गुरुभक्त सुदत्त की रोचक कथा (भाग-1)

गुरुभक्त सुदत्त की रोचक कथा (भाग-1)


गुरु का आना सुख का छाना,

गुरु का जीवन प्रभु का दर्शन,

गुरु की वाणी गंगा का पानी,

गुरु का चेहरा फूलो के जैसा,

गुरु की दृष्टि रचे नई सृष्टि,

गुरु की काया चन्दन की छाया,

गुरु की आंखे सागर के जैसी।

सुदत्त भावनाओं की कलम से कुछ ऐसी ही कविता गढ़ रहा था। उसके गुरु थे महात्मा बुद्ध।उसके मानस पटल पर उन्ही की छवि साकार थी, उसकी श्वांसों में उसके गुरुदेव चन्दन की खुशबू की तरह बसे हुए थे। उसकी पुलक-पुलक में उनके होने का अहसास रहता था, मस्तक पर जैसे गुरु के चरण सजे है उसे हमेशा ऐसे लगता था। सच मे सुदत्त अपने गुरुदेव को हरपल पीता था, उन्ही में जिया करता था।

कहने को वह बुद्ध के संघ का समर्पित भिक्षुक न था एक गृहस्थी शिष्य ही था। रईसी उसे खानदानी जायदाद में मिली थी लेकिन माया की इन तेज फुंकारो के बीच होने पर भी उस पर जरा भी जहर न चढ़ा था वह मिठास से भरा था, गुरुभक्ति के अमृत से लबालब । यह इसी भक्ति की शक्ति थी कि वह ऐसा कर आया था। कैसा?? कि वो साक्षात अपने गुरुदेव को महात्मा बुद्ध को उनके सकल संघ के साथ अपने नगर श्रावस्थी आने का निमंत्रण दे आया था। भरी रसाई से रोधी आवाज में सुदत्त ने बुद्ध से कहा था कि- प्रभु श्रावस्थी युगों से प्यासा है, आपके स्नेह वर्षा के कुछ बौछारें वहां भी पड़ जाय तो हमारा अहोभाग्य, आप आएंगे न.. तथागत। महात्मा बुद्ध ने भी करकमल उठाकर पूरी प्रसन्नता से कहा- अवश्य सुदत्त! आनेवाला चतुर्मास हम श्रावस्थी में ही बिताएंगे।

भावनाओ के बूते सुदत्त ने सेवा का बीड़ा तो उठा लिया था परन्तु अब पुरुषार्थ के बूते पर उसे पूरा भी करना था श्रावस्थी में एक ऐसा स्थान ढूंढना था जहां गुरुदेव अपने सैंकड़ो भिक्षुओ के साथ चार महीनों तक विहार कर सके वैसे तो सुदत्त श्रावस्थी के चप्पे-चप्पे का जानकार था मगर महात्मा बुद्ध के लिए भूखण्ड ढूंढना आसान न था।

भिक्षुक आनंद ने बताया था कि- गुरुदेव को एकांत प्रिय है, इसलिए कोई ऐसा ठिकाना खोजना होगा जो नगर की भीड़भाड़ से दूर हो लेकिन वह ज्यादा दूर भी न होना चाहिए वरना भिक्षुओ को नगर में भिक्षा लेने आने में दिक्कत होगी, लोगो को गुरुदेव को सुनने और दर्शन करने में दिक्कत होगी। सुदत्त इन्ही ख्यालो के ताने बाने बुन रहा था। उसके रात दिन के चिंतन का यह बिंदु बन गया था कि कहाँ निवास करेंगे मेरे गुरुदेव? श्रावस्थी की वो कौन सी धरा है जहां जगतपति आंनद से विहार करेंगे इन्ही भावनाओ की कसौटी लेकर सुदत्त रोज सुबह श्रावस्थी के दौरे पर निकल पड़ता सभी सहचरों, परिचितों, रिश्तेदारों को अच्छी सी अच्छी भूमि सुझाने को कहता।

अपने कारोबार को तो सुदत्त ने मानो इन दिनों ताले ही लगा दिए थे सिर्फ एक ही धुन उसके सिर चढ़ बोल रही थी कि गुरुदेव और उनका श्रावस्थी में आगामी आगमन। अधीरता इतनी थी कि क्या कहे रातों को चौंककर उठ खड़ा होता सुबह तक का इंतजार पौ फटने तक एक-एक पल काटना उसे भारी जान पड़ता, उजाला होने से पहले ही नहा धोकर तैयार हो जाता और फिर जब सूरज की पहली किरण श्रावस्थी को छूती सुदत्त जमीन की खोज के लिए निकल पड़ता।

आखिरकार लगन की शाखा पर कौंपले फूटी श्रावस्थी की सीमा पर एक मनोरम आम्रवन पर सुदत्त की नज़र अटक गई क्या छटा थी यहां की जहां-तहाँ फूल फल पत्तियों से लदे पेड़ झूम रहे थे पुरा वन हरियाली से धुला था। हर मौसम के पौधे सुंदर क्यारियों में सजे थे भँवरों की झुंड इठलाती हुई घूम रहे थे, यहां की हवा भी ताजी और सात्विक थी, गुलाब और मोगरे की भीनी-भीनी खुशबू मानो सावन की हवाओ में घुली थी।

सुदत्त ठगा सा रह गया धरा क्या जैसे वैकुंठ था यह और भगवान तो वैकुंठ में ही रहा करते है इसलिए गुरुदेव के लिए यही स्थान उचित रहेगा। सुदत्त के मन मे इस आशा की कली चटकी ही थी कि बुद्ध ने उसे फला फुला फूल बना दिया सुदत्त को वन के चप्पे-चप्पे पर भगवे चीवर लहराते हुए दिखे *”बुद्धम शरणम गच्छामि”* की हल्की- हल्की धुनें फूटती सुनाई दी।

शिष्य के हर अनगढ़ विचारों को मिटाना या पूरा आकार देना यह गुरु का ही तो विरद है विचार अच्छा है तो गुरुवर उसको आधार देते है, विचार गलत है तो वे उसे जड़ समेत उखाड़ फेंकते है। आज सुदत्त को भी अपने गुरुदेव का इशारा मिल गया था अब उसकी उड़ान देखने वाली थी। उसने झट सूत्रों से पता लगाने को कहा कि जमीन किसकी है? पता चला कि कौशल नरेश के पुत्र युवराज जेत इस वन के स्वामी है।

सुदत्त ने उसी पल राजमहल पहुंचकर राजकुमार से भेंट की और प्रस्ताव रखा लेकिन राजकुमार जेत तो बिल्कुल अड़ियल निकला उसे यह वन बहुत प्यारा था वह उसके एक कोने तक का सौदा करने को तैयार नही था। सुदत्त ने दाम बढाकर बात की परन्तु सब निष्फल। जेत टस से मस नही हुआ सुदत्त घुटनो के बल गिरकर लगभग गिड़गिड़ाने लगा आखिरकार युवराज जेत ने यू ही हाथ हिलाते हुए बात टालने के लिए कह दिया- अरे जाओ, जाओ सुदत्त इस वन की तुम क्या कीमत आंकोगे? इसकी सारी भूमि पर स्वर्ण मुद्राएं बिछा दी जाये तब कहीं जाकर इसका मूल्य सधता है। है किसी मे जिगरा इसे खरीदने का?

युवराज जेत के लिए तो यह सुदत्त से पीछा छुड़ाने की युक्ति थी मगर सुदत्त के लिए यही मुक्ति की युक्ति बन गई उसने झट मायूसी की जंजीरे उतार फेंकी हाथ जोड़कर खनकती हुई खुशी में बोला- मैं खरीदूंगा, तुम्हारी पूरी वन पर स्वर्ण मुद्राओं की चादर बिछा दूंगा अब बस तुम अपनी जुबां से पीछे मत हटना, कुमार पीछे नही हटना, मैं वही मूल्य दूंगा जो तुमने कहा है। कुमार जेत स्तब्ध बड़े असमन्जस में पड़ गया लेकिन फिर उसके मन मे कौतुक उठा देखे तो सही कैसे उस कई एकड़ के वन में स्वर्ण मुद्राएं बिछता है,  हुं…… जेत व्यंग भरी मुस्कान दे उठा।

सुदत्त ने इस चुनौती को स्वीकार किया और चला गया दरअसल यह चुनौती धनी सुदत्त ने नही उसके शिष्यत्व ने स्वीकार की थी एक भोली सी आशा जो गुरुदेव को वन में विहार करते देखना चाहती थी आज एक तूफानी संकल्प बन गई थी। वही संकल्प कुमार जेत की शर्त को सर आंखों पर उठाकर ले आया था अब बारी थी शर्त पूरी करने की वैसे तो सुदत्त के खजानो में धन का सावन छाया रहता था माँ लक्ष्मी निरन्तर बरसात करती रहती थी।

दूर-दूर की कस्बो में सुदत्त को अनाथ पिंडक के नाम से जाना जाता था क्योंकि उसकी रसोई,अन्न भरे गोदाम गरीब असहायो के लिए हमेशा खुले रहते थे उसके लंगर के चूल्हे की आग कभी बुझती नही थी वहां आठो प्रहर श्रावस्थी के दीन – गरीबो को भर पेट भोजन मिला करता था। अनाथों के पिंडक अर्थात देह, अनाथों के पिंडक की देखभाल करने वाला सुदत्त इसलिए अनाथ पिंडक कहलाता लेकिन कुमार जेत की चुनौती उसकी हैसियत से थोड़ी ऊंची थी मामूली बात थोड़े न थी कई एकड़ जमीन पर सोने के सिक्के बिछाना खैर सुदत्त पूरी गति में था कराने वाला आप कराएगा यह सोचकर वह निमित्त बन गया।

कल की पोस्ट में हम जानेंगे कि सुदत्त किस प्रकार अपने गुरुदेव के लिए इस वन का सौदा करता है।

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