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शिष्य की कसौटी, सत्ता और बलवन्द का अहं (भाग-1)


गुरु ही मार्ग है, जीवन है और आखिरी ध्येय है। गुरु कृपा के बिना किसी को भी सर्वोत्तम सुख प्राप्त नही हो सकता, गुरु ही मोक्ष द्वार है गुरु ही मूर्तिमन्त कृपा है। गुरु और शिष्य के बीच जो वास्तविक सम्बन्ध है उसका वर्णन नही हो सकता वह लिखा नही जा सकता वह समझाया नही जा सकता। सत्य के सच्चे खोजी को करुणास्वरूप ब्रह्मनिष्ठ गुरु के पास श्रद्धा और भक्तिभाव से जाना चाहिए उनके साथ चिरकाल तक रहकर सेवा करनी चाहिए। शिष्य की कसौटी करने के लिए गुरु जब विघ्न डालें तब धैर्य रखना चाहिए। बाग में फूलो को छू रहे हो तो कांटो से बचना क्योंकि कांटे कहीं न कहीं इन फूलों के आस पास छिपे बैठे है कब चुभ जाएंगे आपको पता भी नही चलेगा ऐसा भी नही कि मुकाबला बराबर का है।फूल एक है तो कांटो की संख्या उससे कहीं अधिक है इसलिए किसी शायर ने कहा कि..

“ऐ फूलों के आशिको खबरदार

फूल को निगाह में रखने से पहले

याद रखना कि तुम कांटो की निगाह में हो”

यही बात तो एक साधक के साथ घटित होती है ज्यों ही वह भक्ति रूपी फूल को पाने के लिए आगे बढ़ता है वह शैतान की नज़र में आ जाता है। शैतान अर्थात कलुषित मन, अगर भूल से भी वह शैतान के कांटों में फंस जाए तो उसका सबकुछ ठगा जाता है। वर्षो की सेवा समर्पण औऱ तपस्या एक दूधिया अथक प्रयासों के बाद उज्ज्वल शुद्ध दुध इकट्ठा करता है उसे इस दूध के अच्छे दाम मिल सकते हैं लेकिन अगर खटाई की एक बूंद इस दूध में गिर जाए तो उसका सारा दूध मिलकर भी इस खट्टे की बून्द को बेअसर नही कर पाता जबकि वह एक बूंद ही सारा दूध खराब कर देती है।

भक्ति मार्ग का सबसे बड़ा कांटा और खट्टी बून्द है हमारा अहंकार, इसी के शिकार हुए थे सत्ता और बलवन्द। दोनों सगे भाई थे और गुरु श्री अर्जुनदेव जी के दरबार के गवैया थे। उनके गले मे साक्षात् सरस्वती का वास था जिस समय दोनों भाई कोई राग अलापते तो जैसे सूरज भी ठिठक कर सुनने लगता, पक्षी उड़ना भूलकर थम जाते, नदिया की कल-कल आवाज उनके सुर से सुर मिलाती सुबह शाम शब्द कीर्तन की मधुर धुनों पर वे सबको मोहित किया करते थे। पूरा दिन गुरु दरबार मे सेवा करने और रात को अपने घर चले जाना बस यही उनकी दिनचर्या थी।

दरबार का हर प्रेमी उन्हें बेइंतहा प्यार और सम्मान देता था लेकिन कहते हैं न “अती सर्वत्र वर्जयेत” अति किसी भी चीज की नुकसान देह होती है। अगर हद से ज्यादा मीठा खाया जाए तो वह भी मधुमेह का कारण बन जहर सिद्ध होता है। यही सत्ता और बलवन्द इन दोनो भाइयों के साथ हुआ जैसे ही वे शब्द गान करके मंच से नीचे उतरते संगत उनके प्रशंसा में तारीफों के पुल बांध देती हालांकि वे अक्सर मंच से कहा करते थे कि “मैं निर्गुण यारे को गुण नाही आपे तरस पइयो ये” लेकिन प्रशंसा के इस हाल को वे गुरु चरणों मे अर्पित करना भूल जाते इस वजह से वे अहम के गिरफ्त में कैसे फंसते गए उन्हें स्वयं भी पता न चला।

अब सत्ता और बलवन्द गुरु के लिए नही बल्कि व्यक्तियों के समूह के लिए गाने लगे। हर ऊंचा राग आंखे बंद कर पूरे स्वाद के साथ गाने के बाद तुरन्त उनके नेत्र खुल जाते और संगत के चेहरों पर कुछ ढूंढने लगते जी हां ! यह ढूंढ होती थी वाहवाही की, तालियों की, यही सुनने की कि भैया कमाल कर दिया आज तो मजा आ गया और तो और कम संगत होने पर उन दोनों के चेहरों पर उदासी छा जाती, लग्न और उत्साह वाले भाव गुम से हो जाया करते। उनकी स्थिति उस मूढ़ व्यक्ति की सी हो गई जो सर्प के सिर पर सजे मणि को तो पा लेना चाहता है लेकिन सर्प डसेगा भी यह उसको ख्याल नही रहता।

प्रशंसा बहुत चमकीली होती है सबको अपनी ओर खिंचती है परन्तु अफसोस उसका ठिकाना अहम रूपी जहरीले सर्प के ऊपर है।

सत्ता और बलवन्द प्रशंसा रूपी मणि के चक्कर में अहम के सर्प से डसे गए उन्हें लगने लगा कि दरबार मे वे कुछ खास हैं उनका स्थान अन्य लोगो से अलग है। धीरे-धीरे इसका कुप्रभाव उनके व्यवहार में भी झलकने लगा अब वे सबकी दुआ सलाम का जवाब देना जरूरी नही समझते किसी को खुद पहले प्रणाम कहना तो जैसे उनकी शान के खिलाफ हो गया। ऐसा नही था कि गुरुमहाराज जी सत्ता बलवन्द की इस आंतरिक स्थिति से अनजान थे। उन्होंने कई बार सोचा भी कि इन्हें समझाया जाय लेकिन हरबार रुक गए क्योंकि वह जानते थे कि अहम का रोग किसी को हो जाता है तो वह किसी की बात कम ही सुनता है।

अहंकारी के कान खराब हो जाते हैं अगर उसे कुछ कह दिया जाय तो उससे क्रोधरूपी विष ही बाहर आता है।

यूँ ही समय बीतता गया एक दिन सत्ता, बलवन्द की बहन के लिए एक अच्छे परिवार से रिश्ता आया दोनों की दिली ख्वाहिश थी कि वे अपनी बहन की शादी इतने धूम धाम से करें कि सबकी आंखे फ़टी की फटी रह जाएं, चारो ओर धाक जम जाए। लेकिन इन सबके लिए जरूरत थी धन की। अब चूँकि उनके पूरे परिवार का पोषण गुरु घर से होता है इसलिए शादी का प्रबंध भी गुरु घर से होना स्वभाविक था इसलिए सत्ता और बलवन्द गुरुमहाराज जी के आगे उपस्थित हुए और सारी स्थिति बयान कर डाले।

गुरुमहाराज जी ने विनती सुनी और कहा- कल दरबार मे जितना भी चढावा चढ़ेगा तुम सब ले जाना और उससे अपनी बहन का विवाह कर लेना।

दोनों खुशी से उछल पड़े सोचा कि रोज जितना धन चढावे में आता है उतने से तो हम शादी में चार चांद लगा देंगे। अगली सुबह समय से 20 मिनट पहले ही वे गुरुदरबार की ओर चल पड़े उनके मन मे एक अलग ही उमंग थी कुछ ऐसे ही जैसे एक बच्चे में होती है जब वह मेला देखने जाता है झूला पर झूलने की चाह और अच्छी-अच्छी मिठाइयों की कल्पना बच्चे में कुछ अलग ही उत्साह भर देती है वह तेज तेज़ कदमो से मेले की ओर बढ़ता है। आज सत्ता और बलवन्द के कदम भी तेजी से गुरु दरबार की ओर बढ़ रहे थे।

गुरुदरबार मे पहुँचते ही उन्होने अपने साज सजाने शुरू कर दिए उनकी हर क्रिया में विशेष अधीरता सी थी लेकिन यह क्या आज संगत को क्या हुआ ? मात्र गिनती के ही लोग उपस्थित थे जबकि इस समय तक तो पूरा पंडाल भर जाया करता था खैर कोई बात नही संगत अभी आती ही होगी यह सोचकर वह मंच पर बैठ गए और सबसे पहले अपने सबसे प्रसिद्ध शब्द के राग छेड़े उनका जोश देखने लायक था पूरा पंडाल उनके आवाज़ से झंकृत हो उठा। संगत जैसे आंनद के किसी दिव्य रथ पर सवार हो चली ढोलक, छैनो आदिक की झंकार पर सबके पांव थीरक उठे।

सत्ता और बलवन्द ने भी अपनी कौशल की सारी पूंजी लगा दी उन दोनो का पूरा शरीर पसीने से तर हो गया लेकिन धीरे-धीरे उनका जोश ठंडा पड़ने लगा, ऊंचा स्वर मध्यम होने लगा, तान की मधुरता खोने लगी सुर बोझ से लगने लगे कारण शब्द कीर्तन का निश्चित समय खत्म होने की दहलीज पर था और प्रेमी इतने से थे जैसे आंटे में नमक। अन्य दिनों के मुकाबले आज आधी संगत भी नही आई थी समय पूरा होते ही शब्द कीर्तन का कार्यक्रम समाप्त हुआ संगत ने माथा टेका और अपने अपने घर चले गई लेकिन सत्ता और बलवन्द कि तो जैसे दुनिया ही उजड़ गई एक गुम सी चुप्पी ने उनके होठो पर ताले जड़ दिए। पांव शरीर का भार सहन करने से मना करने लगी।

तभी गुरुमहाराज जी बोले- वाह सत्ता और बलवन्द वाह ! तुम दोनों ने तो आज समा बांध दिया जाओ जितना भी चढावा चढा है सब ले जाओ धूमधाम से अपनी बहन की शादी करो।

गुरुदेव के ये शब्द उन दोनों के हॄदय में व्यंग्यबाण की तरह चुभे उन्हें ऐसा लगा मानो भरी सभा मे खड़ा कर उन्हें तमाचा मार दिया गया हो। एक सेवादार ने आसन से माया इकट्ठी की और पोटली में बांधकर इनको दे दी भेंट में इतना कम धन मिला था कि उससे भव्य शादी तो दूर की बात जनाज़े के लिए बांस और कफ़न तक भी बड़ी मुश्किल से जुटे वे इस पोटली को लेकर दरबार से ऐसे निकले जैसे सैकड़ो एकड़ जमीन के हकदार को दो गज जमीन देकर गांव से निकाल दिया गया हो।

अब कहानी बिगड़ चुकी थी उन दोनो के अंदर ही अंदर लावा सुलगने लगा था। माथे पर अंकित नफेतर घृणा के बल, उनके दिल का हाल साफ बयान कर रही थी। घर सामने था लेकिन घर की दहलीज उन्हे इतनी ऊंची प्रतीत हो रही थी जैसे किसी ऊंची दीवार को लांघ रहे हो अभीतक वे दोनों आपस मे सँवाद शून्य थे लेकिन जैसे फोड़ा पकने के बाद मवाद अपने आप बाहर रिसने लगती है। सत्ता बलवन्द के विकृत मन की मवाद भी मोह के रास्ते फुट पड़ी।

सत्ता बोला- देखा भैया ! कैसा हश्र किया हमारा, जैसा दूध में गिरी मक्खी के साथ किया जाता है ऐसा हमारे साथ हुआ सारी उम्र हमने गला फाड़-फाड़कर शरीर बैठा दिया और आज अगर हमने चंद पैसे मांगे तो हमे यह चिल्लर पकड़ा दिया गया इससे तो एक भिखारी भी संतुष्ट न हो। भरी पूरी बारात का सेवा पानी तो बहुत दूर की बात है ऐसा धोखा तो कोई दुश्मन को भी नही देता जैसा उन्होने हमे दिया, जरूर गुरुमहाराज जी ने ही संगत को आज आने से मना किया होगा।

बलवन्द ने अपने शब्द से जहर उगला- हां भैया ! हमारे ही स्वरों पर तो मोहित होकर दुनिया यहां आती है, हम ही से प्रभावित होकर लोगो ने धन न्योछावर किया और उस धन से दरबार निर्मित हुआ आज हमारे लिये ही धन में तोट (कमी) आ गई।हमने सब इकट्ठा किया और आज मालिक ये गुरु बन बैठे हैं।

सत्ता फिर बोला- मैं तो कोस रहा हूँ उस दिन को जब हम गुरु के चाकर बने कहां फंस गए यहां ? अगर हम संसार में कहीं गाते तो राजाओं जैसे ठाठ होते नौकर होते, हवेलियाँ होती और पता नही क्या-क्या होता हमारे पास।

कल हम पढ़ेंगे कि कैसे सत्ता और बलवन्द गुरु से विपरीत दिशा की ओर चल पड़े….

कई शिष्यों के मन में दंश करते एक प्रश्न का पूज्य गुरु जी द्वारा संशय निवारण…


पवित्र गुरु गीता का जो हर रोज अभ्यास करता है वही सच्चा विशुद्ध है। उसे ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। जो अपने गुरु के यश में आनंदित होता है और दूसरों के समक्ष अपने गुरु के यश का वर्णन करने में आनंद का अनुभव करता है उसे सचमुच गुरु कृपा प्राप्त होती है।

आपको अगर सचमुच ईश्वर साक्षात्कार की तड़प होगी तो अपनी आध्यात्मिक गुरु को आप अपने घर के द्वार पर खड़े पाएंगे। जो लोग नियमित रूप से सत्संग करते हैं उनमें ईश्वर और शास्त्रों में श्रद्धा,गुरु एवं ईश्वर के प्रति प्रेम तथा भक्ति का धीरे-धीरे विकास होता है।

गुरु के पास अभ्यास पूरा करने के बाद समग्र जीवन पर्यंत शिष्य को अपने आचार्य के प्रति कृतज्ञता का भाव बनाए रखना चाहिए।

शिष्य ने गुरुदेव से पूछा,

“गुरुदेव! मुझे दीक्षा लिए कई वर्ष हो गए तब से मैं आपकी आज्ञाओ में चलने की पूरी कोशिश कर रहा हूं। परंतु एक दुविधा है मुझे यह पता ही नहीं चल रहा है कि मै इस मार्ग पर कितना चल चुका हूं? और अभी कितना सफर बाकी है। कई बार तो लगता है कि मैं वही का वही खड़ा हूं । मेरे कोई प्रगति ही नहीं हुई। इस वजह से मन दुखी हो जाता है और मन में अनेक प्रकार के सशंय आने लगते हैं मैं क्या करूं?”

गुरुदेव ने कहा,

“आपने कभी गौर किया है कि गाय का बछड़ा जन्म लेने के कुछ समय बाद ही चलने फिरने और भागने लगता है। उसी तरह कुछ लोग दीक्षा लेते ही बड़ी गति से अध्यात्म मार्ग पर चलने लगते हैं। उनकी उन्नति उनके जीवन में साफ दिखाई भी देती है । लेकिन कुछ साधकों का अध्यात्मिक जन्म अंडे की तरह होता है ।

जब एक मुर्गी अंडे को सेती है तो उसे अंडे में कोई बदलाव होता नजर नहीं आता। फिर भी उसे विश्वास होता है। उसे न अंडा घटते हुए दिखता है न बढते हुए न ही उसका रूप व रंग बदलता है।

परंतु फिर अचानक एक दिन उसी अंडे में से एक बच्चा निकल आता है ।

अब सोचिए क्या बच्चा एकदम से बन गया। नही! बेशक बाहर से अंडे में कोई बदलाव होता नही दिखता परंतु भीतर ही भीतर उसका तरल पदार्थ बच्चे का रूप ले लेता है। ठीक इसी तरह जब आप सेवा करते हैं साधना करते हैं ज्ञान अग्नि में खुद को सेते है… अर्थात गुरू के सिद्धांत के संपर्क में रहते हैं तो आपके भीतर ही भीतर आपके अंतःकरण में कई बदलाव हो रहे होते है। आपके कर्म संस्कार जलते है, दूर भावनाएं, विकार नष्ट होते है। बेशक बाहर कोई बदलाव होता नजर नहीं आता परंतु अंदर से आप का निर्माण हो रहा होता है।

आप जितने सेवा साधना करते हैं उतना ही अध्यात्म मार्ग पर आगे बढ़ते हैं इसमें कोई संदेह नहीं है। यदि आप में सशंय उठता है तो मुर्गी से सीख लो ।

एक मुर्गी पूरे विश्वास के साथ अपना कर्म करती है । अंडे को सेती रहती है इसी प्रकार आप भी ब्रह्मज्ञान पर पूरा विश्वास रखें। इस मार्ग पर पूरा विश्वास रखें। पूरी लगन व दृढ़ता से अपना सेवा साधना रूपी कर्म करें । समय आने पर आपको फल अवश्य मिलेगा। आपकी अध्यात्म पथ पर हुई उन्नति प्रकट होगी। इस मार्ग मे धैर्य अति आवश्यक है।

अपनी लगन बढ़ाएं और सतगुरु पर पूर्ण विश्वास रखकर इस मार्ग पर अग्रसर होते रहे…..।

परमहंस योगानंद जी को इंतजार था उनके शिष्य के दुबारा जन्म लेने का और वह समय आ गया..


कई समर्पित शिष्यों को रांची के किसी आश्रम में सद्गुरु परमहंस योगानंदजी अपने सानिध्य से सींच रहे थे ।

एक दिन काशी नाम का समर्पित युवान शिष्य के अंतर्मन में एक विचित्र जिज्ञासा उठी।

हे गुरुवर! आप तो सर्वज्ञ है सर्वान्तर्यामी है। किसी की कोई भी बात भला आपसे कहां छिपी है। आप तो भुत भविष्य और वर्तमान तीनों के ज्ञाता है। आप से अधिक भला कौन जान सकता है… कि मेरे भविष्य में क्या लिखा है ?

कहिए ना गुरुवर मेरा भविष्य कैसा होगा? ।”

काशी के कुतूहल भरे प्रश्न को सुनकर योगानंद जी मौन हो गए। काशी से रहा न गया उसने अपना हट फिर दोहराया।

इस बार गुरुवर का मौन टूटा और भविष्य का रहस्य उद्घाटन करते हुए वे बोले “काशी तुम्हारी शीघ्र ही मृत्यु होने वाली है।”

आश्रम में सेवा समर्पण से यह बात काशी को उतना आघात न कर सकी क्योंकि सेवा और सद्गुरु को समर्पण जीव को अभय और निर्भय बना देता है। काशी ने यह सुनते ही दोनों हाथ जोड़ नेत्रों को मूंद लिया सिर को श्रद्धा वद झुका लिया उसके भीतर से भावनाओं का झरना फूट पड़ा है।

“हे गुरुवर! मृत्यु के बाद अगर मुझे दोबारा मानव का चोला मिला तो आप मुझे स्वीकार कर लोगे ना? मुझे संसार की भीड़ में से ढूंढ कर अपने श्री चरणों में ले आओगे ना ?आपके श्री चरणों का आश्रय मुझे दोबारा मिल पाएगा ना गुरुदेव ….।”

काशी एकटक गुरुदेव को देखता हुआ कहे जा रहा था

“हे गुरुदेव! तुम दया के सिंधु कहलाते हो ।

*एक बूंद की मुझको भी प्यास है,*

*साथ निभाया तूने मेरा हर पल तू ही मेरे साथ है।*

*परंतु बात इस जन्म की ही नहीं अगले जन्म की बात है।* *जानता हूं तेरा संग एक जन्म का नहीं,*

*परंतु फिर भी इस नाचीज की इतनी ही अरदास है।*

*ना छोड़ देना अकेला मुझको इस बीहड़ जंजाल में,*

*माया का जहां हर पल होता तांडव नाच है।”*

काशी ऐसे गुरुदेव के समक्ष प्रार्थना किए जा रहा था।

काशी के सच्चे ह्रदय से निकले भाव को सुनकर गुरुदेव ने आखिर कह ही दिया कि

“ऐसा अवश्य होगा काशी अगर ईश्वर ने चाहा तो।

काशी ने कहा “ईश्वर ने चाहा तो? गुरुवर! मैं आपके सिवा किसी दूसरे ईश्वर को नहीं जानता, आपके अलावा मेरा किसी और से परिचय नहीं और मैं भला किसी दूसरे को ईश्वर का दर्जा दे भी कैसे सकता हूं? हर तरह का उपहार और प्रसाद मैंने आपसे ही पाया है। मैं सिर्फ आपकी करुणा से परिचित हूं और मुझे विश्वास है केवल आप की दया पर..

*जानता हूं आप संसार रूपी वन में मुझे भटकने नहीं देंगे।*

*अपना बालक समझ मुझे शरण में ले लेंगे*

मुझ पर दया करना गुरुदेव… मुझे दोबारा अपने पावन आंचल में ले लेना.. ले लेना ना… यह कहता हुआ काशी गुरुदेव के श्री चरणों में सिर रखकर रोने लगा।

*माना मुझे मनाना आता नहीं, पर चल पड़ा हूं तुझे मनाने को।* *दिल की कसक रुकती नहीं मजबूर हो तुझे पाने को।*

*न थम रहा ना रुक रहा तूफा ये कैसा बढ़ रहा ?*

*एक आस एक तड़प एक विश्वास है बस मात्र तुझे पाने को ।*

काशी के आंसुओं ने आज एक घोर जंग लड़ी और आखिरकार इस जंग में वे विजय भी हुए। जन महिमा मई गुरुदेव के हृदय को द्रवित करने का लक्ष्य लेकर आंसुओ ने आंखों में कदम रखा था उस लक्ष्य को उन्होंने बेध डाला ।

गुरुदेव ने काशी की अरदास को स्वीकार किया उसे फिर से मिलने का अटल वचन दे डाला।

कुछ समय पश्चात योगानंद जी को किसी जरूरी काम से बाहर जाना पड़ा । उन्होंने काशी को बुलाया “सुनो काशी चाहे कुछ भी क्यों ना हो कोई तुम्हें कितना भी कहीं भी ले जाने का हट क्यों ना करें तुम आश्रम के दिव्य स्पदंन में ही रहना। यहां से बाहर मत जाना। काल के सर्प का फन दुर्गम से दुर्गम स्थान पर छिपे शिकार को खोज लेता है । परंतु मेरी आज्ञा के सुरक्षित किले में बैठे भक्त का वह काल कुछ नहीं बिगाड़ सकता। इसलिए तुम सावधान रहना किसी के भावनात्मक या किसी भी प्रकार के दबाव में आकर इस आश्रम के प्रांगण से बाहर मत जाना। यह मेरी आज्ञा है।

योगानंद परमहंस जी तो चले गए परंतु दुर्भाग्य की करामात देखिए कि उसी दिन काशी के पिता रांची आश्रम पहुंच गए ।

वे काशी पर दबाव डालने लगे कि वह आश्रम छोड़कर घर पुनः चले लगातार पंद्रह दिनों तक कोशिश करने पर भी जब वे असफल रहे। तो काशी को अनेकानेक प्रलोभन देने लगे।

” बेटा तू मेरे साथ चल मैं तेरा दाखिला सबसे बड़े विद्यालय में कराऊंगा वहां ऊंची शिक्षा पाकर तू डॉक्टर, वकील, इंजीनियर वगेरह जो बनना चाहे बन सकता है।

फिर दुनिया के सब एसो आराम तेरे कदमों में होंगे यहां मजदूरों की तरह जीवन क्यों यापन कर रहा है?”

परंतु जब इन प्रलोभनों से भी बात ना बनी तो भावनात्मक हथकंडा अपनाया गया।

” काशी बस एक बार अपनी बीमार मां को देख आ फिर तु भले ही रांची लौट आना।”

“क्या पता तुझे देख वह फिर से हरी हो जाए । जिसने तुझे जन्म दिया है क्या उसे तू एक बार अपना चेहरा दिखा कर नया जन्म नहीं सकता?

काशी अडीग रहा । गुरु भक्त की निष्ठा के सामने सांसारिक पिता को बार-बार घुटने टेकने पड़े । काशी ने उनके साथ जाने से साफ इनकार कर दिया।

अब काशी के पिता नियंत्रण खो बैठे और आश्रम परिसर में जोर-जोर से चिल्लाकर प्रलाप करने लगे।” काशी तुझे इस आश्रम को छोड़कर घर चलना ही होगा यह एक पिता की आज्ञा है और तुझे इसका पालन करना ही होगा। अगर तू खुद नहीं चला तो तुझे घसीटकर यहां से ले जाऊंगा और हां याद रखना जरूरत पड़ने पर पुलिस की मदद भी ली जा सकती है ।”

पुलिस की मदद… नहीं नहीं मेरे कारण मेरे गुरुदेव के पवित्र आश्रम में पुलिस आए लोग मेरे गुरुदेव का उपहास करें मै यह पाप का बोझ नहीं उठा सकता। गुरु के सम्मान को खंडित करने से अच्छा मै मृत्यु को गले लगा लू।

काशी ने मन ही मन निर्णय कर लिया और काशी पिता के साथ घर चला गया ।

लेकिन यह उसकी स्थूल देह ही थी जो आश्रम से बाहर गई। परंतु उसका मन गुरु प्रेम में और आश्रम में ही रह गया।

दूसरी ओर काशी के पिता सफलता का अनुभव कर रहे थे। परंतु असलियत में यह उनकी हार थी। सदा धिक्कारी जाने वाली हार।

जिस अहंकार को तुष्ट होता देखकर वे खुशी के उन्माद में खोए थे। दरअसल वह जीवनभर रिसने वाले विषाद की मवाद थी।

मां पिता का वह स्नेह जिसने कभी काशी को पाला था अब वही काशी को बंधनकारक अनुभव होने लगा। गुरुदेव से दूरी उसके प्राणों को तन से दूर ले जाने लगी। और एक दिन इतना दूर ले गई कि फिर काशी वापस कभी ना लौटा। गुरुदेव की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई और काशी की मृत्यु हो गई।

उधर योगानंद जी जैसे ही आश्रम लौटे उन्होंने अन्य शिष्यों से काशी के बारे में पूछा। सर्वज्ञ अंतर्यामी गुरुदेव पूछने की केवल औपचारिकता निभा रहे थे ।

मानो वे कुछ पल के लिए अपनी सर्वज्ञता भूलना चाहते थे ।अपनी दूरदर्शिता पर पर्दा डाल देना चाहते थे ।

वे चाहते थे कि कोई आए और उन्हें कहे कि काशी हमेशा की तरह अपनी सेवा में संलग्न है ।वह आश्रम के भीतर ही है। उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। परंतु हर शिष्य के मौन ने उन्हें उनकी चाह से उल्टा ही जवाब दिया। जब उन्हें उनके पीछे से आश्रम में घटी एक एक घटना का पता चला। तो वे तुरंत कोलकाता के लिए निकल पड़े। काशी के घर पहुंचते ही उन्हें सबसे पहले जो लोग दिखाई पड़े दुर्भाग्य से वे सूतक वस्त्रों में खड़े थे ।

योगानंद जी का संदेह अब विश्वास में बदल गया।

योगानंद जी काशी के पिता के पास पहुंचे और वेदना भरी आवाज में बोले..

” छीन लिया ना तुमने मुझसे मेरा काशी । अपनी आज्ञा के बंधन में बांधकर मै काशी के जीवन की जिस दुर्घटना को टालना चाहता था तुम्हारी हठधर्मिता ने उसी दुर्घटना को ला खड़ा कर दिया। यह तुमने अच्छा नहीं किया। आखिर क्या देना चाहते थे तुम यहां लाकर काशी को ?

सांसारिक सुख सुविधाएं वैभव विलास यश ऐश्वर्य। तुम क्या जानो इन सबसे ऊपर उसका ध्येय सत्य को पाना था। मेरा काशी…यदी थोड़ा समय और दिया जाता तो वह परम लक्ष्य को अवश्य पा जाता ।

योगानंद जी अगले ही पल नम नेत्रों से बोल उठे..

“मैंने उसे अपनी गर्भ में धारण किया था। अपने गोद में अपने ह्रदय में स्थान दिया था मैंने उसे। आज मुझसे मेरा काशी छीनकर तुमने मेरे हृदय पर प्रहार किया है। पल पल विदीर्ण होता मेरा ह्रदय मैं तुम्हें कैसे दिखाऊं?”

उसके जीवन की हर विकट परिस्थिति को प्रसव पीड़ा की तरह सहा था मैंने ।

कैसे बताऊ तुम्हें अपनी वेदना? तुम नहीं समझ सकोगे.. कभी नहीं। क्योंकि तुम केवल एक सांसारिक पिता हो और मेरा काशी मुझ में सब संबंध खोजता था माँ, बंधु, पिता, भाई.. मैं भी हर संबंध में छिपा प्रेम को उस पर लुटा देना चाहता था। तुमने मेरी पूर्ण होती अभिलाषा में बाधा उत्पन्न की है। तुम ही कारण हो तुम ही…।

आज दो पिता आमने-सामने थे एक वह जो ऊपर से नीचे लाने वाला है और दूसरा वह जो नीचे से ऊपर ले जाने वाला पिता है। एक जीवन से मृत्यु की ओर ले जाता है तो दूसरा मृत्यु के बाद आरंभ होने वाले जीवन का मार्ग सुझाता जाता है।

एक सीमित सा पोखर है और दूसरा पिता विशाल सागर है ।

एक मोह के विष से महत्वाकांक्षाओं के बादल तले स्वार्थ की बारिश से जीवन को सींचता है और दूसरा पिता बिना किसी स्वार्थ के निष्काम भावना से अपनी कृपा की आकाश तले दिव्य प्रेम के पावन जल से जीवन को सींचता है । कहीं कोई बराबरी नहीं ।

दोनों में कोई तुलना नहीं इसलिए केवल पिता ही नहीं संसार के सारे संबंधों की ममता को भी यदि तुला के एक पलड़े में रखा जाए और दूसरे पलड़े में गुरु का एक पल का भी स्नेह रखा जाए तो तराजू वही झुकेगा जहां गुरु का दिव्य प्रेम है।

शेख सादीक तो यहां तक कहते हैं की गुरू की डांट भी पिता के स्नेह से बढ़कर होती है अर्थात बाहर से कठोर होते हुए भी गुरू की स्नेह सागर संसार मे कोई तुलना नहीं।

काशी के पिता भी आज गुरु योगानंद के अधिकार व स्नेह के सामने अपने को बौना महसूस कर रहे थे। उन्हें उनकी भूल रह रहकर ऐसी टीस दे रही थी जिसका इलाज अब वह किसी औषधि में नहीं था । आत्मग्लानि और पश्चाताप से उनका ह्रदय भर आया।

उनके शब्दकोश में एक भी शब्द ऐसा न था जिसे वह अपनी सफाई में योगानंद जी के सामने रख पाते परंतु यह कथा यहीं खत्म नहीं हो सकती। काशी का गुरुदेव से मांगा वह वचन और गुरुदेव का उसे पूरा करने का वायदा अभी इस प्रसंग का घटना बाकी था।

योगानंद जी को बेसब्री से इंतजार था उन पलो का जब उनका काशी संसार में दोबारा जन्म लेगा। सुबह उपयुक्त समय आ पहुंचा। काशी ने माता के गर्भ में स्थान लिया वहीं से काशी की आत्मा पुकार करने लगी गुरुदेव मैं आ रहा हूं.. आपका काशी दुबारा जन्म ले रहा है । आपको अपना वचन तो याद है ना गुरुदेव। मुझे अपना लेना। गुरुदेव! मुझे माया के जंजाल में अकेला मत छोड़ना। आपके श्री चरणों का स्नेह, सेवा का सौभाग्य यह सब दोबारा मेरी झोली में डाल दोगे ना गुरुदेव। यह भीख है उस याचक की जो संसार में बहुत बार बहुत कुछ खो चुका है।

मुझे अपने पास बुला कर धनवान होने का गौरव दे देना गुरुदेव । मैं आपके अभाव की दरिद्रता को कदापि सह नहीं सकता।

काशी मानो गर्व से अपने गुरुदेव प्रार्थना कर रहा था….

*अगर तू नहीं है मेरी जिंदगी में, नहीं जिंदगी से है कोई वास्ता।*

*सच कहता हूं तू ना मिला अगर इस जिंदगी का मौत ही है रास्ता ।*

विवेकानंद जी के शब्दों में विवेकानंद जी कहा करते थे,

जिस समय एक सच्चा प्यासा पानी की तलाश में निकलता है पानी के सिवाय किसी और विकल्प को स्वीकार नहीं करता। तो ऐसे प्यासे के लिए मानो नदी में भी ऊंची ऊंची लहरें उठती हैं। उफान आ जाता है। वह जल राशी भी उस संतप्त हृदय की प्यास से व्याकुल जीव की प्यास को शांत करने को व्याकुल हो उठती है ।

गुरुदेव योगानंद के साथ भी कुछ यही घटा । वे अपने शिष्य काशी के लिए व्याकुल हो उठे। जो समस्त मानवता को धैर्य का पाठ पढ़ाते हैं ऐसे गुरुदेव भी प्रेम के वश होकर खुद ही धैर्य की परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए।

कुछ दिनों के बाद योगानंद जी ने एक द्वार खटखटाया दंपत्ति बाहर आए “क्या आपके यहां कोई संतान जन्म लेने वाली है?” दंपत्ति ने हैरानी से एक दूसरे की तरफ देखा और फिर प्रश्नवाचक दृष्टि से योगानंद जी को देखा “आपको यह सूचना किसने दी?” योगानंद जी ने कहा “इस प्रश्न को छोड़िए आपके लिए इतना जानना ही काफी है कि आपके यहां एक पुत्र जन्म लेगा उसका वर्ण गौर और मुखाकृति चौड़ी होगी । उसके माथे के ऊपर सामने की ओर झुका होगा।घुघराले बालों का गुच्छा होगा। उसकी वृत्ति आध्यात्मिक होगी। परंतु आप यह सब कैसे कह सकते हैं ?”

“क्योंकि आपका होने वाला पुत्र मेरा शिष्य काशी है।” मेरा काशी। दंपत्ति के आग्रह करने पर योगानंद जी ने उन्हें सबकुछ विस्तार से बताया सारी घटना को जानने के बाद दंपति भी स्वयं को सौभाग्यवान समझने लगे कि वे इस अलौकिक लीला का हिस्सा है। उन्हें गुरुदेव की सेवा करने का सुअवसर मिला है।

आखिरकार वह सौभाग्यशाली पल आ ही गया जब काशी ने जन्म लिया। ठीक वैसा ही रूपरंग जैसा गुरुदेव ने बताया था। और उसके जन्म लेते ही गुरुदेव उसे दर्शन देने वहा स्वयं पहुंचे ।

कैसा होता है यह गुरु शिष्य का अलौकिक प्रेम। कैसा होता है यह गुरु शिष्य का अलौकिक संबंध जिसके समक्ष काल भी हाथ जोड़कर नतमस्तक हो जाता है।

इसलिए गुरु शिष्य का संबंध पवित्रम संबंध है । संसार के तमाम बंधनों से छुड़ाकर यह संबंध मुक्ति के मार्ग पर प्रशस्त करता है । यह संबंध जीवन पर्यंत का संबंध है।

यह बात अपनी ह्रदय की डायरी में स्वर्ण अक्षरों से लिख लो।