गुरु और शिष्य के बीच जो शक्ति जोड़ने का काम करती है वह शुद्ध प्रेम होना चाहिए । नम्रता, स्वेच्छा-पूर्वक, संशय-रहित होकर बाह्य आडंबर के बिना द्वेष रहित बनकर असीम प्रेम से अपने गुरु की सेवा करो । बुल्लेशाह एक ऐसा अफसाना है, एक ऐसा तराना है जिसे आज भी प्रेम की महफिलों में गाया जाता है । हमने पिछली बार सुना कि इनायत शाह बुल्लेशाह को हिदायत देते हैं कि उसे आत्मा का श्रृंगार करना है । शरीर का श्रृंगार इस रूहानी जगत में कोई महत्व नहीं रखता । बुल्लेशाह इनायत शाह के आश्रम में बड़े ही नूरानी मस्ती में मस्त होकर रहने लगे । एक दिन इनायत शाह ने बुल्लेशाह की योग्यता देखकर उसे पुराने गुरु भाइयों के साथ कस्बों में जाकर प्रचार करने की आज्ञा दी । इस आज्ञा को पाकर बुल्लेशाह बड़े खुश हो गए और इस सेवा को बड़े ही चाव से करने लगे । कस्बों में जाकर लोगों के बीच बुल्लेशाह काफियां गा-2 कर लोगों को रूहानियत के मार्ग की तरफ जोड़ने का जी-जान से प्रयास करने लगे और उन्हें सफलता भी हाथ लगी, परन्तु इसी दौरान बुल्लेशाह की जिंदगी की सड़क पर अचानक एक टेढ़ा मोड़ आया । साधक जब अपनी प्रसिद्धि को अपनी योग्यता का फल मान बैठता है तो वह घड़ी बड़े ही खतरे की हो जाती है क्यूंकि साधक शायद यह भूल जाता है कि यह योग्यता भी उसे गुरु की रहमत से ही प्राप्त हुई है । प्रचार के इस दौर में एक बार हमारा बुल्ला भी यही भूल कर बैठा । हुआ यूं कि इनायत शाह हर रोज सुबह आश्रम की गायें और भैंसें चराने जाया करते थे, साथ में कुछ चुनिंदा शिष्यों को भी के जाया करते थे । बुल्लेशाह हमेशा इन चुनिंदों में से एक होते थे, इनायत अपनी कुटीर से निकलते तो आवाज़ लगाते चलते अहमद, रज़ाक, सुलेमान, बुल्ला । आवाज़ सुनकर शिष्य अपनी-2 गुदड़ी कंधे पर टांग कर एकदम तन जाते । भैंसें खूंटों से खोलकर शाह इनायत के पीछे हो लेते फिर गुरु और शिष्य की यह टोली कस्बे के सार्वजनिक चरगाहों में जा पहुंचते । यहां इनायत के हुक्म से भैसों को चरने के लिए खुला छोड़ दिया जाता । उधर अस्ताने का पशु धन अपनी खुराक लेता और इधर इनायत एक छांवदार बरगद के तले बैठकर साधकों को अपने इश्क के निवाले परोसते । नौबत यह होती कि इससे सभी शिष्य पूर्णतः तृप्त होकर वापिस आते, यही रोजाना का क्रम था । सुबह के यह दो घंटे मानों बुल्लेशाह को रूहानी नाश्ता जीमाते थे इसलिए बुल्लेशाह रोज सवेरे बड़ी दीनता और मोहताजगी से दामन फैलाए अपने गुरुदेव से इन पलों की मिन्नतें किया करते थे कि यह पल मुझे रोजाना प्राप्त हों, ऐसी प्रार्थना किया करते थे । उसकी यह मासूम प्रार्थना ही शायद इनायत के जहन में उसके नाम की अर्जी लगाती थी । वे रोजाना उसे अपने साथ ले जाने को मजबूर हो जाते थे परन्तु अब कुछ रोज से आलम बदला हुआ था । प्रचार की भागम-भाग में बुल्लेशाह की निर्दोषता, दीनता कहीं गुम हो गई थी । धीरे-2 गुरूर उसके दिलो-दिमाग में अपने बेसुरे रंग भरने लगा था । वाह बुल्ले, सदके ! तू तो काफी बुलंद पैग़ाम देने लगा है वो क्या तो काफिया छेड़ा था तूने, आहा ! कस्बे वाले सन रह गए थे, बड़े गुरु भाई भी तक तेरी तारीफ कर रहे थे,क्या अंदाज था, क्या लय थी । शायद तेरे इन्हीं तौर तरीकों की वदौलत हुजूम के हुजूम आश्रम की चौखट चूम रहे हैं आज, और शायद इसीलिए गुरुदेव का खास रुझान तेरी ओर है । तेरी योग्यता देखकर ही शायद गुरुदेव तुझे हमेशा साथ ले जाकर इज्जत बख्शते हैं । गुरु भाइयों के बीच बदकिस्मती से बुल्लेशाह को अपनी इज्जत और हैसियत का अहसास होने लगा था । अहंकार के इस कर्कश शोरगुल ने बुल्ले की उस मीठी, प्यारी कसक को कसक धर दबोचा था । अब रोज सुबह बुल्लेशाह प्रार्थना नहीं करता बल्कि अपनी यश, कीर्ति पर विश्वास करता और इनायत शाह का इंतजार करता था । गुरु तो सब कुछ से वाकिफ थे, बुल्लेशाह के इन बचकाने ख्यालों और हरकतों को अपनी रूहानी नज़रों से बखूबी निहार रहे थे । मगर नजर रखते हुए भी नज़रंदाज़ कर रहे थे, सब जानते हुए भी अपनी रहमत का पर्दा डाल रहे थे । वे अब भी रोज सुबह उसे अपने साथ ले जाते और सत्संग के बीच बीच में छुपे ढके लफ़्ज़ों में चेताते रहते । यही सोचकर कि शायद बुल्लेशाह की तबीयत में कुछ फर्क आ जाए परन्तु बुल्लेशाह के विवेक के आइने पर तो गुरूर की गाढ़ी परत जम चुकी थी । अब जब इनायत ने मर्ज बढ़ता देखा तो हल्की सी शल्य-चिकित्सा, ऑपरेशन करने की ठानी । आज भी वे रोजाना की तरह अपनी कुटीर से निकले, चुनिंदा शिष्यों को आवाज़ लगाई अहमद, रज़ाक, सुलेमान, अफजल ! इन नामों में बुल्लेशाह का नाम कहीं नहीं था । बुल्लेशाह ने इनायत के गुजरते क़दमों की आहट तो सुनी मगर अपने लिए ममता भरी पुकार तो नहीं सुनी, सुनता भी कैसे । “झुकने पर साखी मिलता है, मिन्नत से जामे नयन यह महकदा मुकाम नहीं है गुरूर का ।”बुल्लेशाह सकपका कर रह गया, उसका चेहरा किसी निचुडे हुए नींबू जैसा नीरस और सिकुड़ा हुआ दिखने लगा । यह क्या ! गुरुदेव ने तो आज मेरी खबर ही नहीं ली ! मुझे फरामोश कर दिया । क्या उन्हें ख्याल ही नहीं आया मेरा ? “अरे यह कैसी बेख्याली है ? दुनिया तो मेरी निगाह में तारीख हो गई तुमने तो बस एक चिराग जला कर बुझा दिया ।” शाहजी आपकी बेख्याली आपके लिए बेशक मामूली होगी, लेकिन मेरे लिए तो कातिलाना है । “जुदा हुआ है तो होशो हवास भी ले जा, यह धूप छांव की धुंधली आस भी ले जा । मैं तिष्नगी का समन्दर हूं रेगिस्तान में जगी हुई मेरे होंठों की प्यास भी ले जा । सांस सांस में खटक रहा है जा फिजा का अहसास फिजा में बिखरी हुई अपनी वास भी ले जा ।”आज पहली बार बुल्लेशाह ने जुदाई का कड़वा घूंट भरा था ऐसी फिजा में सांस लिया था जहां गुरु की खुशबू तो थी परन्तु गुरु नहीं थे आज पहली बार उसके होंठो पर आई प्यास बुझी नहीं जम चुकी थी । गुरुदेव चले गए थे बस आस रह गई थी या यूं कहो कि रूह गुम हो गई थी । बस भीतर कुछ खोखली सीपियां खनक रही थी । बुल्लेशाह अपनी कुटिया के एक कोने में जा बैठा मायूस होकर । तो क्या हो गया जो गुरुदेव साथ नहीं ले गए, आश्रम के कितने बड़े साधक भाइयों को तो कभी साथ नहीं ले जाते । अब तो तू भी स्याना हो चला है, अपने मन को बुल्लेशाह समझाने लगा । यह भी तो मुमकिन है कि गुरुजी किसी मुद्दे को लेकर व्यस्त हों इस वजह से को साधक नज़र में आया हो उसी पर नज़रें कर्म कर दी हों । जरूर यही बात होगी । बुल्लेशाह खुद को बहुत समझा रहा था परन्तु सैलाब आंखों के किनारे तोड़ कर बाढ़ बन कर बह गया, जज्बात सीने की गहराई छोड़ कर हलक के रास्ते बाहर आ गया । घुटने छाती से लगा कर, चेहरा हथेलियों में दुबका कर वह एक बच्चों की तरह गुरु के लिए रोने लगा, बिलख-2 कर रो उठा । “दिल के किसी कोने में एक मासूम सा बच्चा दामन-ए-इश्क की तलब रखता है झटक कर खींच लोगे दामन अगर तुम, आलमे हश्र देखो वह जिद पर आ अड़ता है ।”बुल्लेशाह बच्चों की तरह रोते-2 प्रार्थना की लय में कुछ बड़बड़ाने लगा, गुरुदेव ! क्या मैं इतना स्याना हो गया हूं, हां-हां अब तो मैं अव्वल खां बन गया हूं ना, खलीफा हो गया हूं ना । अब मुझे आपके प्यारे सानिध्य की क्या जरूरत, मैं तो अब बड़ा हो गया हूं । गुरुजी आपने मुझे क्यूं ऐसा रुस्बा किया, मुझे अपने दिल से क्यूं निकाल दिया । मेरी भूल को आप एक मां की तरह सुधार दीजिए परन्तु ऐसे नज़र अंदाज़ तो ना कीजिए । बुल्लेशाह के रोते रोते उसकी हिचकी बंध चुकी थी हाल बेहाल हो चला था । साधक जब गुरु को सच्चे हृदय से प्रार्थना करता है तो वह प्रार्थना गुरु के हृदय को तुरंत ही स्पंदित कर देती है । उधर इनायत शाह का दामन भी बुल्लेशाह को सहलाने को बेकरार हो रहा था । अभी कुछ ही लम्हें चरगाह में गुजरे होंगे कि उन्होंने सबको वापिस लौटने का संकेत दे दिया । आज बरसों में पशु पहली बार भूखे पेट वापिस लौटे, सबने आश्रम में अंदर प्रवेश किया, इनायत ने अपनी रूहानी निगाहें चारों ओर घुमाई । “अश्कों से तर है हर फूल की पंखुड़ी, रोया है कौन थाम के दामन बहार का । जानी जान इनायत शाह तो जानते थे कि रोया कौन था कहां रिमझिम बरसात हुई है, किस सैलाब ने मिट्टी को भीना और हवाओं को सौंधा किया हुआ है ।” वे बरबस है बुल्लेशाह की कुटिया की ओर बढ़ चले । इधर बुल्लेशाह ने अचानक गाय, भैंसों की रंबाहट सुनी, साथ ही जानी पहचानी क़दमों की आहट और चहल-पहल । शाह जी ! गुरुदेव लौट आए इतनी जल्दी ! बुल्लेशाह फुदक उठा कोने में रखी सुराही से आंखों में छींटे मारे, अपने कुर्ते की गीली बाजू से मुंह पौंछा और दौड़कर बाहर आए । जैसे ही दरवाजा खोला तो गुरुदेव मात्र चार कदम की ही दूरी पर थे । बुल्लेशाह ने झुककर उन्हें प्रणाम किया । इनायत शाह वहीं थाम गए और उनकी निगाहें बुल्लेशाह के चेहरे पर बुल्लेशाह की आंखें लाल लाल फूल कर सूजी हुई थी, नाक भूनी हुई पकौड़े सी, होंठ लटके हुए, बाल बिखरे हुए, बौहें उलझी हुई यह दीवाने साधक का श्रृंगार था । बुल्लेशाह को यूं सजा धजा देख इनायत प्यारा सा मुस्कुरा दिए । “आंखों को बचाए थे हम इश्क ए शिकायत से साकी के तव्वसुम ने छलका दिया पैमाना ।” बुल्लेशाह गुरु की प्यारी मुस्कान देखकर फिर से रो उठा । मुझे रोने दो, मुझे रोने में मिलता है मजा, मुस्कुराओ तुम कि तुम्हें मुस्कुराना चाहिए । मगर इनायत ने गिला से गीली इन अश्कों पर अपना कर्म नहीं बख्शा फिर बिन कुछ कहे अपनी कुटीर में चले गए । अब यह तो मोहब्बत के फरिश्ते सदगुरु ही जानते हैं कि अपने रोते बिलखते साधक को नज़र अंदाज़ करने के लिए उन्हें कितना ताकत जुटाना पड़ता है,मगर वह क्या करें आशिकी निभाने के साथ साथ उन्हें एक वैद्य का भी तो काम करना है उधर जिन दलीलों के दावे ठोक ठोक कर बुल्लेशाह खुद को समझा रहा था वे सब ही दलीलें बेदम निकलीं और मामला सहज सुलझा नहीं था नजाकत भरा था । बुल्लेशाह अब कुछ कुछ समझ रहा था कि उसके गुरुदेव उससे क्यूं नाराज हैं, क्या कारण है नाराजगी का । “उसकी निगाह तुम पर पड़ी, सोचा कुछ काबलियत है तुममें पर तू यह क्यूं भूल बैठा कि वो यतीमों पर भी रहमत लुटाता है ।”बुल्लेशाह खुद को शर्मिंदा महसूस करने लगा और अफसोस से भरी भारी भावों के तले अपने को दबा हुआ पाया । वाह किसी तरह इस भार को ढोकर अपने गुरुदेव की कुटिया की तरफ चौखट तक पहुंचा ।==========================आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा ….