वैराग्य शतक के 80वें श्लोक का अर्थ हैः ‘क्या रहने के लिए स्वर्ग के तुल्य रमणीय भव्य भवन नहीं थे ? क्या सुनने के लिए गाने योग्य मधुर संगीत नहीं थे ? अथवा प्राणप्रिय प्रेयसी के साथ समागम का सुख अत्यधिक प्रीतिजनक नहीं था क्या ? इन सब सुख-साधनों के विद्यमान होने पर भी संतजन सब विषय-भोगों को इधर-उधर घूमने वाले पतंगों के पंखों से निकलने वाले पवन से कम्पित दीपक की लौ के समान अत्यंत चंचल अर्थात् नश्वर समझकर (इन सबको त्याग के अपने कल्याण के लिए) वनों के भीतर चले गये ।
यहाँ भर्तृहरि जी ने जिस ओर संकेत किया है, उसका उदाहरण वे स्वयं तथा राजा भगीरथ, राजा गोपीचंद जैसे अनेक महापुरुष हैं जिनके पास खजानों के अखूट भंडार थे, कितना धन वैभव, राज्यसुख था, पाँचों इन्द्रियों को सुख देने वाली वस्तुएँ थीं, कितना जयजयकार होता था फिर भी उन्होंने इन सबको स्वेच्छापूर्वक त्याग दिया ।
राजा भर्तृहरि योगी गोरखनाथ जी की आज्ञा में रहे । राजा भगीरथ त्रितल मुनि की शरण में गये, उनके उपदेश सुनकर अपना राज्य शत्रुओं को दे दिया और स्वयं एकमात्र कौपीन धारण कर वन में ब्रह्माभ्यास करने लगे । राजा गोपीचंद अपने गुरुदेव की आज्ञा में रहे । राजा गोपीचंद अपने गुरुदेव की आज्ञा में रहे । वर्तमान समय में भी किन्हीं हयात महापुरुष का इसी प्रकार का आदर्शरूप जीवन देखना हो तो पूज्य संत श्री आशाराम जी बापू का जीवन है । आपके पिता नगरसेठ थे । बौद्धिक कुशाग्रता, कार्य-व्यापार में कुशलता, संस्कृत और दर्शनशास्त्र के ज्ञान में पटुता व उत्तम गति, सुडौल रूपवान शरीर, लक्ष्मीदेवी जैसी सुशील एवं धर्मपरायणा पत्नी ये सब होते हुए भी आप श्रोत्रिय ब्रह्मनिष्ठ सद्गुरु भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाह जी महाराज की शरण में गये, कसौटियाँ सहीं । आपने पूर्ण गुरुकृपा पायी अर्थात् परमात्मप्राप्ति की और फिर गुरुआज्ञा शिरोधार्य कर 7 साल डीसा में ऐसे प्रतिकूलतापूर्ण एकांत स्थान में रहे जहाँ सामान्य तौर पर अन्य किसी साधक का रहना कठिन है ।
जो लोग भव्य भवन, सुख-सुविधा, घर-परिवार – इन्हीं को सब कुछ समझ बैठते हैं, ये मिले तो अपने को सौभाग्यशाली और छूटे तो दुर्भाग्यशाली मानते हैं – ऐसे अविवेकियों का विवेक जगाने के लिए भर्तृहरि जी वैराग्यवान और परम विवेकी संतजनों के जीवन की ओर संकेत करते हैं कि वास्तव में तुच्छ संसारी सुखाभासों से ऊँचा भी कोई वास्तविक सुख है जिसे पाने के लिए सब सुविधाएँ होते हुए भी उनको त्यागकर संतजन उस परम सुख अर्थात् परमात्मा को पाने के रास्ते निकल पड़े ।
यह वह परमोच्च लाभ है जिसके आगे संसार के सारे लाभ इतने तुच्छ साबित होते हैं कि उनकी तुलना या गिनती ही नहीं हो सकती । नश्वर लाभ न पहले था, न बाद में रहेगा और अब भी केवल सुखाभास देता है जो तृष्णा, इच्छा-वासना के रूप में कष्टप्रद, दुःखरूप ही बन जाता है । इसलिए कहा गया हैः
आत्मलाभात् परं लाभं न विद्यते ।
आत्मज्ञानात् परं ज्ञानं न विद्यते ।
आत्मसुखात् परं सुखं न विद्यते ।
‘आत्मलाभ से बढ़कर कोई लाभ नहीं है ।
आत्मज्ञान से बढ़कर कोई ज्ञान नहीं है ।
आत्मसुख से बढ़कर कोई सुख नहीं है ।’
इस ऊँचे आत्मलाभ की महत्ता का प्रतिपादन करते हुए भगवान कहते हैं-
न हि ज्ञाने सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
‘इस संसार में ज्ञान (आत्मज्ञान) के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है ।’
(गीताः 4.38)
यं लब्धवा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः ।
‘परमात्मा की प्राप्तिरूप जिस लाभ को प्राप्त होकर (योगी) उससे अधिक दूसरा कुछ भी लाभ नहीं मानता (उसको जानना चाहिए ) ।’ (गीताः 6.22)
स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2019, पृष्ठ संख्या 22, 23 अंक 314
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