परमहंस योगानंद जी से उनके किसी शिष्य ने पूछाः “अपने लिए कार्य न करके सब कुछ ईश्वर के लिए करने का अर्थ क्या यह है कि महत्त्वाकांक्षी होना अनुचित है ?”
योगानंद जीः “नहीं ! तुम्हें ईश्वर का कार्य करने के लिए महत्त्वाकांक्षी होना चाहिए । यदि तुम्हारा संकल्प निर्बल और तुम्हारी महत्त्वाकांक्षा मृत है तो तुम जीवन को पहले ही खो चुके हो । किंतु महत्त्वाकांक्षाओं को सांसारिक आसक्ति न उत्पन्न करने दो ।
केवल अपने लिए वस्तुओं को चाहना विनाशकारी है, दूसरों के लिए वस्तुओं को चाहना विस्तार करने वाला होता है किंतु ईश्वर को प्रसन्न रखने की चेष्टा ही सबसे उत्तम भाव है । यह तुम्हें ईश्वरप्रीति में सराबोर कर ईश्वरत्व के साथ एक कर देगा ।
स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2020, पृष्ठ संख्या 16 अंक 334
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