Monthly Archives: February 2020

अरे पकड़ो-पकड़ो ! चोर जा रहा है….


एक बार महमूदपुर गाँव (हरियाणा) में एक मंडली का कथा-कीर्तन हो रहा था । स्वामी नितानंद के कानों में भी भक्तिरस से सिक्त वह मधुर ध्वनि पड़ी तो वे भी वहाँ पहुँच गये । मंडली के प्रधान ने उन्हें सितार लेकर कुछ गाने को कहा । प्रतिदिन नितानंद जी के अलबेले व्यवहार को देखने वाले गाँव वालों ने कहाः “इन्हें सितार मत दीजिये, कहीं तोड़ न दें ।” नितानंद ने सितार हाथ में लिया और संगीत के साथ आध्यात्मिक मस्ती में यह भजन उनके होठों से निर्झर की तरह बहने लगाः

सोई जन मस्ताना-मस्ताना, जिन पाया पद निरवाना ।….

अंतर की गहराई से निकले उनके बोल आत्मचैतन्य की मिठास बिखेर रहे थे । भजन पूरा कर उन्होंने सितार दिया और चल दिये ।

मंडली के मुख्य महंत बहुत प्रभावित हुए । दूसरे दिन वे नितानंद जी के पास गये और उस भजन का तात्पर्य पूछकर लिखने लगे । उन्होंने नितानंद से ईश्वर अनुभूति का मार्ग पूछा । संत कुछ कहते उससे पहले महंत की दृष्टि उस ओर आ रहे ग्वालों पर पड़ी । महंत जी तुरंत उठकर चलने लगे । स्वामी नितानंद जोर से हँसते हुए कहने लगेः “अरे पकड़ो-पकड़ो ! चोर जा रहा है ।”

लोगों ने कहाः “स्वामी जी ! ये तो महंत जी हैं, आप यह कैसी अजीब बात कह रहे हैं ?”

इन अलमस्त साधुपुरुष ने मुस्कराते हुए कहाः “महंत जी के मन में यह भाव आया कि ‘मैं एक महंत होकर एक अप्रतिष्ठित संत से निर्देश ले रहा हूँ ।’ और वे अपने इस अहंभाव को छुपाकर चोरों की भाँति यहाँ से चलते बने इसलिए मैंने ऐसा कहा ।”

लोगों ने महंत जी को शपथ दिलाकर उनके मन के भावों को सच-सच प्रकट करने की प्रार्थना की । महंत जी ने कहाः “नितानंद जी ने बिल्कुल सत्य बात कही है । भाइयो ! आज मुझे अनुभव हुआ कि पद-प्रतिष्ठा, धन, सत्ता – किसी भी प्रकार का अहंकार इतना धोखेबाज है कि अंतर्यामी परमात्मा ऐसे संतों के रूप में धरती पर आ के हमें अपनी ओर आकर्षित करके बुला भी लेता है लेकिन यह अहंकार हमें वहाँ से भी रीता ही रखकर भगा के ले जाता है ।”

नितानंद जी बोलेः “महंत ! मैं यही अहंकार परमात्मा में लीन करने की बात तुम्हें बताने वाला था किंतु तुच्छ अहं इसके पहले ही तुम्हें यहाँ से ले जा रहा था ।  परमात्मा में अपने व्यक्तित्व को, अहं को खो दिया तो मुझे निर्वाण पद का सुदृढ़ निश्चय अर्थात् ब्रह्म का ज्ञान हुआ । तुम भी ऐसा अभ्यास करो ।”

संत का अंतर्यामित्व एवं ऊँची अनुभूति देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोग नतमस्तक हुए । उन्हें सीख भी मिली की परम सत्य को पाये हुए ऐसे संतों को अपनी मति से तौला नहीं जा सकता । अतः उनके बारे में कुछ मान्यता बनाने के बजाय उनके ज्ञान का लाभ उठाकर अपना जीवन धन्य करना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2020, पृष्ठ संख्या 7 अंक 326

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गौण और मुख्य अर्थ में सेवा क्या है ?


सांसारिक कर्तव्यपूर्ति मोह के आश्रित एवं उसी के द्वारा प्रेरित होने से गौण कर्तव्यपूर्ति कही जा सकती है, मुख्य कर्तव्यपूर्ति नहीं । अतः वह गौण या स्थूल अर्थ में ‘सेवा’ कहलाती है, मुख्य अर्थ में नहीं । वेतन लेकर रास्ते पर झाड़ू लगाने  वाली महिला का वह कार्य नौकरी अथवा ‘डयूटी’ कहलाता है सेवा नहीं । घर में झाड़ू लगाने वाली माँ या बहन की वह कर्तव्यपूर्ति गौण अर्थ में सेवा कहलायेगी ।  परंतु शबरी भीलन द्वारा गुरु मतंग ऋषि के आश्रम परिसर की झाड़ू बुहारी वेतन की इच्छा या पारिवारिक मोह से प्रेरित न होने के कारण एवं ‘सत्’ की प्राप्ति के उद्देश्यवश मुख्य अर्थ में सेवा कहलायेगी और यही साधना-पूजा भी मानी जायेगी । यहाँ तीनों महिलाओं की क्रिया बाह्यरूप से एक ही दिखते हुए उद्देश्य एवं प्रेरक  बल अलग-अलग होने से अलग-अलग फल देती है ।

पहली महिला को केवल वेतन मिलता है, माता या बहन को पारिवारिक कर्तव्यपूर्ति का मानसिक संतोष और परिवार के सदस्यों का सहयोग मिलता है परंतु शबरी भीलन को अपने अंतरात्मा की तृप्ति-संतुष्टि, अपने उपास्य ईश्वर के साकार रूप के दर्शन व ईश्वरों के भी ईश्वर सच्चिदानंद ब्रह्म का ‘मैं’ रूप में साक्षात्कार भी हो जाता है । प्रथम दो के कर्तव्य में परमात्म-भाव, परमात्म-प्रेम एवं परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य की प्रधानता न होने से बंधन बना रहता है किंतु शबरी भीलन की सेवा में कर्म करते हुए भी वर्तमान एवं पूर्व के कर्मों के बंधन से मुक्ति समायी हुई है । अतः केवल ईश्वरप्राप्ति के लिए, ब्रह्मज्ञानी महापुरुष के अनुभव को अपना अनुभव बनाने के लिए अद्वैत वेदांत के सिद्धान्त के अनुसार सर्वात्मभाव से, ‘मेरे सद्गुरुदेव, मेरे अंतर्यामी ही तत्त्वरूप से सबके रूप में लीला-विलास कर रहे हैं’ इस दिव्य भाव से प्रेरित हो के जो सेवा की जाती है वही पूर्ण अर्थ में सेवा है, निष्काम कर्मयोग है । अतः पूज्य बापू जी की प्रेरणा से देश-विदेशों में संचालित समितियों का नाम है ‘श्री योग वेदांत सेवा समिति’ ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2020, पृष्ठ संख्या 16 अंक 326

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महामूर्ख से कैसे बने महाविद्वान ? – पूज्य बापू जी


एक लड़का महामूर्ख था । उसका नाम था पाणिनि । उसे विद्यालय में भर्ती किया तो 14 साल की उम्र तक पहली कक्षा में नापास, नापास, नापास…. । बाप ने बोला कि “इससे तो मर जा !”

माँ ने कहाः “मेरे पेट से तू पैदा हुआ, इससे अच्छा होता कि मेरे पेट से पत्थर पैदा होता तो तेरे बाप की नाराजगी नहीं सहनी पड़ती ।”

हर वर्ष पिता की नाराजगी और डाँट मिलती थी । 14-15 साल की उम्र में पिता-माता की डाँट से होने वाली ग्लानि से कुएँ में कूद के आत्महत्या कने का विचार किया । कुएँ पर गया । महिलाएँ पानी खींचती थीं तो रस्सी से पनघट पर निशान पड़ गये थे, जिन्हें देखकर उन्हें विचार आया कि ‘रस्सी के आने जाने से जड़ पत्थर अंकित हुआ तो अभ्यास से मेरी जड़ मति भी सुजान होगी ।’

खोज लिया किन्हीं गुरु जी को । उन्होंने उसे शिवजी के ‘ॐ नमः शिवाय ।’ मंत्र के छंद, देवता, बीज आदि बताकर जप-अनुष्ठान की रीत बता दी और उसका जीवन बदल गया ।

जैसे डायनेमो घूमता है तो ऊर्जा बनती है, ऐसे ही मंत्र बार-बार जपते हैं तो आध्यात्मिक ऊर्जा पैदा होती है, प्राणशक्ति और जीवनीशक्ति – दोनों विकसित होती हैं । परमात्मा से जो चेतना आती है वह जप करने से ज्यादा आती है इसलिए मंत्रदीक्षा का महत्व है । मंत्रजप से शरीर के रोग, मन की चंचलता और बुद्धि के दोष भी मिटते हैं ।

जहाँ बल का खजाना है वहाँ गुरुकृपा से मंत्र ने पहुँचा दिया । शिवजी की आराधना की । शिवजी तो नहीं आये लेकिन शिवजी का नंदी आ गया ।

नंदी ने कहाः “भगवान शिवजी समाधि में हैं । तुम अपना ध्यान भजन चालू रखो । शिवजी समाधि से उठेंगे और आनंदित होकर डमरू बजायेंगे । डमरू से जो ध्वनि निकलेगी उसका जिसकी जो मनोकामना होगी उसी के अनुसार अर्थ लगेगा ।”

वह पाणिनि नामक लड़का बैठ गया जप करने । गुरु के दिये हुए मंत्र का जप करते-करते ध्यानस्थ हो गया । शिवजी समाधि से उठे, नृत्य किया और 14 बार डमरू बजाया ।

नृत्तावासने नटराजराजो ननाद ढक्कां नवपञ्चवारम् ।

उद्धर्तुकामः सनकादिसिद्धानेताद्विमर्शे शिवसूत्रजालम् ।। (नंदिकेश्वरकृत काशिका)

डमरू की ध्वनि से सनकादि ऋषियों को ‘शिवोऽहम्, सोऽहम्….’ का अर्थ मालूम हुआ लेकिन इसने तो उससे 14 सूत्र प्राप्त किये – अइउण, ऋलृक, एओङ्, ऐऔच, हयवरट्, लण् आदि । इनसे संस्कृत का व्याकरण बनाया । वह लड़का संस्कृत का बड़ा विद्वान बन गया । पाणिनि को मंत्र मिल गया तो बन गये पाणिनि मुनि ! और ऐसी शक्तियाँ जगीं कि उन्होंने संस्कृत का व्याकरण बना दिया ।

उसके बाद उनके व्याकरण की बराबरी करने वाला कोई व्याकरण नहीं बना । भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू भी उनके व्याकरण का सम्मान करते थे । पाणिनि मुनि की प्रशंसा करते हुए पंडित नेहरू बोलते हैं कि ‘कितना महान व्याकरण है इनका !’ विद्यार्थी पहली से लेकर आचार्य (एम.ए.) तक संस्कृत पढ़े तो पाणिनि मुनि का व्याकरण काम में आता है ।

मंत्रजप से चंचलता मिटती और योग्यताएँ विकसित होती हैं । यह मंत्र की कैसी शक्ति है ! जब महामूर्ख में से महाविद्वान बन सकता है तो जीवात्मा से परमात्मा का प्यारा ब्रह्मवेत्ता बन जाय तो क्या आश्चर्य !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2020, पृष्ठ संख्या 19 अंक 326

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