स्वामी शरणानंदजी के एक भक्त थे प्राध्यापक केशरी कुमार । वे अपने जीवन की एक घटित घटना का उल्लेख करते हुए लिखते हैं-
राँची की घटना है । एक वृद्ध वकील साहब स्वामी जी (शरणानंदजी) के पास आये, जो राँची में गाँधी जी के मेजबान थे और जिन्हें राँची वाले प्यार से नगरपिता कहते थे । आते ही बोलेः ″स्वामी जी ! मन अब तक न मरा । कोई ऐसा चाबुक बताइये जिससे मार-मारकर इसे खत्म कर दें ।″
स्वामी जी ने कहाः ″गाँधी जी के मेजबान होकर भी आप मारने की बात करते हैं । बलपूर्वक मारने की जितनी चेष्टा करेंगे, मन उतना ही प्रबल होगा । आप ही की सत्ता से सत्ता पाकर मन आप पर शासन करता है । मन आपका है, आप मन नहीं हैं । अंतः न तो उसे बलपूर्वक मारने की चेष्टा करो, न सहयोग करो । गाँधी जी का अमोघ अस्त्र है ‘असहयोग’ । मन से असहयोग करो । मन के जलूस को देखते रहिये, उसमें शामिल न होइये । बस, मजा आ जायेगा । मुश्किल यह है कि आप चाहते हैं क्रांति और करते हैं आन्दोलन ।″
वकील साहब बोलेः ″महाराज ! आंदोलन और क्रांति तो एक ही चीज है । आंदोलन न करेंगे तो क्रांति होगी कैसे ?″
स्वामी जीः ″नहीं महाराज ! आंदोलन है बलपूर्वक अपनी बात दूसरों से मनवाना और क्रांति है हर्षपूर्वक कष्ट सहकर तपना व स्वयं को बदलना और दूसरे पर प्रभाव होने देना । आप करते हैं आंदोलन और चाहते हैं कि क्रांति हो जाय । आप बदलते नहीं, दूसरों को बदलना चाहते हैं । यह नहीं होगा । मन आप नहीं हैं, मन है ‘पर’ (अन्य), मिला हुआ । आप बदल जाओगे तो मन अपने आप बदल जायेगा । जीवन में क्रांति आ जायेगी ।″
थोड़ी देर सन्नाटा रहा, जिसे भंग करते हुए स्वामी जी आगे बोलेः ‘पर भाई ! आप हैं पढ़े-लिखे और मैं ठहरा पाँचवी तक पढ़ा, बेपढ़ा अंधा (स्वामी जी बचपन में ही दृष्टिहीन हो गये थे । ) बात न रूचे तो स्वीकार न कीजिये ।″
बात निशाने पर लगी और वकील साहब ने कुछ आजिजी से पूछाः ″महाराजः यह मन है क्या ?″
स्वामी जीः ″यह मन है भोगे हुए का और जो भोगना चाहते हैं उसका प्रभाव । भुक्त (जिसका भोग किया गया हो) – अभुक्त के प्रभाव के अतिरिक्त मन कुछ नहीं है । भोग के प्रभाव का नाम मन, भोग के परिणाम का नाम शोक तथा भोग की रूचि का नाम बुराई है । अब आप ही सोचिये कि जब तक कारण का नाश नहीं होगा अर्थात् भोग की रूचि का नाश नहीं होगा तब तक कार्य अर्थात् मन का नाश होगा क्या ?″
फिर मेरा नाम लेते हुए बोलेः ″केशरी भाई ! तुम तो साहित्य के प्रोफेसर हो । भक्ति साहित्य में पढ़ा होगा कि राधा जी बेमन हो गयी थीं । क्यों ? क्योंकि उनका अपना कोई संकल्प नहीं रह गया था । उन्होंने मन के अपने सारे संकल्प श्रीकृष्ण को समर्पित कर दिये थे । और हमारा हाल है कि हम सारे संकल्प अपने लिए रखते हैं उनका भार ढोते रहना चाहते हैं और चाहते यह है कि मन का नाश हो जाय । यह असम्भव है ।″
स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 24 अंक 336
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