‘भगवान की जिम्मेदारी है पर आप विश्वास नहीं करते’ गतांक से आगे
सौ अश्वमेध यज्ञों की दक्षिणा
एक दिन महात्मा गंगा-किनारे भ्रमण कर रहे थे । एक दिन उन्होंने संकल्प कियाः ‘आज किसी से भी भिक्षा नहीं माँगूँगा । जब मैं परमात्मा का हो गया, संन्यासी हो गया तो फिर अन्य किसी से क्या माँगना ? जब तक परमात्मा स्वयं आकर भोजन के लिए न पूछेगा तब तक किसी से न लूँगा ।’ यह संकल्प करके, नहा-धोकर वे गंगा-तट पर बैठ गये ।
सुबह बीती… दोपहर हुई….. एक दो बज गये…. भूख भी लगी किंतु श्रद्धा के बल से वे बैठे रहे । उन्हें सुबह से वहीं बैठा हुआ देखकर किसी सद्गृहस्थ ने पूछाः “बाबा ! भोजन करेंगे ?”
“नहीं ।”
गृहस्थ अपने घर गया लेकिन भोजन करने को मन नहीं माना । वह अपनी पत्नी से बोलाः “बाहर एक महात्मा भूखे बैठे हैं । हम कैसे खा सकते हैं ?”
यह सुनकर पत्नी ने भी नहीं खाया । इतने में विद्यालय से उनकी बेटी घर आ गयी । थोड़ी देर बाद उनका बेटा भी आ गया । दोनों को भूख लगी थी किंतु वस्तुस्थिति जान के वे भी भूखे रहे ।
सब मिल के उन संन्यासी के पास गये और बोलेः “चलिये महात्मन् ! भोजन ग्रहण कर लीजिये ।”
महात्मा ने सोचा कि ‘एक नहीं तो दूसरा व्यक्ति आकर तंग करेगा ।’ अतः वे बोलेः “मेरे भोजन के बाद मुझे जिस घर से सौ अश्वमेध यज्ञों के फल की दक्षिणा मिलेगी, उसी घर का भोजन करूँगा ।”
घर आकर नन्हीं बालिका पूजा-कक्ष में बैठी एवं परमात्मा से प्रार्थना करने लगी । शुद्ध हृदय से, आर्तभाव से की गयी प्रार्थना तो प्रभु सुनते ही हैं । अतः उसके हृदय में परमात्म-प्रेरणा हुई ।
वह पूजा-कक्ष से बाहर आयी । अपने भाई के हाथ में पानी का लोटा दिया एवं स्वयं भोजन की थाली सजाकर दूसरी थाली से उसे ढक के भाई को आगे करके चली । भाई पानी छिड़कता हुआ जा रहा था । पानी के छिड़कने से शुद्ध बने हुए मार्ग पर वह पीछे-पीछे चल रही थी । आखिर में बच्ची ने जाकर संन्यासी के चरणों में थाल रखा एवं भोजन करने की प्रार्थना कीः “महाराज ! आप भोजन कीजिये । आप दक्षिणा के रूप में सौ अश्वमेध यज्ञों का फल चाहते हैं न ? वह हम आपको दे देंगे ।”
संन्यासीः “तुमने, तुम्हारे पिता एवं दादा ने एक भी अश्वमेध यज्ञ नहीं किया होगा फिर तुम सौ अश्वमेध यज्ञों का फल कैसे दे सकती हो ?”
बच्चीः “महाराज ! आप भोजन करिये । सौ अश्वमेध यज्ञों का फल हम आपको अर्पण करते हैं । शास्त्रों में लिखा है कि ‘भगवान के सच्चे भक्त जहाँ रहते हैं, वहाँ पर एक-एक कदम चलकर जाने से एक-एक अश्वमेध यज्ञ का फल होता है ।’ महाराज ! आप जहाँ बैठे हैं, वहाँ से हमारा घर 200-300 कदम दूर है । इस प्रकार हमें इतने अश्वमेध यज्ञों का फल मिला । इनमें से सौ अश्वमेध यज्ञों का फल हम आपके चरणो में अर्पित करते हैं, बाकी हमारे भाग्य में रहेगा ।”
उस बालिका की शास्त्रसंगत एवं अंतःप्रेरित बात सुन के संन्यासी ने उस बच्ची को आशीर्वाद देते हुए भोजन स्वीकार कर लिया ।
कैसे हैं वे सबके अंतर्यामी प्रेरक परमेश्वर ! ‘भक्त अपने संकल्प के कारण कहीं भूखा न रह जाय’ यह सोचकर उन्होंने ठीक व्यवस्था कर ही दी । यदि कोई उनको पाने के लिए दृढ़तापूर्वक संकल्प करके चलता है तो उसके योगक्षेम का वहन वे सर्वेश्वर स्वयं करते हैं ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मई 2019, पृष्ठ संख्या 8, 10 अंक 317
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