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शिष्य की कसौटी, सत्ता-बलवन्द का अहम…(भाग-4)


अब तक हमने जाना कि सत्ता और बलवन्द कोढ़ के रोग से ग्रस्त हो गये। गुरू निंदा करने के कारण, गुरु से द्वेष करने के कारण उन्हे खुब पीड़ा होती। यहाँ तक कि श्वास लेने मे भी उन्हे पीङा होती लेकिन एक दिन उनकी पतझड़ भरी जिंदगी में फिर से वसंत ने दस्तक दी। एक सज्जन पुरूष का दिल उन्हे देखकर पसीज गया। उन्होंने बताया कि केवल एक व्यक्ति ऐसा है जो तुम्हे क्षमा करवा सकता है। वह है लाहौर का लद्धा उपकारी। श्री गुरु अर्जुनदेव जी का अद्वितीय शिष्य। उसकी परोपकार की भावना की वजह से ही उसका नाम लद्धा उपकारी पड़ा। उसके गरीब खाने से कोई भी खैराती खाली नही लौटता। वह हर परिस्थिति मे सबकी मदद करता है।

सत्ता बलवन्द को अपने अंधकारमय जीवन मे आशा की थोड़ी सी किरण फुटती दिखाई दी। दोनो भाई तुरंत लाहौर की तरफ बढ़ चले। पसजे रिसते हुए अपने शरीरो को जैसे तैसे घसीटते हुए भुखे प्यासे थके हारे कई दिनो के बाद वे लद्धा उपकारी की हवेली पहुंचे। वहाँ खैरातीयो का हुजूम जमा था एक एक करके सब अंदर जा रहे थे और प्रसन्न होकर बाहर निकल रहे थे ।

सत्ता बलवन्द दूर एक पेड़ के नीचे खड़े होकर देखते रहे। आगे बैठने की उनकी हिम्मत ही नही हो पा रही थी। अंदर एक डर भी था। अगर यहाँ से ठुकरा दिया गया तो कहां जाएंगे? आखिर काफी देर के बाद दोनो ने साहस जुटाया और द्वारपाल से बिनती की भाई हमे एक बार लद्धा उपकारी से मिला दो। हम सत्ता और बलवन्द है गुरू घर के गवैया है। यह समाचार जैसे ही लद्धा उपकारी ने सुना वह एकदम तमतमा गया। क्या? सत्ता और बलवन्द मेरी हवेली पर? उनकी यहाँ आने की हिम्मत कैसे हुई? बेमुख होकर मुझसे मिलने की, उन्होंने सोच भी कैसे ली?

गुरु से नाता तोड़कर मेरे से नाता जोडना भला कैसे संभव है। क्या कभी अंधकार और प्रकाश इक्कठा हुए है। खट्टा और दुध कभी गले मिल पाये है। हम बेमुखो का दर्शन करके नर्को के भागीदारी नही बनना चाहते है जाओ कह दो उनसे वे जो गुरु के महलो से खाली आ गये वह मुझ गरीब की झोपड़ी से क्या पा सकेंगे? जिनकी मंशा पर्वत पाकर भी संतुष्ट नही हुए मुझ जैसी खाई उन्हे क्या सुकून दे पाएगी। लौट जाएं वे यहाँ से।

सत्ता और बलवन्द ने यह सुना तो उनका कलेजा ही फट गया। पीङा अश्रु बनकर आंखो से छलक पङी। एक एक अंग वेदना से चित्तकार कर उठा। फड़कते होठ पछतावे की गाथा बयान करने लगे। वे दोनो दौड़कर फाटक के भीतर लद्धा तक पहुंच गये। घुटनो के बल बैठकर फरियाद कर उठे। बोले लद्धा हमे बख्शवा दो। लद्धा हमारा गुरुवर से मिलन करवा दो। अरे हम वे पंतग है जो ऊंचा उङने की चाह मे डोर से ही टूट गये इस कारण कंटीली झाड़ियो मे ही जा फंसे। हमसे भुल हो गयी हम समझ ही ना सके कि हम इतना ऊंचा जो उड़ पाये है वह इसी डोर के कारण। इसी ने हमे अर्श से फर्श तक पहुंचाया है। हमारे मे अपनी कोई सामर्थ्य कहां? हम पर दया करो लद्धा हमे क्षमा करवा दो क्षमा करवा दो नही तो इन झाङियो के कांटे हमे जख्म पर जख्म देकर हमारा जीवन छीन लेंगे इतना कहते हुए सत्ता बलवन्द सुबक सुबक कर रोने लगे।

उनके आंसू कोई मगरमच्छी आंसू नही बल्कि हकीकत के थे उनका पछतावा कोई नाटक नही अपितु जमीनी सच्चाई थी। लद्धा उपकारी उनकी दयनीय हालत देखकर पिघल गया। उसका मन भर आया। उसने कहा हालांकि तुम दोनो क्षमा के काबिल नही हो लेकिन अपने किये पर तुम्हे ग्लानि है। अफसोस है और गुरूवर तो ऐसे दयासिंधु हैं जो सिर्फ पछतावे पर ही क्षमा कर देते हैं। जो अगर एक बार भी सच्चे दिल से गलती कबूल करे तो वे उसका बड़े से बड़ा पाप भी बख्श देते हैं।

चलो मै तुम्हारी ओर से गुरुदेव से माफी मांगने चलता हूँ। इतना सुनना था कि सत्ता और बलवन्द के चेहरे खिल उठे। आंखे खुशी से चमकने लगी लेकिन तुरंत एक बात ने उनकी खुशी पर प्रहार कर दिया। वे उदास हो गये। लद्धा उपकारी ने पूछा आखिर अब गमगीन आलम क्यों? दोनो सकुचा गये। लद्धा ने कहा नि:संकोच अपनी दुविधा बताओ। तब सत्ता हिचकिचाते हुए बोला-  वो गुरुदेव हाँ हाँ बताइये लद्धा उपकारी ने फिर कहा।

सत्ता बोला वो गुरुदेव ने कहा था कि जो हमे बख्शवाने आएगा वह नसर किया जाएगा। लद्धा उपकारी ठहाका लगाकर हंसा और बोला। इसमे कौन सी मुश्किल है मेरा मुँह काला करके गधे पर घूमने से अगर गुरूदेव तुम्हे बख्श दें तो इससे आसान मार्ग और क्या होगा? जैसा बुल्लेशाह ने कहा कि कंजरी बणिया मेरी इज्जत ना घट दी मैनू नच नच यार मणावा दी।

कहते हैं लद्धा उपकारी खुद नसर होकर सत्ता और बलवन्द को साथ ले रवाना हुए। मुंह कालित से पुता हुआ और गधे पर सवार हो वह उनको बख्शवाने गुरु दरबार की ओर चल पङा। गली मोहल्ले कुचे कुचे मे खबर फैल गई। लोग सिर जोङ जोङ कर बाते करने लगे। जिसको असलियत पता होती तो वह लद्धा उपकारी को देवता मानता मगर सत्यता से वाकिफ न थे। वे उसका उपहास करते। लेकिन लद्धा पर न तो प्रशंसा के फूलों और न ही व्यंग्य के तीरो का कोई असर हुआ। वह बङी अडीगता से अपनी मंजिल की तरफ बढ़ता रहा।

चर्चा फैलते फैलते श्री गुरु अर्जुनदेव जी तक भी पहुंची। वे हतप्रभ रह गये। क्या लद्धा उपकारी स्वयं नसर होकर आ रहा है। उन बेमुखो को इज्जत दिलाने हेतु खुद बेइज्जत होकर आ रहा है दुसरो को फुलो की सेज देने के लिए उसने खुद कांटो पर अपने कदम रख दिये हैं। अपने गुरु भाइयो से इतना प्यार कि अपना रूतबा शोहरत नाम सब दाँव पर लगा दिया और वह भी हमारी सजा देने से पहले ही। गुरुदेव का मन पुलकित हो उन हृदय मे प्रेम का सागर हिलोरे लेने लगा। पवित्र हाथ कृपा लुटाने को बैचेन हो उठे। आंखे लद्धा उपकारी की हाजरी का इंतजार करने लगी। जिस प्रकार कुम्हार अपने बनाए घड़े को एक बार हाथो मे लेकर बड़े प्रेम से निहारता है और उसको ठोकता भी है परंतु मन ही मन फक्र महसूस करता है।

गुरु अर्जुनदेव जी भी लद्धा उपकारी के बारे मे वैसा ही महसूस कर रहे थे। तभी एक सेवादार ने लद्धा उपकारी के आगमन की खबर गुरूदेव को दी वे तुरंत अपने कक्ष से बाहर आये। ठीक सामने था लद्धा उपकारी। उसके चेहरे पर न नसर होने की कोई ग्लानि थी न शर्म के भाव न कोई झेप। बस दीनता की चादर ओढ़े नम्रता का श्रृंगार किये और दासता का परिचय लिये वह नजरें झुकाकर उनके सामने खड़ा था गुरुदेव की आंखे काफी देर तक उसे निहारती रही। उस पर अपनी प्रेम वर्षा बरसाती रही। अंततः चुप्पी तोड़ते हुए गुरुदेव बस यही बोलें – हूहूहू लद्धा उपकारी दोनो हाथ जोड़े शीश झुकाकर धीमे से स्वर मे बोला हुजूर गुस्ताख को माफी बख्शो। हालांकि हम आपके सामने दम भरने के लायक भी नही फिर भी अर्ज है आपकी बगिया के दो सुंदर फूल आपके पवित्र मंदिर को छोड़कर संसार की दलदल मे जा गिरे थे। लेकिन अब उन्हे अपनी भूल का अहसास हो गया है। फिर आप तो दयालु हैं प्रभु गिरे हुओं को उठाते हैं। निमानो को मान बख्शते हैं उन फूलों को भी फिर से अपने चरणो मे ले लें। प्रभु जैसे गाय अपने खोये बछङे को दुबारा ढूँढ लेती है बहारें पतझङ के मारे पेड़ों को फिर से हराभरा कर लेती है। हे नाथ वैसे ही आप अपने भूले बच्चो पर दया कीजिए।हम तो स्वभाव से ही भुलनहार है। अगर हम भूलें ही न करते तो फिर आप किसको बख्शते?

सुन फरियाद पीरां दीयां, पीरा मैं आख (बोल के) सुणावां (सुनाऊँ) केहनु,(किसे)!

तेरे जेहा (जैसा) मैनू (मुझे) होर न कोई

मेरे जेहियां (जैसे) लख तैनू (तुझे)!!

फुल न कागज बदिया वाले

दर तो धक ना मैनू

जे मेरे विच ऐब न हुंदे

तूँ बख्शेंदा केहनु।

लद्धा उपकारी की फरियाद गुरुदेव के दिल को छू गयी। वे मंद मंद मुस्कराने लगे हालांकि सब जानते थे लेकिन लीला करते हुए बोले लद्धा तुम कौन से फूलों की बाते कर रहे हो भला हमारी कौन सी बगिया है? लद्धा उपकारी ने बिना विलंब किये सत्ता बलवन्द को आगे कर दिया प्रभु यही है आपके फूल। इनकी शोभा आपके चरणो मे ही है। इनकी भूल को क्षमा कर दें दाता। भले ही इनके हिस्से का दंड आप मुझे दे दें। आपकी रुसवाई इनकी चमङी फाङ कोङ रूप मे बाहर रीस रही है। यहाँ से तो भक्तिरस निकलता ही अच्छा लगता था। प्रभु ये दोनो आपकी आंखो की पुतलिया है। इन्हे आंखो मे ही रहने दीजिये। इन्हे अपना लिजिये भगवन। क्षमा कर दीजिए दया कीजिए दाता।

इतना कहते कहते लद्धा उपकारी घुटनो के बल बैठकर रो पङा। सारी सभा की आंखे भी नम हो गयी। सब भावनाओ के सैलाब मे बह गये। सैकङो लोगो की भीङ मे सन्नाटा छा गया। अगर आवाज भी थी तो लद्धा उपकारी की आहों की। गुरु महाराज जी भी भावुक हो उठे अपने स्थान पर तटस्थ न रह सके। लपक कर लद्धा को गले से लगा लिया बोले लद्धा तुमने हमको जीत लिया हम अपने वचनो को काट सकते हैं लेकिन तुम्हारी फरियाद से मुंह मोड़ने की ताकत हममे नही। आज हम तुम्हारी हर इच्छा पूर्ण करेंगे। तुम कहो तो आसमान के तारे तुम्हारे नाम से चमकेगे। सूरज तुम्हारी दहलीज पर पानी भरेगा और धरती तुम्हारे दम पर टिकेगी आज जो चाहो मांग लो लद्धा।

लद्धा नतमस्तक हुआ। सत्ता बलवन्द को क्षमा करने की ही गुहार करता रहा। गुरुदेव बोले लद्धा तुम इनकी चिंता मत करो अब ये मेरी छाया तले आ चुके हैं। मै इन्हे अभयदान बख्शता हूँ। कुछ और चाहो तो बताओ तब लद्धा ने सत्ता बलवन्द की ओर संकेत करते हुए कहा गुरुवर इन शरीरो से इन्होंने सेवा की है लेकिन इनकी ये काया कोढ़ से गल चुकी हैं। हे मन की पीङा हरने वाले नाथ इनके तन की पीड़ा भी हर लो। इस भयानक कष्ट से इन्हे मुक्त कर दो। गुरूदेव बुलन्द आवाज मे बोले निःसंदेह लद्धा इनका यह रोग भी कटेगा लेकिन। लेकिन क्या प्रभु जिस जिव्हा से इन्होंने गुरुजनो की निंदा की । उसी से जब उनकी स्तुति करेंगे। तभी इतना सुनते ही सत्ता बलवन्द गुरु के चरणो मे गिर पङे। सभा जयकारो से गुंज गया।

इतिहास साक्षी है कि कुछ समय के बाद शब्द कीर्तन करते हुए सत्ता बलवन्द का कोढ़ भी खत्म हो गया। शुभ और महान कार्य मे सफलता प्राप्त होना केवल और केवल गुरु कृपा से ही संभव है ।इसलिये एक सच्चे सेवक को चाहिए कि वह सदा लोगो की प्रशंसा से बचे। निष्काम भावना से सेवा करे और अपने भीतर कर्तापन का भाव न आने दे तभी गुरु की महती कृपा निरन्तर बहती रहेगी और सफलता मिलती रहेगी।

भाई लद्धा की गुरूभक्ति व सत्ता और बलवन्द अहंकार …….(भाग-3)


अब तक हमने पढ़ा कि गुरु अर्जुनदेव जी के दरबार के दो गवैया सत्ता और बलवन्द उन्हें अपने हुनर पर योग्यता पर बड़ा अभिमान था और उनकी इच्छा अनुसार उन्हें उनकी बहन की शादी धूमधाम से करवानी थी उनकी इच्छा गुरु द्वारा पूर्ण न होने पर अपने अभिमान के वशीभूत होकर उन्होंने गुरुदरबार छोड़ने का निश्चय कर लिया। करुणावत्सल गुरुदेव उन्हें समझाने आज उनके द्वार पर आकर खड़े हैं।

सत्ता ने कहा सुनो महराज हम तुम्हारे दरबार मे वापस नही जाने वाले और हां इस भ्रांति को मत पालना कि तुमसे टूटकर हम बर्बाद हो जाएंगे तुम तो अपनी सोचो अपनी हम भी देखते है हमारी संगीत कुशल के बिना तुम्हारे दरबार मे संगत कैसे जुड़ती है।

सत्ता और बलवन्द मर्यादा की हदों को बड़ी बेशर्मी से भय मुक्त होकर तोड़ रहे थे वे अपने आपको गुरुदरबार का कर्णधार समझने की अक्षम्य भूल कर रहे थे जैसे एक तारा आसमान को आंखे दिखाए और कहे कि ए आसमान मैने तेरा साथ छोड़ दिया है अब देखता हूं कि तेरा साम्राज्य कैसे रौशन होता है लेकिन मूढ़ तारा यह नही जानता कि आसमान के पास तो उससे भी बेहतर असंख्य अनंत तारे है भला वह उसके टूटने बिखरने पर क्यों ध्यान दे उसके चले जाने से आसमान पर कोई फर्क नही पड़ने वाला। हां तारा आसमान से टूटने के बाद जरूर टूटा तारा के नाम से बदनाम होगा। तुच्छ सी चमक बिखेरने के बाद वही कहीं अन्धेरे मे गुम हो जाएगा।

सत्ता और बलवन्द कि स्थिति भी कुछ ऐसी थी। बलवन्द ने कहा हम ही थे महराज जिनके दम पर आपकी ख्याति थी हमारे स्तम्भ तले ही आपकी छत टिकी हुई थी आपकी गुरुगद्दी यहां तक पहुँचाने में भी हमारा और हमारे पूर्वजों का हाथ है। भला जो आपके पहले गुरु हो गए उनको कौन जानता था ? यह तो हमारे पूर्वज मर्दाना जी के सारंगी के धुन का कमाल था जो लोग उनसे जुड़ने लगे वरना दो दाने अन्न के भी नसीब न होते उन्हें।

गुरुअर्जुनदेव जी अब तक अपना और अपने शिष्यों का अपमान बड़ी बेफिक्री से सहन कर रहे थे परंतु इन कटु शब्दो ने उन्हें भीतर तक आहत कर दिया उनके सब्र का बाँध टूट गया। श्री गुरु नानक देव जी के प्रति उगले जहर को वे बर्दाश्त न कर पाए शांत चेहरे की सौम्यता क्रोध में तब्दील हो गई। कोमल हृदय की निर्मल भावनाये उग्र हो उठी आंखे उन दोनों के अविश्वसनीय व्यवहार के आगे बन्द हो गई और कह उठे बस, बस अब और नही अरे तुम तो बिल्कुल ही बेराह हो गए हो जाओ गुरुओं को अपमानित करने वालो अब तुम्हे कहीं इज्जत नही मिलेगी मैंने तो तुम्हे उठाकर पहाड़ की चोटी पर बिठाया था परन्तु अफसोस तुम अपनी कूदने की आदत न छोड़ पाए और पतन की खाई में जा गिरे अब यहां से तुम्हे कोई नही निकाल सकता।

सुनो नगरवासियों अगर किसी ने इनकी ओर से मुझसे क्षमा मांगी या भविष्य में इनकी पैरवी करने की कोशिश भी की तो उसे नज़र किया जाएगा। नजर एक सजा है जिसमे अपराधी का मुंह काला करके गले मे ढोल डालकर गधे पर घुमाया जाता है तो अगर किसी ने इनकी ओर से मुझसे क्षमा मांगी या भविष्य में इनकी पैरवी करने की कोशिश भी की तो उसे नसर की सजा दी जाएगी इतना कहकर गुरुमहाराज जी वापस दरबार की तरफ लौट आये आज पहली बार गुरुमहाराज जी के चेहरे पर संगत ने क्रोध की ऐसी लकीरे देखी थी जिस गुरुदरबार में सिर्फ रहमते और वरदान ही लुटाये जाते हैं वहाँ से शाप मिलता पहली बार दुनिया ने देखा था लेकिन कभी कभी ऐसा भी होता है कि कुँए से सब अपनी पिपासा शांत नही कर पाते कई उसमे डूब कर मर भी जाते हैं चूल्हे पर सब गृहणियां रोटी नही बना लेती कुछ अपने हाथ भी जला बैठती है।

बस सत्ता और बलवन्द इसी दूसरे किस्म के थे गुरुमहाराज जी ने दरबार मे पहुंचकर काफी देर तक किसी से कोई बात नही की चुपचाप आसन पर बैठे रहे उनकी आंखों की पुतलियाँ हिरन की भांति सब शिष्यो पर दौड़ रही थी अचानक ये नज़रें कहीं अटक गई।

झाड़ू पोंछा लगाने वाले एक अदने से शिष्य ने जब गुरुमहाराज जी की दृष्टि को अपनी ऊपर गड़ी देखा तो वह सहम गया उसके दिल की धड़कनें तेज हो गई शरीर सिकुड़ने लगा मानो धरती में ही समा जाना चाहता हो किसी से पूछ भी नही सका आख़िर गुरुजी मेरी तरफ क्यों देख रहे हैं । तभी गुरुमहाराज जी बोले उठो शिष्य की कपकपी छूट गई उठो और यहां आओ जी मैं लड़खड़ाती जुबान में च इतना ही बोल पाया संगत भी कभी उस शिष्य को तो कभी गुरुमहाराज जी को सवालिया दृष्टि से निहारने लगी जिस प्रकार शेर एक लोमड़ी का शिकार करने के बाद दूसरे शिकार की तलाश में निकल पड़ता है गुरुजी भी और शिष्यो पर नज़र विहार करने लगी जिस जिस ओर नज़र जाती वहां वहां सब दुबक जाते हर पीछे वाला अपने आगे वाले गुरुभाई की पीठ के पीछे ऐसे अपने आपको समेटता जैसे कछुआ किसी खतरे के आभास पर अपने अंगों को समेटता लेकिन गुरूमहाराजजी ने तीन और शिष्यो को ऐसे ही खड़ा किया कोई नही जानता था कि अब क्या होगा थोड़ी देर बाद गुरुमहाराज जी गम्भीरता की गुफा से निकले और एक रूहानी मुस्कुराहट की छटा बिखरते हुए बोले कि आज के बाद तुमलोग सत्ता और बलवन्द की जगह गाओगे और कल से नही बल्कि आज और अभी से गाओगे। आओ यहां पर, इतना सुनते ही पूरा प्रांगण जयघोष के बुलन्द स्वर से गूंज उठा बुजुर्ग भी बच्चों की तरह तालिया बजा उठे लेकिन उन चारों के आंखों में पानी छा गया। वे हैरान स्तब्ध से गुरु को निहारने लगे।

गुरुजी कैसी लीला कर रहे हैं । क्या वाकई मे ऐसा हो सकेगा? जिन हाथो ने आज तक झाडू पोछे मारे है। हसीये और कुल्हाड़ीया चलाई है क्या वे हारमोनियम चला पायेंगे। जो गले केवल अल्लङ शब्द बोलना जानते है। क्या वे सुन्दर राग अलाप सकेंगे? कई प्रश्न उनके अंदर करवटे लेने लगे। लेकिन अगले ही पल इनके प्रश्नो को दरकिनार कर गुरू आदेश को अपने सिर माथे ले वे चारो शिष्य मंच पर आसीन हो गये।

संगत भी सामने दरियों पर अविश्वसनीय घटना देखने के लिए बैठ गयी। उन चारो ने कुछ क्षण आंखे बंद कर मूक भाषा मे गुरु से प्रार्थना की। कि हे करूणानिधान आप ही सर्व गुणो के ज्ञाता है। आप ही सभी योग्यताए प्रदान करने वाले हैं। एकाएक उनके चेहरे पर एक अजीब सी संजीदगी छा गयी। आंखे खोलने पर ऐसा लगा ही नही कि पहली बार संगत का सामना कर रहे है। एक के बाद एक चारो ने साज हाथो मे उठाया उसके बाद जो वाक्या घटा वह आलौकिक था। हम सभी ने स्वयं अपने जीवन मे देखा है और हमारे कई गुरु भाइयो का अनुभव भी है कि जिन्होंने सेवा के क्षेत्र मे जो कार्य पहले कभी किसी ने नही किया और यदि उसमे हमारे पूज्य बापूजी की भी आज्ञा हो जाती है तो उस कार्य मे हमारी योग्यता का अद्भुत निखार होता है। उस सेवा मे दैविक निखार होता है। सदगुरु की आज्ञा का बङा ही महत्त्व है। सदगुरु वो हस्ती होते है जो पाढ़े को कह दे कि चल वेद पढ़ना शुरू कर तो पाढ़ा भी वेद की ऋचाएं पढ़ना शुरू कर देता है इसलिए हमे अपनी योग्यताओ का अभिमान नही बल्कि गुरु की कृपा और उनकी सेवा का अनुरागी बनना चाहिए। तानपूरे पर ताने छिङी, तबले पर थाप पङी और कंठो से राग वे भी ऐसे जैसे तानसेन जिंदा हो उठा हो।

साक्षात सरस्वती गले मे उतर आई हो। देखते ही देखते पूरा माहौल संगीतमय हो गया संगत झूम उठी पैरो की तलियो और चुटकीया उनको साथ देने लगी। साथ ही साथ सभी विस्मित थे। हो भी क्यो ना। आज गुरूदेव चिङियो से बाज का शिकार करवा रहे थे।

खरगोश शेर की चाल चल रहा था। पोखर समुद्र की तरह हिलोरे ले रहा था अंततः इस दिव्य सभा को गुरूदेव की आज्ञा पर समाप्त किया गया। सब लोग गुरु सत्ता की महिमा बुनते हुए अपने अपने घरो को चले गए।

उधर सत्ता और बलवन्द की जिन्दगी मे मानो गृहण लग गया। गुरु के ठुकराये हुए पर सबकी ठोकरे पङने लगी जो लोग उन्हे गुरु भाई कहकर सम्मान देते थे। अब बेमुख देकर अपमानित करने लगे। एक होता है गुरमुख और एक बेमुख। लोग उन्हे बेमुख कहकर अपमानित करने लगे जो उनको देखकर ही इज्जत से झुक जाया करते थे वे ही अब नफरत उगलने लगे सभी ने उसने संबंध विच्छेद कर दिया। जिस प्रकार भरे मेले मे भी एक अंधा व्यक्ति अपने आपको अकेला ही पाता है। ठीक उसी तरह सत्ता और बलवन्द भी भरे नगर मे तन्हा होकर रह गये यही नही धीरे-धीरे उनका शरीर फटकर चिथङो की शक्ल इख्तियार करने लगा वे भयंकर कोङ से गृस्त हो गये। जिन शरीरो से कभी इत्र, चंदन की खुश्बू आया करती थी उन्ही से बदबू आने लगी। घर वालो ने उन्हे घर से बाहर कर दिया जिन सगो के लिए उन्होंने गुरु से बैर किया वही बेगाने हो गये।

अब सत्ता और बलवन्द के लिए सभी के दरवाजे बंद थे। होते भी कैसे ना जो मां की गोद को ठुकरा दे फिर उसे पालना भी नसीब नही होता। सत्ता और बलवन्द का एक-एक पल सदी जैसा लंबा हो चला हर सांस अंदर जाकर ऐसे पीङा मचाती। जैसे किसी ने कंटीली तार अंदर डालकर फिर खीच निकाला हो वे दिन रात तङपते हर पल अपने किये पर पछताते यूं ही रोते पछताते कई महिने बीत गये। एक दिन उनकी पतझड़ भरी जिंदगी मे फिर से बसंत ने दस्तक दी।

आगे की कहानी कल की पोस्ट में दी जाएगी….

शिष्य की कसौटी, सत्ता और बलवन्द का अहम…(भाग-2)


कल हमने पढ़ा कि बहन की शादी के लिए सत्ता और बलवन्द ने गुरु से धन राशि मांगी। गुरु द्वारा पर्याप्त धन न मिलने पर दोनों भाइयों ने अपना मन खराब करना शुरू किया।

सत्ता कहता है कि- मैं तो कोस रहा हूँ उस दिन को जब हम गुरु के चाकर बने कहाँ फंस गए यहां ? अगर संसार मे कहीं गाते तो राजाओं जैसे ठाठ होते, नौकर होते, हवेलिया होती और पता नही क्या-क्या होता हमारे पास।

लावा भी एक समय के बाद आग उगलनी बन्द कर देता है लेकिन इन दोनों ने तो वह हद भी पार कर दी एक के बाद एक पलटने खाते हुए दोनों भाई पतन की खाई में गिरते जा रहे थे। उन्हें कोई रोकने वाला नही था, कोई रोकता भी कैसे ? जब उन्होंने खुद ही गिरने की ठान ली थी। अब यदि कोई रोगी खुद ही अपने जख्म पर खुजली करनी न छोड़े तो डॉक्टर या दवाई क्या करेगी ? बात तो तब और बिगड़ जाती है जब रोगी को खूजलाने में मज़ा आने लगे तब तो इलाज मुश्किल ही नही असम्भव हो जाता है।

सत्ता और बलवन्द को भी गुरु निंदा की खुजली में चैन मिल रहा था अंततः उनका दुर्भाग्य कि उन्होंने एक दुःसाहसिक फैसला किया सत्ता ने कहा- बलवन्द ठीक है फिर हम भी दिखा देंगे कि हम क्या हैं, कल से दरबार मे गाना बन्द, देखते है कितने लोग आते हैं वहाँ ? हमारे शब्द सुनने के लिए ही तो संगत जुटती थी अब जब दरबार की शोभा ही न रहेगी तो लोग आकर क्या करेंगे और तब गुरुजी को हमारी कीमत जान पड़ेगी।

सत्ता और बलवन्द की दुर्बुद्धि क्या अनाप शनाप सोच रही थी उन्हें ज़रा भी आभास नही रहा कि जिस गुरु ने उन्हें उंगली पकड़कर चलना सिखाया आज उन्ही पर वे उंगलिया उठा रहे थे जिस गुरु ने उनके गले मे मीठे स्वर भरे उसी को वे कड़वे उल्हाने दे रहे थे।

दोनों भाइयों की पूरी रात करवटे लेते हुए बीत गई जिन आंखों में सुंदर स्वप्न सजा करते थे वे अनिद्रा की शिकार रहे। इस दौरान जुबान बेशक बन्द रहे लेकिन मन का पाप करना जारी रहा कुछ ही घण्टो के बाद सुबह हो गई पहले से बिल्कुल अलग रंग विहीन सुबह, मातमी विरानगी की चादर ओढ़े, आज न उनके आंगन में पक्षी चहचहाये न ही ठंडी पवन बही उन दोनों ने भी न तो रोज की तरह सुबह सुमिरन साधना की और न ही संगीत का रियाज किया।

उधर गुरु दरबार मे निश्चित समय मे संगत जुड़नी शुरू हो गई सबको इन्तेज़ार था कि सत्ता और बलवन्द आएं और उनको भाव विह्वल कर देने वाले शब्द सुनाएं। लेकिन जब 20 – 25 मिनट बीतने पर भी संगत ने सत्ता बलवन्द को गैरहाजिर पाया तो गुरुदेव के समक्ष उत्सुकता जाहिर की। गुरुदेव ने थोड़ा और इन्तज़ार करने को कहा। जब करीब 1 घण्टा होने को आया तो गुरु जी ने आदेश दिया- दो सेवादार जाएं और उन्हें घर से बुला लाएं। गुरुआज्ञा पाकर 2 सेवादार तुरन्त उनके घर की ओर रवाना हुए वहां पहुंचकर जब दरवाजा खटखटाया तब जो घटा उसकी उन्होंने कल्पना भी नही की।

दरवाजा तपाक से खुला सत्ता बलवन्द ने लाल आंखों से गुरु सिक्खों को घूरा उन्हें अंदर बुलाना तो दूर की बात उनकी दुआ सलाम का जवाब भी नही दिया और गरजते हुए बोले- क्यों आये हो यहां, किसने भेजा है तुम्हे ?

सेवादार बेचारे सहम गए क्योंकि वे सारे घटना कर्म से अनजान थे डरते-डरते बोले आपको गुरुमहाराज जी ने याद फ़रमाया है।

सत्ता बलवन्द के अहंकार की अग्नि को जैसे घी मिल गया वे तुरन्त बोले- क्यों ? एक ही दिन में अक्ल ठिकाने आ गई तुम्हारे गुरु की, जाओ कह दो उन्हें जाकर कि अब हम नही आएंगे वहां। ढूंढ सकते है तो ढूंढ ले वे कोई नए सत्ता और बलवन्द को.. इतना कहकर उन्होंने सेवादारों के मुंह पर दरवाजा बंद कर दिया सेवादार रुआंसे से हो वापस गुरुदरबार पहुंचे।

हूबहु सारी घटना गुरुजी को सुनाई। गुरुजी एकपल के लिए गम्भीर हो गए लेकिन दया के सागर दूसरे ही पल मुस्कुरा पड़े और बोले अरे कोई बात नही आ जायेंगे। उस एक पल की गम्भीरता कोई साधारण न थी गुरुदेव साफ देख रहे थे उनके शिष्य पतन के दलदल में धँसे जा रहे है इस कारण वे चिंतातुर हो उठे हालांकि वे सुख दुख से परे है आनंद के स्रोत है लेकिन फिर भी इसपल दुखी हो उठे क्योंकि वे शिष्य अपने ही तो है, क्योंकि गुरु सब खत्म होते देख सकते हैं भारी से भारी नुकसान सहन कर सकते हैं लेकिन अपने शिष्य का पतन उन्हें भी व्यथित कर देता है। दूसरे ही पल उन्होंने अपने दुख को छिपा लिया सोचा कि कहीं मुझे चिंतित देख संगत का हौसला न गिर जाए। जैसे एक माँ को असहनीय दर्द हो रोना निकलने को होता है वह बच्चे के आगे नही रोती क्योंकि अगर माँ रो देगी तो बच्चा भी रोने लगेगा घबरा जाएगा।

गुरुजी ने तब अपने एक और श्रेष्ठ काबिल और जिम्मेदार शिष्य को उठाया कहा- जाओ भाई गुरुदास बिना विलम्ब किये सत्ता और बलवन्द को ससम्मान ले आओ। भाई गुरुदास जी गुरुवर के खजाने के रत्न थे लेकिन किसी को क्या पता था कि यहां उनका मूल्य भी कौड़ी के बराबर पड़ेगा। भाई गुरुदास जी जैसे कवावर शिष्य को अपनी दहलीज पर आया देखकर सत्ता और बलवन्द का अहंकार सातवे आसमान पर पहुंच गया उनके भौवे और चढ़ गई। भाई गुरुदास अपनी हर सम्भव कोशिश में असफल हो वापस गुरुदरबार लौट आये। गुरुदेव चुप और संगत भी चुप बिल्कुल सन्नाटा छा गया सबके मन मे चल रहा था कि गुरुवर सत्ता और बलवन्द को अब उनकी गुस्ताखी का दण्ड अवश्य देंगे। अचानक गुरुजी आसन से खड़े हुए सबलोग एकबार के लिए सहम गए शायद गुरुदेव क्रोधित होकर श्राप देंगे यही कल्पना सबकी थी लेकिन यह क्या गुरुदेव के वाक्य तो शीतल निकले झरने के समान श्राप की जगह वे तो वरदान देने को आतुर थे शमा के लाखों दियों से सत्ता बलवन्द की किश्मत चमक उठी।

गुरुदेव कृपामयी शब्दो में बोले कि- आप घबराए नही हमखुद जाएंगे सत्ता और बलवन्द को मनाने इतना सुनना था कि सबकी आंखे छलक पड़ी भावनाओ की समुद्र में एक-एक हॄदय बहने लगा और सारा दरबार जयघोष के स्वर से गूंज उठा। देवता भी धन्य-धन्य कर उठे। हो भी क्यों न आज एक सूरज जुगनू को मनाने चल पड़ा, एक समुद्र बून्द से पानी उधार मांगने को आतुर था। गुरुमहाराज जी सभी शिष्यो सहित सत्ता और बलवन्द के घर की तरफ कुच किये। पूरा रास्ता भक्तो के लश्कर से सज गया जयघोष के नाद से धरती गगन निनालित हो उठे यहां एक कुपथि शिष्य की रुसवाई हरने स्वयं गुरुदेव उनके घर जा रहे हैं। यह प्रकृति के बिल्कुल विपरीत हो रहा था पहली बार कुआँ चलकर प्यासे के पास जा रहा था यही भाव लेकर कि ए पगले मुसाफिर ! अगर तू मुझे छोड़कर चला गया तो भला कौन तेरी पिपासा शांत करेगा, कौन तेरी व्याकुलता हरेगा ? ठीक है मैं छोटी सी तो शर्त रखता हूं कि पानी के लिए तुझे थोड़ा झुकना पड़ेगा दोनों हाथ जोड़कर अंजुली बनानी पड़ेगी, क्या तू इतना भी नही कर सकता ? अरे झुकने से तू ही तो प्राप्त कर रहा तेरी ही हर रग ताजगी से भर रही है मुझे भला इसमे क्या मिलना है ?

थोड़ी ही देर बाद गुरुदेव के पवित्र चरण सत्ता बलवन्द की दहलीज पर आकर थम गये संगत की जयघोष ने घर के अंदर बैठे सत्ता बलवन्द को चौकन्ना कर दिया।

गुरु की कॄपा देखिए वैसे तो घर के बाहर भिखारी रुकते है और दहलीज के अंदर मालिक लेकिन शिष्य को मनाने के लिए वह जगत दाता आज स्वयं भिखारियों के स्थान पर फरियादी की भांति खड़ा था और असल भिखारियों को दाता के स्थान पर बिठा रखा था। दुनिया को गुरु के रूठने का भय होता है लेकिन यहां गुरु को शिष्य के रूठने पर चिंता हो रही है तभी गुरुदेव ने अपनी नरम उंगलियों से कठोर दरवाजे पर एक दस्तक दी और सत्ता बलवन्द को आवाज लगाई.. हालांकि उन दोनो को ऐसे आना चाहिए था जैसे बछड़ा अपनी माता की पहली आवाज पर ही दौड़ा चला आता है लेकिन अफसोस ऐसा कोई प्रतिक्रिया नही हुई अंदर श्मशान सा सन्नाटा पसरा रहा। गुरुदेव ने दूसरी आवाज दी, इस बार भी दरवाजा नही खुला लेकिन सत्ता बलवन्द के मन की नफरत बुड़बुड़ाते हुए मुख से बाहर निकल आई।

गुरुवर ने फिर तीसरी बार आवाज दी, अब की बार सत्ता बलवन्द दरवाजा खोलकर कुछ ऐसे बाहर आये जैसे पानी बांध को तोड़कर निकलता है। न कोई सिजदा, न सलीका, न अदब और न झुकी नज़रे, सत्ता बलवन्द के सारे आत्मिक श्रृंगार कोयला बन चुके थे। जो सिर गुरुवर को देखते ही श्री चरणों मे गिर जाया करते थे वे सुखी लकड़ी की तरह अकड़े रहे। सत्ता ने छूटते ही एक अभद्र वाक्य बोला- क्यो महराज अब क्या करने आये हो यहाँ ?

गुरुवर शांत सागर की तरह सत्ता की तरफ देखकर मुस्कुराते रहे। बलवन्द ने भी सत्ता के सुर में सुर मिलाते हुए बदमिजाजी में दो कदम और बढ़ा दिए, जाओ महराज जाओ अब हम नही कदम रखेंगे वहां ढूंढ लो और कोई गवैया अगर ढूंढ सकते हो तो।

गुरुवर मधुपगे शब्द में बोले- अरे पगलो ! मुझे संसार के तानसेनो से क्या वास्ता ? भला घर मे शहद हो और मैं बाहर गुड़ मांगने जाऊ यह कहाँ की बुद्धिमत्ता है ? चलो सब तुम्हारा इन्तज़ार कर रहे हैं जाकर दोनों भाई अपनी सेवा सम्भालो।

तभी सत्ता बोला- सुनो महराज ! हम कहीं नही जाने वाले और हां! इस भ्रम को मत पालना कि तुमसे टूटकर हम बर्बाद हो जाएंगे तुम तो अपनी सोचो हम भी देखते हैं हमारे संगीत कौशल के बिना तुम्हारे दरबार मे संगत कैसे जुड़ती है।

आगे की कहानी कल की पोस्ट में दी जाएगी….