उपनिषदों के ऋषियों का कहना हैः
यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ ।
तस्यैते कथिता ह्यर्थाः प्रकाशन्ते महात्मनः ।।
जिन्हें परमात्मा में परम भक्ति होती है, जैसी परमात्मा में वैसी ही भक्ति जिनको सदगुरु में होती है, ऐसे महात्मा के हृदय में ये (उपनिषदों में) बताये हुए रहस्यमय अर्थ प्रकाशित होते हैं (परमात्मज्ञान प्रकाशमान होता है ।) श्वेताश्वतर उपनिषद्- अध्याय 6, मंत्र 23
मत्स्येन्द्रनाथजी ने यह उत्तम साधन बताया गोरखनाथ जी को । गोरखनाथ जीने दी उत्तम प्रसादी गहिनीनाथ जी को, गहिनीनाथ जी ने निवृत्तिनाथ जी को और निवृत्तिनाथ जी की कृपा से ज्ञानेश्वर जी इतने महानपुरुष हुए । संत तोतापुरी जी ने प्रसादी दी श्री रामकृष्ण जी को, श्री रामकृष्ण जी ने विवेकानंद जी को दी । मुनि अष्टावक्र जी ने यह कृपाप्रसादी राजा जनक को दी और उन्होंने शुकदेव जी को दी । याज्ञवल्क्य ऋषि मैत्रेय को देते हैं यह कृपा प्रसादी । सनत्कुमार ने ब्रह्मज्ञान का उपेदश दिया और कृपादृष्टि की नारदजी पर । यमराज ने नचिकेता पर की, भगवान वसिष्ठ जी ने श्रीराम जी पर कृपा की । जनार्दन पंत, एकनाथ जी, संत तुलसीदास जी, साँईं श्री लीलाशाह जी – इन सभी महात्माओं को अपने-अपने सदगुरुओं से बहुत कुछ मिला था । यह गुरु-परम्परा बहुत जरूरी है । जिस देश में गुरु-शिष्य परम्परा हो, ऐसे ब्रह्मवेत्ताओं का आदर होता हो, जो अपने को परहित में झोंक देते हैं, अपनी ‘मैं’ को परमेश्वर में मिला देते हैं ऐसे महापुरुष अगर देश में सौ भी हों तो उस देश को फिर कोई परवाह नहीं होती, कोई लाचारी, परेशानी नहीं रहती ।
सच्ची सेवा तो उन महर्षि वेदव्यासजी ने की, उस सदगुरुओं, ब्रह्मवेत्ताओं ने की जिन्होंने जीव को जन्म-मृत्यु की झंझट से छुड़ाया… जीव को स्वतंत्र सुख का दान किया… दिल में आराम दिया…. घर में घर दिखा दिया… दिल में ही दिलबर का दीदार करने का रास्ता बता दिया । यह सच्ची सेवा करने वाले जो भी ब्रह्मवेत्ता हों, चाहे प्रसिद्ध हों, चाहे अप्रसिद्ध, नामी हों चाहे अनामी, उन सब ब्रह्मवेत्ताओं को हम खुले हृदय से हजार-हजार बार आमंत्रित करते हैं और प्रणाम करते हैं । हे महापुरुषो ! विश्व में आपकी कृपा जल्दी से पुनः – पुनः बरसे । विश्व अशांति की आग में जल रहा है । हे आत्मज्ञानी गुरुओ ! हे ब्रह्मवेत्ताओ ! हे निर्दोष नारायणस्वरूपो ! हम आपकी कृपा के ही आकांक्षी हैं । जिन देशों में ऐसे ब्रह्मवेत्ता गुरु हुए और उनको झेलने वाले साधक हुए वे देश उन्नत बने हैं । धन्यभागी हैं वे लोग, जिनमें वेदव्यासजी जैसे आत्मसाक्षात्कारी पुरुषों का प्रसाद पाने की और बाँटने की तत्परता है !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2020, पृष्ठ संख्या 4, अंक 330
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