बुल्लेशाह ढफली की ताल से ताल मिलाता
हुआ तालियाँ बजाने लगे। झूमता हुआ खड़ा हुआ। उसके पाँवो के घुंगरू भी बजने लगे। अब
कव्वालों के सुरों और ढोल-ढफलियों की धुनों को चीरती हुई एक सुरीली आवाज उठी- ‘ दर्द से भीगी हुई, कशिश से नशीली हुई ‘। उसे सुनते ही महफ़िल
का दिल धड़क उठा।बाकी सब कव्वाल तो गाकर थक चुके थे,
परन्तु यह आवाज थी बुल्लेशाह की और यह
गा रहे थे।
*सौह
रबदी दवा रे तेरे आँके,*
*बाबाजी
साडा हज हो गया।*
*तेरे
दर उत्ते सिरनु झुकाके,*
*बाबाजी
साड़ा हज हो गया।*
*कदमाँ
दिरज अख्खा नाल लाके,*
*बाबाजी
साडा हज हो गया।*
*तेरी
गली बाबा जनता दी गली है,*
*तेरी
पुष्तु पीरवाली अली है,*
*तेरा
मुख सानु लगदा कुरान है,*
*तेरी
दीद साडा दीनते ईमान है,*
*बाबाजी
साडा हज हो गया।*
*बादशाहों
नाल तेरियाँ गुलामियाँ,*
*ए
वे किद्दियाँ नी सावदीनी जामियाँ,*
*चारों
पासे अज मचिया दुहाइयाँ,*
*रल
अश्का कमाल आज पाइयाँ,*
*बाबाजी
साडा हज हो गया।*
*तेरे
दर उत्ते सिरनु झुकाके,*
*बाबाजी
साडा हज हो गया।*
*सोचा
नहीं अच्छा-बुरा,*
*देखा-सुना
कुछ भी नहीं।*
*माँगा
खुदा से रात-दिन,*
*तेरे
सिवा कुछ भी नहीं।*
*एहसास
की खुशबू हो तुम,*
*हर
श्वास की जुगनू हो तुम,*
*तेरी
यादों के सिवा,*
*इस
घर में रहा अब कुछ भी नहीं।*
बुल्लेशाह गाता रहा, नाचता रहा । महफ़िल
में से ‘इरशाद!
-2’ की
आवाजे आती रही। लेकिन लोग चकित भी थे कि ये किसकी आवाज है…? जिसकी आवाज में
मुरीदी का ऐसा बेहतरीन रस घुला है। लेकिन आपा के साथ आये फ़नकार तुरंत असलियत भाँप गए
। उन्होंने देखा कि बुल्लेशाह अपनी आँसुओ की बरसात में पूरा भीग चुका है। ऊँचे
फ़नकार और उस्ताद इस मुरीदी से सने फ़न को मन ही मन सिजदा कर बैठे।
मगर बुल्लेशाह की आँखे तो फ़क़त इनायत की
आँखों में अपने लिए कुछ खोज रही थी। काश! रहमत की एक भँवर उनमें मेरे लिए उमड़ आये।
कहीं से, किसी
हावभाव से तो शाहजी मुझ गरीब को कोई इशारा दे दे। यही पाने के लिए वह करीब जाकर
उनके नूरानी चेहरे को एकबार तसल्ली से पढ़ना चाहता था। इसलिए आहिस्ता-2 झूमते हुए, नाचते हुए फ़नकारों को
छोड़कर अब वह तख़त की तरफ सरकने लगा। लेकिन यहाँपर भी एक मुश्किल आन पड़ी।
*तमन्ना
है हमारी उन्हें नजदीक से देखे -2,*
*नजदीक
आते हैं तो नजरें उठाई नहीं जाती।*
*झुका
जाता है हर सिजदे में उनके,*
*इश्क
की ये बेबसी समझ नहीं आती।*
लोग कहते हैं कि इश्क़ में आशिक़ हुस्न को
पलकें झपकाये बिना देखता है। जी बिल्कुल! पहले तो बुल्लेशाह भी अपने गुरु को इसी
शिद्दत से देख रहा था, मगर
रूहानी इश्क़ में एक अजब पहलू और भी है। गुरु का हुस्न इतना पाक, इतना ईलाही, इतना खुदाई होता है
कि कभी कभार शिष्य की आँखे उसके सामने बेपरदाह होने,
पलकें उठाने की जुर्रत नहीं कर पाती। वे
सीधे सद्गुरु के कदमों में अपना ठिकाना टटोलती है। आज बुल्लेशाह ने भी इसी रूहानी
बेबसी को झेला था।
बुल्लेशाह नाचता रहा, गाता रहा ।पर धीरे-2 रात गहरी होती गई। साथ ही महफ़िल में
मौजूद खुदापरस्तो की थकान भी गहराती गई। गाने और नाचनेवाले फ़नकार चूर-2 होकर ढीले पड़ गए।
ढोल- ढफलियों की धुनें सुस्त सी होने लगी। लेकिन एक है, जिसकी आँखों में नींद
के लिए सख्त पहरे लगे हैं। यूँ कहे कि वह एक अरसे से सोया ही नहीं। जो अब आधी रात
गुजरने पर भी तरोताजा है।
रात का तीसरा प्रहर चला आया। बुल्लेशाह
अब भी नाच ही रहा है। मज़ार का घड़ियाल अपनी चाल से चल रहा था। मगर फ़नकार और हुजूम
उसकी रफ़्तार से ताल नहीं मिला पा रहे थे। ढोल-ढफलियाँ ठंडी पड़ने लगी। मंजिरो को
छबीली छुम- छनन बूढ़ी सी हो चली। हर मिजाज पर सुस्ती पसरती जा रही थी। मगर इन सबके
बीच उस बेचारे से मुरीद का क्या आलम था। उसे पता था कि चौथे प्रहर के खिलते ही
इनायत दरगाह से रुख़सत हो जायेंगे। इसलिए फ़क़त चंद लम्हों की ही मौहलत उसके पास बची
है। उसके बाद तो आर-पार का फैसला होना है। यही सोचकर बुल्लेशाह की नब्ज़ गिरती जा
रही थी। रगो में लहू रेंगने लगा था।
सोचो जब दरिया सूखता दिख रहा हो तो
उसमें तैरती मछली की क्या हालत होती है। वह मछली आसमान के तख्त पर बैठे बादलों से
हस्ती की आखिरी ताकत तक इल्तिजा करती है कि,
“बरस जा मेरे मीत! अब तो बरस जा!”
ठीक यही तड़प बुल्लेशाह में मचल रही थी।
*आसमानों
से उतरकर मेरी धरती पे विराज,*
*मैं
तुझे दूँगा पनपती हुई गीतों का खिराज।*
*नब्ज़-ए-हालात
में अब रेंगकर चलता है लहू,*
*काश!
रखले तू उतरते हुए दरिया की लाज।*
पूरी जान झोंककर बुल्लेशाह गा रहा था।
तूफानों से झुझती लौ की तरह नाच रहा था। हर सूरत में उसे रूठे सद्गुरु को जो मनाना
था। आज ही, अब
ही और बहुत जल्द ही।
*मुझे
बस ये एक रात नवाज दे -2,*
*फिर
उसके बाद सुबह न हो।*
*मेरी
तरसती रूह को लगा गले,*
*कि
फिर बिछड़ने का डर न हो।*
बस एक रात का, उसके भी कुछ लम्हों
का ही खेल बाकी था। जो बुल्लेशाह को नहीं हारना था,
हरगिज नहीं। मगर मैं क्या करूँ? कैसे करूँ? किस तरह रूठे सद्गुरु
को मनाऊँ? यही
सोच-2 कर
बुल्लेशाह की दिमाग की नसें फ़टी जा रही थी।
पता नहीं,
गुरुजी को याद भी है या नहीं कि बुल्ला
नाम का उनका एक सिरफिरा मुरीद भी था। जो उनकी बेरुखी के धक्के खाकर आश्रम से दफ़ा
हो गया था। पता नहीं उन्हें ख़याल भी है या नहीं कि उस दिन से आजतक उस पगले का जी
नहीं सँभला है। उसे जमाने की हवा रास नहीं आई है। वो घुट-2 के साँसे ले रहा है।
सिर्फ दर्द खाता है और आँसू ही पीता है। कैसे उन्हें बताऊँ ये सब?
परन्तु साधक और सतशिष्य की पुकार कभी
बेबस या बेचारी नहीं होती। उसके आँसू ही उसकी हिम्मत होते हैं। उसका दर्द ही उसका
हौसला बनता है। बस! बहोत हो गया छुपके-2। अब मुरीदी भरी महफ़िल में बेपर्दा होकर नाचेगी, अगर तब भी इनायत का
तख्त नहीं डोला तो यह मुरीदी उनके हाथ में ख़ंजर थमाकर कहेगी –
*एक
झटके में हलाल करदो मुझे,*
*क्यों
रफ़्ता-2 दम
खिंचते हो।*
*मुझे
और कितना सताओगे?*
*किस
हदतक मुझे मिटाओगे?*
*रिसरिसाना
लहू का बहोत हो गया,*
*सीधा
ख़ंजर कब चलाओगे?*
*जी-जाँ
तुमपे फ़नाहकस,*
*अब
मौत दे दो कि मैं थक गया।*
*मुझे
हाथ उठाके दुआ बक्ष,*
*जा
का दिल बनने का तुझे हक दिया।*
एक नौजवान बुल्लेशाह महफ़िल में नाचता-2 पागल-जुनूनी हो चला
और इसतरह कि नाचते-2 उसने
अपना बुरखा चीरकर उतार फेका। सभी ने देखा कि,
एक नौजवान मुजरे की चमकीली-दमकीली पोशाक
में? तमाम
निगाहों के तीर सीधे बुल्लेशाह में जा धँसे। त्यौरियां सिकुड़ गई। मगर बुल्लेशाह को
दुनियावी अखाड़ों की उठापटक से क्या वास्ता?
वो तो मुरीदी के मैदाने जंग में कमर कस
के आया था। इसलिए उसीमें डटा रहा। उसके घुंगरू फिर से छनन-2 कर उठे। चूड़ियाँ साफ
खनकती दिखने लगी। घागरा पंखे की तरह गोल-2
फिरकने लगा। बुल्लेशाह अपने पूरे फ़न में
नाच उठा।
इतिहास कहता है कि आज बुल्लेशाह इतना
नाचा कि उसके घुंगरू तक टूटकर बिखर गए। तलवो की बिवाइयाँ फट गई और उनसे खून चुनें
लगा। पूरा फर्श खून-2 हो
गया। ढोल-ढफली और तबला बजैये की उंगलियों की अच्छ- खाँसी इंतिहान ली गई। ऊँचे
फ़नकारों ने भी बारियां बदल-2 कर साज बजाएँ। मगर मुरीदी का यह फ़नकार बिना रुके, झिजके, अटके नाचता ही रहा।
सारा शरीर पसीने से तरबतर, तलवे
से चूँ रहा खून, आँखों
से अश्कों की रिमझिम! बुल्लेशाह सिर से पाँवतक भीगता हुआ नाचता रहा। मगर शरीर के
साज की भी तो एक सीमा होती हैं। जज्बातों की बिजली भला उसे कितना थिरकाती।
बुल्लेशाह फिरकते-2 धम्म से जमीन पर जा
गिरा। गिरा भी कहा…? सीधे
इनायत के तख्त के तल में। उसने हाँफते-2
सिर उठाया। सामने इनायत आज अपनी पूरी
खुदाई में पुर-नूर प्रकटे थे। बाहर से तो सूरजमुखी सी खिली-2 मुस्कान लिए बैठे थे, मगर उनका अन्दुरुनी
आलम क्या था?
सचमें,
खूब सधे हुए कलाकार होते हैं सद्गुरु।
जज्बातों को कब और
कितना दिखाना है या छुपाना है, कोई इनसे सीखे। बाहर से तो ख़ुश्क आँखे लिए बैठे होते हैं मगर
अंदरसे इश्क की छम-2 बौछारों
से भीगे रहते हैं। ऐसे होते हैं सद्गुरु!
*यह
और बात ख़ुश्क है आँखे,*
*मगर
कहीं खुलकर बरस रही है घटा।*
*गौर
से सुनो!*
*शाखों
से टूटते हुए पत्तों को देखकर,*
*रोती
है मुँह छुपाके हवा।*
*गौर
से सुनो!*
सद्गुरु को गौर से सुनने और समझनेवाला
दिल चाहिए, ईमानदार
सतशिष्य चाहिए। तभी पता चलता है, उनके रूखे-सूखे चितवन की आड़ में प्यार का कैसा रसीला सावन
बरसता है। आज बुल्लेशाह को यूँ टूटता-बिखरता देखकर,
उसकी हस्ती के चिथड़े उड़ते देखकर इनायत
की ममता में कैसा ज्वर उमड़ रहा था,
यह केवल वहीं और वहीं जानते है। किसी और
पर वे जाहिर नहीं होने दे रहे थे। शायद वे उस एक रूहानी लम्हे के इंतजार में थे, जो बस आने ही वाला
था।
बुल्लेशाह ने देखा कि सद्गुरु अरसे बाद
एकदम सामने हैं। बीच में कोई फाटक,
कोई दीवार नहीं। बाकी सब दर्शकों की तरह
उनकी रूहानी निगाहें भी उस पर ही टिकी थी। उन निगाहों की ईलाही छुहन मिलते ही वह
बिलख उठा। मानो किसी सबसे अपने ने प्यारसे सहलाकर पूछ लिया हो कि, “कैसा है तू?”
इतिहास अपनी ठिठकी सी जुबाँ से हमें उन
जज्बातों को बताता है, जो
इस वक़्त बुल्लेशाह ने बड़े नाज़ो से अपने सद्गुरु इनायत के कदमों में रखे थे।
*जेडे
दिनदा तू मुख मोड़ीया*
*हासिया
भी मुख मोड़े।*
*प्यारदे
फूल बिन खिननु सोखे*
*ऐसे
पै बिछोडे।*
हे मेरे सद्गुरु! ए मेरे हबीब! कैसे
बताऊँ तुझे? जिस
दिन से तूने मुझसे मुँह मोड़ा है, हँसी भी मुझसे रूठ गई है। मुस्कान मेरे होठों का रास्ता भूल गई
है। सच्ची कहता हूँ मेरे शाहजी! इमानसे जिस दिन से तू बिछड़ा है, मैं बस रोया ही रोया
हूँ। मैंने रोने के सिवा दूसरा कोई काम नहीं किया। मेरे माही!मेरे साजन! जिस दिन
से तेरे आश्रम की गोद मुझसे छीनी है,
मैं एक लम्हा भी चैन से सोया नहीं हूँ ।
रात को जब सारी खुदाई मीठी नींद में मदहोश हो जाती है, तब भी मैं पागलों की
तरह आसमान पर बस तेरी सूरत तलाशता रहता हूँ। तेरे यादों में रोता रहता हूँ। इतनी
लम्बी-2 राते, बरसों जितनी लम्बी
मैंने सिर्फ तेरी याद में रो-2 कर ही गुजारी है। तेरी रुसवाई ने मेरी आँखो को इतना रुलाया है
कि , देख
यार ! इनकी हालत तो देख! ये बेचारी रो -2
कर सूज गई है। ये फोड़े जैसे दुखती है, मेरे मालिक! फोड़े
जैसी। अब तो पलकें उठाने -गिराने में भी दर्द होने लगा है।
*तुझको
जो बसाया आँखो में,*
*जीवन
ने ये कैसा मोड़ लिया?*
*इन
दो हँसते हुए नैनों ने,*
*अश्को
से नाता जोड़ लिया।।*
*मैनु
तेरे घुलेखे पैंदे ने,*
*मैनु
लोक शुदाई कहेंदे ने।*
तू मेरे पास कही नहीं होता, लेकिन फिर भी मुझे
दिन रात तेरी होने के भुलावे होते रहते है। कभी लगता है कि तू यहाँ है, कभी लगता है कि वहाँ
है। मैं तेरी परछाई के पीछे दीवानों की तरह भागता फिरता हूँ। क्या करूँ? अब तो दुनिया मुझे
पगला शुदाई तक कहने लगी है।
बुल्लेशाह रातभर नाचते रहे, गाते रहे, अपने जज्बातों को
अपने सद्गुरु के आगे सुनाते रहे।
बुल्लेशाह ने कई खट्टी-मीठी काफ़िया गाई।
उन काफियों में छिड़कियाँ भी दी और अपने गुरु को याद भी दिलाते रहे। समय के अभाव के
कारण हम इन काफियों को पूरा नहीं पढ़ पाएँगे।
अंत मे बुल्लेशाह कहते है कि, “मेरे सीने में इस
वक़्त इतना दर्द -2 है
कि मैं उसे एक लम्हा भी और झेल नहीं सकता। या तो तू अपने पाक कदम मेरे इस जलते
सीने पर रखके मुझे ठंडी साँसे बक्ष दे,
या फिर हमेशा के लिए मेरी फड़फड़ाती रूह
को इस जर्जर पिंजरे से आजाद कर दे। मुझ पर आखिरी करम करदे। आखिरी करम!” इतना
कहकर बुल्लेशाह ने आँखे मूँद ली और सिर सिजदे में रखकर वहीं बिछ गया।
*मौत
पर हमको यकीन,*
*तुम
पर भी एतबार है।*
*देखते
है पहले कौन आता है ?*
*हमे
तो दोनों का इंतज़ार है।।*
अब ऊँचे तख्त पर हरकत हुई इलाही कदम
नीचे उतरे। आज भरी महफ़िल ने सूरज को भी भीगा हुआ देखा। बुल्लेशाह की सजल आहों की
बादलों ने इनायत को पूरी तरह ढ़क दिया। रूहानी आँखे कोरो तक अश्को से भरी थी, दुशाला गिर गया था, सारी खुदाई बिसर गयी
थी, इनायत
अपने दम तोड़ते मुरीद के पास घुटनो के बल आ बैठे।
*रिमझिम
घटाओ को क्या भेजना? आसमाँ
अपनी ऊँचाई छोड़कर खुद ही ज़मी पर उतर आया था।*
भरी रसाई से इनायत ने बुल्लेशाह की बालो
में उंगलियाँफेरी जज्बातों से ठसे कंठ से पूछा ,
“बता मुझे,
तू बुल्ला ही है न..? मेरा बुल्ला है न….
? “
बुल्लेशाह ने सिर उठाया। देखा कि उसका
रब उसका खुदा उसके पास खड़ा है ,बस कदमो से
कसकर लिपट गया ।बच्चों की तरह फुट-2 कर रोया। बेतहाशा
उन्हें चूमने लगा। दिल की गहराइयों से चीख-2
कर बोला,
“नही-2!
मैं बुल्ला नही हुजूर मैं भुल्ला हु..2 जरूर मैं कुछ भूलकर
गया था जो…। “
नही -2
कहते हुए इनायत ने खींचकर बुल्ले को
उठाया और अपने सीने से लगा लिया, बाहों में कसकर जकड़ लिया। पता नही चल रहा था कि यहाँ गुरु कौन
है और
शिष्य कौन है ? क्योंकि
दोनों एक टक रोये जा रहे थे।
इनके इस मिलन को ये हवाएँ देख रही थी, समा देख रहा था, दिशाएँ देख रही थी।
इतिहास अपनी तरबतर आँखों में इस लम्हे को समेट रहा था। ऐसा ही लम्हा हम सभी साधको
के जीवन मे आये, जो
हमे हमारे बापू से मिलन हो। यही हम सबकी चाह है,
यही हम सबकी अपनी गुरुदेव के चरणों मे
प्रार्थना है।
सद्गुरु शिष्य से दूर जाते है तो विरह
का कुम्भ रखकर उसके पास जाते है, ताकि शिष्य में से सत्शिष्य बनकर चमके, सत्शिष्य बनकर उभरे।
गोपियों ने इस विरह अगन को शांत न होने दिया और अपने इष्ट को पा ही लिया। ऐसे ही
मीरा, शबरी, नरसिंह मेहता आदि।
गुरुजी दूर है तो यह नही समझना चाहिए हम सभी को कि कोई दुनियावी बन्धन या दुनियावी
मजबूरी ने कही उन्हें बांधा है। नही सद्गुरु बंधे है तो सिर्फ और सिर्फ अपने साधको
के भावनाओ से। अपनी दूरी से विरह की अगन देकर हमे निखालिस दमकता हुआ देखना चाहते
है ,परंतु
कहि हम इस अगन को बुझा तो नही रहे है।
.
यह साईं बुल्लेशाह जी की जीवन गाथा बार
बार सुनने से, मनन
करने से शिष्यत्व को बड़ा बल मिलेगा। गुरु के चरणों मे हमारा अनुराग बढेगा। सद्गुरु
के प्रेम की कीमत ठीक ठीक समझ में आएगी। गुज़ारिश है कि आप अपने दिलो ज़ज़्बातों में
इसे हमेशा हमेशा के लिए कायम रखे, ताकि सच्ची मुरीदी की मिशाल सदैव जलती रहे।