‘जो सब बलों में श्रेष्ठ बल है वह प्रज्ञा (बुद्धि का शुद्ध
किया हुआ, सुविकसित और सुसंस्कृत रूप, ज्ञानदृष्टि, अंतर्दृष्टि, आत्मिक ज्ञान से
सुसम्पन्न मति) का बल कहलाता है ।
विश्व में सबसे बड़ा बल है बुद्धि का बल ।
आध्यात्मिक उन्नति के अथवा बुद्धिबल के विकास के कुछ लक्षण हैं-
पहला-
संसार के ऐश-आराम, प्रलोभन होने के बाद भी मनुष्य उनमें आसक्त न हो तो समझना कि
बुद्धि का बल विकसित हो रहा है ।
दूसरा-
भगवान के प्रति, सत्शास्त्रों और सत्पुरुषों के प्रति प्रीति का विकास हो तो समझो
बुद्धि ठीक विकसित होने के रास्ते है ।
तीसरा
लक्षण है, धीरता-वीरता आयेगी, अति भावुकता नहीं होगी । अति भुखमरी अथवा अति आहार
नहीं करेगा ।
चौथा
है, मानसिक अशांति नहीं रहेगी ।
पाँचवाँ
लक्षण है, गहरे ध्यान में कभी-कभी कुछ दिव्य अनुभूतियाँ होने लगेंगी चित्त में और
समता बढ़ती जायेगी । विचार साकार होने लगेंगे, संकल्प फलने लगेंगे । अपनी
इच्छापूर्ति हो जाय और दूसरे के ऊपर कृपादृष्टि हो तो उसकी भी इच्छापूर्ति हो जाय
ऐसा इच्छापूर्ति का सामर्थ्य आ जायेगा । ईश्वर के बारे में, शास्त्र के बारे में,
किसी घटना के बारे में संदेह हो तो शुद्ध हृदयवाले ध्यानस्थ होकर इसका समाधान पा
लेते हैं ।
छठी
बात, प्रार्थना में बैठोगे तो आपकी प्रार्थना इष्ट तक, सद्गुरु तक बिल्कुल पहुँची
हुई आपको महसूस होगी ।
धारणाशक्ति
बढ़ने से आपके शरीर में हलकापन लगेगा । वाणी मधुर और आकर्षक हो जायेगी । चित्त
शांत रहेगा । सुख-दुःख सपना है और चैतन्यस्वरूप, ब्रह्मस्वभाव अपना है ऐसा मानोगे
। भविष्य की घटनायें आपके आगे प्रगट होने लगेंगी, व्यक्तित्व में निखार आयेगा तथा
व्यक्तित्व का अहंकार विसर्जित होने लगेगा । सारी सफलताओं का मूलमंत्र है बुद्धि
का विकास !
पापं प्रज्ञां नाशयति क्रियमाणं पुनः पुनः ।।
पुण्यं प्रज्ञां वर्धयति क्रियमाणं पुनः पुनः ।। (महाभारत, उद्योग पर्वः 35.61.62)
बार-बार
पाप करने से बुद्धि दब्बू हो जाती है, नष्ट हो जाती है तथा बार-बार पुण्यकर्म करने
से प्रज्ञा का विकास होता है और बुद्धि विलक्षण लक्षणों से सम्पन्न होती है ।
मनुष्य की बुद्धि जितनी ऊँची होती है उतना वह महान होता है और बुद्धि जितनी छोटी
होती है उतना वह छोटा होता है ।
स्रोतः
ऋषि प्रसाद, मार्च 2020, पृष्ठ संख्या 4 अंक 327
सम्पूर्ण जगत है क्षेत्र और उसको जानने वाला है क्षेत्रज्ञ
साख्य
शास्त्र के अनुसार प्रकृति से तीन गुणों का विकास होता हैः सत्वगुण (ज्ञानशक्ति),
रजोगुण (क्रियाशक्ति) और तमोगुण (स्थायित्वशक्ति) । प्रकृति मूल कारण है, वह किसी
का कार्य नहीं है । उसमें त्रिगुण साम्यावस्था में रहते हैं । प्रकृति में क्षोभ
होने पर उससे महत्-तत्त्व (समष्टि बुद्धि) होता है, महत्-तत्तव से अहंकार और
अहंकार से पंचभूत । इस प्रकार महत्-तत्त्व और अहंकार कार्य भी है और कारण भी हैं ।
पंचभूत प्रकृति के अंतिम कार्य हैं अतः वे किसी के कारण नहीं हैं । इन्द्रियाँ,
शरीरादि पंचभूतों के कार्य नहीं हैं बल्कि विकार हैं । प्रकृति के हर कार्य-स्तर
पर गुणों का विकास होता है । हर कार्य सत्त्वगुणी, रजोगुणी, तमोगुणी – तीन-तीन
विभागों में बँट जाता है । यह प्रक्रिया वेदांत में भी स्वीकार्य है ।
अब
हम विवेक की स्पष्टता के लिए क्षेत्र के इन 31 तत्त्वों पर थोड़ा-थोड़ा विचार करते
हैं ।
1. पंचमहाभूत और उनका विस्तार
प्रकृति
के अंतिम कार्य पंचमहाभूत हैं – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश । नाम-रूप
आकारयुक्त जितने भी पदार्थ या वस्तुएँ हैं वे सब इन्हीं के विकार हैं । वृक्ष,
पशु, पक्षी, कीट-पतंग, मनुष्य, नदी, पर्वत आदि सब वस्तुएँ इन्हीं पंचमहाभूतों से
बनती हैं और उपादान (उपादान यानि वह सामग्री जिससे कोई वस्तु तैयार होती है, जैसे
घड़े का उपादान मिटटी है) रूप से ये सब वस्तुओं में व्यापक है ।
पृथ्वी
आदि वस्तुरूप जो हमारी इन्द्रियों से जानी जाती है और जो पृथ्वी आदि पंचभूत तत्त्व
है, उनमें अंतर है । वस्तुओं में ये पाँचों तत्त्व मिले रहते हैं । तकनीकी भाषा
में बोलें तो वस्तुओं में पंचमहाभूत पंचीकृत (एक विशिष्ट प्रक्रिया से मिश्रित)
हैं किंतु जो तत्त्व हैं वे अपंचीकृत रूप में हैं । उनको ‘तन्मात्र’ अर्थात् ‘सिर्फ वही’ भी कहते हैं । इनका
अनुभव जिन रूपों में किया जाता है उनको ‘पंचतन्मात्र’
कहते हैं । आकाश का तन्मात्र ‘शब्द’ है, वायु का तन्मात्र ‘स्पर्श’ है, अग्नि का
तन्मात्र ‘रूप’ है, जल का तन्मात्र ‘रस’ है और पृथ्वी का तन्मात्र ‘गंध’ है ।
ये पंचतन्मात्र तीन स्थानों में दिख पड़ते हैं – विषय में,
इन्द्रियों में और मन में । विषय में उनका जो रूप है वह ‘अधिभूत’ कहलाता है और
इन्द्रिय एवं मन में जो रूप है वह ‘अध्यात्म’ कहलाता है । इसके अतिरिक्त एक रूप
इनका और भी मानना पड़ता है और वह है अधिदैव । ‘अधिदैव’ एक ओर तो अधिभूत और
अध्यात्म के संयोग में हेतु बनता है और दूसरी ओर अध्यात्म को अधिभूत में व्यवस्थित
(दृढ़ता से स्थित) करता है । प्रत्येक तन्मात्र के ये तीन रूप तीन गुणों के कारण
हुए हैं- सत्त्वगुण से अध्यात्म, रजोगुण से अधिदैव और तमोगुण से अधिभूत ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जनवरी 2020, पृष्ठ संख्या 25 अंक 325
(पिछले अंक में हमने तन्मात्र व उनके दिखने के तीनों स्थानों
(विषय, इन्द्रिय और मन) के बारे में एवं उनके अधिभूत, अध्यात्म एवं अधिदैव रूप के
बारे में जाना । इस अंक में उसी विषय को स्पष्टता को आगे उदाहरण के साथ समझेंगे-)
उदाहरणार्थः अग्नि या तेज के तन्मात्र ‘रूप’ को लें । इसका अधिभूत रूप है विषय-वस्तु का रंग और आकार, इसका अध्यात्म रूप ‘चक्षु’ है और अधिदैव रूप ‘सूर्य’ है । इसी प्रकार प्रत्येक तन्मात्र के तीन-तीन रूप हैं । अध्यात्म, अधिदैव और अधिभूत के इस तरह पाँच ‘त्रिक’ बनते हैं । प्रत्येक त्रिक को त्रिपुटी कहते हैं । ज्ञानेन्द्रियों की इन त्रिपुटियों को सारणी में प्रदर्शित किया गया है ।
ज्ञानेन्द्रियों की त्रिपुटी
पंचभूत
तन्मात्र
अधिभूत
अध्यात्म
अधिदैव
आकाश
शब्द
शब्द विषय
श्रोत्रेन्द्रिय
दिशा
वायु
स्पर्श
स्पर्श विषय
त्वगिन्द्रिय
वायुदेव
अग्नि
रूप
रूप विषय
चक्षुरिन्द्रिय
सूर्यदेव
जल
रस
रस विषय
रसनेन्द्रिय
वरूणदेव
पृथ्वी
गंध
गंध विषय
घ्राणेन्द्रिय
अश्विनी कुमार
वैज्ञानिक लोग पदार्थ की छानबीन करके तत्त्व का निश्चय करते
हैं । यह आधिभौतिक प्रणाली है । प्राचीन भारतीय प्रणाली यह है कि हम अपने अनुभव की
छानबीन करके तत्त्व का निश्चय करते हैं । यह आध्यात्मिक प्रणाली है ।
ज्ञानेन्द्रिय किनसे बनी हैं ?
ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रमाण हैं । श्रोत्र
से केवल शब्द ही ज्ञात होता है और शब्द किसी अन्य इन्द्रिय से ज्ञात नहीं हो सकता
। अतः शब्द के विषय में केवल श्रोत्र ही प्रमाण है । यह इसलिए है कि श्रोत्र केवल
आकाश का तन्मात्र ही है । इसी प्रकार प्रत्येक ज्ञानेन्द्रिय में एक-एक तत्त्व का
तन्मात्र ही है । इसी बात को यों कहते हैं कि ज्ञानेन्द्रियाँ अपंचीकृत महाभूतों
से बनी हैं ।
पंचीकरण क्या है ?
एक गुलाब का फूल । उसमें पाँचों तत्त्व उपस्थित हैं किंतु
नेत्र केवल उसका रूप देखते हैं, त्वचा उसकी कोमलता जानती है, रसना उसका स्वाद
बताती है, नाक उसकी गंध बताती है और कान उसका चट-चट शब्द बताते हैं । यद्यपि एक-एक
भूत से बनी ज्ञानेन्द्रियाँ फूल के एक-एक गुण का ही प्रकाश करती हैं तथापि फूल में
पाँचों भूत हैं और उन सब ज्ञानों का समन्वित रूप फूल का ज्ञान है । यह ज्ञान का
अंतःकरण से होता है । इसलिए फूल में और मन में दोनों में पंचभूत हैं । फूल में
पंचीकृत रूप में हैं और मन में अपंचीकृत रूप में ।
फूल की तरह सारे पदार्थ पंचभूतों की रचना हैं । पाँचों भूतों
के परस्पर मिलने की प्रक्रिया को पंचीकरण कहते हैं । जिस पदार्थ में जिस भूत की
प्रधानता रहती है उसमें उस तत्त्व का 50 % भाग रहता है । शेष 50 % में बचे हुए चार
तत्त्वों का बराबर-बराबर संयोग रहता है । मिलने की यह प्रक्रिया ‘पंचीकरण’ कहलाती
है । उदाहरणार्थ – मिट्टी में आधा भाग पृथ्वी का है और शेष आधे भाग में जल, तेज,
वायु और आकाश बराबर-बराबर भाग में मिले
हुए हैं ।
हमारा स्थूल शरीर भी पंचीकृत महाभूतों का विकार है ।
ज्ञानेन्द्रियाँ और मन (अंतःकरण-चतुष्टय) अपंचीकृत महाभूतों से बने हैं ।
मन पाँचों तन्मात्रों को ग्रहण करता है । ज्ञानेन्द्रियों से
विशेष बात मन की यह है कि ज्ञानेन्द्रियाँ तो केवल अपने-अपने विषय का और वह भी
विद्यमान विषय का प्रकाश करती हैं जब मन पाँचों विषयों का भूत-भविष्य-वर्तमान के
विषयों का प्रकाश करता है । मन में स्मृति (चित्त) और कल्पना (बुद्धि) विशेष है ।
इस पर भी मन से एक समय में एक विषय का ही ग्रहण होता है । अतः मन अपंचीकृत
महाभूतों का संघात (समूह) है ।
पंचमहाभूतों के सात्त्विक तन्मात्र से मन और ज्ञानेन्द्रियाँ
बनती हैं, राजस तन्मात्र से कर्मेन्द्रियाँ बनती हैं तथा तामस तन्मात्र से विषय और
बाह्य पदार्थ बनते हैं ।
मन चार प्रसिद्ध हैं- मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार । इसी को अंतःकरण चतुष्टय कहते हैं ।
ज्ञानेन्द्रियाँ पाँच हैं– श्रोत्र (कान) त्वक् (त्वचा), चक्षु (नेत्र), रसना (जिह्वा) और घ्राण (नासिका) ।
कर्मेन्द्रियाँ पाँच हैं– वाक्, पाणि (हाथ), पाद (पैर), उपस्थ (जननेन्द्रिय) और पायु (गुदा) ।
प्राण दस हैं- इनमें पाँच मुख्य प्राण हैं – प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान । पाँच उपप्राण हैं – नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनंजय ।
आकाश से राजस तन्मात्र से ‘वाक्’ कर्मेन्द्रिय बनती है, जिससे
शब्द बोलते हैं और ‘व्यान’ नामक प्राण बनता है जो शरीर के सब अंगों में रहकर
संधियों की क्रिया की व्यवस्था करता है । वायु के राजस तन्मात्र से ‘पाणि (हाथ)
इन्द्रिय बनती है, जिससे आदान-प्रदानरूप कर्म होता है और समान नामक प्राण बनता है
जिसका स्थान नाभि-प्रदेश है । इसी प्रकार तेज के राजस तन्मात्र से ‘पाद’ (पैर)
कर्मेन्द्रिय बनती है, जिससे गमनागमनरूप कर्म होता है तथा उदानवायु का निर्माण
होता है जो हृदय से ऊपर के भाग में विचरण करता है । जल के राजस तन्मात्र से ‘जननेन्द्रिय’
और प्राण की रचना होती है । जननेन्द्रिय से मूत्र-त्याग एवं सन्तानोत्पत्तिरूप
कर्म होता है और प्राण हृदय-प्रदेश में रहता है । पृथ्वी के राजस तन्मात्र से ‘गुदा’
कर्मेन्द्रिय बनती है, जिससे मल-त्याग और वायु-निष्कासनरूप कर्म होता है तथा
अपानवायु का निर्माण होता है, जिसके कार्य का स्थान गुदा है । शरीर में इन सबके
गुण धर्म प्रत्यक्ष हैं ।
पंचभूतों के राजस तन्मात्रों से बनी कर्मेन्द्रियाँ, प्राण आदि से संबंधित सारणी
पंचभूत
कर्मेन्द्रिय
प्राण
प्राण का कार्य-स्थल
आकाश
वाक्
व्यान
सभी अंग
वायु
हाथ
समान
नाभि-प्रदेश
तेज
पैर
उदान
हृदय से ऊपर का भाग
जल
जननेन्द्रिय
प्राण
हृदय-प्रदेश
पृथ्वी
गुदा
अपान
गुदा
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2020 पृष्ठ संख्या 22 अंक 327
पूज्य
बापू जीः नमक की पुतली समुद्र को जाँचने जाये तो गायब होगी की रहेगी ? गायब हो जायेगी । ऐसे
ही मन भगवान में जाते-जाते ब्रह्ममय हो जाता है । जैसे नमक की पुतली समुद्र को
खोजे तो समुद्रमय हो जाती है, ऐसे ही मन शांत होते-होते, भगवान को खोजते-खोजते
भगवन्मय हो जाता है । फिर अपने पुराने स्वभाव और भगवत्स्वभाव से जीता रहता है ।
देखो,
सब मन में आता है लेकिन मन जब गुरु की प्रसादी में, गुरुकृपा में, भगवान में जाता
है तो फिर मन अमनी भाव को प्राप्त होता है । जैसे लोहा पारस को छुआ दिया और फिर
लोहे की आकृति तो रहेगी लेकिन उसको जंग नहीं लगता । ऐसे फिर उसका मन अमनी भाव को
प्राप्त हो जाता है, ब्रह्मभाव को प्राप्त हो जाता है । ब्राह्मी स्थिति प्राप्त
कर…. फिर उसके द्वारा समाज का सचमुच में भला होता है ।
प्रश्नः
सच्ची भलाई कैसे हो ?
पूज्य
श्रीः सच्चा भला तो आत्मसाक्षात्कारी पुरुषों द्वारा, भगवत्प्राप्त महापुरुषों
द्वारा ही हो सकता है । दूसरा कर ही नहीं सकता सच्चा भला । दूसरे लोग तो काल्पनिक
भला करेंगे । जिनको सत्यस्वरूप ईश्वर मिले हैं वे ही सचमुच में हमारा सच्चा भला कर
सकते हैं । ‘जगत की भलाई, जगत की भलाई….’ कितनी ही भलाई करो, काल्पनिक
भलाई करोगे । अपनी भलाई का स्वार्थ भूलने के लिए जगत की भलाई करो लेकिन भलाई
करते-करते भलाई करने वाला ‘मैं कौन हूँ ?’ इसको खोजते-खोजते अपने ‘मैं कौन हूँ ?’
इसको खोजते-खोजते अपने ‘मैं को ईश्वर में डुबोये तो फिर जगत की भलाई असली होगी ।
नहीं तो वाहवाही के लिए तो कई लोग करते हैं । सब समाज-सुधारक, समाजसेवक, आगेवान सब
जगत का भला करने लगे हैं लेकिन उन बेचारों का अपना भला हुआ कि नहीं, जरा देखो ! सब
दूसरों को सुधारने का ठेका ले लेते हैं । अपने को तो सुधारो ! अपने मन को भगवान के
सुख में डुबाओ फिर करो सुधार । और जो भी सेवा करो तो भगवान की प्रीति के लिए करो
तो फिर मन भगवान में लगेगा ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2020, पृष्ठ संख्या 34 अंक 327