गुरूभक्तियोग दिव्य सुख के द्वार खोलने के लिए गुरुचाबी है। गुरूभक्तियोग के अभ्यास से सर्वोच्च शांति के राजमार्ग का मार्ग प्रारंभ होता है। गुरूभक्तियोग का अभ्यास किये बिना साधक के लिए ईश्वर साक्षात्कार की ओर ले जानेवाले अध्यात्मिक मार्ग में प्रविष्ट होना संभव नहीं है। सद्गुरु के पवित्र चरणों में आत्मसमर्पण करना ही गुरुभक्तियोग की नींव है।
विष और विषयों में गहरा अंतर है। एक को खाने से व्यक्ति मरता है और दूसरे का स्मरण करने मात्र से ही मर जाता है। सद्गुरु की ज्ञानरूपी रथ ऐसी सवारी है जो अपने सवार को कभी गिरने नहीं देती न किसी के कदमों में न किसी की नजरों में।
एक कल्पित कथा है। एक गांव में कुछ किसान चौपाल पर बैठकर बातचीत कर रहे थे। तभी उनका एक साथी हरिया दौड़ते हुए उनके पास आया। सभी साथियों ने पूछा, “हरिया! का बात हुई गई? इतना परेशान काहे हो?”
तब हरिया बोला, “का बताये भैय्या! रोज के जैसे आज सुबह भी हम अपनी गाय सुंदरी को चारा खिला रहे थे। पर पता नहीं कब और कैसे हमार मोबइलवा जेब से चारे में गिर गया।”
सभी ने पूछा, “फिर?”
हरिया बोला, ” फिर का? हमार उठावे से पहले ही हमार सुंदरी चारे के साथ मोबइलवा को निगल गई।”
“इका गजब हुई गया!” सभी किसान एकसाथ बोले।
अब का बताये। तब से अब तक हमार सुंदरी बहुत परेशान है।
हरिया रोते हुए स्वर में बोला, पता नहीं का हो गया है। ना खात है, ना पिवत है, न ही दूध देत है। बस एको जगह खड़ी रहती है। बड़ी तकलीफ में है बेचारी!… और जैसे ही हमार फोन बजत है, तब तो उसका दर्दभरा रंभाना हमसे तनिक न देख जात है। का करे भैय्या! हमार तो समझ में कछु नहीं आत है।
समस्या का हल ढूंढने के लिए सभी गांव वालों ने अपनी दिमाग की बत्तियां जलानी शुरू कर दी। परन्तु सुझाव का दीया तो दूर एक चिंगारी भी नहीं जली। अब करते भी तो क्या? डॉक्टर के पास जाने के लिए तो शहर जाना पड़ता और शहर जाने का खर्चा उठाते तो किसीसे उधार लेना पड़ता। उधार लेते तो चुकाते-2 उम्र निकल जाती। हरिया के सिर पर तो पहले से ही उसकी दो बेटियों की शादी का भारी कर्ज था।
आखिरकार सबने कहा, “अब ईश्वर की ही मर्जी है तो हम सब भी का कर सकत है?” उसी वक्त गांव के रास्ते से एक संत गुजर रहे थे। संत को देखकर सबने सोचा कि ये कोई ज्ञानी महापुरुष जान पड़ते हैं। चलो इन्हींसे पूछ लेते हैं। शायद कोई परामर्श मिल सके। जिससे सुंदरी की तकलीफ कम हो जाय।
सभी ने संत के पास जाकर उनको प्रणाम किया। हरिया ने झट अपनी सारी व्यथा उनको सुनाई। संत उसकी व्यथा सुनकर कुछ देर के लिए मौन हो गये। फिर हरिया को बोले कि, पहाड़ी के नीचे जो कुंआ है, सुंदरी को वह उसके पास ले आये।
पहाड़ी के नीचे पहुंचकर संत ने एक किसान से कहा कि अब हरिया के मोबाइल पर फोन कर। ऐसा करने पर इस किसान को सुनने में आया कि जो नम्बर आप डायल कर रहे हैं वह अभी पहुंच से बाहर है, कृपया थोड़ी देर बाद डायल करे। उधर सुंदरी के पेट से फोन की घण्टी भी नहीं सुनाई दी।
हरिया खुशी से उछल पड़ा। संत के चरणों में गिरकर बालकवत पूछने लगा कि हे संत महाराज! इह कैसन हुवत?
संत बोले, गांव के इस भाग में मोबाइल नेटवर्क नहीं पहुँचता है, इसलिए फोन की घण्टी नहीं बजी और सुंदरी को कोई तकलीफ भी नहीं हुई।
अरे वाह! हरिया चहक उठा। सामने देखता है कि सुंदरी घास खा रही है और कुछ घंटों बाद हरिया को अपना मोबाइल भी सुंदरी के ताजे गोबर के साथ मिल गया।
ऊपर लिखित कल्पित कहानी हमें दिक्कतों से जुड़ने का गोपनीय संकेत देते हुए कहती है कि जब कभी हमें मुश्किल परिस्थितियों में कोई सुमार्ग न दिखे, हमारा मन द्वंद्वों के जाल में फंस जाये और हम इस मन के विषय-विकारों के तूफान से बाहर निकलने में असमर्थ महसूस कर रहे हो, तब सद्गुरु की शरण में जाये।
सद्गुरु ही हमें चिंता, शोक और भय की चोटी से वहां ले जायेंगे जहां समग्र मुसीबतों का नेटवर्क फेल हो जाता है। जहां हमारी मन की अटकलें अपना नेटवर्क पकड़ ही नहीं पाते। करना बस इतना है कि सच्चे समर्पण भाव से सद्गुरु को शरणागत हो जाये। इस संपूर्ण विश्व में सद्गुरु ही एक ऐसे सूर्य हैं, जिनके प्रत्यक्ष होने पर मन की समस्त कालिमा और अंधकार अयत्न ही नाश हो जाता है।
सद्गुरु प्राप्ति के पश्चात भी कई साधक दुःखातुर, चिंतातुर और शोकातुर रहते हैं तो उनको अपना निरीक्षण स्वयं करना चाहिए। सद्गुरु से विमुखता ही अर्थात सद्गुरु के सीख से विमुखता ही साधक को दुःख, शोक और चिंता उत्पन्न कराती है। सद्गुरु से विमुखता ही साधक के पतन का कारण बनती है।