क्यों होती हैं महामारियाँ ?

क्यों होती हैं महामारियाँ ?


आयुर्वेद के ग्रंथ चरक संहिता (विमान स्थानः 3.6) के अनुसार एक ही समय में, एक ही समान लक्षणों वाले तथा अनेक लोगों का विनाश करने वाले रोगों का उदय वायु, जल, देश (स्थान) और काल के विकृत करने से होता है ।

1. विकृत वायुः ऋतु-विपरीत बहने वाली अति निश्चल या वेगवाली, अति शीत या उष्ण, अत्यंत रूक्ष तथा मलिन गंध, वाष्प, बालू, धूलि और धूएँ से दूषित हुई वायु को रोगकारी मानें ।

वर्तमान में बढ़ती वायु-विकृति अनेक प्रकार की बीमारियों को जन्म दे रही है । मार्च 2020 में अंतर्राष्ट्रीय जर्नल ‘कार्डियोवैस्क्युलर रिसर्च’ में प्रकाशित हुए शोध के अनुसार प्रतिवर्ष 88 लाख लोग वायु-प्रदूषण से मर रहे हैं । ‘डॉक्टर्स फॉर क्लीन एयर’ समूह ने कहा है कि लम्बे समय से प्रदूषित वातावरण में रहने से अंगों की पूर्णरूप से कार्य करने की क्षमता घटती है एवं संक्रमित होने व रोगों की चपेट में आने की सम्भावना बढ़ती है । महामारी के परिप्रेक्ष्य में ऐसे लोगों को गम्भीर जटिलताओं का सामना करना पड़ सकता है ।’

2. विकृत जलः जो अत्यंत विकृत गंध व विकृत वर्ण वाला हो, पीने  स्वादयुक्त न हो – अप्रिय हो, उसे दूषित जल समझें ।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दूषित पानी से अतिसार, हैजा, पेचिश, टाइफाइड और पोलियो जैसी बीमारीयाँ फैल सकती हैं ।

3. विकृत देशः जिस देश (स्थान, क्षेत्र या राष्ट्र) के स्वाभाविक वर्ण, गंध, रस, स्पर्श विकृत हो गये हों, जहाँ धर्म, सत्य, लज्जा, सदाचार, सुस्वभाव और सदगुण छोड़ दिये गये हों और नष्ट हो गये हों वे दूषित है ऐसा समझें ।

भारत देश जहाँ कृषि-देश है वही ऋषि देश भी है । ‘भा….रत’ अर्थात् वह देश जिसके वासियों का मूल स्वभाव है – ‘भा’ यानी ‘ज्ञान’ में ‘रत’ रहना । ब्रह्मतत्त्व के अनुभवी संतों-महापुरुषों का आदर-सम्मान करके उनसे ब्रह्मविद्या प्राप्त कर, आचार-विचार की सही पद्धति जान के तदनुसार जीवनयापन करते हुए जीवन को दिव्य बनाना यहाँ के लोगों का स्वाभाविक धर्म है, सदगुण है, यहाँ की संस्कृति है लेकिन ये पुण्यात्मा अपने इस महान स्वभाव को भूलते जा रहे थे, जिससे अपनी संस्कृति से विमुख होकर विदेशी कल्चर का अनुसरण करते हुए विकृतियों का शिकार होने लगे थे । उनकी किस प्रकार जागृति हो रही थी यह बताते हुए पूर्व प्रधानमंत्री भारतरत्न श्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने कहा थाः “पूज्य बापू जी सारे देश में भ्रमण करके जागरण का शंखनाद कर रहे हैं, संस्कार दे रहे हैं । हमारी जो प्राचीन धरोहर थी और जिसे हम लगभग भूलने का पाप कर बैठे थे, बापू जी हमारी आँखों में ज्ञान का अंजन लगाकर उसको फिर से हमारे सामने रख रहे हैं । बापू जी का प्रवचन सुनकर बड़ा बल मिला है ।”

भारतरत्न अटलजी हमें अपनी प्राचीन धरोहर को पुनः प्राप्त करने के लिए पूज्य बापू जी के सत्संग-सान्निध्य एवं दिव्य ज्ञान के संस्कारों की आवश्यकता बता रहे हैं ।

4. विकृत कालः ऋतु के स्वाभाविक लक्षणों से विपरीत या कम-अधिक लक्षणों वाला काल अस्वास्थ्यकर (अहितकर) जानें ।

ऋतु विपरीत बारिश, गर्मी, सर्दी के कारण बीमारियाँ विशेष होती हैं । ऋतुओं के कालखंड अपने सामान्य समय से कम-अधिक होने से भी रोग व्यापक हो जाते हैं । वृक्षों की अत्यधिक कटाई के कारण बारिश का घटना या बिना ऋतु के होना, कुछ देशों द्वारा केमिकलों के सहारे वर्षा करायी जाना आदि से प्राकृतिक असंतुलन हो गया है ।

महामारी के विकट काल में जब विभिन्न चिकित्सा-पद्धतियाँ भी स्थिति को नियंत्रित करने में अक्षमता अनुभव करने लगती हैं तब बड़े-बड़े शक्तिशाली राष्ट्र भी दिशाहीन अवस्था में आ जाते हैं और अपने देशवासियों को पीड़ा से बचाने में स्वयं को असमर्थ एवं विवश अनुभव करने लगते हैं । ऐसी स्थिति में जब वर्तमान स्थूल, भौतिक औषधियाँ भी विशेष कोई राहत नहीं दे पातीं तब उन सभी राष्ट्रों के कल्याण की भावना से भरकर आयुर्वेद के विश्वहितैषी महर्षि चरक ऐसा उपाय बताते हैं जो भारत के एस समाधिनिष्ठ महर्षि ही बता सकते हैं । उन्होंने चरक संहिता (विमान स्थानः 3.15-18) में महामारी की सर्वसुलभ एवं प्राणरक्षक औषधि बतायी हैः

‘सत्य बोलना, जीवमात्र पर दया, दान, सद्वृत्त (शास्त्रोक्त एवं शास्त्रों के रहस्य के अनुभवी संतों के मार्गदर्शन अनुरूप सदाचार) का पालन, शांति रखना और अपने शरीर की रक्षा, कल्याणकारी गाँवों और नगरों का सेवन, ब्रह्मचर्य का पालन, ब्रह्मचारियों तथा जितात्मा महर्षियों (आत्मवेत्ता महापुरुषों) की सेवा करना, धर्मशास्त्र की सत्कथा-सत्संग सुनना, सात्त्विक, धार्मिक और ज्ञानवृद्धों द्वारा प्रशंसित महापुरुषों का सदा सान्निध्य-लाभ लेना – इस प्रकार ये सब महामारी के भयंकर काल में, जिन मनुष्यों का मृत्युकाल अनिश्चित है उनकी आयु की रक्षा करने वाली औषधियाँ कही गयी हैं ।’

मरते हुओं को मृत्यु के मुख से बचाकर आयु प्रदान करने वाला वेद है ‘आयुर्वेद’ ! यह वेद हमें मार्गदर्शन दे रहा है कि ब्रह्मनिष्ठ महापुरुषों का सत्संग-सान्निध्य लाभ एवं उनकी सेवा ही परम हितकारी उपाय है, जिससे सत्य, जीवदया, परोपकार, सदाचार, भीतरी शांति, शरीर-रक्षा की कला, कल्याणकारी स्थल-सेवन, ब्रह्मचर्य – इन सब सदगुणों की प्राप्ति सहज में ही हो जाती है जो कि महामारी के भयंकर काल में आयु-रक्षा करने वाली औषधियाँ कहे गये हैं ।

और ऐसे महापुरुष हमसे सेवा के रूप  अपेक्षा ही क्या करते हैं ? वे यही चाहते हैं कि जो दिव्य आत्मसुख, आत्मशांति, अमिट एवं अखूट आत्मानंद का लाभ उन्हें हुआ है, उसे हम स्वयं भी पायें और दूसरों तक पहुँचायें । ऐसी सत्प्रवृत्तियों का लाभ हम स्वयं लें और दूसरों को भी दिलायें ।

महामुनि वसिष्ठ जी योगवासिष्ठ महारामायण (निर्वाण प्रकरण उत्तरार्धः 18.9,14) में तत्त्वज्ञानी पुरुषों का आश्रय लेने का उपदेश देते हुए भगवान श्रीरामचन्द्र जी को कहते हैं- “भद्र ! राजों के नाशक, देश को छिन्न-भिन्न करने वाले तथा दुर्भिक्ष (अकाल) आदि से उत्पन्न हुए जनता के क्षोभ की तत्त्वज्ञानी पुरुष तपस्या के प्रताप, सत्कर्मों के अऩुष्ठान, साम (मैत्रीभाव की नीति) आदि उपायों से ऐसे पकड़कर रोक लेते हैं जैसे भूकम्प को पर्वत ।  आपदाओं में, बुद्धिनाश में, भूख-प्यास, शोक-मोह, जरा-मरण आदि क्लेशों में, व्याकुल देशों में तथा बहुत बड़े संकटों में सज्जनों की गति संत ही हैं ।”

सृष्टि का संचालन करने वाली तथा सुसंतुलन करने वाली जो सर्वोच्च सत्ता है, उसके नियम कानून को भगवान का मंगलमय विधान कहा जाता है और उसका सूक्ष्म रहस्य ब्रह्मवेत्ता महापुरुष ही जानते हैं । इससे ऐसे महापुरुषों के सत्संग-सान्निध्य से वंचित समाज में संयम-सदाचार का ह्रास होकर अधर्म बढ़ता है । जैसे – मांसाहार व विकृत खान-पान, भोग विलास की प्रवृत्ति, प्राकृतिक नियमों की अवहेलना, मिलावट, यांत्रिक कत्लखानों द्वारा बहुत बड़ी संख्या में गाय व अन्य पशुओं की हत्या आदि आदि । इससे फिर अनेक प्रकार के दोष एवं रोग उत्पन्न होते हैं ।

पूज्य बापू जी इस घोर कलिकाल में भी सत्ययुग जैसे वातावरण का सर्जन कर रहे थे । कलह, क्लेश, अशांति का वातावरण मिटाकर सर्वत्र ईश्वरीय प्रेम, सामंजस्य व सुसंवादिता का सर्जन कर रहे थे । बापू जी ने ‘भजन करो, भोजन करो, दक्षिणा पाओ योजना’ आदि के द्वारा जप, भजन, कीर्तन, सत्संग आदि के यज्ञ स्थान-स्थान में शुरु करवाये । सत्संगों के द्वारा संयम-सदाचार का प्रचार किया और जगह-जगह आश्रम, समितियाँ, बाल-संस्कार केन्द्र, महिला उत्थान मंडल, युवा सेवा संघ, गुरुकुल – इनके द्वारा संयम सदाचार, परोपकार आदि के सुसंस्कार देने वाले केन्द्र स्थापित किये । पूज्य बापू जी जहाँ भी जाते वहाँ विलायती बबूल, नीलगिरि आदि वायु व पर्यावरण को विकृत करने वाले वृक्षों के निर्मूलन एवं तुलसी, पीपल, नीम व आँवला जैसे वायुशुद्धिकारक वृक्षों के रोपण व गोबर के कंडों पर गूगल आदि के हव द्वरा वायुमंडल के शुद्धिकरण पर जोर देते थे । जल को शुद्ध, दोषनाशक एवं शरीर-पोषक बनाने की कला सिखाते थे । पूज्य श्री ने समाज को पुण्यदायी तिथियों व योगों का खूब लाभ दिलाया । अन्य अनेकानेक लोकहितकारी सेवा-प्रवृत्तियाँ चलायीं ।

ऐसे अनेक उपायों से उपरोक्त चारों प्रकार की विकृतियाँ पूज्य श्री दूर कर रहे थे । लेकिन पिछले करीब पौने सात वर्षों से पूज्य बापू जी को कारागृह में भेजा गया है इस पर प्रसिद्ध न्यायविद् व राज्यसभा सांसद श्री सुब्रमण्यम स्वामी जी ने हाल ही में कहा है कि “आशाराम जी बापू को फँसाया गया है यह सच है । यदि सजायाफ्ता कैदियों को सरकार द्वारा छोड़ा जा रहा है तो गलत तरीके से दोषी पाये गये और शारीरिक रूप से अस्वस्थ 83 वर्षीय संत आशाराम बापू को पहले रिहा करना चाहिए ।”

शास्त्र घोषणा कर रहे हैं-

अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूजनीयो न पूज्यते ।

त्रीणि तत्र भविष्यन्ति दुर्भिक्षो मरणं भयम् ।।

(स्कंद पुराण, मा. के. 3.48.49)

….त्रीणि तत्र भविष्यन्ति दारिद्रयं मरणं भयम् ।।

(शिव पुराण, रूद्र संहिता, सती खंडः 35.9)

जहाँ पूजनीय महात्मा का सम्मान नहीं होता और अपूज्य-असम्माननीय व्यक्तियों का सम्मान होता है, वहाँ भय, मृत्यु, अकाल, दरिद्रता – ये संकट तांडव करते हैं ।

देश के वासी एवं वरिष्ठजन सूझबूझसम्पन्न पवित्रात्मा हैं । वे सर्वहितार्थ इस शास्त्रवचन पर अवश्य ही विचार करेंगे ।

(संकलकः प्रीतेश पाटिल एवं रवीश राय)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अप्रैल-मई 2020, पृष्ठ संख्या 5-8 अंक 3328-329

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