तो एक दूसरे का अधिकार मिटा देता है। प्रकाश ही प्रकाश होता है। इसीलिए अपने अपने अकेले ढंग से आदमी करता रहता है तो कुछ गलती हो सकती है।  जब समिति बन तो एक दूसरे से विचार विमर्श करके गलतियाँ,अँधेरा हटता जायेगा। फिर वो समितियां तो बनीं…जिन्होंने बनायीं धन्यवाद ….ये समिति सब मिलकर अगर विचार-विमर्श करे तो और योग्यताएं और क्षमताएं बढ़ेंगे। ओर कमिया निकलेंगी।  और जितना जितना कमिया निकलेंगी उतना उतना समाज की कमियां निकलने में हम लोग सफल हो जायेंगे। इसीलिए सम्मति मांगी थी यहाँ समिति ने कि अखिल भारतीय समितियों की मीटिंग करा दे। तो तीसरी तारीख बापू थोड़ा समय दे। मैं क्या ‘अच्छी बात है।  हम तीसरी तारीख को होंगे इस समय।’

‘तो आपका दर्शन हो गया। हमारे लायक कोई सेवा होतो बिना संकोच बताईयेगा। हमारे जिम्मे कोई काम आ सकता हो तो संकोच न करे | तन से, मन से, धन से ,वचन से  जैसे भी हो हम हाज़िर है। ‘ नारायण हरी।  नारायण हरी।  नारायण हरी।

 

वो दे तो प्रसन्न काहे का?  वो प्रसन्न हो चाहे न हो हमारे को क्या हुआ? उसकी प्रसन्नता तो कुछ न कुछ दे। फूल दे या फूल की पखड़ी दे नहीं तो कम से कम शुभ कामना और मीठी मुस्कान तो दे। मौजी प्रसन्न हो तो कुछ न कुछ देगा दाता प्रसन्न हो दिए बिना रहेगा नहीं।

 

नारायण हरी। नारायण हरी।  नारायण हरी।

 

जो जवाबदारियों से भागते रहते अपनी योग्यता कुंठित कर देते। और जो निष्काम कर् योग की जगह पर एक दूसरे का टाटिया खींचते वो अपने आप को खींच के गटर में ले जाते। ये जो आपके यहाँ ऐसा है ऐसा मेरे कहने का तात्पर्य नहीं। सब जगह ऐसा दिख रहा है मुझे। जहाँ देखो छोटे मोटे घर में, छोटे मोटे समाज में, छोटे मोटे संगठन में, छोटे मोटे कही भी वो चाहे दूध की डेरिया हो चाहे नगर पंचायत हो चाहे ग्रामपंचायत हो।  ये समिति वाले भी गांव से समाज से ही आये है। बोले ‘बापू! फलाना आदमी ऐसा है देखो! समिति में रेहके भी उसने ऐसा कर दिया। मैं क्या समिति में रेहके ऐसा बन गया तो समिति ने आदमी बनाया तो नहीं , मैन्युफैक्चरिंग तो नहीं किया। वो आया था तो तुम्हारे गांव से और सचमुच में समिति में रहकर नहीं किया, समिति में घुसके ऐसा किया। ऋषिप्रसाद की एक बुक ले गया। कैसे भी चुराके। और सब बना बना के पैसे अपनी जेब में ऐठ लिए।  आप सब बिचारे चिल्लाते रहे ‘ऋषिप्रसाद की वो है। ‘

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लेकिन वो दान के और हराम  के पैसे ने उसको ऐसा परेशान किया कि वो पकड़ा भी गया, आया भी, माफ़ी-वाफी भी मांगी और बाद में दूंगा। वो जब दे तब दे , लेकिन जिनके पास से आश्रम के नाम से उगाये उन बेचारे के विश्वास का घात  हो जायेगा। भाई ! उनको भेजो।

 

दिल्ली में एक ठग ऐसे कुछ किताबें लेकर घर घर पहुँच गया कि “भाई ! लीजिए पढ़िए किताब हम लोग समिति में है। आयोजन करा रहे है आप पढ़िए। ”

“भाई ! कितने पैसे किताब के ?”

“किताब के नहीं आपको जो डोनेशन देना हो दे दीजिये। ”

अब किताब आगे तो लिखा हुआ है दो रूपया-तीन रूपया क्या करे? और डोनेशन क्या तीन  रूपया थोड़े देता है? कोई पचास देगा, कोई सौ देगा, कोई पांच सौ देगा। ऐसे किसी ठग ने उगाना शुरू कर दिया। उस ठग को हमने भी नहीं पकड़ा, समिति वालों ने भी नहीं पकड़ा, लेकिन उस ठग को  किसी अंजान व्यक्ति ने पकड़ा और फिर सीबीआई वालों को पकड़ा दिया। वो ठग तो वाकर गया कि कैसा  काम हो जाता है कि अपने ह्रदय में तो निष्कामता है तो कोई बेईमानी करता है तो बेईमान ऐसे ही पकड़ा जाता है, फिर बोर्ड लगाने पड़ते है कि आश्रम के नाम पर, समिति के नाम पर अथवा कभी कभी कैसेट में बोलना पड़ता है | ऐसा कोई ठग न घुस जाए इसकी भी सावधानी रखना।

 

ऐसा कोई एडजस्टमेंट वाला भी कोई न घुस जाये, उसकी भी सावधानी रखना। जय राम जी की।

साहब एडजस्टमेंट कर दिया।  पंचेड़ में एक ऐसा घुस गया था ,पंचेड़ समिति में ।  अभी मैं उसका अभी तक नाम नहीं लिया, ना लूंगा ।  मेरे ह्रदय में हुआ की पंचेड़ आश्रम है तो आश्रम की समिति के आदमियों में खजांची कैसा है तो उसका कभी कभी तो देखना पड़ता है ध्यान कर । मेरे ह्रदय बोलता था कि आदमी तो बाहर से तो बड़ा दिखता है, अच्छा दिखता है लेकिन मेरा ह्रदय अंदर पुकारता है कुछ। अब पंचेड़ जाऊँगा तो बुला लूँगा। क्या करूंगा? इधर बुलाऊंगा आये न आये। बेचारा बिजी होगा। पंचेड़ गया तो समितियों के आदमियों से वो मैंने कहा ‘ खजांची कौन है? ‘ ‘बापू मैं हूँ ‘ मैंने कहा ‘मेरे पीछे पीछे आ। ‘

मैं घूमने गया पीछे पीछे। मैंने कहा ‘अपनी समिति में पैसे… आपकी समिति में कुछ गड़बड़ होते है।  बोले ‘बापू! ऐसा तो नहीं है यहाँ तो बहुत खबरदारी से काम करते है।  ऐसा तो कोई नहीं है। मैंने कहा  ‘कोई नहीं है ये तुम कहते हो लेकिन मेरा ह्रदय बोलता है कि पैसे कही गड़बड़ होते है दान के।’ बोले ‘अच्छा बापू ! ध्यान रखेंगे ! ‘

उसने नाम दान भी ले रखा था दिखाने के लिए। जय राम जी की।  और समिति में खजांची बन गया था। मैंने कहा ‘ तुम जाओ! सोचो ! अगर ऐसा कोई है तो मेरे को बताना। ये दान का पैसा है उस कमबख्त को तो पता नहीं चलेगा लेकिन उसकी सात पीढ़ियां बेहिमाल हो जाएगी। इसीलिए तुम ध्यान रखो कल मुझे बताना। चौबीस घंटे की तुमको मोहलत देता हूँ। तभी उसको लाइट नहीं हुई। फिर आया।  फिर मैं वो पंचेड़ आश्रम की कच्ची सड़क में घूमने निकला।  पीछे पीछे आया। मैंने कहा  ‘ऐसा कोई है ?’ ‘नहीं बापू! इसमें तो फलाना है फलाना है।  और मैं आपका दास भी हूँ। ‘ वो बोलता जा रहा मैं  सुनता चला जा रहा।

फिर मैंने मुड़के उसको कहाँ ‘तुम्हारे ध्यान में नहीं आये तो नहीं आये, लेकिन दान का पैसा जो खाएगा साला ! बर्बाद हो जायेगा। ‘

उसकी नजर मेरे आँखों पर पड़ी।  थोड़ा आवाज में कडकाई थी। वो लम्बा पड़ गया। ‘बापू! मैं जरूर ध्यान रखूंगा। अच्छा मैं जाऊ’ हाँ मैंने कहा  ‘जाओ !’

रात भर उसको नींद नहीं आई । दूसरे दिन फूटफूट के रोया और चिट्ठी लिखी की समिति में जो दस हजार इतने रुपये है मेरे लेने निकलते है। वो आप कृपा करके स्वीकार कर ले समिति और जो कुछ भी है मैं आपके शरण में हूँ। जो कुछ लम्बी चौड़ी चिट्ठी लिखी।  मैंने कहा अच्छा  जाओ! नाम तो उसका मैंने जाहिर नहीं किया पर जितना पैसा लिया है  पैसा उसका और ढंग से गया।  उसके पहले दूसरा आदमी था उसमे ।  उसने भी कुछ इधर उधर किया तो इतना खर्चा हुआ की मगज कटाना पड़ा और बांछे माछे घूम गए। ऐसे दूसरी जगह भी एक दो है। मैं नाम लेकर किसी को बदनाम नहीं करना चाहता हूँ।  ये धर्मदेय का पैसा ऐसा खतरनाक है महाराज!

‘तोबा करो आरती कराई फाके पहिन्जा पैसा वठी वियो पर उनेह्मा  हेड़ा हुडडा थीयो त हरि नास थी वेन्धो ‘

उस धर्मदेय के पैसे में गड़बड़ होती है तो अपनी बुद्धि में गड़बड़ हो जाती है। मुफत का खाना सत्यानाश जाना। तो आपकी समितियों को ये ध्यान रखना होगा। वो पहेले समय था कि  कम समितियों में कभी कभी किसका देखते है , अभी देखने का भी टाइम नहीं रहता।  सच्ची बात है। और ये एक एक का बैठके ध्यान लगाए ये अब मेरे बस का नहीं। इसीलिए भी ये जो तुम्हारा आयोजन हुआ अच्छा है ताकि मेरी बात सब तक पहुँच जाएगी और  सावधान रहना। खजांची बनकर लाख- दो लाख – पांच लाख चुराएँगा लेकिन ये भी मुश्किल है कि खजांची पांच लाख समिति का  बनकर चुरा ले। देर सबेर तो बात आ ही जाती है महाराज! उसका पोल खुल ही जाता है। और कोई नहीं खोले तो उसका अंतरात्मा तो उसको डंखता है कि किसीको पता न चलें। चेहरे पर गड़बड़ हो जाती है। लेकिन तुम्हारे जीवन में पांच लाख क्या होता है? पच्चीस लाख क्या होता है ? तुम तो सत्कर्म करके सत्य स्वरुप ईश्वर के सुख सामर्थ्य को पाओ , ऐसा तुम्हारे को मिल रहा है।

 

दूसरी बात भी ये कहनी थी, कि जहाँ जहाँ समिति के भाई है वहां वहां जो सफ़ेद पोशाख वाले है, गरीबों को, आदिवासियों को तो देते है,सेवा करते है वो ठीक है लेकिन कुछ ऐसे जो आदिवासियों से भी आदिवासी है।  ऐसे लोग भी है।  कपडे तो अच्छे है लेकिन आदिवासियों से भी ज्यादा उनकी स्थिति दयाजनक है। पच्चीस रूपया दिन में कमाएंगे और छ: आदमी होते घर में, पांच आदमी होते, बूढ़ी माँ होती है, बाप होता है, छोरे को पच्चीस रुपये मिलते है। तो ऐसे लोगों को भी अगर तुम्हारे नजर में हो तो थोड़ी लिस्ट बनाकर, छोटा मोठा राशन कार्ड बना कर या कुछ और बनाकर उनको भी थोड़ी बहुत मदद दे सको तो देना। और तुम देवो थोड़ा यहां से अहमदाबाद  समिति से। अहमदाबाद समिति नहीं तो फिर अपना गुरु समिति से, थोडा मिल-जुल कर सेवा कर ले।

नारायण हरी।  नारायण हरी।

अहमदाबाद समिति की भी कोई लिमिट है तो थोड़ा वह समिति थोडा वो समिति।  सत्कर्म होते रहे। लेके तो हमारा बाप नहीं गया रोटी तो उसके बाप को देनी है फिर संग्रह आदि अच्छा नहीं ये मोक्ष पथ में आड़ है।

कैसे भला तू भाग सके। सिरपर पे लदा जवाब है।

और समितियों के ये भी एक सेवा का अवसर मिल सकता है कि महीने में एक दिन ऐसा रखें कि  जहाँ रहते है उस इलाके के अस्पताल में मरीजों का दर्शन करने चले जाएँ। दो दो फल,पांच पांच फल चार चार फल और कोई निर्भीकता जैसे ‘जीवन रसायन’ पुस्तक दे उनको। ये कार्य भी समितियां कर सकती है। जो दर्दी है, बीमार लोग है उनसे भी महीने में एक बार, दो महीने में एक बार, तीन महीने में एक बार, पन्द्रह दिन में….. जैसे आप लोगों की सुविधा।  घूमना भी हो गया थोड़ा और लोगों को देख कर कहो कि  शरीर की ये हालत! अपना वैराग्य भी बढ़ेगा। और कभी कभी समिति अपने अपने शमशान के इलाके में जाके बैठोगे कि ‘ले भाई ! आखरी एड्रेस है। देखो! पहले से आगे, ये होना है।’ ये भी एक रख दो आप।

हम तो भाई हमारे पिताजी को जब छोड़ने गए थे ग्यारह साल, दस-ग्यारह साल की उम्र थी। और पिताजी की भभुक भभुक अर्थी जलती देखी और हमारा सोया हुआ वैराग्य जागा। फिर उसी शमशान में हम कई बार गए लेकिन हम मरेंगे तो हमको तो यहाँ नहीं लाएंगे। गाढ देंगे इस उम्र में तो जहाँ बच्चों को गाढ देते है। आठ दस ग्यारह  साल के उम्र के बच्चों को गाढ  देते है। वो पास में ही शमशान था केलिकोमित। फिर वहां जाके बैठते थे बच्चे गढे हुए शमशान में। ‘देख ! ये है ! कल भी मर सकते है और परसो भी, ऐसे सो सकते। इसीलिए चेत जाओ भैया ! तो आप भी समिति, समिति नहीं तो समिति के कोई कोई मेंबर शमशान में जाएँ। कलजुग में शमशान को वरदान है कि वहां ज्ञान और वैराग्य मुफत में मिलेगा। ज्ञान, वैराग्य नहीं है तो भक्ति बेचारी रोती रहती है।  ज्ञान, वैराग्य मूर्छित है तो भक्ति बेचारी रोती रहेगी।

 

किसलिए वस्तु मिली है ?? वस्तु का सदुपयोग करने की जिम्मेदारी आई अपने पास। समय का सदुपयोग करने की जिम्मेदारी आई हमारे पास। तो हम उस जिम्मेदारी को अच्छी तरह से निभाएं। महात्मा गांधी जेल में थे।  जेलर के साथ  किसी गम्भीर विषय में जेलर से बात कर रहे थे। जाड़ों के दिन थे। स्नान के लिए गरम पानी रखा था। उनसे बातचीत का सिलसिला एकाएक बंद करके, वो सिगड़ी में जो कोलसा था वो निकालकर वो अर्धजला कोलसा बुझाकर फिर जेलर से बातचीत में बैठे।  जेलर समझ गया की गांधीजी आधा कोलसा बचाने के लिए बात का सिलसिला बंद करके गए। वो बोल ‘मिस्टर मोहनलाल में एक बैग भेज देता हूँ कोलसे की। कोलसे बहुत पड़े जेल में।

बोले ‘ पड़े है तो क्या है तेरे बाप के थोड़े है ? है सरकार के और सरकार तो पब्लिक के खून में से तो उसके तिजोरी में आता है।  उपयोग तो करुं जरूरत पड़ने पर बिगाड़ने का मेरा अधिकार नहीं है इसीलिए मैंने बुझाया। तू क्या दे देगा ? ‘

 

तो समिति वालों को ये भी ध्यान रखना चाहिए की बिगड़ न हो हमारी समितियों में।

बक्शीश लाख की हिसाब पाई का कौड़ी का।  सदुपयोग होता हो तो एक लाख नहीं दस लाख खर्च करो, पचास लाख खर्च करो, पचास करोड़ खर्च करो, आते जायेंगे कमी नहीं रहेंगी।

लेकिन जब चोरी या बिगाड़ होगा तो फिर अपनी सेवा ही बिगड़ी समझो। और भी महाराज ! आपको क्या क्या बताऊँ ? ऐसे भी लोग थे, चौदह सौ रुपये समिति में से खाली हड़प किया।  पूरा का पूरा तेजुमल का खानदान कुटुम्ब दुखी हो गया।  वो तो मर गए लेकिन वो चौदह सौ रूपया अभी भी बदला ले रहे है। डीसा की बात है। ये कलयुग नहीं करजुग है।  देर सबेर तो परिणाम तो आता है। तो समिति की भाई बहने ये भी ध्यान रखेंगे और| दो सिद्धांत सामने रखे एक सिद्धांत लीलाशाह बापू गठरी लेकर गांव गांव प्रचार करते।  सेवा का कितना महत्व है।  हनुमान जी कितनी सेवा करते। सेवा नहीं मिली तो चुटकी बजाने की सेवा खोज ली। ‘राम काज बिन कहाँ विश्रामा ‘

दूसरी बात की समिति में स्नेह और सच्चाई बनी रहें। कभी गलती किसी की होगी, कभी उपाध्यक्ष की होगी, कभी खजांजी की होगी ,कभी मेंबर की होगी एक दूसरे को ठीक करने के लिए एक दूसरे पर हावी होने के बजाय, एक दूसरे के आगे नम्रता से पेश आये। तो संघर्ष की जगह पर स्नेह पैदा हो जायेगा। विरोध की जगह पर शक्ति का संचार हो जायेगा। ‘अजी ये ऐसा है, अजी वो ऐसा है। रामतीर्थ कहते की सेवा करते उन मूर्खो को पता भी नहीं की सेवक को कितना बड़ा दिल रखना चाहिए।

‘अजी फलाना ऐसा है ये आदमी ठीक नहीं ! ये आदमी ठीक नहीं ! गाय ठीक नहीं क्योंकि सवारी के काम नहीं आती और घोडा ठीक नहीं क्योंकि दूध नहीं देता बेकार है क्या रखें? और हाथी ! अरे ! हाथी खाता खूब है चौकी नहीं करता कमबख्त ! और कुत्ता ! बोले चौकी तो करता है पर सवारी के काम नहीं आता क्या करे उसको ? तू तो बेकार हो गया। तेरे लिए सब चीज़ बेकार हो गयी मुर्ख !  अरे ! बड़ा काम है तो बड़ा दिल रखना पड़ेगा।  जिसमें जो क्षमता है, योग्यता है उसका उपयोग करते करते उसकी योग्यता बढे, ऐसा करके गाड़ी चलाना होगा।

 

चीजे लाकर कतार कर दी और बच्चों को बाँट दी। दूसरे महीने में लाहोर कॉलेज में पगार हुआ सौ रूपया, बाँट दिया।  तीसरे महीने में भी यही किया। घर में बच्चों का हाथ टाइट हो गया। पत्नी वही अपना ठीकड़ा लगाके पेन रखां। ठीकड़ा लगा हुआ है।  और प्रोफेसर सोच कर हैरान हो गए की ये प्रोफेसर के बेटे है कि किसी भिखमंगे के बेटे है ? जाके रामतीर्थ को डांटा कि ‘आप कैसे हो मिस्टर ? एम.ए . पढ़े हो। अपने बच्चों की हालत तो तुम किसके लिए कमाते हो ?बच्चों के लिए कमाते हो।  रामतीर्थ ने कहाँ, तीर्थराम  नाम था,

“हाँ ! बच्चों के लिए कमाता हूँ।”

“तो फिर बच्चों को दो न तुम।”

” हाँ ! बच्चों को दे रहा हूँ”

“क्या ख़ाक बच्चों को दे रहे हो ? सौ रूपया पगार है।  पेन ले लेते हो, कॉपियां ले लेते हो ,पेन्सिलें ले लेते हो, चने ले लेते हो ,सिंग ले लेते हो, सामग्री ले लेते हो और लम्बी कतार कर देते हो भिखमंगो की और उनको दे देते हो ”

बोले “वो भी तो मेरे ही बच्चे है ”

“तो तुम्हारे घर बैठे है उनका क्या?

बोले” उनको भी कतार में लगा दो उनको भी दे दूंगा।  क्या है ? ” हां बडो !

“लाओ उनको  लाइन में! ”

“ये क्या कह रहे हो ?”

बोले ” क्या? ये दो ही बेटे मेरे है? जिसका मैं हूँ उसके वो है।  वो अनन्त संभालेगा जब मैं उसीके उनको संभल रहा हूँ तो इन्ही के उनको वो नहीं संभालेगा ? ”

 

दूसरे प्रोफेसर जो चतुर थे कमा कमा कर बेटों को दिए की बेटे तो कोई मास्टर बना, कोई क्लर्क बना, तो कोई महाराज ! छोटा-मोटा धंधेवाला बना।  कोई कोई विरला प्रोफेसर बना लेकिन रामतीर्थ के दोनों बेटे एक चीफ जस्टिस बन और दूसरा  चीफ इंजीनियर बना।  ले ! ऐसा मैंने सुना है।

जितना आप बहुजन हिताय बहुजन सुखाय करते उतना आपका आपके बेटे बेटियों का सब अच्छा होने लगता है। उत्तम राजा, उत्तम सेवक अपने विषय में अपने लिए नहीं सोचता है, मिली हुई  सामग्री , मिली हुयी योग्यता  बहुजन हिताय के लिए सोचता है तो उसके लिए उसके परिवार के लिए अनन्त अपने आप कर लेता है।

‘सु करू? म्हारी डिक्री मटे अटला राखूं म्हारे डिक्रे मटे तो अटला करूँ ‘ ऐसा कर कर के मर गए कई डिक्रे डिक्री करके और वही डिक्रे या डिक्री बुढ़ापे में थूकते भी नहीं।

‘पूछवाई नथिया औता छी अकनि नथी लेवा औता काका नी’ एक काका नहीं सब लोग आप काका बनेंगे।

‘जिन लाहे सुर सठा सु से कांधी  किन थिया  ‘ जिन के लिए सारी जिंदगी निचोड़ निचोड़ दिया वो मोह में स्वार्थ में एक आदमी मर गया। बोले “क्या दान पुन किया?” चित्रगुप्त ने पूछा।  बोले मैंने तो सब दान कर दिया। मेरी दो फैक्ट्री थी। दोनों बेटे को दे दी। और जो बैंक बैलेंस था उसमें आधा हिस्सा लड़कियों को दे दिया और आधा हिस्सा पोतो के नाम कर दिया।  और ज्वेलरी थी वो मिसेस के नाम पे है वो थोड़ा करके आये।मैं सब दान करके आया। बोले ‘डाल दो इसको नरक में ! अरे अपने धातु से, अपने पेशाब के बूँद से जो पैदा हुए उनको दे देके वो तुमने, वो तो तुम्हारा काम का विकार, वही कामना कामना में दिया। जिससे तुम्हारा कोई ब्लड रिलेशन नहीं है और ईश्वर के नाते उनको कितना दिया, वो दान में माना जायेगा। ये दान थोड़े है ये तो मोह है। कपट करके कमाया और मोह करके दे दिया। तो दोनों तरफ से बंधे हो। डाल दो इसको नरक में। धकेले लेई जाओ बांध के।’

नारायण हरी।  नारायण हरी।

एक आदमी को गाड़ियां थी दो तीन। ट्रांसपोर्ट का करता था। किसीने कहाँ की ‘भाई ! गाड़ी चाहिए ‘ बोले  ‘ गाड़ी तो साहब ! आठ दिन के लिए हम नहीं दे सकते। बुक है आठ दिन का माल।’ बोले ‘दूसरी कोई ट्रांसपोर्ट बताओ।’ ‘हमारे गांव में तो एक ही ट्रांसपोर्ट है हमारे यहाँ।  आप तो जानते है दूसरी कहाँ से ?”

बोले ‘दूसरी किसी की गाड़ी मिल जाएँ।’

‘देखूँगा ! मैं जाँच करूंगा लेकिन आज कल सिजन चल रही है गाड़ी पर। मिलना मुश्किल है ‘

‘क्यों? क्या चाहिए है ?’

‘अरे वो सत्संग होने वाला है और उसी लिए हम ‘

‘किसका सत्संग?’

‘बापूजी का’

‘अरे यार पहले क्यों नहीं कहता।  ले आ ! ऐ छोकरा ! वो माल बाद में भेज ये गाड़ी दे दो ‘

बोले ‘पिताजी! ये पन्द्रह सौ की कमाई की ‘

बोले ‘पन्द्रह सौ साले! कहाँ रहेंगे? ये कमाई ऐसी करेगी तू भी खायेगा तेरा बेटा भी खायेगा फिर भी नहीं खुटेगी,ये पुण्य कमाई हो रही है। गाड़ी भेज सत्संग में। ‘

‘गाड़ी भेज सत्संग में। तेरा करेगी। बाबाजी आ रहे है।  संत का दर्शन करने लोग जायेंगे।  उनकी सामग्री लाएगी करेगी।  गाड़ी रख दो सत्संग में।  चार दिन सत्संग चलेगा पांच दिन गाड़ी रख दो। ट्रांसपोर्ट की ऐसी तैसी ‘

 

वो मोची ! बम्बई का सेठ जूता सिलाता है। मोची पूछता है ‘सेठजी ! कैसे आये इस गांव में ? आप कहाँ के हो ? ‘बोले ‘मैं बम्बई से आया हूँ। बम्बई के बोरोवाली के पास में फलानि जगह पे मेरा अपना है सब कुछ।  इस गांव में आया हूँ बाबाजी का सत्संग सुनने।’ मोची के आँखों से टप टप आंसू बहते है।  बोले ‘क्यों भाई? ‘ बोले ‘सेठजी! मैंने भी विचारा था में भी जाऊँगा कथा सुनने में लेकिन मैं अभागा नहीं जा सकता हूँ। मैं तो उपवास कर सकता हूँ।  मेरी पत्नी उपवास कर सकती है। मेरे बेटे पानी पी कर सो सकते है। लेकिन जो बूढी दादी माँ है और मेरे जो पिताजी है वे भूख नहीं निकाल सकेंगे।  अगर में कथा में जाता हूँ तो एक दिन मुझे ये फुटपाथ की दुकान बंद रखनी पड़ेगी। इसलिए में कथा सुनने नहीं जा सकता हूँ सेठ! मैं अभागा हूँ। ‘

मोची की आँखों से पानी की बूंदे गिरी। चप्पल सी लिया सेठ की।  सेठ ने दस की नोट मोची के आगे रखी ‘भाई ! ले ले ! ‘ मोची कहता है ‘भाई ! क्या कर रहे हो ? बोले दस रूपया रख ले। छुट्टा वापस नहीं चाहिए। ‘ बोले ‘दस रुपये तो क्या में आपके दस पैसे भी नहीं लूँगा। आप संत के दर्शन करने आये।  सत्संग सुनाने आये। कम से कम इतनी सेवा तो मेरे को दे दो। सेठ बोलता है कि तेरे मोची के पचास पैसे रखकर मैं क्या अमीर होऊंगा। मेरे पास तो चालीस चालीस हजार रुपये पगार लेने वाले सीए नौकरी करते। पानी भरते मेरे यहाँ।  में फाइनेंस का भी करता हूँ। मोजी जेठ मार्केट में मेरी दो दुकाने है भाई ! अस्सी अस्सी लाख जैसी दुकाने है अभी डेड करोड़ भी मिलाता है। मेरे पास कितना पैसा है मेरे को ये भी गिनने में देर लगेगी और तेरे पचास पैसे में क्यों लूँगा? ले रख ले दस रूपया।’ मोची बोलता है की ‘सेठ ! दस पैसा भी नहीं लूँगा। ‘

अब सेठ और मोची का तो युद्ध हो गया। मोची कहता है कि नहीं लूँगा और सेठ कहता है कि  मैं  नहीं लूंगा।  तेरा मोची का पचास पैसा ! आखिर महाराज! दोनों का मधुर युद्ध चला।  त्यागमय युद्ध चला। मोची ने हाथ जोड़े के पैर पकडे के ‘ओर तो कुछ नहीं काम से काम इतनी सेवा तो मुझे करने दो। आप बम्बई छोड़कर संत के दर्शन करने आये। ‘

बोले ‘अरे ! मैं तो खुली हवा,शुद्ध पानी , शुद्ध गांव में दूध मिलेगा और कभी बापूजी फ्री होंगे तो थोड़ा दर्शन और बातचीत का अवसर मिल जायेगा।  इसीलिए में बम्बई से आया हूँ। तेरे पास से चप्पल सिलाने थोड़े आया हूँ भाई ! वो तो जहाँ ठहरा हूँ गेस्ट हाउस से इधर आने में पैदल आना पड़ा तो चप्पल टूट गयी। तू ले ले दस रूपया , पांच रूपया ले ले चल ! दो रूपया ले ले। ‘ बोले ‘ सेठजी ! दो पैसा भी नहीं लूंगा। अरे भाई चप्पल सिया है तेरा अपना ले ले ना ! ‘

बोले ‘ नहीं सेठजी ! देता है न भगवान तो। आज खाने भर को है। इधर के लिए तो ज़िन्दगी भर करते उधर के लिए थोड़ा सा तो मेरे को करने दो सेठजी !’

आखिर मोची की जीत हुयी और सेठ ने हार  मान ली।

 

गुरु गोविन्द सिंह के पास ऐसा कोई प्रोजेक्ट आया के लोग दबे जा रहे है और कुछ सैन्य -वैन्य पैसा चाहिए। गुरूजी ने कहाँ ‘किसी को भी, जो भी कुछ चाहिए फल फूल प्रसाद नहीं लाओ। रोकड़ रकम ले आओ। सैन्य के लिए चाहिए। किसीने सौ दिए, किसीने पांच सौ, किसीने हजार , किसीने पांच हजार।  एक माई चवन्नी ले आई। गोविन्द सिंह ने उसकी  चवन्नी  लेकर आँखों पर रखी। चुम्बन किया। ह्रदय से लगाया। उस चवन्नी को एक हाथ से दूसरे हाथ, एक हाथ से दूसरे हाथ किया।  और जो दान दक्षिणा रखी उनको बोला ‘सम्भाल लेना।’

चेलों ने पूछा ‘ये चवन्नी  में क्या जादू है गुरूजी ? आँखों पे चढ़ा रहे हो। चुम्बन कर रहे हो क्या बात है ? ‘

बोले ‘ ये माई कथा में बैठी थी बुढ़िया और इसका इकलौता बेटा वो भी अलग हो गया। और पति तो चल गए। तो इसके पास हसिया था। हसियां से घास काटती थी। घास बेचती थी उसी से गुजारा करती थी। लेकिन इसने देखा की गुरु को कुछ देना है तो अपना हसिया बेचके पूरी की पूरी प्रॉपर्टी दे रही है। हंड्रेड पर्सेंट दे रही है प्रॉपर्टी। कल क्या खायेगी उसकी फ़िक्र नहीं कर रही। तो ये चवन्नी क्या है ये तो खजाना है भाई ! हंड्रेड पर्सेंट डोनेट कर रही है। उसके आगे जयपुर के बिल्डिंग का बीस लाख का हॉल क्या होता? हंड्रेड पर्सेंट नहीं है।  टेन पर्सेंट भी नहीं है। ५ पर्सेंट भी नहीं है। तो हमने दस्तावेज को चुंबन थोड़े किया रख दिया उस पर।

नारायण हरी ।  नारायण हरी ।नारायण हरी ।नारायण हरी ।

फिर में अपना विचार बता दूँ समिति का।  मेरे मन में भी ऐसा कई दिनों से आ रहा है कि समिति के लोग भी बुड्ढे होंगे और एक दिन मरेंगे भी जरूर। तो घर में मरे, गृहस्थी  में फिर भटके , इससे तो एक ऐसा आश्रम बनाए की समिति के कार्यकर्ता है ,रिटायरमेंट लाइफ कभी थोड़ी थोड़ी गुजरे ऐसा एक विशाल जगह में आश्रम बनाए।  स्विमिंग पूल हो, आयुर्वेदिक हॉस्पिटल हो , कुछ कीर्तन का हो ,कोई प्यरामेड हो ,कुछ दो पांच करोड़ की संस्था बना ले। सारे समिति वाले और बन्दे  जो है रिटायर लाइफ , हम भी तो रिटायर लाइफ गुजारने की तयारी कर रहे है, तो ये भी तो गुजारेंगे। संसार में बहोत हो गया प्रचार प्रसार तो ऐसा विचार भी आ रहा है। तो देखे ! कहाँ अन्न जल भूमि कौनसी ? जो हरी इच्छा होगी बिचार चल रहा है अभी तो। बनना चाहेंगे तो किसी चीज़ की कमी नहीं रहेंगी। पावर ये वो कमी भी नहीं रहेंगी लेकिन आया, मीटिंग में तो विचार रखना है तो मैंने अपना रख दिया। आपने भी रख दिया मैंने भी रख दिया। नारायण हरी। नारायण हरी।

 

गुरु की सेवा साधु जाने गुरु सेवा का मूल पहचाने  ।

गुरु की सेवा साधु जाने।।गुरुसेवा का मूल पहचाने।

गुरु सेवा सब गुण पर भारी। समझ करो सोई नर नारी।

गुरु सेवा सब गुण पर भारी। समझ करो सोई नर नारी।

गुरु सेवा सौ विघ्न विनाशे ।  दुर्मति भाजे पातक नाशे।

गुरु सेवा सौ विघ्न विनाशे ।  दुर्मति भाजे पातक नाशे।

गुरु सेवा चौरासी छूटे।  धावक मन का डोरा टूटे।

गुरु सेवा चौरासी छूटे।  धावक मन का डोरा टूटे।

गुरु की सेवा साधु जाने।।गुरुसेवा का मूल पहचाने।

 

गुरु सेवा यम कंदन लागे। ममता मरे भक्ति में जागे।

गुरु सेवा यम कंदन लागे। ममता मरे भक्ति में जागे।

गुरु सेवा सो प्रेम प्रकाशे। उन्मत्त होइ मिटे जग आशे।

गुरु सेवा सो प्रेम प्रकाशे। उन्मत्त होइ मिटे जग आशे।

गुरु की सेवा साधु जाने।।गुरुसेवा का मूल पहचाने।

 

गुरु सेवा परमात्मा दर्शे। त्रिगुण तजि चौथा पद स्पर्शे।

गुरु सेवा परमात्मा दर्शे। त्रिगुण तजि चौथा पद स्पर्शे

श्री शुकदेव देव बताये भेला। चरण दास करे गुरु की सेवा

श्री शुकदेव देव बताये भेला। चरण दास करे गुरु की सेवा

गुरु की सेवा साधु जाने।।गुरुसेवा का मूल पहचाने।

गुरु सेवा सब गुण पर भारी। समझ करो सोई नर नारी।

 

जगने दो तुम्हारे सृषुप्त शक्तियों को। जगने दो तुम्हारे प्राण कल को। चित्ती को। चेतना को।

ये केवल मजा लेना नहीं है। परम मजे के द्वार खोलने की भी एक कला है।  एक प्रयोग है।

हर रोज ख़ुशी…….हर दम ख़ुशी  ……. हर हाल ख़ुशी