दिव्य श्रद्धा -1

दिव्य श्रद्धा -1


हरि ॐ… श्‍वांस रोकेंगे और धीरे-धीरे छोड़ेंगे, छोडा हुआ श्‍वांस जल्दी नहीं लेंगे । साधन बढ़ने से शरीर में विद्युत का तापमान बढ़ता है । शरीर तब तक भारी रहता है जब तक उसमें कफ और वायु की विपरीतता रहती है । कफ और वायु अधिक होता है तो शरीर आलसी और भारी रहता है, शरीर भारी तब तक रहता है जब तक कफ और वायु का प्रमाण अधिक है, वात प्रकृति और कफ प्रकृति । आसन स्थिर करने से, एक ही आसन पर बैठने से शरीर में विद्युत प्रकट होती है जो कफ को और वायु को कंट्रोल करके शरीर को आरोग्यता देती है। शरीर में बिजली पैदा होती है वह आरोग्यता की रक्षा करती है, शरीर हल्का लगता है फुर्तीवाला लगता है। क्रिया करने से विद्युत खर्च होती है और स्थिर आसन पर बैठ कर धारणा करने से, ध्यान करने से विद्युत बढ़ती है, बिजली बढ़ती है और विद्युत तत्व बढ़ने से शरीर निरोग रहता है, मन फूर्ती में रहता है।

संसार से वैराग्य होना कठिन है, वैराग्य हो भी जाए तो कर्मकांड से मन उठना कठिन है, कर्मकांड से उठ भी गए तो ध्यान में लगना मन का कठिन है, ध्यान में लग गए तो तत्वज्ञानी गुरु मिलना कठिन है, तत्वज्ञानी गुरु मिल भी गए तो उनमें श्रद्धा होना कठिन है, श्रद्धा हो भी गई तो उनमें श्रद्धा टिकना कठिन है।

तामसी श्रद्धा होती है तो कदम-कदम पर फरियाद करती है, तामसी श्रद्धा में समर्पण नहीं होता, भ्रांति होती है समर्पण की। तामसी श्रद्धा विरोध करती है, राजसी श्रद्धा हिलती रहती है और भाग जाती है, किनारे लग जाती है और सात्विक श्रद्धा होती है तो चाहे गुरु की तरफ से कैसी भी कसौटी हो, किसी भी प्रकार की परीक्षा हो तो सात्विक श्रद्धा वाला धन्यवाद से अहोभाव से भर कर स्वीकृति दे देगा।

संसार से वैराग्य होना कठिन, वैराग्य हो गया तो कर्मकांड छूटना कठिन, कर्मकांड छूट गया तो उपासना में मन लगना भी कठिन, उपासना में मन लग गया तो तत्वज्ञानी, ब्रह्मज्ञानी गुरुओं का मिलना कठिन और तत्वज्ञानी गुरुओं का मिलना हो गया तो उनमें श्रद्धा टिकना कठिन क्योंकि प्राय: राजसी और तामसी श्रद्धा वाले लोग बहुत होते हैं।

तामसी श्रद्धा कदम-कदम पर इनकार करेगी, विरोध करेगी, अपना अहं नहीं छोड़ेगी और श्रद्धेय के साथ, ईष्‍ट के साथ, गुरु के साथ विरोध करेगी, तामसी श्रद्धा होगी तो। राजसी श्रद्धा होगी तो जरा-सा परीक्षा हुई या थोड़ा-सा खडखडाया तो राजसी श्रद्धा वाला किनारे हो जाएगा, भाग जाएगा और सात्विक श्रद्धा होगी तो श्रद्धेय के तरफ से हमारे उत्थान के लिए चाहे कैसी भी कसौटी हो, चाहे कैसी भी साधन-भजन की पद्धतियां हो, प्रयोग हो, व्यवहार हो, अगर सात्विक श्रद्धा है तो वह तत्ववेत्‍ता गुरुओं के तरफ से और तमाम साधना पद्धति अथवा विचार व्यवहार जो भी… वह अहोभाव से धन्यवाद ! उसे फरियाद नहीं होगी, उसे प्रतिक्रिया नहीं होगी।  

सात्विक श्रद्धा हो गया तो फिर तत्व-विचार में मन लग जाता है नहीं तो तत्वज्ञानी गुरु मिलने के बाद भी तत्व-ज्ञान में मन लगना कठिन है। आत्म-साक्षात्कारी गुरु मिल जाए और उसमें श्रद्धा हो जाए तो यह जरूरी नहीं कि सब लोग आत्मज्ञान की तरफ चल पड़ें- नहीं, राजसी श्रद्धा-तामसी श्रद्धा वाला आत्मज्ञान की तरफ नहीं चल सकता, वह तत्वज्ञानी गुरुओं का सानिध्य पाकर अपनी इच्छाओं के अनुसार फायदा लेना चाहेगा लेकिन जो वास्तविक फायदा है जो तत्वज्ञानी गुरु देना चाहते हैं उससे वह वंचित रह जाएगा ।

सात्विक श्रद्धा वाला होता है उसको ही तत्वज्ञान का अधिकारी माना जाता है और वही तत्वज्ञानपर्यंत गुरु में अडिग श्रद्धा, जैसे सांदीपक की थी, भगवान विष्णु आये वरदान देने के लिए-नहीं लिया, भगवान शिव आये-वरदान नहीं लिया। गुरु ने कोढ़ी का रूप धारण कर लिया, बुरी तरह परीक्षाएँ की, पीट देता था, मार देते थे चांटा, फिर भी वह गुरू के शरीर से निकलने वाला गंदा खून, कोढ़ की बीमारी से आने वाली बदबू, मवाद, फिर भी सांदीपक का चित्त कभी सूग नहीं करता था, ऊबता नहीं था । ऐसे ही विवेकानंद की सात्विक श्रद्धा थी तो रामकृष्णदेव में अहोभाव बना रहा और जब राजसी श्रद्धा हो जाती तो कभी हिल जाती है, ऐसे छह बार नरेंद्र की श्रद्धा हिली थी।

तो आत्म ज्ञानी गुरु मिल जाना कठिन है.. आत्म ज्ञानी गुरु मिल जाए तो उसमें श्रद्धा टिकना सतत कठिन है, क्योंकि श्रद्धा राजस और तमस गुण से प्रभावित होती है तो हिलती जाती है या विरोध कर लेती है। इसलिए जीवन में सत्व गुण बढ़ना चाहिए। आहार की शुद्धि से ,चिंतन की शुद्धि से ,सत्वगुण की रक्षा की जाती है । अशुद्ध आहार, अशुद्ध व्यक्तियों विचारों वाले व्यक्तियों का संग, जीवन के तरफ लापरवाही रखने से श्रद्धा का घटना-बढ़ना, टूटना-फूटना होता रहता है, इसलिए साधक साध्य तक पहुंचने में उससे बरसो गुजर जाते हैं, कभी-कभी तो पूरा जन्म गुजर जाता है फिर भी साक्षात्कार नहीं कर पाते हैं। हकीकत में छह महीना अगर ठीक से साधना की जाए, खाली छह महीना, फकत छह महीना ठीक से साधना की जाए तो संसार की वस्तुएं और संसार आकर्षित होने लगता है.. सूक्ष्म जगत की कुँजियां हाथ में आने लगती है ..छह महीना अगर सात्विक श्रद्धा से ठीक साधन किया जाए तो बहुत आदमी ऊंचा उठ जाता है।  रजोगुण-तमोगुण से बचकर जब सत्वगुण बढ़ता है तो तत्व ज्ञानी गुरुओं के ज्ञान में आदमी प्रविष्ट होता है। तत्वज्ञान का अभ्यास करने की आवश्यकता नहीं रहती, अभ्यास तो भजन करने का है और अभ्यास तो श्रद्धा को सात्विक बनाने का है। अभ्यास… भजन का अभ्यास बढ़ने से, सत्व गुण का अभ्यास बढ़ने से विचार अपने आप उत्पन्न होता है । महाराज! ऐसा विचार उत्पन्न करने के लिए भी साधन भजन में सातत्‍य होना चाहिए और श्रद्धा की सुरक्षा में सतर्क होना चाहिए, ईष्‍ट में, गुरु में, भगवान में श्रद्धा।  श्रद्धा हो गई तो तत्वज्ञान में गति करना.. तत्वज्ञान तो कईयों को मिल जाता है लेकिन उस तत्वज्ञान में स्थिति नहीं करते.. और स्थिति करते हैं तो ब्रह्माकार वृत्ति उत्पन्न करने की खबर हम नहीं रख पाते …और ब्रह्माकार वृत्ति उत्पन्न हो जाए तो साक्षात्कार होता है.. साक्षात्कार करने के बाद भी अगर उपासना तगड़ी नहीं की और गुरुकृपा से जल्दी हो गया साक्षात्कार तभी भी विक्षेप रहेगा.. मनोराज आने की संभावना है ..यह साक्षात्कार के बाद भी ब्रह्म अभ्यास करने में लगे रहते हैं बुद्धिमान, उच्च कोटि के साधक।

साक्षात्कार करने के बाद भी भजन में, अथवा ब्रह्म अभ्यास में, ब्रह्मानंद में लगे रहना यह साक्षात्कारी की शोभा है । जिन महापुरुषों को परमात्मा का साक्षात्कार हो जाता है… वे भी ध्यान भजन में और शुद्धि में ध्यान रखते हैं, तो हम लोग अगर लापरवाही कर दें.. तो हमने तो अपनी पुण्‍यों की कबर ही खोद दी। जीवन में जितना पुरुषार्थ होगा, सतर्कता होगी और जीवनदाता का मूल्य समझेंगे उतना ही यात्रा उच्च कोटि की होगी। ब्रह्माकार वृत्ति उत्पन्न होना यह भी ईश्वर की कृपा है। सात्विक श्रद्धा होगी तब आदमी ईमानदारी से अपने अहं को परमात्मा में अर्पित होगा।

तुलसीदासजी ने कहा : ‘यह फल साधन ते न होई’  । यह जो ब्रह्मज्ञान का फल है वह साधन से प्रगट नहीं होगा । साधन करते-करते सात्विक श्रद्धा तैयार होती है और सात्विक श्रद्धा ही अपने तत्व में, ईष्‍ट में अपने आप को अर्पित करने को तैयार हो जाती है। जैसे लोहा अग्नि की वाह-वाही तो करें, अग्नि की बखान तो करें, अग्नि को नमस्कार तो करें ..लेकिन तब तक लोहा अग्नि नहीं होता है जब तक लोहा अपने आप को अग्नि में अर्पित नहीं कर देता।  लोहा अग्नि के भट्टे में अर्पित होते ही उसके रग-रग में अग्नि प्रविष्ट हो जाती है और वह लोहा अग्नि का ही एक पुँज दिखता है । ऐसे ही जीव उस ब्रह्म स्वरूप में अपने आप को जब तक अर्पित नहीं करता तब तक भगवान के भले गीत गाए जाए ,गुरु के गीत गाए जाए, गुणानुवाद किए जाए.. लाभ तो होगा लेकिन गुरुमय,  भगवतमय तब तक नहीं होगा जब तक अपने “मैं” को ईश्वर में, गुरु में अर्पित नहीं कर देता । ईश्वर और गुरु शब्द दो हैं बाकी एक ही तत्व होता है।  ईश्वरो गुरुरात्मेति मूर्तिभेदविभागिने’।  मूर्ति से दो दिखते हैं, मूर्तियां अलग-अलग हैं, आकृति अलग-अलग दिखती हैं, बाकी ईश्वर और गुरु एक ही चीज है, गुरु के ह्रदय में जो चैतन्य चमका है वही ईश्वर के ह्रदय में प्रकट हुआ है। ईश्वर भी अगर परम कल्याण करना चाहते हैं, तो गुरु का रूप लेकर.. उपदेशक का रूप लेकर.. भगवान कल्याण करेंगे, परम कल्याण… संसार का आशीर्वाद तो भगवान ऐसे दे देंगे लेकिन जब साक्षात्कार करना होगा तो भगवान को भी आचार्य की गाड़ी में बैठना पड़ेगा , आचार्य पद के ढंग से उपदेश देंगे भगवान । जैसे श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया, श्री रामचंद्रजी ने हनुमानजी को ब्रह्म ज्ञान का उपदेश दिया और साधक भजन करते हैं, भजन की तीव्रता से भाव मजबूत हो जाता है और भाव के बल से अपने भाव के अनुसार संसार में चमत्कार भी कर लेता है, भाव की दृढ़ता से लेकिन भाव पराकाष्ठा नहीं है,भाव बदलते रहते हैं ,पराकाष्ठा है ब्रह्मकार वृत्ति उत्पन्न करके साक्षात्कार करना। तो साधन-भजन में उत्साह और जगत में नश्वर बुद्धि और लक्ष्य की, ऊंचे लक्ष्य की हमेशा स्मृति, यह साधक को महान बना देगी।  अगर ऊँचे लक्ष्य का पता ही नहीं, आत्मसाक्षात्कार के लक्ष्य का पता ही नहीं, ब्रह्माकार वृत्ति उत्पन्न करके आवरण भंग करना और साक्षात्कार करके जीवन मुक्त होने का अगर जीवन में लक्ष्य नहीं है तो छोटी-मोटी साधना में, छोटी-मोटी पद्धतियों में आदमी रुका ही रहेगा ,कोल्हू के बैल जैसा वही जिंदगी पूरी कर देगा। मैंने अर्ज किया था न कि संसार से वैराग्य होना कठिन है, वैराग्य हो गया तो फिर कर्मकांड से मन उठना कठिन है, कर्मकांड से मन उठ गया तो फिर उपासना में लगना कठिन है,  उपासना में लग गया तब भी तत्वज्ञानी गुरुओं को खोजना कठिन है, तत्वज्ञानी गुरुओं का मिलाप भी हो गया तो उनमें श्रद्धा टिकना कठिन है,  उनमें श्रद्धा, महाराज! हो भी गई …श्रद्धा तो हो जाती है लेकिन टिकी रहे यह बड़ा कठिन है और श्रद्धा टिक् गई तब भी तत्वज्ञान के प्रति प्रीति होना कठिन है, तत्वज्ञान हो गया तो उसमें स्थिति होना कठिन है, स्थिति हो गई… महाराज !! तो ब्रह्माकार वृत्ति कर के आवरण भंग करके जीवनमुक्त पद में पहुंचना परम पुरुषार्थ है। अगर सावधानी से छह महीने तक आदमी ठीक ढंग से ईश उपासना करें, ठीक ढंग से तत्व ज्ञानी गुरुओं के ज्ञान को विचारे तो उसके मन का संकल्प-विकल्प कम होने लगता है ,संसार का आकर्षण कम होने लगता है और उसके चित्त में विश्रांति आने लगती है, उससे संसार की सफलताएं आकर्षित होने लगती है, संसार आकर्षित होने लगता है। संसार माना क्या?? जो सरकने वाली चीजें हैं ये.. संसार की जो भी चीजें हैं वह सरकने वाली वह आकर्षित होने लगती है ,फिर उसे रोजी रोटी …यह वह ..कुटुंबी, सम्‍बंधी, समाज के दूसरे लोगों को रिझाने के लिए नाक रगड़ना नहीं पड़ेगा.. वह लोग तो ऐसे ही रीझने को तैयार हो जाएंगे। खाली छह महीने ठीक ढंग से साधन में लग गये तो सारी जिंदगी की मजदूरी से जो नहीं पाया है वह छह महीने से तो पाएगा लेकिन वह साधक के लिए तो वह भी तूच्छ हो जाता है.. उसका लक्ष्य साध्‍य है ऊँचे में ऊँचा “आत्मसाक्षात्कार करना”।

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