जीवन बदलने का सामर्थ्य – पूज्य बापू जी

जीवन बदलने का सामर्थ्य – पूज्य बापू जी


सिकंदर नरसंहार करता हुआ कुछ विशेष बनने की आशा लिए ईरान पहुँचा । ईरान के राजा भी हार गये । सेनापति और सैनिक लोग वहाँ का माल-खजाना लूटकर सुंदर-सुंदर सौगातें सिकंदर को भेंट करते जा रहे थे । हीरे-जवाहरात, स्वर्ण के अम्बार देखकर सिकंदर का मन खुशी से छलक उठा था, बोलाः “बड़ी विजय…., सुंदर विजय….. वाह… वाह….!”

इतने में एक सेनापति ने सिकंदर के आगे एक छोटी पेटी रखी । सिकंदर ने देखा कि पेटी चंदन की लकड़ी से बनी है, उस पर स्वर्ण की नक्काशी है और हीरे-जवाहरातों से जड़ी है । सिकंदर पेटी देख के दंग रह गया । सोचने लगा, ‘छोटी सी पेटी है पर छोटी नहीं है, बहुत कुछ है इसमें । काश ! मिल जाय वह कारीगर जिसने यह पेटी बनायी है तो उसके हाथ चूम लिये जायें ।’

सिकंदर ने विचार-विमर्श के लिए बुद्धिशाली व्यक्तियों को बिठाया कि ‘इतनी प्यारी पेटी में क्या  रखा जाय ?’

किसी बुद्धिमान विचारक ने कहाः “राजाधिराज का कोई अति वस्त्र इसमें रखा जाय क्योंकि वह निकट की चीज़ है ।”

किसी ने कहाः “राज-खजाने की कुंजियाँ रखें ।” किसी ने कहाः “कीमती हीरे-जवाहरात रखे जायें ।” लेकिन सिकंदर संतुष्ट नहीं हुआ । वह खुद भी चिंतित था कि क्या रखा जाय ?

सिकंदर सोच-विचार में डूबा था । वह सोच रहा था, ‘मैं लड़ाकू बना, ऐसा बना, वीर बना…. किंतु इस वीरता की जननी कौन सी चीज है ? मुझे वीर किसने बनाया ? हजारों-हजारों लोग जो सलाम भरते हैं, वह सलाम लेने की योग्यता मुझमें आयी कहाँ से ? बचपन में कोई ग्रंथ पढ़ा था, कोई पुस्तक पढ़ी थी, कोई वाक्य सुना था ।’

वाक्यों का इतना मूल्य है कि मुर्दे जैसे व्यक्ति में भी जान डाल देते हैं ।

हनुमान जी को भी जब जाम्बवान ने सुनाया कि “रामकाज के लिए तुम्हारा  जन्म हुआ है । तुम कोई जैसे-तैसे नहीं हो, तुम पवनसुत हो, तुम सब कर सकते हो ।” तब हनुमान जी में छिपा हुआ ओज प्रकट हुआ ।

राजस्थान के राजा वीरसिंह के पास पहले राज्य नहीं था, तब की बात है । एक बार उसके घर में चोर घुसे । उस क्षत्रिय की पत्नी जगी । बोलीः “पतिदेव ! घर में तीन चोर घुसे हैं ।”

वीरसिंह बोलता हैः “वे तीन हैं, मैं अकेला हूँ ।”

पत्नी ने कहाः “आप तो वीरसिंह हैं । वीर भी हैं और सिंह भी हैं । जंगल में सैंकड़ों हाथियों का टोला हो पर एक सिंह आ जाता है तो हाथियों की क्या मजाल है कि उसके सामने ठहरें ?”

वीरसिंह की चेतना जगी, उठायी तलवार और भगाया तीनों को । उसके बात उसमें वीरता आती गयी, आती गयी और वह राजा हो गया ।

जैसे भीतर ही वीरता छिपी है, ऐसे ही तुम्हारे अंदर ब्रह्मत्व भी छिपा है, परमात्म-तत्त्व भी छिपा है । वीरता की याद आ जाय, बड़े-बड़े काम करने की याद आ जाय, उसके बावजूद तुम्हें अपनी याद जरूर आनी चाहिए और अपनी याद जब तक नहीं आती तब तक विद्या की याद या वीरता की याद यह कोई आखरी याद नहीं है ।

सिकंदर सोच रहा है, ‘क्या रखूँ इस पेटी में ?’ याद आया कि ‘युनान के महाकवि होमर की लिखी एक कविता ने मुझे प्राण दिये हैं । ‘इलियेड’ नाम के ग्रंथ में वह कविता है । इस पेटी में वह ग्रंथ रख दिया जाय । हीरे-जवाहरात से भी कीमती वह पुस्तक है ।’

लेकिन स्वामी रामतीर्थ से कोई पूछे कि ‘ऐसी पेटी आपको दी जाय तो आप उसमें क्या रखोगे ?’ स्वामी रामतीर्थ कहेंगेः “मैं इसमें श्री वाल्मीकि मुनि प्रणीत ‘श्री योगवासिष्ठ महारामायण’ रखूँगा क्योंकि अत्यंत आश्चर्यजनक और सर्वोपरि श्रेष्ठ ग्रंथ, जो इस संसार में सूर्य के तले कभी लिखे गये, उनमें से श्रीयोगवासिष्ठ एक ऐसा ग्रंथ है जिसे पढ़कर कोई भी व्यक्ति इस मनुष्यलोक में आत्मज्ञान पाये बिना नहीं रह सकता है ।”

राजा जनक से कोई पूछे कि ‘ऐसी पेटी आपके पास हो तो आप क्या रखोगे ?’ राजा जनक कहेंगेः “अष्टावक्र मुनि के वचन रखूँगा, ‘अष्टावक्र गीता’ रखूँगा । महापुरुषों के वचन रखूँगा, सत्शास्त्र रखूँगा ।”

आज के किन्हीं संयमी-सदाचारी युवाओं को पूछें कि ‘ऐसी पेटी आपको दी जाय तो उसमें आप क्या रखेंगे ?’ तो वे कहेंगेः “दिव्य प्रेरणा-प्रकाश, ईश्वर की ओर एवं जीवन विकास सत्साहित्य, जिन्होंने खपे, थके, ढले जीवन को संयमी, साहसी, समाज व संत के कार्य के काबिल एवं परमात्मप्राप्ति के योग्य बना दिया ।” (यह सत्साहित्य संत श्री आशाराम जी आश्रमों में व समितियों के सेवाकेन्द्रों से प्राप्त हो सकता है । – संकलक)

सत्शास्त्रों के, महापुरुषों के वचन हमें उन्नत करने में कितनी अहम भूमिका निभाते हैं ! वे हममें सात्त्विक प्राणबल भर देते हैं तथा हमें अपनी सुषुप्त शक्तियों की, अपने ब्रह्मत्व की या दिला देते हैं । वे हमारा जीवन बदलने का सामर्थ्य रखते हैं । उनसे प्रेरणा लेकर कइयों ने लौकिक तो कइयों ने आध्यात्मिक सफलता प्राप्त की है । आदरपूर्वक उनका पठन, श्रवण, मनन करो ताकि उनका कोई वचन हृदय में बस जाय या चोट कर जाय और अपना जीवन परम उन्नति के रास्ते चल पड़े ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अक्तूबर 2020, पृष्ठ संख्या 6, 7 अंक 334

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