Monthly Archives: January 2020

सब रोगों की औषधि : गुरुभक्ति


◆ हम लोगों के जीवन में दो तरह के रोग होते हैं- बहिरंग और अन्तरंग। बहिरंग रोगों की चिकित्सा तो डॉक्टर लोग करते हैं और वे इतने दुःखदायी भी नहीं होते हैं जितने कि अन्तरोग होते हैं।

◆ हमारे अन्तरंग रोग हैं काम, क्रोध, लोभ और मोह.भागवत में इस एक-एक रोग की निवृत्ति के लिए एक-एक औषधि बतायी है। जैसे काम के लिए असंकल्प, क्रोध के लिए निष्कामता, लोभ के लिए अर्थानर्थ का दर्शन, भय के लिए तत्त्वादर्शन आदि।

◆ औषति दोषान् धत्ते गुणान् इति औषधिः।

◆ जो दोष को जला दे और गुणों का आधान कर दे उसका नाम है औषधि। फिर, अलग-अलग रोग की अलग-अलग औषधि न बताकर एक औषधि बतायी और वह है अपने गुरु के प्रति भक्ति। एतद् सर्व गुरोर्भक्तया।

◆ यदि अपने गुरु के प्रति भक्ति हो तो वे बतायेंगे कि, बेटा ! तुम गलत रास्तें से जा रहे हो। इस रास्ते से मत जाओ। उसको ज्यादा मत देखो, उससे ज्यादा बात मत करो, उसके पास ज्यादा मत बैठो, उससे मत चिपको, अपनी ‘कम्पनी’ अच्छी रखो, आदि।

◆ जब गुरु के चरणों में तुम्हारा प्रेम हो जायगा तब दूसरों से प्रेम नहीं होगा। भक्ति में ईमानदारी चहिए, बेईमानी नहीं। बेईमानी सम्पूर्ण दोषों की व दुःखों की जड़ है। सुगमता से दोषों और दुःखों पर विजय प्राप्त करने का उपाय है ईमानदारी के साथ, सच्चाई के साथ, श्रद्धा के साथ और हित के साथ गुरु की सेवा करना।

◆ साक्षात् भगवान तुम्हारे कल्याण के लिए गुरु के रूप में पधारे हुए हैं और ज्ञान की मशाल जलाकर तुमको दिखा रहे हैं, दिखा ही नहीं रहे हैं, तुम्हारे हाथ में दे रहे हैं। तुम देखते हुए चले जाओ आगे…. आगे… आगे…।

◆ इसलिए, भागवत के प्रथम स्कंध में ही भगवान के गुणों से भी अधिक गुण महात्मा में बताये गये हैं, तो वह कोई बड़ी बात नहीं है। ग्यारहवें स्कंध में तो भगवान ने यहाँ तक कह दिया है किःमद्भक्तापूजाभ्यधिका।’मेरी पूजा से बड़ी है महात्मा की पूजा’।

अंतरात्मा में सुखी रहो और सुखस्वरूप हरि का प्रसाद बाँटो


(संत श्री आशाराम जी बापू के सत्संग प्रवचन से )

भारतीय संस्कृति कहती हैः

● सर्वस्तरतु दुर्गाणि सर्वो भद्राणि पश्यतु । सर्वः सद्बुद्धिमाप्नोतु सर्वः सर्वत्र नन्दतु ।।

● सर्वस्तरतु दुर्गाणि…. हम सब अपने दुर्ग से, अपने-अपने कल्पित दायरों से, मान्यताओं ते तर जायें ।

सर्वो भद्राणि पश्यतु… हम सब मंगलमय देखें ।

सर्वः सद्बुद्धिमाप्नोतु…. हम सबको सदबुद्धि प्राप्त हो । बुद्धि तो सबके पास है । पेट भरने की, बच्चे पैदा करने की, समस्या आये तो भाग जाने की, सुविधा आये तो डेरा जमाने की बुद्धि…. इतनी बुद्धि तो मच्छर में भी है, कुत्ता, घोड़ा, गधा, मनुष्य – सभी में है लेकिन हमारी संस्कृति ने कितनी सुंदर बात कही ! हम सबको सद्बुद्धि प्राप्त हो ताकि सत्य (सत्यस्वरूप परमात्मा ) में विश्रांति कर सकें ।

सर्वः सर्वत्र नन्दतु…. सभी हर जगह आनंद से रहें । हम सब एक दूसरे को मददरूप हों ।

● तो उत्तम साधक को उचित है कि अपने से जो छोटा साधक है उसको आध्यात्मिक रास्ते में चलने में मदद करे और छोटे साधक का कर्तव्य है कि उत्तम साधक, ऊँचे साधक का सहयोग करे । जो ज्ञान-ध्यान में छोटा है वह साधक सहयोग क्या करेगा ? जैसे सद्गुरु ज्ञान-ध्यान में आगे हैं और शिष्य छोटा साधक है । वह सद्गुरु की सेवा कर लेता है…. अपने गुरु मतंग ऋषि के आश्रम में शबरी बुहारी कर देती है तो मतंग ऋषि का उतना काम बंट जाता है और वे आध्यात्मिकता का प्रसाद ज्यादा बाँटते हैं… तो सद्गुरु की सेवा करने वाले शिष्य भी पुण्य के भागी बनते हैं । इस प्रकार छोटे साधक सेवाकार्य को और आगे बढ़ाने में ऊँचे साधकों को मददरूप बनें ।

● जो सेवा में रुचि रखता है उसी का विकास होता है । आप अपना व्यवहार ऐसा रखो कि आपका व्यवहार तो हो एक-दो-चार दिन का लेकिन मिलने वाला कई वर्षों तक आपके व्यवहार को सराहे, आपके लिए उसके हृदय से दुआएँ निकलती रहें । स्वयं रसमय बनो, औरों को भी रसमय करो । स्वयं अंतरात्मा में सुखी रहो और दूसरों के लिए सुखस्वरूप हरि के द्वारा खोलने का पुरुषार्थ करो । स्वयं दुःखी मत रहो, दूसरों के लिए दुःख के निमित्त मत बनो । न फूटिये न फूट डालिये । न लड़िये न लड़ाइये, (अंतरात्मा परमात्मा से) मिलिये और मिलाइये (औरों को मिलाने में सहायक बनिये) ।

● स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2019, पृष्ठ संख्या 2, अंक 322

लक्ष्य ठीक तो सब ठीक..


गुरु-सन्देश – लक्ष्य न ओझल होने पाये,कदम मिलाकर चल।सफलता तेरे चरण चूमेगी,आज नहीं तो कल ।।

▪

एक मुमुक्ष ने संत से पूछा :”महाराज मै कौन सी साधना करूँ ?”संत बड़े अलमस्त स्वभाव के थे । उनकी हर बात रहस्यमय हुआ करती थी।उन्होंने जवाब दिया : “तुम बड़े वेग से चल पड़ो तथा चलने से पहले यह निश्चित कर लो कि मैं भगवान के लिए चल रहा हूँ । बस,यही तुम्हारे लिए साधना है।”

▪

“महाराज ! क्या मेरे लिए बैठकर करने की कोई साधना नहीं है ?””है क्यों नहीं । बैठो और निश्चय रखो कि तुम भगवान के लिए बैठे हो ।””भगवन ! मैं कुछ जप न करूँ ?””करो, भगवन्नाम का जप करो और सोचो कि मैं भगवान के लिए जप कर रहा हूँ ।””तो क्या क्रिया का कोई महत्व नहीं ? केवल भाव ही साधना है ?

▪

आखिर में अपने गूढ़ वचनों का रहस्योदघाटन करते हुए संत ने कहा : “भैया ! क्रिया की भी महत्ता है परंतु भाव यदि भगवान से जुड़ा है और लक्ष्य भी भगवान ही हैं तो शबरी की झाड़ू-बुहारी भी महान साधना हो जाती है । हनुमानजी का लंका जलाना भी साधना हो जाती है । अर्जुन का युद्ध करना भी धर्मकार्य और पुण्य कर्म हो जाता है ।”

✍🏻

सीख :- “सावधानी ही साधना है”

📚

लोक कल्याण सेतु/मई-जून/२००७