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दो के पीछे तीन और तीन के पीछे आते ये छः सद्गुण-पूज्य बापू जी


श्रद्धा और सेवा – ये दो सद्गुण ऐसे हैं कि चित्त में आनंद प्रकटा देते हैं शांति प्रकटा देते हैं । श्रद्धा और सेवा से ये और भी तीन गुण आ जायेंगे – उद्योगी, उपयोगी और सहयोगी पन ।

जो भी व्यक्ति उद्योगी, उपयोगी और सहयोगी बनकर रहता है, वह यदि नहीं है तो उसका अभाव खटकेगा । आलसी, अनुपयोगी, असहयोगी व्यक्ति आता है तो मुसीबत होती है और जाता है तो बोले, ‘हाऽऽश….! बला गयी ।’ और उद्योगी, उपयोगी, सहयोगी व्यक्ति आता है तो आनंद होता है और जाता है तो बोलते हैं कि ‘अरे राम !…. क्यों जा रहे हो ! कब आओगे ? फिर आइये ।’ तो जीवन अपना ऐसा होना चाहिए । इन तीन गुणों में वह ताकत है कि इनके होने से 6 दूसरे गुण बिन बुलाये आ जायेंगे । उद्यम आ जायेगा, साहस और धैर्य आयेगा, बुद्धि विकसित हो जायेगी, शक्ति का एहसास होगा और जीवन पराक्रमी बन जायेगा ।

तो शास्त्र का वचन हैः

उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः ।

षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र देवः सहायकृत ।।

ये 6 सद्गुण आ गये तो पद-पद पर परमात्मादेव सहायता करते हैं । ये 6 गुण जिसमे भी हैं उसके पास डिग्रियाँ हैं तो भी ठीक है और कोई डिग्री नहीं है तो भी ठीक है । ये गुण बिना डिग्री वाले को भी सफल बना देंगे ।

तो अपनी योग्यता डिग्रियों से जो कुछ होती है, वह होती है लेकिन वास्तव में इन सद्गुणों से ही योग्यता का सीधा संबंध आत्मशक्तियों से जुड़ जाता है । फिर डिग्री है तो ठीक है और नहीं है तो उस व्यक्ति का महत्त्व कम नहीं है ।

तो जीवन उद्यमी, उपयोगी और सहयोगी होना चाहिए । ऐसा परहितकारी व्यक्ति हर क्षेत्र में सफल हो जायेगा । और फिर उसमें ईश्वर का, धर्म का और सद्गुरु का सम्पुट मिल जाय तो जीवन सफल हो जाय । फिर तो वह तारणहार, जन्म-मरण से पार करावनहार महापुरुष बन जायेगा ।

उद्योग तो रावण भी करता था, हिटलर, सिकंदर ने भी उद्योग किया लेकिन वह दूसरों को अशांति देने वाला, स्वयं का पतन करने वाला उद्योग था । उद्योग ऐसा हो कि जिसका बहुजनहिताय उपयोग हो और सहयोग हो, जिससे आत्मशांति के, सत्यस्वरूप आत्मा के ज्ञान के करीब व्यक्ति आये । व्यक्ति जितना सत्यस्वरूप आत्मा के ज्ञान के करीब आयेगा उतना संसार का आकर्षण कम होता जायेगा ।

सत्संग से ऐसे सदगुण मिल जाते हैं कि बड़ी-बड़ी डिग्रियों वालों से भी सत्संगी आगे निकल सकते हैं । रामकृष्ण परमहंस के पास संत तुकाराम महाराज के पास कोई खास पढ़ाई की डिग्री नहीं थी, संत कबीर जी के पास कोई डिग्री नहीं थी लेकिन कबीर जी पर शोध-प्रबंध लिखने वाले अनेक लोगों ने डॉक्टर की उपाधि पा ली है । तुकाराम जी के अभंग, रामकृष्णजी के वचनामृत एम. ए. की पाठ्यपुस्तकों में पढ़ाये जाते हैं….. तो उनमें कितना बुद्धिमत्ता आ गयी !

उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति, पराक्रम ये सदगुण विकसित करो लाला-लालियाँ ! पद-पद पर अंतरात्मा-परमात्मा का सहयोग मिलेगा ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2020, पृष्ठ संख्या 20 अंक 325

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जितनी निष्कामता व प्रभु-प्रेम उतना सुख ! – पूज्य बापू जी


निष्कामता आयेगी तो नम्रता भी आयेगी और नम्रता आयेगी तो जैसे सागर में बिन बुलाये गंगा-यमुना आदि नदियाँ चली आती हैं ऐसे ही यश, धन, ऐश्वर्य, प्रसन्नता, खुशी – ये सब सद्गुण अपने-आप आ जायेंगे । निष्कामता में इतनी शक्ति है लेकिन कामना व स्वार्थ मं अंधे हुए लोग जानते नहीं । जहाँ नम्रता और निष्कामता में अहंकार आया तो फटकार और विफलता बिन बुलाये आयेगी ।

जिसके पास धन है, बुद्धि है, स्वास्थ्य है, योग्यता है वह अगर सत्कर्म नहीं करता है, ईश्वरप्रीत्यर्थ कर्म नहीं करता है तो वह स्वार्थी है, विषय-लम्पट है । वह दंड का पात्र है, अशांति का पात्र है, विनाश का पात्र है – ऐसा शास्त्र कहते हैं । सेवाकार्य करना यह अपनी भलाई के लिए हमारा कर्तव्य हो जाता है । और जिनको सेवा मिलती है वे लोग यदि उसे टालते रहते हैं या जी चुराते हैं, दूसरे के कंधे पर बंदूक रखते हैं उनकी मति में ही बंदूक जैसी अशांति हो जाती है । इसलिए अपना कार्य तो तत्परता से करें साथ ही दूसरे के कार्य में भी हाथ बँटायें ।

ज्यों-ज्यों चित्त निष्काम कर्म करेगा त्यों-त्यों उसकी क्षमताएँ बढ़ेंगी । कामना से आपकी क्षमता व योग्यताएँ कुंठित हो जाती हैं । एक व्यक्ति डंडा ले के पानी कूट रहा था । उससे पूछाः “अरे, क्या करता है ?”

बोलेः “मैं निष्काम कर्म करता हूँ, कुछ भी मिलने वाला नहीं है फिर भी कूट रहा हूँ ।”

अरे मूर्ख ! यह निष्काम नहीं, निष्प्रयोजन प्रवृत्ति है । निष्प्रयोजन प्रवृत्ति न करें, निष्काम प्रवृत्ति करें ।

दूसरे का दुःख मिटाना तो ठीक है लेकिन दूसरे के दुःख मिटाने पर भी इतनी जोरदार दृष्टि न रखे जितनी उसको सुख मिले इस पर रखे । जब सुख मिलेगा तब वह दुःख के सिर पर पैर रख ही देगा । और सुख तुम कहाँ से लाओगे ? तुम्हारे पास फैक्ट्री है क्या ? तुम सुख लाओगे महाराज !…. जितने-जितने तुम निष्कामी, प्रभुप्रेमी होओगे उतना-उतना तुम्हारा अंतःकरण सुखी होगा और दूसरे को सुखी करने के विचार भी उसी में उठेंगे ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2020, पृष्ठ संख्या 17 अंक 325

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शोक का कारण व उसके नाश का उपाय


कोई नहीं चाहता है कि वह शोकग्रस्त हो लेकिन प्रायः देखा जाता है कि लोग छोटी-छोटी बातों में शोक से बड़े संतप्त हो उठते हैं । तो शोक से बचने के लिए क्या उपाय किया जाय ? इस संदर्भ में महाभारत के शांति पर्व में भीष्म पितामह और धर्मराज युधिष्ठिर का बड़ा ही ज्ञानप्रद व शोकनाशक संवाद आता है ।

धर्मराज युधिष्ठिर ने पितामह भीष्म जी से पूछाः “दादा जी ! धन के नष्ट हो जाने तथा पत्नी, पुत्र या पिता के मर जाने पर जिस विचार से शोक दूर हो सकता है, वह क्या है ? वर्णन करने की कृपा करें ।”

भीष्म जी बोलेः “जब ऐसी कोई दुःखदायी परिस्थिति आये तो ‘ओह ! संसार कैसा दुःखमय है !’ यह सोचकर शोक को दूर करने का प्रयत्न करे । इस विषय में उदाहरणरूप से यह पुरातन इतिहास प्रसिद्ध है ।

पहले सेनाजित नामक एक राजा था । वह पुत्र-वियोग से शोकातुर हो रहा था । उसको देखकर ब्राह्मण ने कहाः “राजन ! तुम मूढ़ मनुष्य की तरह क्यों मोहित हो रहे हो ? शोक के योग्य तो तुम स्वयं ही हो, फिर दूसरे के लिए क्यों शोक करते हो ? एक दिन मैं, तुम और अन्य सब  लोग भी वहीं जायेंगे जहाँ से आये हैं ।”

किसके लिए शोक करें !

सेनाजित ने पूछाः “तपोधन ! आपके पास ऐसी कौन सी बुद्धि, तप, समाधि, ज्ञान या शास्त्रबल है जिसे पाकर आपको किसी प्रकार का विषाद नहीं होता ?”

ब्राह्मणः “देखो, इस संसार में उत्तम, मध्यम और अधम – सभी प्राणी दुःख से ग्रस्त हैं तथा तरह-तरह के कर्मों में  फँसें हुए हैं । ‘यह शरीर भी मेरा नहीं अथवा सारी पृथ्वी भी मेरी नहीं है । ये सब वस्तुएँ जैसी मेरी हैं, वैसी ही दूसरों की भी हैं ।’ ऐसा सोचकर इनके लिए मेरे मन में कोई व्यथा नहीं होती । इसी बुद्धि को पाकर न मुझे हर्ष होता है, न शोक ।

जिस प्रकार समुद्र में दो लकड़ियाँ मिलती हैं और फिर अलग-अलग भी हो जाती हैं, इसी प्रकार इस लोक में प्राणियों का समागम होता है तथा इसी तरह यह पुत्र, पौत्र, जाति, बंधु और संबंधियों की कल्पना हो जाती है । अतः उनमें विशेष स्नेह नहीं करना चाहिए क्योंकि एक दिन उनसे वियोग होना निश्चित है । तुम्हारा पुत्र किसी अज्ञात स्थान से आया था और अब अज्ञात देश को ही चला गया है । उसके जन्म से पूर्व न तो वह तुम्हें जानता था और न तुम उसे जानते थे । अतः तुम उसके कौन हो जो उसके लिए शोक कर रहे हो !

शोक का कारण

ससांर में विषय-तृष्णा से जो व्याकुलता होती है उसी का नाम दुःख है और उस दुःख का नाश हो जाना ही सुख है । उस सुख से बार-बार दुःख उत्पन्न होता रहता है । इस प्रकार सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख – यह सुख – दुःख का चक्र घूमता ही रहता है । इस समय तुम्हें सुख की स्थिति से दुःख में आना पड़ा है इसलिए अब तुम सुख प्राप्त करोगे । किसी प्राणी को सर्वदा सुख या सर्वदा दुःख की ही प्राप्ति नहीं होती । मनुष्य स्नेह की अनेक प्रकार की फाँसियों में बँधे हुए हैं और जल में बालू का  पुल बनाने वालों के समान अपने कार्यों में असफल होने से दुःख पाते रहते हैं । तेली लोग तेल के लिए जैसे तिलों को कोल्हू में पेरते हैं, उसी प्रकार सब लोग अज्ञानजनित कष्टों से पिस रहे हैं । मनुष्य पत्नी-पुत्र आदि कुटुम्ब के लिए संसार में तरह-तरह के पाप बटोरता है किंतु इस लोक में और परलोक में उसे अकेले ही उनका क्लेशमय फल भोगना पड़ता है । जिस प्रकार बूढ़ा हाथी दलदल में फँसकर प्राण खो बैठता है, उसी प्रकार सब लोग पुत्र, पत्नी और कुटुम्ब की आसक्ति में फँस के शोक-समुद्र में डूबे रहते हैं ।”

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2020, पृष्ठ संख्या 11, 17 अंक 325

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