शिष्य की कसौटी, सत्ता और बलवन्द का अहं (भाग-1)

शिष्य की कसौटी, सत्ता और बलवन्द का अहं (भाग-1)


गुरु ही मार्ग है, जीवन है और आखिरी ध्येय है। गुरु कृपा के बिना किसी को भी सर्वोत्तम सुख प्राप्त नही हो सकता, गुरु ही मोक्ष द्वार है गुरु ही मूर्तिमन्त कृपा है। गुरु और शिष्य के बीच जो वास्तविक सम्बन्ध है उसका वर्णन नही हो सकता वह लिखा नही जा सकता वह समझाया नही जा सकता। सत्य के सच्चे खोजी को करुणास्वरूप ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास श्रद्धा और भक्तिभाव से जाना चाहिए उनके साथ चिरकाल तक रहकर सेवा करनी चाहिए। शिष्य की कसौटी करने के लिए गुरु जब विघ्न डालें तब धैर्य रखना चाहिए। बाग में फूलो को छू रहे हो तो कांटो से बचना क्योंकि कांटे कहीं न कहीं इन फूलों के आस पास छिपे बैठे है कब चुभ जाएंगे आपको पता भी नही चलेगा ऐसा भी नही कि मुकाबला बराबर का है।फूल एक है तो कांटो की संख्या उससे कहीं अधिक है इसलिए किसी शायर ने कहा कि..

“ऐ फूलों के आशिको खबरदार

फूल को निगाह में रखने से पहले

याद रखना कि तुम कांटो की निगाह में हो”

यही बात तो एक साधक के साथ घटित होती है ज्यों ही वह भक्ति रूपी फूल को पाने के लिए आगे बढ़ता है वह शैतान की नज़र में आ जाता है। शैतान अर्थात कलुषित मन, अगर भूल से भी वह शैतान के कांटों में फंस जाए तो उसका सबकुछ ठगा जाता है। वर्षो की सेवा समर्पण औऱ तपस्या एक दूधिया अथक प्रयासों के बाद उज्ज्वल शुद्ध दुध इकट्ठा करता है उसे इस दूध के अच्छे दाम मिल सकते हैं लेकिन अगर खटाई की एक बूंद इस दूध में गिर जाए तो उसका सारा दूध मिलकर भी इस खट्टे की बून्द को बेअसर नही कर पाता जबकि वह एक बूंद ही सारा दूध खराब कर देती है।

भक्ति मार्ग का सबसे बड़ा कांटा और खट्टी बून्द है हमारा अहंकार, इसी के शिकार हुए थे सत्ता और बलवन्द। दोनों सगे भाई थे और गुरु श्री अर्जुनदेव जी के दरबार के गवैया थे। उनके गले मे साक्षात् सरस्वती का वास था जिस समय दोनों भाई कोई राग अलापते तो जैसे सूरज भी ठिठक कर सुनने लगता, पक्षी उड़ना भूलकर थम जाते, नदिया की कल-कल आवाज उनके सुर से सुर मिलाती सुबह शाम शब्द कीर्तन की मधुर धुनों पर वे सबको मोहित किया करते थे। पूरा दिन गुरु दरबार मे सेवा करने और रात को अपने घर चले जाना बस यही उनकी दिनचर्या थी।

दरबार का हर प्रेमी उन्हें बेइंतहा प्यार और सम्मान देता था लेकिन कहते हैं न “अती सर्वत्र वर्जयेत” अति किसी भी चीज की नुकसान देह होती है। अगर हद से ज्यादा मीठा खाया जाए तो वह भी मधुमेह का कारण बन जहर सिद्ध होता है। यही सत्ता और बलवन्द इन दोनो भाइयों के साथ हुआ जैसे ही वे शब्द गान करके मंच से नीचे उतरते संगत उनके प्रशंसा में तारीफों के पुल बांध देती हालांकि वे अक्सर मंच से कहा करते थे कि “मैं निर्गुण यारे को गुण नाही आपे तरस पइयो ये” लेकिन प्रशंसा के इस हाल को वे गुरु चरणों मे अर्पित करना भूल जाते इस वजह से वे अहम के गिरफ्त में कैसे फंसते गए उन्हें स्वयं भी पता न चला।

अब सत्ता और बलवन्द गुरु के लिए नही बल्कि व्यक्तियों के समूह के लिए गाने लगे। हर ऊंचा राग आंखे बंद कर पूरे स्वाद के साथ गाने के बाद तुरन्त उनके नेत्र खुल जाते और संगत के चेहरों पर कुछ ढूंढने लगते जी हां ! यह ढूंढ होती थी वाहवाही की, तालियों की, यही सुनने की कि भैया कमाल कर दिया आज तो मजा आ गया और तो और कम संगत होने पर उन दोनों के चेहरों पर उदासी छा जाती, लग्न और उत्साह वाले भाव गुम से हो जाया करते। उनकी स्थिति उस मूढ़ व्यक्ति की सी हो गई जो सर्प के सिर पर सजे मणि को तो पा लेना चाहता है लेकिन सर्प डसेगा भी यह उसको ख्याल नही रहता।

प्रशंसा बहुत चमकीली होती है सबको अपनी ओर खिंचती है परन्तु अफसोस उसका ठिकाना अहम रूपी जहरीले सर्प के ऊपर है।

सत्ता और बलवन्द प्रशंसा रूपी मणि के चक्कर में अहम के सर्प से डसे गए उन्हें लगने लगा कि दरबार मे वे कुछ खास हैं उनका स्थान अन्य लोगो से अलग है। धीरे-धीरे इसका कुप्रभाव उनके व्यवहार में भी झलकने लगा अब वे सबकी दुआ सलाम का जवाब देना जरूरी नही समझते किसी को खुद पहले प्रणाम कहना तो जैसे उनकी शान के खिलाफ हो गया। ऐसा नही था कि गुरुमहाराज जी सत्ता बलवन्द की इस आंतरिक स्थिति से अनजान थे। उन्होंने कई बार सोचा भी कि इन्हें समझाया जाय लेकिन हरबार रुक गए क्योंकि वह जानते थे कि अहम का रोग किसी को हो जाता है तो वह किसी की बात कम ही सुनता है।

अहंकारी के कान खराब हो जाते हैं अगर उसे कुछ कह दिया जाय तो उससे क्रोधरूपी विष ही बाहर आता है।

यूँ ही समय बीतता गया एक दिन सत्ता, बलवन्द की बहन के लिए एक अच्छे परिवार से रिश्ता आया दोनों की दिली ख्वाहिश थी कि वे अपनी बहन की शादी इतने धूम धाम से करें कि सबकी आंखे फ़टी की फटी रह जाएं, चारो ओर धाक जम जाए। लेकिन इन सबके लिए जरूरत थी धन की। अब चूँकि उनके पूरे परिवार का पोषण गुरु घर से होता है इसलिए शादी का प्रबंध भी गुरु घर से होना स्वभाविक था इसलिए सत्ता और बलवन्द गुरुमहाराज जी के आगे उपस्थित हुए और सारी स्थिति बयान कर डाले।

गुरुमहाराज जी ने विनती सुनी और कहा- कल दरबार मे जितना भी चढावा चढ़ेगा तुम सब ले जाना और उससे अपनी बहन का विवाह कर लेना।

दोनों खुशी से उछल पड़े सोचा कि रोज जितना धन चढावे में आता है उतने से तो हम शादी में चार चांद लगा देंगे। अगली सुबह समय से 20 मिनट पहले ही वे गुरुदरबार की ओर चल पड़े उनके मन मे एक अलग ही उमंग थी कुछ ऐसे ही जैसे एक बच्चे में होती है जब वह मेला देखने जाता है झूला पर झूलने की चाह और अच्छी-अच्छी मिठाइयों की कल्पना बच्चे में कुछ अलग ही उत्साह भर देती है वह तेज तेज़ कदमो से मेले की ओर बढ़ता है। आज सत्ता और बलवन्द के कदम भी तेजी से गुरु दरबार की ओर बढ़ रहे थे।

गुरुदरबार मे पहुँचते ही उन्होने अपने साज सजाने शुरू कर दिए उनकी हर क्रिया में विशेष अधीरता सी थी लेकिन यह क्या आज संगत को क्या हुआ ? मात्र गिनती के ही लोग उपस्थित थे जबकि इस समय तक तो पूरा पंडाल भर जाया करता था खैर कोई बात नही संगत अभी आती ही होगी यह सोचकर वह मंच पर बैठ गए और सबसे पहले अपने सबसे प्रसिद्ध शब्द के राग छेड़े उनका जोश देखने लायक था पूरा पंडाल उनके आवाज़ से झंकृत हो उठा। संगत जैसे आंनद के किसी दिव्य रथ पर सवार हो चली ढोलक, छैनो आदिक की झंकार पर सबके पांव थीरक उठे।

सत्ता और बलवन्द ने भी अपनी कौशल की सारी पूंजी लगा दी उन दोनो का पूरा शरीर पसीने से तर हो गया लेकिन धीरे-धीरे उनका जोश ठंडा पड़ने लगा, ऊंचा स्वर मध्यम होने लगा, तान की मधुरता खोने लगी सुर बोझ से लगने लगे कारण शब्द कीर्तन का निश्चित समय खत्म होने की दहलीज पर था और प्रेमी इतने से थे जैसे आंटे में नमक। अन्य दिनों के मुकाबले आज आधी संगत भी नही आई थी समय पूरा होते ही शब्द कीर्तन का कार्यक्रम समाप्त हुआ संगत ने माथा टेका और अपने अपने घर चले गई लेकिन सत्ता और बलवन्द कि तो जैसे दुनिया ही उजड़ गई एक गुम सी चुप्पी ने उनके होठो पर ताले जड़ दिए। पांव शरीर का भार सहन करने से मना करने लगी।

तभी गुरुमहाराज जी बोले- वाह सत्ता और बलवन्द वाह ! तुम दोनों ने तो आज समा बांध दिया जाओ जितना भी चढावा चढा है सब ले जाओ धूमधाम से अपनी बहन की शादी करो।

गुरुदेव के ये शब्द उन दोनों के हॄदय में व्यंग्यबाण की तरह चुभे उन्हें ऐसा लगा मानो भरी सभा मे खड़ा कर उन्हें तमाचा मार दिया गया हो। एक सेवादार ने आसन से माया इकट्ठी की और पोटली में बांधकर इनको दे दी भेंट में इतना कम धन मिला था कि उससे भव्य शादी तो दूर की बात जनाज़े के लिए बांस और कफ़न तक भी बड़ी मुश्किल से जुटे वे इस पोटली को लेकर दरबार से ऐसे निकले जैसे सैकड़ो एकड़ जमीन के हकदार को दो गज जमीन देकर गांव से निकाल दिया गया हो।

अब कहानी बिगड़ चुकी थी उन दोनो के अंदर ही अंदर लावा सुलगने लगा था। माथे पर अंकित नफेतर घृणा के बल, उनके दिल का हाल साफ बयान कर रही थी। घर सामने था लेकिन घर की दहलीज उन्हे इतनी ऊंची प्रतीत हो रही थी जैसे किसी ऊंची दीवार को लांघ रहे हो अभीतक वे दोनों आपस मे सँवाद शून्य थे लेकिन जैसे फोड़ा पकने के बाद मवाद अपने आप बाहर रिसने लगती है। सत्ता बलवन्द के विकृत मन की मवाद भी मोह के रास्ते फुट पड़ी।

सत्ता बोला- देखा भैया ! कैसा हश्र किया हमारा, जैसा दूध में गिरी मक्खी के साथ किया जाता है ऐसा हमारे साथ हुआ सारी उम्र हमने गला फाड़-फाड़कर शरीर बैठा दिया और आज अगर हमने चंद पैसे मांगे तो हमे यह चिल्लर पकड़ा दिया गया इससे तो एक भिखारी भी संतुष्ट न हो। भरी पूरी बारात का सेवा पानी तो बहुत दूर की बात है ऐसा धोखा तो कोई दुश्मन को भी नही देता जैसा उन्होने हमे दिया, जरूर गुरुमहाराज जी ने ही संगत को आज आने से मना किया होगा।

बलवन्द ने अपने शब्द से जहर उगला- हां भैया ! हमारे ही स्वरों पर तो मोहित होकर दुनिया यहां आती है, हम ही से प्रभावित होकर लोगो ने धन न्योछावर किया और उस धन से दरबार निर्मित हुआ आज हमारे लिये ही धन में तोट (कमी) आ गई।हमने सब इकट्ठा किया और आज मालिक ये गुरु बन बैठे हैं।

सत्ता फिर बोला- मैं तो कोस रहा हूँ उस दिन को जब हम गुरु के चाकर बने कहां फंस गए यहां ? अगर हम संसार में कहीं गाते तो राजाओं जैसे ठाठ होते नौकर होते, हवेलियाँ होती और पता नही क्या-क्या होता हमारे पास।

कल हम पढ़ेंगे कि कैसे सत्ता और बलवन्द गुरु से विपरीत दिशा की ओर चल पड़े….

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