शिष्य अगर अपने आचार्य के आज्ञा का पालन नहीं करता है तो उसकी साधना व्यर्थ है। साधक को विजातीय व्यक्ति का सहवास नहीं करना चाहिए। जो लोग ऐसे सहवास के शौकीन हो उनका संग भी नहीं करना चाहिए। क्योंकि उससे मन क्षुब्ध होता है। फिर वह शिष्य भक्तिभाव और श्रद्धापूर्वक अपने गुरु की सेवा नहीं कर सकता। गुरु के वचन में और ईश्वर में श्रद्धा रखना यह सत्वगुण की निशानी है।विंध्याचल पर्वत की एक चोटी पर खड़े हुए महात्मा कपिलजी ने अपने शिष्य नंदन से कहा कि, “तुम क्या चाहते हो?”नंदन ने कहा : भगवान का निरंतर दर्शन!कपिलजी : तो त्रिगुण की तिकड़म से बचकर रहना सीखो।नंदन : त्रिगुण किसे कहते हैं गुरुदेव? सत्व, रज और तम ये क्यूँ त्याज्य है गुरुदेव?कपिलजी : सत्वगुण मारता है कीर्ति के द्वारा। रजोगुण मारता है धन के द्वारा और तमोगुण मारता है स्त्री के द्वारा। कामिनी, कंचन, कीर्ति यही त्रिगुण की तिकड़म है।यही तीन निशाचर जीवात्मा का सत्यानाश किया करते हैं ।नंदन : इस त्रिगुण को बनाया किसने गुरुदेव?कपिलजी : माया ने। माया से बचकर चलना ही जीवात्मा का पुरुषार्थ है। त्रिगुणात्मक माया ही जीवात्मा की समझ की परिक्षाभूमी है। अगर त्रिगुण की त्रिशूल की एक भी नोक छू ली तो फिर सफाया समझना। गुरु का काम है ज्ञान देना इसलिए मैं यही ज्ञान देता हूँ कि गुणातीत बनो।अब मैं जाता हूँ।नंदन : जाते हैं? कहाँ जाते हैं आप गुरुदेव? आपके लिए तो मैंने माता-पिता त्यागें, अपना घर छोड़ा। क्या आप भी नसीब न होंगे?कपिलजी : मैं सदा तुम्हारे पास ही हूँ। सद्गुरु, परमात्मा और माया ये तीनों हर जगह है। निश्चय के साथ जब जहाँ याद करोगे मैं प्रकट हो जाऊँगा। वैसे भी मैं तुम्हारी रक्षा करता रहूँगा परन्तु साथ नहीं रहूँगा। नंदन : क्यों गुरुदेव?कपिलजी : क्योंकि योग, भोग और भजन ये तीनों काम एकाकी करने चाहिए। मैं गंगासागर पर तप करने जाता हूँ, तुम इसी विंध्याचल पर्वत की चोटी पर तप करो। कहीं जाना नहीं। फिर भी मुझे दूर मत समझना। माया सद्गुरु और परमात्मा के लिए दूरी नाम की कोई चीज नहीं होती।नंदन : गुरुदेव! माया की व्यापकता क्या काम करती है?कपिलजी : त्रिगुण के द्वारा जीवात्मा को भुलाये रखती है।मुसाफिरों को मंजिल तक न पहुँचने देना ही माया का जीवनव्रत है।नंदन : गुरुदेव! संत की व्यापकता क्या काम करती है?कपिलजी : प्रत्येक जीवात्मा को अच्छाई और बुराई की तमीज दिया करती है प्रेरणा के रूप में।चाहे प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्षनंदन : गुरुदेव! परमात्मा की व्यापकता क्या काम करती है?कपिलजी : माया और संत की करतूत देखा करती है और दोनों को अपनी सत्ता से जीवित रखती है।नंदन : तो गुरुदेव, क्या संत का काम परमात्मा नहीं कर सकते?कपिलजी : नहीं।नंदन : क्यों गुरुदेव?कपिलजी : क्योंकि परमात्मा वक्ता नहीं है, द्रष्टा है। वह देखता है मगर बोलता नहीं। बोलने का काम गुरु के अधीन किया गया है।नंदन : गुरुदेव, क्या परमात्मा में बोलने की शक्ति नहीं है?कपिलजी : उनमें सब शक्तियाँ है, वे बोल सकते हैं, परन्तु बोलना नहीं चाहते। उन्होंने अपने को आप ही मूक बना लिया है। इसका कारण वे ही जाने। उनके अवतार बोलते हैं अर्थात जब गुरुरूप में परमात्मा अवतरण लेते हैं तब शिष्य के कल्याणार्थ बोलते हैं। परन्तु वे स्वयं नहीं बोलते और गुरू के रूप में स्वयं ही बोलते हैं।नंदन : गुरुदेव! न बोलना परमात्मा की एक अदा है क्या? कपिलजी : जो समझ लो।महात्मा कपिलजी के चले जाने के एक महीने बाद एक दिन साधक नंदन पहाड़ी पर घूम रहे थे। दैवातिक स्थान पर उनको सोने की एक खान मिल गई। सोने की खान देखते ही भगत जी की नियत बदल गई। नंदनजी सोचने लगे कि, गुरुजी ने त्रिगुण से बचने का उपदेश दिया है, मगर उनके वचनों से परिवर्तन की थोड़ी गुंजाइश तो है ही। मान लो कि मुझे आज कंचन मिल गया है। यदि में इस कंचन द्वारा बुरे काम करूं तो यह हानिकारक प्रमाणित हो सकता है। उस अवस्था में कंचन त्याज्य ठहराया जा सकता है। परन्तु इसी कंचन से अगर अच्छे काम करूं तो यह धन कैसे जहर बन जायेगा? गुरूजी के निर्णय में यही आलोचना हो सकती है कि धन बुरा नहीं किन्तु उसका उपयोग बुरा हो सकता है।भगत नंदनदास जी ने मजदूरों को बुलवाया। मिस्त्री अपनी कन्नी-बसूली लेकर आ मौजूद हुए। भगतजी ने उनको समझाया, “देखो भाई! इस जगह एक मंदिर बनेगा। उसमें भगवान कपिलजी और शिवजी की स्थापना होगी।तुम लोग जगद्गुरू कपीलजी को अभी नहीं पहचानते हो।वे ब्रम्हनिष्ठ महात्मा है। पुरूष, प्रकृति और जीव के कर्तव्यों का निर्देश करनेवाले कपीलजी है।तीनों की स्थिति तो बहुतों ने मानी और जानी है। परन्तु तीनों का व्यवहारिक ढंग से प्रमाण किसीने नहीं बतलाया। तो बोलो जगद्गुरू कपीलजी की जय!”मिस्त्रियों और मजदूरों ने देखा कि यहाँ पर कुछ गहरा हाथ लगने वाला है। उन्होंने श्रद्धा न होते हुए भी बड़े जोर से नारा लगाया कि, “जगद्गुरू कपीलजी की जय!”भगतजी ने सोचा अब गुरुजी की नाराजगी मिट जायेगी । इस प्रान्त में अपनी जय जयकार सुनकर भला कौन ऐसा गुरु होगा जो द्रवित न हो जाये?भगतजी ने मिस्त्रियों से कहा, “केवल मन्दिर बनाने से ही तुमको छुट्टी न मिल जायेगी, मन्दिर के सामने कुआँ भी बनाना होगा।” “जरूर बनाना होगा, बिना कुएँ के मंदिर क्या काम का?” मिस्त्रियों ने कहा।भगतजी : केवल मंदिर और कुँआ बनाकर ही तुमलोग न भाग सकोगे एक धर्मशाला भी बनानी पड़ेगी। मिस्त्री : जरूर बनेगी भगतजी।गुरूजी के दर्शन के लिए जो अखिल ब्रम्हांड उमड़ेगा तो धर्मशाला विशाल होनी चाहिए।इसलिए भगतजी बोले कि धर्मशाला कम से कम 1 मील के घेरे में बनेगी। 3 मंजिला का किला रचकर खड़ा कर दो। सब काम पत्थर से लिया जाय, यहाँ पत्थर की कोई कमी नहीं है।मिस्त्रियों में एक काना राजा उनका मुखिया था। उसने कहा, “न पत्थर की कमी है और न पैसे की कमी है महाराज! जहाँ जगद्गुरु कपीलजी है, जहाँ नंदनदास जैसे भक्त हैं वहाँ पैसे की क्या कमी? पैसा कम नहीं तो पत्थर कैसे कम हो जायेंगे?”दिनभर कुछ काम नही हुआ, केवल इमारतों के नक्शे जमीन पर बनाये और बिगाड़े गये। इसी सिलसिला में काने राजा ने यह राज भी हासिल कर लिया कि सोने की खान किस जगह पर मिली है। खुशी के मारे बाबाजी ने यह नहीं सोचा कि वे क्या कह गये। फिर उस खान में से सोना निकालेंगे तो मजदूर ही। छिपाने से क्या फायदा? उन्होंने सोचा।रात हुई। काने मिस्त्री ने सबको अपने आदेश में कर लिया।बाबाजी को पकड़कर एक पेड़ से बाँध दिया गया। उनके सामने ही चाँदनी रात में सोने की खान लूट ली गई। सब लोग सोना ले-2 कर चम्पत हुए।किसीने बाबाजी को बंधनमुक्त तक ना किया। प्रातः जब चरवाहे लोग आये तब उन्होंने बाबाजी के बंधन खोले।भगतजी जमीन पर बैठ गए और कहने लगे कि, “गुरु के प्रवचन में जो हेरफेर करता है उसकी यही हालत होती है। कंचन के अच्छे और बुरे उपयोग तो दूर की बात है। मैं कहता हूँ कि कंचन को देखना भी महापाप है और कंचन का नाम लेना तक पाप है। राम-2! कहाँ भटक गया था।जरूर ही त्रिगुण की तिकड़म से दूर रहना चाहिए। हरे-2! “*गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।*”जो लोग गुरु वचन पर विश्वास नहीं करते, उनका कल्याण नहीं होता। रातभर पेड़ से बँधा रहा।सुबह न मन्दिर रहा न कुँआ रहा और न धर्मशाला रही।अखिल ब्रम्हांड की जय जयकार भी सुनाई ना पड़ी।अगर चरवाहे लोग न आते तो शाम तक भूखे ही मर जाता। धत तेरे कंचन की ऐसी-तैसी! आजसे मैं कभी त्रिगुण की तिकड़म में न पडूँगा।” भगतजी को कुछ-2 समझमें आया, परन्तु इस घटने के तीन महीने के बाद समाचार कुछ अलग ही सुनाई दिये।एक दिन भगतजी आसन कर रहे थे। इतने में एक यक्षिणी वहाँ आई। यक्ष जाति की स्त्रियाँ परम सुंदर हुआ करती है। उस रमणी का शरीर गोरा था। पद्मिनी जाति की थी। शरीर से कमल की महक आती थी। उसे देखते ही भगतजी की नियत बदल गई। उस यक्षिणी की उम्र थी 15 साल की।भगतजी ने कहा : “तुम कौन हो?”यक्षिणी: मेरा नाम चातकी है। मैं कुबेरलोक में रहती हूँ। मेरे पिता ने आज्ञा दी है कि मैं स्वयं ही अपने लिए पति खोजूँ। बस, मैंने अपना पति खोज लिया।भगतजी : किसे खोज लिया?चातकी : आपको।भगतजी : क्या? मुझे विवाह करना होता तो अपने घर में रहकर न करता? जमीनदार का लड़का हूँ, पढ़ा-लिखा हूँ। कुछ मूर्ख थोड़े ही हूँ।चातकी : आप मेरे साथ विवाह करे अथवा ना करे। मैंने आपके साथ तो विवाह कर लिया।भगतजी : कैसे?चातकी : इच्छा से। इच्छा का विवाह ही स्वयंवर कहलाता है । फिर हमलोग यक्ष है। इच्छा को ही प्रधान मानते हैं।भगतजी : मैं तुमको छू नहीं सकता। चातकी : छूने के लिए किसने कहा है आपसे ? छूने की कोई जरूरत नहीं है। आप भजन कीजिए, मैं कन्दमूल, फल-फूल लाकर आपकी पूजा किया करूँगी। छूने की तो बात ही नहीं।छूना ही तो छूत है।भगतजी : मैं तुमको अपने पास नहीं रख सकता।चातकी : क्यों स्वामी?भगतजी : मुझे स्वामी मत कहो।चातकी : क्यों प्रियतम?भगतजी : प्रियतम भी मत कहो।चातकी : क्यों इष्टदेव?भगतजी : पगली वही बात कही जाती है, जिसे मैं सुनना नहीं चाहता।चातकी : ऐसे क्यों कह रहे हो?भगतजी :कह दिया कि तुमको साथ नहीं रख सकता। बस, चुपचाप अपना रास्ता नापो। चातकी : आखिर इसका कारण क्या है?भगतजी : मैं ब्रम्हचारी हूँ।चातकी : फिर वही बात! जो लोग यह कहते है कि गृहस्थाश्रम में ब्रम्हचर्य का पालन नहीं किया जा सकता, वे दुर्बल मनुष्य है।अविवाहित रहकर ब्रम्हचर्य का पालन किया तो क्या किया? शंकरजी की तरह पत्नी के साथ रहकर ब्रम्हचर्य का पालन करना चाहिए। विष्णुजी लक्ष्मीजी के साथ रहते हुए ब्रम्हचारी है। रामजी सीताजी के साथ रहकर भी ब्रम्हचारी है। कृष्णजी राधाजी को संग रखते हुए भी पूर्ण ब्रम्हचारी है। जिस बात के नमूने मौजूद हैं उस काम में आनाकानी कैसी?भगतजी : नहीं -2। मेरे गुरुदेव ने मना किया है।चातकी : क्या कहा था गुरुजीने?भगतजी : कहा था कि कामिनी से दूर रहना। तुम कैसी भी दलीलें दो ,मैं नहीं मानूँगा। मैं गुरुजी की बात मानूँगा।चातकी : जैसे गुरु आपके, वैसे मेरे भी। गुरु का कहना जरूर करना चाहिए। मैं भी तो नहीं कहती कि आप मुझे छुआ करे।भगतजी : मैं किसी भी स्त्री से प्रेम नहीं कर सकता।चातकी : मैं कब कहती हूँ कि आप मुझसे प्रेम करे। प्रेम तो आपको एक भगवान से ही करना चाहिए।भगतजी ने सोचा : गुरुजी की इस तालीम में कि ‘औरत का साथ न करो, कुछ परिवर्तन की गुंजाइश है।’ औरत बुरी नहीं, उसका उपयोग बुरा हो सकता है। मैं इसके साथ गृहस्थी का संबंध ही न रखूँगा। इसको भी परमात्मा का भगत बना दूँगा।दोनों साथ-2 रहने लगे। जब फूस और आग इकट्ठे होते हैं तब आग जलती ही है। प्रथम तो कुछ दिनों तक तो वह अलग ही रहती रही।फिर एक दिन उसने शास्त्रों के प्रमाण से यह प्रमाणित कर दिया कि अपनी स्वामी की चरणसेवा करना स्त्री का प्रधान कर्तव्य है।प्रमाणरूप में लक्ष्मीजी का उदाहरण पेश कर दिया। वे तो दिन-रात अपने ब्रम्हचारी पति की चरण सेवा किया करती है। मैं तो केवल रात में एक घंटे के लिए अपना यह जन्मसिद्ध अधिकार चाहती हूँ। भगतजी ने उसका यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। धीरे -2 उस यक्षिणी ने नंदनजी के मन और शरीर दोनो पर पूरा -2 अधिकार कर लिया। उनके सारे बंधन टूट गये। अब तो वे पूरे गृहस्थ बन गये। उनकी 24 वर्ष की तपस्या नष्ट हो गई। उनका ब्रम्हचर्य व्रत भंग हो गया मात्र एक गुरुवचन के भूल जानेपर। इस प्रकार उनकी साधना को चौपट कर वह यक्षिणी एक दिन नंदनजी को छोड़कर अपने कुबेर लोक को चले गये।भगत नंदनदास जी रो उठे। हाय! मेरी साधना भी गई और वह भी हाथ से गई। न राम मिले न माया ही रही। न योग सधा न भोग ही भोग पाया। सच है जिन्हें गुरु के वचन में विश्वास नहीं ,वे मेरी ही तरह रोया करते हैं।कंचन के संबंध में जो मैंने गुरुदेव के वाक्यों में परिवर्तन की गुंजाइश देखी तो वह हाल हुआ और कामिनी संबंधी गुरु की आज्ञा में जो मैंने उनके वचनों में गुंजाइश देखी तो यह हाल हुआ ।अब कीर्ति का जहर देखना बाकी रह गया है। तीनों की परीक्षा लेकर ही अब भक्ति करूँगा।चाहिए तो था मुझे गुरुवचन पर अटल रहना ,परन्तु अब तो त्रिगुण की पूरी तिकड़म देखकर ही अनुभव प्राप्त करूँगा। गुरुजी की जब दो बातें सच हुई तब तीसरी भी सच ही होगी, यह मानी हुई बात है । मगर उसे भी आँखो से क्यूँ न देख लिया जाय। अभी भी भगतजी को गुरु की वचनों में शंका थी।इस घटना के बाद बारह साल तक मौन रहकर भगतजी ने घोर तपस्या की। शीतकाल में जल में खड़े होकर और ग्रीष्मकाल मे पंचधुनि तप कर एवं वर्षाकाल में वर्षा में खड़े होकर उन्होंने नमः शिवाय का अखण्ड जप किया।तपस्या में रत भूख, प्यास, मृत्यु और जीवन इन चारों शंकाओ को उन्होंने त्याग दिया। भगतजी सिद्ध हो गये।जगत को सुखी बनाने के लिए पहाड़ी पर से तराई में उतर गए। वे भूल ही गये थे कि गुरुजी ने पहाड़ी की चोटी पर से उतरने के लिए मना किया था। अब उनके मन में अपने नाम करने की घनी वासना प्रबल हो चुकी थी जिसे जिस काम के लिए अपने सिर का एक बाल तोड़कर भगतजी दे देते उसका वह काम बन जाता। अब उनकी प्रसिद्धि चारों ओर फैलने लग गई। उनको गुरु का उपदेश याद ही न रहा कि तिकड़म से बचे रहना।लोगों ने कहा एक सिद्ध महात्मा प्रकट हुए हैं। अब भी कोई दुखी रहे तो उसकी मर्जी। इन महात्मा का लाभ क्यों न लिया जाय। चलो एक -2 बाल सब ले ही आएं। 4-5 हजार आदमियों ने उनको घेर लिया। बाबाजी को बाल तोड़ने की मशक्कत क्यूँ दी जाय, इस विचार से लोगों ने बाल उखाड़ने का काम अपने जिम्मे ही ले लिया। अब बाबाजी मूर्छित हो गए। क्योंकि सब लोगों ने जबरन उनके बाल उखाड़ डाले। होश में आते ही बाबाजी वहाँ से भागे और उसी चोटी पर चढ़कर बोले कि, *गुरु के वाक्यों में अविश्वास अपने ही मृत्यु को आमंत्रण देना है। त्रिगुण सदैव त्याज्य है। गुरु के वाक्य शत प्रतिशत सत्य है। इनकी में कोई भूलकर भी न पड़ना।
Monthly Archives: May 2020
आखिर क्यूँ गुरू ने शिष्य से दक्षिणा में एक थैला भरके सूखी पत्तियों की मांग की….
बड़ी ही प्रचलित कथा है यह गुरु और शिष्य की, फिर भी मनन करने योग्य है।एक बार की बात है, गुरुकुल में जब शिष्य ने अपना अध्ययन संपूर्ण करने पर, अपने गुरु जी से यह बताने के लिए विनती की कि उन्हें गुरु दक्षिणा मे क्या चाहिए?। गुरुजी पहले तो मंद मंद मुस्कुराए और फिर बड़े ही स्नेह पूर्वक कहने लगे “मुझे तुमसे गुरु दक्षिणा में एक थैला भरके सूखी पत्तियां चाहिए… ला सकोगे ?” शिष्य मन ही मन बड़ा प्रसन्न हुआ क्योंकि उसे लगा कि वह बड़े ही आसानी से अपने गुरु की इच्छा पूरी कर सकेगा । सूखी पत्तियां तो जंगल में वैसे ही सर्वत्र बिखरी हीं रहती है। वह उत्साह पूर्वक गुरु जी से बोला “जैसी आपकी आज्ञा गुरुदेव”। अब वह शिष्य चलते चलते एक समीपस्त जंगल में पहुंच चुका। लेकिन यह देखकर कि वहां पर तो सूखी पत्तियां केवल एक मुट्ठी भर ही थी। उसके आश्चर्य का ठिकाना ना रहा। वह सोच में पड़ गया कि “आखिर जंगल से कौन सूखी पत्तियां उठाकर ले गया होगा ?” इतने में ही उसे दूर से आते हुए एक किसान दिखाई दिया। उसके पास पहुंचकर किसान से विनम्रता पूर्वक वह शिष्य याचना करने लगा कि वह उसे केवल एक थैला भर सूखी पत्तियाँ दे दे । अब उस किसान ने उससे क्षमा याचना करते हुए यह बताया कि वह उसकी मदद नहीं कर सकता, क्योंकि उसने सूखी पत्तियों का इंधन के रूप में पहले ही उपयोग कर लिया है। अब वह शिष्य पास मे ही बसे एक गांव की ओर इसी आशा से बढ़ने लगा कि हो सकता है उस गांव में उसकी कोई सहायता कर सके। वहां पहुंचकर उसने जब एक व्यापारी को देखा तो बड़ी उम्मीद से उससे एक थैला भर सूखी पत्तियाँ देने के लिए प्रार्थना करने लगा। लेकिन फिर.. एक बार निराशा ही हाथ आयी क्योंकि उस व्यापारी ने तो पहले ही कुछ पैसे कमाने के लिए सूखी पत्तियों के दोने बनाकर बेच दिए थे। लेकिन उस व्यापारी ने उदारता दिखाते हुए उन्हें एक बूढ़ी मां का पता बताया जो सूखी पत्तियाँ एकत्रित किया करती थी। परंतु भाग ने यहां पर भी उसका साथ नहीं दिया क्योंकि वह बूढ़ी मां तो उन पत्तियों को अलग-अलग करके कई प्रकार की औषधियां बनाया करती थी। अब निराश होकर वह शिष्य खाली हाथ ही गुरुकुल लौट गया। गुरुजी ने उसे देखते ही स्नेह पूर्वक पूछा, “पुत्र ले आए गुरू दक्षिणा?। उसने सिर झुका लिया।गुरु जी द्वारा दोबारा पूछने पर वह बोला, गुरुदेव! “मैं आपकी इच्छा पूरी नहीं कर पाया। मैंने सोचा था कि सूखी पत्तियां तो जंगल में सर्वत्र बिखरी ही रहती होंगी लेकिन बड़े ही आश्चर्य की बात है कि लोग उनका भी कितनी तरह से उपयोग कर लेते हैं।गुरुजी फिर पहले की तरह मुस्कुराते हुए प्रेम पूर्वक बोले “निराश क्यों होते हो, प्रसन्न हो जाओ और यही ज्ञान की सूखी पत्तियां भी व्यर्थ नहीं हुआ करते बल्कि उनके भी अनेक उपयोग हुआ करते।यही ज्ञान यही समझ मुझे गुरु दक्षिणा के रूप में दे दो।शिष्य गुरु जी की कथनी एकाग्र चित्त होकर सुन रहा था ।अचानक बड़े उत्साह से शिष्य ने कहा “गुरु जी अब मुझे अच्छी तरह से ज्ञात हो गया है कि आप मुझसे वास्तविक रूप में क्या कहना चाहते हैं। आपका संकेत वस्तुतः इसी ओर है कि जब सर्वत्र सुलभ सूखी पत्तियां भी निरर्थक या बेकार नहीं होती है तो फिर हम कैसे किसी भी वस्तु या व्यक्ति को छोटा या महत्वहीन मानकर उसका तिरस्कार कर सकते हैं? चीटी से लेकर हाथी तक, सुई से लेकर तलवार तक सभी का अपना अपना महत्व होता है। गुरूजी भी तुरंत ही बोले, “हां पुत्र मेरे कहने का भी यही तात्पर्य है कि हम जब भी किसी से मिलें तो उसे यथा योग्य मान देने का भरसक प्रयास करें, ताकि आपस में स्नेह, सद्भावना, सहानुभूति एवं सहिष्णुता का विस्तार होता रहे और हमारा जीवन संघर्ष की बजाय उत्सव बन सके। दूसरे यदि जीवन को एक खेल ही माना जाए तो बेहतर यही होगा कि हम निरविक्षेप स्वस्थ एवं शांत प्रतियोगिता में ही भाग लें और अपने निष्पादन तथा निर्माण को ऊंचाई के शिखर पर ले जाने का अथक प्रयास करें । शिष्य ने विनम्रता पूर्वक पूछा “गुरुदेव कुछ लोग कहते हैं कि जीवन एक संघर्ष है और कुछ कहते हैं कि जीवन एक खेल है और कई लोग कहते हैं कि जीवन को एक उत्सव समझना चाहिए इनमें सही क्या है?” गुरूजी ने तत्काल बड़े ही धैर्य पूर्वक उत्तर दिया, “पुत्र! जिन्हें गुरु नहीं मिला उनके लिए जीवन एक संघर्ष है। जिन्हे गुरु मिल गए उनका जीवन एक खेल है। खेल- खेल में वे अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे और जो लोग गुरूद्वारा बताए गए मार्ग पर चलने लगते हैं मात्र वे ही जीवन को एक उत्सव का नाम देने का साहस जुटा पाते हैं।”स्वामी शिवानंद जी कहते हैं, “गुरु इस पृथ्वी पर साक्षात ईश्वर है सच्चे मित्र एवं विश्वास पात्र बंधु है। जो अपने गुरूके चरणों की पूजा निरपेक्ष भक्ति भाव पूर्वक करता है उसे गुरू कृपा सीधी प्राप्त होती है।
संत-सेवा का फल
● तैलंग स्वामी बड़े उच्चकोटि के संत थे। वे 280 साल तक धरती पर रहे। रामकृष्ण परमहंस ने उनके काशी में दर्शन किये तो बोलेः “साक्षात् विश्वनाथजी इनके शरीर में निवास करते हैं।” उन्होंने तैलंग स्वामी को ‘काशी के विश्वनाथ’ नाम से प्रचारित किया।● तैलंग स्वामी का जन्म दक्षिण भारत के विजना जिले के होलिया ग्राम में हुआ था। बचपन में उनका नाम शिवराम था। शिवराम का मन अन्य बच्चों की तरह खेलकूद में नहीं लगता था। जब अन्य बच्चे खेल रहे होते तो वे मंदिर के प्रांगण में अकेले चुपचाप बैठकर एकटक आकाश की ओर या शिवलिंग की ओर निहारते रहते। कभी किसी वृक्ष के नीचे बैठे-बैठे ही समाधिस्थ हो जाते। लड़के का रंग-ढंग देखकर माता-पिता को चिंता हुई कि कहीं यह साधु बन गया तो ! उन्होंने उनका विवाह करने का मन बना लिया। शिवराम को जब इस बात का पता चला तो वे माँ से बोलेः “माँ ! मैं विवाह नहीं करूँगा, मैं तो साधु बनूँगा। अपने आत्मा की, परमेश्वर की सत्ता का ज्ञान पाऊँगा, सामर्थ्य पाऊँगा।” माता-पिता के अति आग्रह करने पर वे बोलेः “अगर आप लोग मुझे तंग करोगे तो फिर कभी मेरा मुँह नहीं देख सकोगे।”● माँ ने कहाः “बेटा ! मैंने बहुत परिश्रम करके, कितने-कितने संतों की सेवा करके तुझे पाया है। मेरे लाल ! जब तक मैं जिंदा रहूँ तब तक तो मेरे साथ रहो, मैं मर जाऊँ फिर तुम साधु हो जाना। पर इस बात का पता जरूर लगाना कि संत के दर्शन और उनकी सेवा का क्या फल होता है।”● “माँ ! मैं वचन देता हूँ।”● कुछ समय बाद माँ तो चली गयी भगवान के धाम और वे बन गये साधु। काशी में आकर बड़े-बड़े विद्वानों, संतों से सम्पर्क किया। कई ब्राह्मणों, साधु-संतों से प्रश्न पूछा लेकिन किसी ने ठोस उत्तर नहीं दिया कि संत-सान्निध्य और संत-सेवा का यह-यह फल होता है। यह तो जरूर बताया कि● एक घड़ी आधी घड़ी, आधी में पुनि आध।● तुलसी संगत साध की, हरे कोटि अपराध।।● परंतु यह पता नहीं चला कि पूरा फल क्या होता है। इन्होंने सोचा, ‘अब क्या करें ?’● किसी साधु ने कहाः “बंगाल में बर्दवान जिले की कटवा नगरी में गंगाजी के तट पर उद्दारणपुर नाम का एक महाश्मशान है, वहीं रघुनाथ भट्टाचार्य स्मृति ग्रन्थ लिख रहे हैं। उनकी स्मृति बहुत तेज है। वे तुम्हारे प्रश्न का जवाब दे सकते हैं।”● अब कहाँ तो काशी और कहाँ बंगाल, फिर भी उधर गये। रघुनाथ भट्टाचार्य ने कहाः “भाई ! संत के दर्शन और उनकी सेवा का क्या फल होता है, यह मैं नहीं बता सकता। हाँ, उसे जानने का उपाय बताता हूँ। तुम नर्मदा-किनारे चले जाओ और सात दिन तक मार्कण्डेय चण्डी का सम्पुट करो। सम्पुट खत्म होने से पहले तुम्हारे समक्ष एक महापुरुष और भैरवी उपस्थित होगी। वे तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दे सकते हैं।”● शिवरामजी वहाँ से नर्मदा किनारे पहुँचे और अनुष्ठान में लग गये। देखो, भूख होती है तो आदमी परिश्रम करता है और परिश्रम के बाद जो मिलता है न, वह पचता है। अब आप लोगों को ब्रह्मज्ञान की तो भूख है नहीं, ईश्वरप्राप्ति के लिए पुरुषार्थ करना नहीं है तो कितना सत्संग मिलता है, उससे पुण्य तो हो रहा है, फायदा तो हो रहा है लेकिन साक्षात्कार की ऊँचाई नहीं आती। हमको भूख थी तो मिल गया गुरुजी का प्रसाद।● अनुष्ठान का पाँचवाँ दिन हुआ तो भैरवी के साथ एक महापुरुष प्रकट हुए। बोलेः “क्या चाहते हो ?” शिवरामजी प्रणाम करके बोलेः “प्रभु ! मैं यह जानना चाहता हूँ कि संत के दर्शन, सान्निध्य और सेवा का कया फल होता है ?”● महापुरुष बोलेः “भाई ! पूरा फल तो मैं नहीं बता सकता हूँ।”● देखो, यह हिन्दू धर्म की कितनी सच्चाई है। हिन्दू धर्म में निष्ठा रखने वाला कोई भी गप्प नहीं मारता कि ऐसा है, ऐसा है। काशी में अनेक विद्वान थे, कोई गप्प मार देता ! लेकिनि नहीं, सनातन धर्म में सत्य की महिमा है। आता है तो बोलो, नहीं आता तो नहीं बोलो।● शिवस्वरूप महापुरुष बोलेः “भैरवी ! तुम्हारे झोले में जो तीन गोलियाँ पड़ी हैं, वे इनको दे दो।”● फिर वे शिवरामजी को बोलेः “इस नगर के राजा के यहाँ संतान नहीं है। वह इलाज कर-कर के थक गय है। ये तीन गोलियाँ उस राजा की रानी को खिलाने से उसको एक बेटा होगा, भले उसके प्रारब्ध में नहीं है। वही नवजात शिशु तुम्हारे प्रश्न का उत्तर देगा।”● शिवरामजी वे तीन गोलियाँ लेकर चले। नर्मदा किनारे जंगल में, आँधी-तूफानों के बीच पेड़ के नीचे सात दिन के उपवास, अनुष्ठान से शिवरामजी का शरीर कमजोर पड़ गया था। रास्ते में किसी बनिया की दुकान से कुछ भोजन किया और एक पेड़ के नीचे आराम करने लगे। इतने में एक घसियारा आया। उसने घास का बंडल एक ओर रखा। शिवरामजी को प्रणाम किया, बोलाः “आज की रात्रि यहीं विश्राम करके मैं कल सुबह बाजार में जाऊँगा।”● शिवरामजी बोलेः “हाँ, ठीक है बेटा ! अभी तू जरा पैर दबा दे।”● वह पैर दबाने लगा और शिवरामजी को नींद आ गयी तो वे सो गये। घसियारा आधी रात तक उनके पैर दबाता रहा और फिर सो गया। सुबह हुई, शिवरामजी ने उसे पुकारा तो देखा कि वह तो मर गया है। अब उससे सेवा ली है तो उसका अंतिम संस्कार तो करना पड़ेगा। दुकान से लकड़ी आदि लाकर नर्मदा के पावन तट पर उसका क्रियाकर्म कर दिया और नगर में जा पहुँचे।● राजा को संदेशा भेजा कि ”मेरे पास दैवी औषधि है, जिसे खिलाने से रानी को पुत्र होगा।”● राजा ने इन्कार कर दिया कि “मैं रानी को पहले ही बहुत सारी औषधियाँ खिलाकर देख चुका हूँ परंतु कोई सफलता नहीं मिली।”● शिवरामजी ने मंत्री से कहाः “राजा को बोलो जब तक संतान नहीं होगी, तब तक मैं तुम्हारे राजमहल के पास ही रहूँगा।” तब राजा ने शिवराम की औषधि ले ली।● शिवरामजी ने कहाः “मेरी एक शर्त है कि पुत्र जन्म लेते ही तुरन्त नहला धुलाकर मेरे सामने लाया जाय। मुझे उससे बातचीत करनी है, इसीलिए मैं इतनी मेहनत करके आया हूँ।”● यह बात मंत्री ने राजा को बतायी तो राजा आश्चर्य से बोलाः “नवजात बालक बातचीत करेगा ! चलो देखते हैं।”● रानी को वे गोलियाँ खिला दीं। दस महीने बाद बालक का जन्म हुआ। जन्म के बाद बालक को स्नान आदि कराया तो वह बच्चा आसन लगाकर ज्ञान मुद्रा में बैठ गया। राजा की तो खुशी का ठिकाना न रहा, रानी गदगद हो गयी कि ‘यह कैसा बबलू है कि पैदा होते ही ॐऽऽऽ करने लगा ! ऐसा तो कभी देखा-सुना नहीं।’● सभी लोग चकित हो गये। शिवरामजी के पास खबर पहुँची। वे आये, उन्हें भी महसूस हुआ कि ‘हाँ, अनुष्ठान का चमत्कार तो है !’ वे बालक को देखकर प्रसन्न हुए, बोलेः “बालक ! मैं तुमसे एक सवाल पूछने आया हूँ कि संत-सान्निध्य और संत-सेवा का क्या फल होता है ?”● नवजात शिशु बोलाः “महाराज, मैं तो एक गरीब, लाचार, मोहताज घसियारा था। आपकी थोड़ी सी सेवा की और उसका फल देखिये, मैंने अभी राजपुत्र होकर जन्म लिया है और पिछले जन्म की बातें सुना रहा हूँ। इसके आगे और क्या-क्या फल होगा, इतना तो मैं नहीं जानता हूँ।”● ब्रह्म का ज्ञान पाने वाले, ब्रह्म की निष्ठा में रहने वाले महापुरुष बहुत ऊँचे होते हैं परंतु उनसे भी कोई विलक्षण होते हैं कि जो ब्रह्मरस पाया है वह फिर छलकाते भी रहते है। ऐसे महापुरुषों के दर्शन, सान्निध्य वे सेवा की महिमा तो वह घसियारे से राजपुत्र बना नवजात बबलू बोलने लग गया, फिर भी उनकी महिमा का पूरा वर्णन नहीं कर पाया तो मैं कैसे कर सकता हूँ !