◆ सदगुरु मेरा सूरमा, करे शब्द की चोट। मारे गोला प्रेम का, हरे भरम की कोट।।
◆ सदगुरु की करूणा तो करूणा है ही, उनकी डाँट भी उनकी करूणा ही है। गुरु कब, कहाँ और कैसे तुम्हारे अहं का विच्छेद कर दें, यह कहना मुश्किल है।
◆ श्रद्धा ही गुरु एवं शिष्य के पावन संबंध को बचाकर रखती है, वरना गुरु का अनुभव और शिष्य का अनुभव एवं उसकी माँग, इसमें बिल्कुल पूर्व-पश्चिम का अंतर रहता है। शिष्य के विचार एवं गुरु के विचार नहीं मिल सकते क्योंकि गुरु जगे हुए होते हैं सत्य में, जबकि शिष्य को मिथ्या जगत ही सत्य लगता है। किंतु शिष्य श्रद्धा के सहारे गुरु में ढल पाता है और गुरु करुणा से उसमें ढल जाते हैं। शिष्य की श्रद्धा एवं गुरु की करुणा-इसी से गाड़ी चल रही है।
◆ श्रद्धा हृदय की पवित्रता का लक्षण है, तर्क और संशय पवित्रता का लक्षण नहीं है। जैसे वस्त्र के बिना शरीर नंगा होता है, वैसे ही श्रद्धा के बिना हृदय नंगा होता है। श्रद्धा हृदय-मंदिर की देवी है। श्रद्धा होने पर ही मनुष्य किसी को अपने से श्रेष्ठ स्वीकार करता है। जीवन में गुरु, शास्त्र, संत और धर्म के प्रति श्रद्धा अवश्य होनी चाहिए।ʹ
◆ गीताʹ में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं- श्रद्धावान् लभते ज्ञानं…..
◆ श्रद्धा एक ऐसा सदगुण है जो तमाम कमजोरियों को ढक देता है। करूणा एक ऐसी परम औषधि है, जो सब सह लेती है। दोनों में सहने की शक्ति है। जैसे माँ बेटे की हर अँगड़ाई करूणावश सह लेती है, बेटे की लातें भी सह लेती है, वैसे ही गुरुदेव शिष्य की हर बालिश चेष्टा को करुणावश सहन कर लेते हैं। बाकी तो दोनों का कोई मेलजोल सम्भव ही नहीं है।.
◆ बहुत लोग किसी को मानते हैं एवं उनका आदर करते हैं इसलिए वे महात्मा हैं, ऐसी बात नहीं है। लोगों की वाहवाही से सत्य की कसौटी नहीं होती। धन-वैभव से भी सत्य को नहीं मापा जा सकता और न ही सत्ता द्वारा सत्य को मापना सम्भव है। सत्य तो सत्य है। उसे किसी भी मिथ्या वस्तु से मापा नहीं जा सकता।
◆ माँ आनंदमयी के पास इंदिरा गाँधी जाती थीं इसलिए माँ आनंदमयी बड़ी हैं, ऐसी बात नहीं है। वे तो हैं ही बड़ी, बल्कि यह इंदिरा गांधी का सौभाग्य था कि ऐसी महान विभूति के पास वे जाती थीं। रमण महर्षि के पास मोरारजीभाई देसाई जाते थे इससे रमण महर्षि बड़े थे, ऐसी बात नहीं है वरन् मोरारजीभाई का सौभाग्य था कि महर्षि के श्रीचरणों में बैठकर आत्मज्ञान-आत्मशांति पाने के योग्य बनते थे।
◆ लोग यदि ऐसे ब्रह्मवेत्ता महापुरुषों को जानते मानते हैं तो यह लोगों का सौभाग्य है। कई ऐसे लोग हैं जिन्हें लाखों लोग जानते हैं, फिर भी वे ऊँची स्थिति में नहीं होते। कई ऐसे महापुरुष होते हैं जिन्हें उनके जीवनकाल में लोग उतना नहीं जानते जितना उनके देहावसान के बाद जानते हैं। भारत में तो ऐसे कई महापुरुष हैं जिन्हें कोई नहीं जानता जबकि वे बड़ा ऊँचा जीवन जीकर चले गये।
◆ जैसे प्रधानमंत्री आदिवासियों के बीच आकर उन्हीं के जैसी वेशभूषा में रहें तो उऩकी योग्यता को आदिवासी क्या जान पायेंगे ! वे तो उनके शरीर को ही देख पायेंगे। उनके एक हस्ताक्षर से कितने ही नियम बदल जाते हैं, कितने ही लोगों की नींद हराम हो जाती है। इस बात का ज्ञान आदिवासियों को नहीं हो पायेगा। ऐसे ही ज्ञानी महापुरुष भी स्थूल रूप से तो और लोगों जैसे ही लगते हैं, खाते-पीते, लेते देते दिखते हैं, किन्तु सूक्ष्म सत्ता का बयान कर पाना सम्भव ही नहीं है। किसी ने ठीक ही कहा हैः.
◆ पारस अरु संत में बड़ा अंतरहू जान।
◆ एक करे लोहे को कंचन ज्ञानी आप समान।।
◆ पारस लोहे को स्वर्ण तो बना सकता है किंतु उसे पारस नहीं बना सकता जबकि पूर्ण ज्ञानी व्यक्ति को अपने ही समान ब्रह्मज्ञानी बना सकता है।
◆ अनुभूति कराने के लिए ईश्वर तैयार है, गुरु समर्थ हैं तो फिर हम देर क्यों करें ? यदि ईश्वर-अनुभूति के रास्ते चलते-चलते मर भी गये तो मरना सफल हो जायेगा एवं जीते-जी ईश्वर-अनुभूति करने में सफल हो गये तो जीना सफल हो जायेगा।
◆ ऐसे ही ब्रह्मज्ञानी संतों का दर्शन व सत्संग करते-करते मर भी गये तो अमर पद के द्वार खुल जायेंगे और इसी जन्म में लक्ष्य साध्य करने की दृढ़ता बढ़ाकर जीवन को उनके सिद्धान्त-अनुरूप बनाने में तत्पर हो गये तो जीवन्मुक्त हो जायेंगे।
◆ स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2013, पृष्ठ संख्या 2,10 अंक 246