एक राजकुमार ने संसारी सुखों की पोल जान ली कि ‘यह जवानी है दीवानी । भोग भोगे लेकिन अंत में, बुढ़ापे में तो कुछ नहीं…. और जिस शरीर से भोग भोगे वह तो जल जायेगा ।’ उस बुद्धिमान राजकुमार ने साधुताई की दीक्षा ले ली । फिर वह अपने गुरु के साथ यात्रा कर रहा था, पैदल का जमाना था । यात्रा करते-करते उसने देखा कि गुरु जी एक जीर्ण-शीर्ण कुटिया की प्रदक्षिणा कर उसे नमन कर रहे हैं ।
राजकुमार को हुआ कि ‘मेरे गुरु इतने ऊँचे उठे हुए हैं फिर भी इस कुटिया को प्रणाम कर रहे हैं ! कुटिया में तो भगवान की कोई मूर्ति नहीं, यह कोई उपासना-स्थली भी नहीं…..।’
यात्रा चलती रही, चलती रही…. मन में शंका थी, फिर शंका को और पुष्टि मिली । रास्ते में दूसरी कुटिया मिली, उसमें कोई व्यक्ति बैठा था । गुरु जी ने उस कुटिया की भी प्रदक्षिणा की और नमन किया ।
राजकुमार यह देख के दंग रह गया किंतु सोचा, मौका पाकर गुरु जी से पूछेंगे ।’ आगे चले तो राजकुमार ने देखा कि एक नयी कुटिया है, गुरुजी उसको भी नमन कर रहे हैं । अब उससे रहा नहीं गया, बोलाः “गुरुजी ! आपने जीर्ण-शीर्ण कुटिया को नमन किया, फिर आगे चलकर जिस कुटिया में एक व्यक्ति बैठा था उस कुटिया को नमन किया और अभी नयी कुटिया को प्रणाम कर रहे हैं ! इसका रहस्य मैं समझ नहीं पा रहा हूँ । जो जीर्ण-शीर्ण कुटिया थी उसमें मंदिर तो नहीं था फिर आपने वहाँ मत्था क्यों टेका ? गुरुजी ! मंदिर में मनुष्य की बनायी मूर्ति रखी जाती है । आप मूर्तिपूजा से आगे निकले हुए हैं और वहाँ तो मूर्ति भी नहीं थी !”
“हाँ, वहाँ मूर्ति तो नहीं थी किंतु पूर्वकाल में अमूर्त आत्मा जिस पुरुष के हृदय में अठखेलियाँ करके प्रकट हुआ था ऐसे ब्रह्मज्ञानी महापुरुष उस कुटिया में रह चुके थे इसलिए मैंने उसको नमन किया ।”
“गुरु जी ! दूसरी कुटिया में तो एक व्यक्ति बैठा था । वह न तो संन्यासी था और न जटाधारी था । बिल्कुल ऐसे आलसी जैसा बैठा था ।”
“उनकी चित्तवृत्तियाँ शाँत हो गयी थीं । वे विश्रांति पाये हुए थे । कर्ता-भोक्तापन से पार अपने आत्मा में आराम पा रहे थे । वे हृदय-मंदिर में प्रवेश पाकर वहाँ आराम कर रहे थे । भले उनकी वेश-भूषा से संन्यास की खबरें नहीं आती थीं किंतु वे भीतर संन्यास को उपलब्ध हो गये थे । इसलिए मैंने उनकी कुटिया को प्रणाम किया ।”
“गुरुजी ! ये दो बातें समझ में आ गयीं लेकिन यह तो नयी कुटिया है….”
“इसमें कोई ब्रह्मवेत्ता आयेंगे इसलिए मैं पहले से प्रणाम कर देता हूँ ।”
अवर्णनीय है ब्रह्मज्ञानी महापुरुषों की महिमा ! 56 प्रकार के भोग उनके सामने रख दो, उन्हें खाते हुए उन्हें हर्ष नहीं होता और भीख माँगकर रूखा-सूखा खाने को मिले तब भी उन्हें शोक नहीं होता । जीवमात्र का मंगल चाहने वाले, मानवजाति के लिए वरदानस्वरूप ऐसे महापुरुष संसार में बड़े पुण्यों से प्राप्त होते हैं ।
पहले के महापुरुष जहाँ-जहाँ रहे, वे जगहें अब भी पूजी जा रही हैं । जिन पत्थरों पर बैठे वे पत्थर भी पूजे जा रहे हैं । उनके लगाये बरगद-पीपल भी लोगों की मनोकामनाएँ पूरी करते हैं तो उनकी स्वयं की अनुभूति कैसी होती होगी !
स्रोतः ऋषि प्रसाद, सितम्बर 2020 पृष्ठ संख्या 24,25 अंक 333
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