स्वामी राम जिनका देहरादून में आश्रम है। उनके गुरु बड़े ही उच्च कोटी के संत थे। कई विद्यार्थी उनके पास आये और अपने को उनका शिष्य बनाने की प्रार्थना की। एक बार जब गुरु दक्षिण भारत में तुंगभद्रा नदी के तट पर निवास कर रहे थे तो एक दिन उन्होंने सभी विद्यार्थियों को बुलाकर कहा कि सब लोग मेरे साथ चलो, वे सभी विद्यार्थीयों को नदी तक ले गये, नदी भयंकर बाढ़ के कारण अत्यंत विस्तरीत तथा भयावह लग रही थी।उन्होंने कहा जो भी इस नदी को पार करेगा, वही मेरा शिष्य होगा। एक विद्यार्थी बोला गुरुजी आप तो जानते ही हैं कि, मैं पार कर सकता हूं किंतु मुझे शीघ्र ही लौटकर अपना काम पूरा करना है। दुसरा विद्यार्थी बोला, गुरुजी मैं तो तैरना ही नहीं जानता, पार कैसे करुंगा ? गुरुदेव के बोलते ही स्वामी राम अचानक नदी मे कूद पड़े नदी बहुत चौड़ी थी। उसमे अनेक घड़ीयाल थे,और कई लकड़ियां बह रही थी लेकिन स्वामी राम को उनका कुछ भी ध्यान नहीं रहा ।घड़ीयाल को देखकर वे भयभीत नहीं हुये, और लकड़ियां देखकर यह नहीं सोचा कि लकड़ी का सहारा लेकर पार हो जाऊंउनका मन तो गुरुदेव के कथन पर ही एकाग्र था। जब वे तैरते-तैरते थक जाते तो बहने लगते परंतु पुनः तैरने का प्रयास करते, इस प्रकार वो नदी को पार करने में सफल हो गये।गुरुदेव ने अन्य विद्यार्थियों को कहा इसने यह नहीं कहा कि मैं अापका शिष्य हुं, बल्कि आज्ञा सुनते ही बिना कुछ विचार किये ये कूद पड़ा।गुरु के प्रति श्रद्धा, आत्मज्ञान प्राप्ति में सबसे ज्यादा आवश्यक है। बिना श्रद्धा के किसी एक अंश तक बौद्धिक ज्ञान तो प्राप्त किया जा सकता है किंतु आत्मा के निगुढतम रहस्य का उदघाटन तो श्रद्धा के द्वारा ही संभव है ।शिष्य तो अनेक होते हैं किंतु जो अपनी जीवन रुपी पौधे को गुरु आज्ञा पालन रुपी जल से सींचते हैं उनके ही हृदय में आत्म ज्ञान रुपी फल लगते हैं। वे ही सच्चे शिष्य हैं।पन्द्रह वर्ष की आयु में जब स्वामी राम को उनके गुरु ने दीक्षा दी, तो गुरुदक्षिणा के रुप में देने के लिए उनके पास कुछ भी नहीं था, उन्होंने सोचा दूसरे शिष्य डलिया भरके फल, पुष्प, रुपये लेकर आते हैं और अपने गुरु को समर्पित करते हैं। परंतु मेरे पास तो समर्पित करने के लिए कुछ भी नहीं है। उन्होंने गुरुदेव से पूछा कि आपको समर्पित करने के लिए सबसे अच्छी चीज क्या है ?गुरुदेव ने कहा, मुझे कुछ सूखी लकड़ी के टुकड़े लाकर दो, उन्होंने सोचा यदि कोई सूखी लकड़ी के टुकड़े को गुरुदेव को भेंट करें तो वे रुष्ट होंगे, किंतु गुरुजी ने जैसा कहा उन्होंने वैसा ही किया।गुरुदेव बोले, अपने विशुद्ध चित्त से इन लकड़ी के टुकड़ों को मुझे समर्पित करो । स्वामी राम को असमंजस में देख गुरुजी ने समझाया कि जब तुम सूखी लकड़ी के टुकड़ों का ढेर समर्पित करते हो, तो गुरु समझते हैं कि अब तुम मोक्ष मार्ग के पथिक बनने को प्रस्तुत हो गये हो ।इसका तात्पर्य है कि कृपा करके मुझे अपने भूतकाल के कर्मो एवं आसक्तियों से मुक्त कर दीजिए। मेरे समस्त संस्कारों को ज्ञान अग्नि में दग्ध कर दीजिए। मैं इन लकड़ी के टुकड़ों को अग्नि में भस्म कर दूंगा।गुरुदेव ने कहा ताकी तुम्हारे विगत कर्म भविष्य को प्रभावित न कर सके। आज मैं तुम्हे एक नया जीवन दे रहा हूं । तुम्हारा जीवन भूतकाल से प्रभावित न रहेगा, तुम अब नवीन आध्यात्मिक जीवन का निर्माण करो। वास्तव में सद्गुरु अपने लिए कुछ भी नहीं चाहते। वे तो केवल ये चाहते हैं कि जो आत्म खजाना उन्हें मिला है, वही दूसरो को भी मिल जाय। इसलिए स्वामी शिवानंदजी कहते हैं कि गुरु के प्रति भक्ति अखूट और स्थायी होनी चाहिए। गुरु सेवा के लिए पुरे हृदय की इच्छा ही गुरु भक्ति का सार है। गुरु के प्रति भक्तिभाव ईश्वर के प्रति भक्ति भाव का माध्यम है, गुरु की सेवा अपने जीवन का एक मात्र लक्ष्य एवं ध्येय होना चाहिए। स्वयं की अपेक्षा गुरु के प्रति अधिक प्रेम रखो ।