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तुम भी बन सकते हो अपनी 21 पीढ़ियों के उद्धारक


प्राचीन काल की बात है । नर्मदा नदी जहाँ से निकलती है वहाँ अमरकंटक क्षेत्र में सोमशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था । उसकी पत्नी का नाम था सुमना । सुमना के पुत्र का नाम था सुव्रत । सुव्रत जिस गुरुकुल में पढ़ता था वहाँ के कुछ शिक्षक, आचार्य ऐसे पवित्रात्मा थे कि वे उसे ऐहिक विद्या पढ़ाने के साथ योगविद्या और भगवान की बातें भी सुनाते थे । सुव्रत अपने पड़ोस के बच्चों के साथ खेलता तो किसी का नाम ‘गोविन्द’ रख देता, किसी  का ‘मोहन’, किसी का ‘मुरलीधर’, किसी का ‘गुरुमुख’ तो किसी का ‘गुरुचरण’ या ‘हरिचरण’ – ऐसे नाम रख देता । तो ये अच्छे-अच्छे नाम रखकर वह बच्चों के साथ खेलता । थोड़ी देर खेलता फिर कहता कि ‘यह खेल खेलकर तो शरीर को थोड़ी कसरत मिली, अब असली खेल खेलो जिससे मन-बुद्धि को भी कसरत मिले, परमात्मा की शक्ति मिले । चलो, लम्बा श्वास लो और भगवान के नाम का उच्चारण करो ।”

5-10 मिनट उच्चारण करता फिर बोलता कि “चलो, बैठ जाओ । जो श्वास भीतर जाता है उसको देखो, जो बाहर आता है उसको गिनो….” ऐसा करते-करते भगवान का ध्यान का उसने बच्चों को चस्का लगा दिया । तो सुव्रत के सम्पर्क में आने वाले पड़ोस के बच्चे, जो अलग-अलग गुरुकुलों में पढ़ते थे, उनका मन भी प्रसन्न होने लगा, उनके माँ-बाप भी सुव्रत को प्रेम करने लगे ।

सुव्रत ने यह बात समझ ली कि 3 प्रकार की विद्या होती है । एक तो विद्यालय में पढ़ते हैं वह ऐहिक विद्या, दूसरी योगविद्या और तीसरी आत्मविद्या । ‘मैंने विद्यालय की विद्या तो पढ़ ली, अब मेरे को योगविद्या सीखनी है, आत्मविद्या में आगे बढ़ना है ।’ ऐसा सोचकर भगवान को पाने का दृढ़ संकल्प कर लिया सुव्रत ने । माँ-बाप को बोला कि “मैंने संसार की विद्या, गुरुकुल की विद्या तो पा ली लेकिन अब मुझे योगविद्या और आत्मविद्या पानी है ।”

वैडूर्य पर्वत पर सिद्धेश्वर नामक स्थान के पास एक कुटिया में जाकर उसने साधना की । उस साधना से उसके मन में जो थोड़ी सी कमी बाकी बची थी वह भी दूर हो गयी और उसका ध्यान दृढ़ हो गया । ध्यान दृढ़ होने से उसकी बुद्धि में परमात्मा के ज्ञान का प्रकाश हुआ और ईश्वर के दर्शन करके भगवान नारायण से वरदान लिया कि ‘मेरे माता-पिता को भगवद्धाम की प्राप्ति हो । मुझे श्रीहरि के सगुण रूप के दर्शन और निर्गुण स्वरूप का अनुभव हो और मैं संसार में रहते हुए भी किसी चीज को सच्ची न समझूँ, सब छोड़ के जाना है, सच्चे तो एक परमात्मा तुम ही हो – ऐसा मेरा ज्ञान दृढ रहे ।’

भगवान सुव्रत के इन पवित्र वरदानों से बड़े प्रसन्न हुए । दादा-दादी, नाना-नानी आदि की कुल 21 पीढ़ियों का उद्धार करने वाले सुव्रत ने अपना तो उद्धार किया, अपने माता-पिता का भी बेड़ा पार किया और अन्य बच्चों के लिए वह भगवत्प्राप्ति का प्रेरक बन गया । तुममें से भी कोई सुव्रत बन जाय, कोई स्वामी विवेकानंद बन जाय, कोई शिवाजी महाराज बन जाय, कोई स्वामी रामतीर्थ बन जाय, कोई सदगुरु लीलाशाह बन जाय, कोई कुछ बन जाय… बच्चों के अन्दर असीम शक्तियाँ छुपी हैं ।

दूसरे का अपकार न करें

इच्छेत्परापकारं यः स तस्यैव भवेद् ध्रुवम् ।

इति मत्वापकारं नौ कुर्यादन्यस्य पूरूषः ।।

‘जो दूसरे का अपकार करना चाहता है, निश्चय ही पहले उसी का अपकार हो जाता ऐसा समझकर कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे का अपकार न करे ।’ (शिव पुराणः रूद्र संहिता, सती खंडः 19.16)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 336

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बोझा अपने सिर पर क्यों रखना ! – पूज्य बापू जी


तुम निष्फिक्र परमात्मा की ओर आते हो तो बाकी का सब गौण हो जाता है और प्रकृति सहयोगी हो जाती है । अपने को बोझा नहीं उठाना पडता है । अपने को कर्तृत्व का अभिमान होता है तभी बोझा लगता है । कर्तृत्व का अभिमान नहीं है, देहाध्यास गल जाय, परमात्म-तत्त्व का साक्षात्कार हो जाय तो फिर तो तुम्हारे लिए सब खेल है विनोद है ।

विनोदमात्र व्यवहार जेनो ब्रह्मनिष्ठ प्रमाण ।

तुम्हारा व्यवहार विनोद जैसा हो जाय । व्यवहार को इतना महत्त्व नहीं दो कि बस, सिर पर चढ़ बैठे, हृदय का कब्जा ले ले कि ‘अब क्या होगा, अब क्या होगा ?….’ क्या होगा ? ज्यादा-से-ज्यादा तो…. हो-हो के क्या होगा !

हमारे गुरुजी (भगवत्पाद साँईं श्री लीलाशाहजी महाराज) विनोदी बात कहा करते थे कि “हमारे गाँव में पुरसुमल ब्राह्मण थे । गाँव में जब बारिश देर से होती तो हमारे बुजुर्ग पुरसुमल ब्राह्मण के पास जाते तो मैं भी साथ में जाता । सब गाँव वाले पूछते कि “भूदेव ! आप बताओ, बरसात होगी कि नहीं होगी ?”

तो ब्राह्मण बोलतेः “भई देखो, अब मैं बुढ़ापे में दो बातें नहीं बताऊँगा, बात एक ही बताऊँगा । सच बताऊँ कि झूठ ?”

बोलेः “सब बताओ ।”

“देखो, आखिरी बात बता दूँ कि दो-चार बताऊँ ?”

बोलेः “एक ही बात बताओ ।”

सब हाथ जोड़ के बैठते और पुरसुमल ब्राह्मण खूब शांत हो के बोलते थे कि “भई, एक ही बात बताता हूँ, सच्ची बात बताता हूँ, विश्वास करना । सुन लेना, बरसात पड़ेगी या तो नहीं पड़ेगी ।”

“यह तो हम भी जानते हैं ।”

“हमसे झूठ मत बुलवाओ । या तो पड़ेगी या तो नहीं पड़ेगी, मैं बोल देता हूँ ।”

ॐ ॐ ॐ….. ऐसे ही संसार का हाल है । या तो अनुकूलता आयेगी या प्रतिकूलता आयेगी । तीसरा तो कुछ है नहीं ! है ? या तो यश आयेगा या तो अपयश आयेगा और क्या होगा ! तीसरा तो कुछ है नहीं । परमात्मा तो अपना स्वरूप है । परमात्मा तो आयेगा नहीं, जायेगा नहीं । और जो भी आयेगा वह जरूर जायेगा । तुम भी जाओगे । जाओगे कि नहीं जाओगे ?

तो सब जाने वाला ही है तो उसका बोझा अपने पर क्यों रखना !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 7 अंक 336

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तुम्हारे जीवन की संक्रान्ति का भी यही लक्ष्य होना चाहिए – पूज्य बापू जी


प्राचीन खगोलशास्त्रीयों ने विज्ञानियों ने सूर्य की रश्मियों का अध्ययन करते हुए सूर्यनारायण के मार्ग के 12 भाग किये । प्रत्येक भाग को राशि कहा गया । सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करना संक्रान्ति कहलाता है । हर महीने संक्रान्ति होती है परंतु प्राकृतिक पर्वों में यह उत्तरायण महत्त्वपूर्ण पर्व है । इस दिन से सूर्य मकर राशि में प्रविष्ट होता है इसीलिए इसको मकर संक्रान्ति कहते हैं ।

संक्रान्ति का आध्यात्मिक रहस्य

जीवन में क्रान्ति तो बहुत लोग कर लेते हैं लेकिन उस क्रान्ति के बाद भी उनका जन्म-मृत्यु तो चालू ही रह जाता है । मकर संक्रान्ति सम्यक् प्रकार की क्रान्ति का संकेत देती है । अगर मनः अथवा चित्त कल्पित क्रांति होगी तो उसमें ईर्ष्या, घृणा, भय, चिंता होगी और सफल हो गये तो अहंकार होगा किंतु सम्यक् क्रांति हुई तो महाराज ! कोई अहंकार नहीं, संतोष का भी अहंकार नहीं । मुनि अष्टावक्रजी कहते हैं-

अकर्तृत्वमभोक्तृत्वं स्वात्मनो मन्यते यदा । (अष्टावक्र गीताः 18.51)

जब व्यक्ति अपने अकर्ता और अभोक्ता तत्त्व को समझता है, अपने उस तत्त्व को ‘मैं’ मानता है तब उसके जीवन में संक्रांति होती है । जिनकी संक्रांति हो गयी है उन बुद्धपुरुषों को, ज्ञानवानों को, आत्मवेत्ताओं को हम हृदय से प्यार करते हैं । जैसे सूर्य का रथ दक्षिण से उत्तर को चला, ऐसे ही आप अपनी अधोगामी चित्त-वृत्तियाँ बदलकर ऊर्ध्वगामी करें । इस दिन यह संकल्प करें कि ‘हमारे जीवन का रथ उत्तर की तरफ चले । हम उम्दा विचार करेंगे, भय और चिंता के विचारों को आत्मविचार से हटा देंगे । संतोष-असंतोष के विचारों को चित्त का खेल समझेंगे, सफलता-असफलता के भावों को सपना समझेंगे ।’

जिसे तुम सफलताएँ, उपलब्धियाँ व क्रांतियाँ समझते हो वह संसार का एक विकट, विचित्र, भयानक और आश्चर्यकारक स्वप्न से स्वप्नांतर है ।

‘दुकान हो गयी, यह हो गया… लड़का हो गया,  लड़के का मुंडन हो गया…. आ हा हा !’ लेकिन ये एक संसारभ्रम के रूपांतर हैं । आपकी जो ‘आहा-ऊहू’ हैं वे महापुरुषों की, श्रीकृष्ण, श्रीरामजी की दृष्टि से केवल बालचेष्टाएँ हैं । तो कृपानाथ ! अपने ऊपर कृपा करिये, आपके जीवन के रथ की सम्यक् प्रकार से क्रांति अर्थात् संक्रांति कीजिए । क्रांति नहीं, क्रांति में तो लड़ाई-झगड़ा, हिंसा, भय होता है, सफल हो गये तो अहंकार होता है किंतु संक्रांति में सफलता का अहंकार नहीं, विफलता का विषाद नहीं होता है, हिंसा को स्थान नहीं है और भय की गुंजाइश नहीं है ।

तिल-गुड़ का रहस्य

पौराणिक ढंग से इस उत्सव को भारत में लोग भिन्न-भिन्न ढंग से मनाते हैं । लोग एक-दूसरे को तिल-गुड़ देते हैं । तिल में स्निग्धता है गुड़ में मिठास है तो तुम्हारे जीवन में, मन में स्निग्धता हो, रूखापन न हो और मिठास भी तुम्हारी ऐसी हो कि जैसे गुड़ या शक्कर एक-एक तिल को जोड़कर एक पक्का लड्डू बना देती है, अनेक को एक में जोड़ देती है ऐसे ही तुम्हारी अनेक प्रकार की स्निग्ध वृत्तियों में आत्मज्ञान की, परहितपरायणता की मिठास मिला दो । एक तो हवा की फूँक से उड़ जायेगा पर लड्डू जहाँ मारो वहाँ ठीक निशाना लगता है, ऐसे ही तुम्हारी वृत्तियों को उस आत्मज्ञानरूपी गुड़ के रस से भरकर फिर तुम जो भी काम करो संसार में, वहाँ तुम्हारी सफलता होती है ।

सम्यक् क्रांति का संकेत

उत्तरायण तुम्हें हिटलर होने के लिए, क्रांति करने के लिए संकेत नहीं कर रहा है बल्कि प्रेम से सम्यक् क्रांति करने का संकेत दे रहा है । और आप यह न समझें कि तलवार या डंडे के बल के आपकी जीत होती है । यह बिल्कुल झूठी मान्यता है । तलवार या डंडे के बल से थोड़ी देर के लिए जीत होती है लेकिन फिर वह सामने वाला तुम्हें हानि पहुँचाने की योजना बनाता है अथवा तुम पर वार करने की ताक में रहता है । आप प्रेम की बाढ़ इतनी बहायें कि सामने वाले के दूषित विचार भी बदलकर आपके अनुकल विचार हो जायें तो आपने ठीक से उसको जीत लिया ।

एक सम्यक् क्रांति किये हुए सेठ जी नाव में बैठकर जा रहे थे । वहाँ उऩ्हें कुछ कम्युनिस्ट विचारों के लोग मिले, बोले कि ‘भगवान का नाम लेकर सेठों ने सम्पत्ति बढ़ा ली…..’ कुछ-का-कुछ बोलने लगे । वे सेठ देखने भर को सेठ थे पर वे किसी सदगुरु के सत्शिष्य थे । जब उनका घोर अपमान हो रहा था तो उन्हें गुरु के वचन याद रहे थे कि ‘सबको बीतने दो । आखिर यह भी कब तक ? जब मान, अभिवादन के वचन पसार हो जाते हैं तो अपमान के वचन कब तक ?’ यह सूत्र उऩकी दीवालों और दिल पर लिखा था ।

सेठ के जीवन में संक्रांति घटी थी, वे ज्यों-के-त्यों थे, संतुष्ट थे । आकाशवाणी हुई कि ‘इनका जो मुखिया है उसको दरिया में डाल दो ।’ उन सेठरूपी संत ने कहाः “भगवान ! इतने कठोर तुम कब से हुए ? इन्होंने तो केवल दो शब्द ही तो बोले और तुम इनको पूरे-का-पूरा स्वाहा क्यों करते हो ?”

“तुम कह दो इनको सबक सिखा दूँ !”

“भगवान ! अगर सबक ही सिखाना है तो इनकी बुद्धि बदल दो बस ! वह काफी हो जायेगा ।”

भगवान ने मुखिया की बुद्धि बदल दी । जब मुखिया की बुद्धि बदल गयी तो उसके पीछे चलने वालों की भी बुद्धि बदल गयी, सबने सेठ से माफी ली । उनके जीवन में भी क्रांति की जगह पर संक्रांति का प्रवेश हुआ ।

जीवन की संक्रांति का लक्ष्य

दक्षिणायन में मृत्यु योगी लोग पसंद नहीं करते हैं इसलिए उत्तरायण काल के इंतजार में भीष्म पितामह 58 दिन तक बाणों की शय्या पर लेटे रहे और उसके बाद अपने प्राणों का त्याग किया ताकि दुबारा इस संसार में आना न पड़े ।

तो तुम्हारे जीवन की संक्रांति का लक्ष्य यह होना चाहिए कि दुबारा जन्म न मिले बस ! मृत्यु से डरने की जरूरत नहीं है, मृत्यु से डरने से कोई मृत्यु से बच नहीं गया । परंतु दुबारा जन्म ही न हो ऐसा प्रयास करने की जरूरत है ताकि फिर दुबारा मौत भी नहीं आये ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, दिसम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 4,5 अंक 336

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