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आखिर उस घने वन में क्यूँ वह देवी कठोर तप में निमग्न थी


स्वयं की अपेक्षा गुरु के प्रति अधिक प्रेम रखो। गुरु प्रेम और करुणा की मूर्ति है। आपको अगर उनके आशीर्वाद प्राप्त करने हो तो आप को भी प्रेम और करुणा की मूर्ति बनना चाहिए।

वह किसी संत की सभा बैठी थी।
किसी जिज्ञासु ने प्रश्न किया, “महाराज! बहुत अच्छे-2 साधको का पतन क्यों हो जाता है? हमने देखा है कि कई साधक जिनकी वेदांत में अच्छी गति थी, वे भी संसार की ओर सन्मुख हो गए। इस पतन से बचने का कोई उपाय नहीं है…? यदि है तो बताईये।”

संत थोड़े शांत हुए और जिज्ञासु से कहा कि, “प्रेम करो, ब्रह्मविद्या के दाता से प्रेम करो, सद्गुरु से प्रेम करो।” देखो यह कितने सरस शब्द है, जैसे मीठी चाशनी में डूबे रसगुल्ले जैसे। एकबार धीरे से जप कर देखो कि प्रभु मैं तेरा, तू मेरा। हे गुरुदेव! मैं तेरा, तू मेरा। कहो मेरे साथ, “हे प्रभु! मैं तेरा, तू मेरा। हे गुरुदेव! मैं तेरा, तू मेरा।” खूब स्वाद आया? आपके ह्रदय का कोई तार झनझनाया? कुछ गुदगुदाहट महसूस हुई?…यदि हाँ! तो मुबारक हो! तुम्हारी गाड़ी शिष्यत्व की पटरी पर सही दौड़ रही है और ऐसे साधक का पतन असंभव है।

मात्र ब्रह्मविद्या से प्राप्तकर्म प्रेम करना, यह रूखा वेदांती बना देता है। लेकिन ब्रह्मविद्या के दाता जो सद्गुरु है उनसे प्रेम करना, यह वेदांत के तत्व को उजागर कर देता है।

पद्मपुराण में एक बहुत ही प्रेरणाप्रद कथा आती है, कि एकबार जाबाली नाम के ब्रह्मज्ञानी मुनि एक वन में भ्रमण कर रहे थे। सहसा उन्होंने देखा कि बावली के तट पर वटवृक्ष की छटा तले एक परम रूपशालिनी तेजस्विनी देवी ध्यान कर रही है। पूर्णमासी की चन्द्रमा जैसी उसकी ज्योत्सना दूर-2 तक छटक रही है।

संत जाबाली जी ने कुतूहलवश उन देवी के समीप जाकर पूछा कि, “हे परम कल्याणी! आप कौन है?”

तब ये तप रहित देवी बोली, “मुनिवर! मैं अतुलनीय ब्रह्मविद्या हूँ।”
ब्रह्मविद्या अहं तुला योगिन्द्रेर्या च मृगर्येत।

“वही परमविद्या जिसकी प्राप्ति महान योगीजनों के लिए भी दुर्लभ है। “

मुनि जाबाली बड़े ही आश्चर्य से कहे कि मेरे अहोभाग्य जो साक्षात ब्रह्मविद्या का साकार दर्शन हुआ। परन्तु देवी आपकी सिद्धि होनेपर तो जीव स्वयं ब्रह्मरूप हो जाता है। उसकी साधना पूर्णता को छू लेती है। फिर भला आप स्वयं क्यों और किस साधना में लीन है? तल्लीन है?
ब्रह्मविद्या देवी ने कहा, हे मुनिवर! आपने सत्य कहा।

ब्रह्मानंदीन पूर्ण अहं।
“निःसन्देह मैं ब्रह्मानंद से पूर्ण हूँ।”
तेन आनंदीन तृप्त देहि।
मेरी बुद्धि आनंद से तृप्त भी है। परन्तु फिर भी मैं इस घोर वन में बैठी हुई प्रार्थनारत हूँ। कारण-
शून्यं आत्मानं मन्नेरतीं बिना

मैं प्रेम के बिना स्वयं को बहुत सुना पाती हूँ। मुझे अपना आनंद भी बेहद शुष्क और शून्य सा लगता है।

साक्षात् ब्रह्मविद्या भी उनके दाता के प्रति प्रेम के बिना अर्थात सद्गुरु के प्रति प्रेम के बिना स्वयं को व्याकुल मानती है, स्वयं को रूखा-सूखा और सूना मानती है। फिर सोचनेवाली बात है कि आप ब्रह्मविद्या को साधनेवाले साधक भला गुरुप्रेम के बिना कैसे अपनी साधना का पूर्ण संधान कर पाएँगे।

वैसे भी क्या आपने कभी किसी हरी बूटी को सिर्फ सूर्य की उज्ज्वल किरणों से उगता देखा है? नही ना… उसे धरती की नम और तरल गोद भी चाहिए। गुरु ने तो एक निःस्वार्थी और परिश्रमी किसान की तरह आपकी ह्रदयभूमि पर ज्ञान का बीज डाल दिया।

आप ध्यान साधना के प्रकाश किरणों से उसे सेने भी लगे। चलो, सेवा की बाढ़ भी उसके इर्दगिर्द खड़ी कर दी। सत्संग विचारो रूपी खाद का उसपर टीला भी सजा लिया। परन्तु जरा सोचिए, क्या दरार पड़ी ठोस पत्थर जमीन पर वह बीज फल और फूल पाएगा…? नहीं…उसे थोड़ा बहुत तो प्यार के रस से सींचो। प्रेम के कुछ बूँदे तो चिड़काओ, भावों की सजल बयार से उसे सहलाओ। कही किसी कोने से तो आवाज उठाओ कि गुरुदेव! मैं आपका हूँ और आप मेरे है। याद रखना आपकी ह्र्दयभूमि अपने गुरुदेव के उल्फ़त की रस से जितनी तर होगी,आपके जीवन का पौधा उतना ही कद लेगा।

ज्ञानेश्वरी के 9वें अध्याय में ज्ञानेश्वर महाराज जी लिखते है कि , “हे अर्जुन! मुझमें अपनापन किए बिना सरसता नहीं आ सकती। मैं केवल बाह्यकर्ममय साधनों से नहीं रिझता। “
प्रतिदिन ध्यान-साधना करना जरूरी है, परन्तु केवल इतना ही काफी नहीं।इन पुरुषार्थो को करते हुए आपको गुरुप्रेम का स्नेहील, सरस एहसास भी अपने अंदर जगाना होगा। नहीं तो इस एहसास के अभाव में हमारा सेवाकर्म, हमारा वेदांत भी बहुत छुछा और बेस्वाद सा रहेगा।

गुरु से प्रेम जीवन के समस्त कर्मों में रँग भर देता है। जीवन की समस्त साधनाओ को रंगीन कर देता है। लाख के सौदागरों का अनुभव है कि पिघली हुई लाख में चुटकीभर हल्दी डालने से वह सदा के लिए बसन्ती रँगसा हो जाता है और आँधी, तूफान, बारिश तक उससे इस रँग से छीन नहीं पाती।

आज आप पर भी तो इस मार्गपर न जाने गुरुदेव द्वारा कितने ही इंद्रधनुषिय के रँगो का छिड़काव होता ही रहता है। परन्तु ये रँग आपके शिष्यत्व पर क्यों नहीं चढ़ते? क्यों आप गुरुभक्ति के बसन्ती रँग में नहीं रँगते?…क्योंकि शर्त जो पूरी नहीं हुई, ह्रदय पिघला हुआ द्रवित नहीं हुआ। गुरुप्रेम की तरलता नहीं है। ठोस है, पत्थरसा है। इसलिए गुरु की भक्ति का बसन्ती रँग हमारे जीवनपर नहीं चढ़ता।
भरा नहीं जो भावों से,
बहती जिसमें रसधार नहीं।
वह ह्रदय नहीं पत्थर है,
जिसमें सद्गुरु का प्यार नहीं।

जो चमने दिल गुरुप्रेम से आबाद नही, वह शमशान है शमशान! शमशान जहाँ मुर्दे फूँके जाते है। जहाँ भुत-प्रेतों अर्थात कुविचारों, विषय-वासनाओं ने डेरा डाला होता है। ऐसे दिल में धड़कन की धकधक तो होती है, परन्तु जीवन की चहक नहीं होती। लोहार की धुकनी की तरह उसमें सूनी-2 साँसे चलती हैं, परन्तु प्राणों का संगीत नहीं गूँजता।

तो सोचना होगा कि आप अपनी ह्र्दयबगिया में आखिर कबतक पतझड़ लिए घूमते फिरेंगे। अपने प्यारे से प्रभु, अपने गुरुदेव के प्रति प्यार की बसन्त को कब बुलावा देंगे। यकीन मानिये इस मार्ग का हर मील पत्थर आप मे यही एहसास जगाने आता है।

इसलिए पल-2 अपने आप को निहारते हुए धीरे से गुनगुनाये कि , हे प्रभु! मैं तेरा, तू मेरा। हे गुरुदेव! मैं तुम्हारा। जिस दिन यह कहते हुए साँसे लम्बी और गहरी हो जाए, आँखो की प्यालियों से पानी छलक जाए, गले में भावों का फँदा फस जाए तो बस समझियेगा की गुरुभक्तिरूपी पौधा फलित हो रहा है, साधना मंजिल की ओर बढ़ रही है।

महान संकट की ओर बढ़ रहें थे कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग-11)


बुल्लेशाह ढफली की ताल से ताल मिलाता हुआ तालियाँ बजाने लगे। झूमता हुआ खड़ा हुआ। उसके पाँवो के घुंगरू भी बजने लगे। अब कव्वालों के सुरों और ढोल-ढफलियों की धुनों को चीरती हुई एक सुरीली आवाज उठी- ‘ दर्द से भीगी हुई, कशिश से नशीली हुई ‘। उसे सुनते ही महफ़िल का दिल धड़क उठा।बाकी सब कव्वाल तो गाकर थक चुके थे, परन्तु यह आवाज थी बुल्लेशाह की और यह गा रहे थे।

*सौह रबदी दवा रे तेरे आँके,*

*बाबाजी साडा हज हो गया।*

*तेरे दर उत्ते सिरनु झुकाके,*

*बाबाजी साड़ा हज हो गया।*

*कदमाँ दिरज अख्खा नाल लाके,*

*बाबाजी साडा हज हो गया।*

*तेरी गली बाबा जनता दी गली है,*

*तेरी पुष्तु पीरवाली अली है,*

*तेरा मुख सानु लगदा कुरान है,*

*तेरी दीद साडा दीनते ईमान है,*

*बाबाजी साडा हज हो गया।*

*बादशाहों नाल तेरियाँ गुलामियाँ,*

*ए वे किद्दियाँ नी सावदीनी जामियाँ,*

*चारों पासे अज मचिया दुहाइयाँ,*

*रल अश्का कमाल आज पाइयाँ,*

*बाबाजी साडा हज हो गया।*

*तेरे दर उत्ते सिरनु झुकाके,*

*बाबाजी साडा हज हो गया।*

*सोचा नहीं अच्छा-बुरा,*

*देखा-सुना कुछ भी नहीं।*

*माँगा खुदा से रात-दिन,*

*तेरे सिवा कुछ भी नहीं।*

*एहसास की खुशबू हो तुम,*

*हर श्वास की जुगनू हो तुम,*

*तेरी यादों के सिवा,*

*इस घर में रहा अब कुछ भी नहीं।*

बुल्लेशाह गाता रहा, नाचता रहा । महफ़िल में से ‘इरशाद! -2’ की आवाजे आती रही। लेकिन लोग चकित भी थे कि ये किसकी आवाज है…? जिसकी आवाज में मुरीदी का ऐसा बेहतरीन रस घुला है। लेकिन आपा के साथ आये फ़नकार तुरंत असलियत भाँप गए । उन्होंने देखा कि बुल्लेशाह अपनी आँसुओ की बरसात में पूरा भीग चुका है। ऊँचे फ़नकार और उस्ताद इस मुरीदी से सने फ़न को मन ही मन सिजदा कर बैठे।

मगर बुल्लेशाह की आँखे तो फ़क़त इनायत की आँखों में अपने लिए कुछ खोज रही थी। काश! रहमत की एक भँवर उनमें मेरे लिए उमड़ आये। कहीं से, किसी हावभाव से तो शाहजी मुझ गरीब को कोई इशारा दे दे। यही पाने के लिए वह करीब जाकर उनके नूरानी चेहरे को एकबार तसल्ली से पढ़ना चाहता था। इसलिए आहिस्ता-2 झूमते हुए, नाचते हुए फ़नकारों को छोड़कर अब वह तख़त की तरफ सरकने लगा। लेकिन यहाँपर भी एक मुश्किल आन पड़ी।

*तमन्ना है हमारी उन्हें नजदीक से देखे -2,*

*नजदीक आते हैं तो नजरें उठाई नहीं जाती।*

*झुका जाता है हर सिजदे में उनके,*

*इश्क की ये बेबसी समझ नहीं आती।*

लोग कहते हैं कि इश्क़ में आशिक़ हुस्न को पलकें झपकाये बिना देखता है। जी बिल्कुल! पहले तो बुल्लेशाह भी अपने गुरु को इसी शिद्दत से देख रहा था, मगर रूहानी इश्क़ में एक अजब पहलू और भी है। गुरु का हुस्न इतना पाक, इतना ईलाही, इतना खुदाई होता है कि कभी कभार शिष्य की आँखे उसके सामने बेपरदाह होने, पलकें उठाने की जुर्रत नहीं कर पाती। वे सीधे सद्गुरु के कदमों में अपना ठिकाना टटोलती है। आज बुल्लेशाह ने भी इसी रूहानी बेबसी को झेला था।

बुल्लेशाह नाचता रहा, गाता रहा ।पर धीरे-2 रात गहरी होती गई। साथ ही महफ़िल में मौजूद खुदापरस्तो की थकान भी गहराती गई। गाने और नाचनेवाले फ़नकार चूर-2 होकर ढीले पड़ गए। ढोल- ढफलियों की धुनें सुस्त सी होने लगी। लेकिन एक है, जिसकी आँखों में नींद के लिए सख्त पहरे लगे हैं। यूँ कहे कि वह एक अरसे से सोया ही नहीं। जो अब आधी रात गुजरने पर भी तरोताजा है।

रात का तीसरा प्रहर चला आया। बुल्लेशाह अब भी नाच ही रहा है। मज़ार का घड़ियाल अपनी चाल से चल रहा था। मगर फ़नकार और हुजूम उसकी रफ़्तार से ताल नहीं मिला पा रहे थे। ढोल-ढफलियाँ ठंडी पड़ने लगी। मंजिरो को छबीली छुम- छनन बूढ़ी सी हो चली। हर मिजाज पर सुस्ती पसरती जा रही थी। मगर इन सबके बीच उस बेचारे से मुरीद का क्या आलम था। उसे पता था कि चौथे प्रहर के खिलते ही इनायत दरगाह से रुख़सत हो जायेंगे। इसलिए फ़क़त चंद लम्हों की ही मौहलत उसके पास बची है। उसके बाद तो आर-पार का फैसला होना है। यही सोचकर बुल्लेशाह की नब्ज़ गिरती जा रही थी। रगो में लहू रेंगने लगा था।

सोचो जब दरिया सूखता दिख रहा हो तो उसमें तैरती मछली की क्या हालत होती है। वह मछली आसमान के तख्त पर बैठे बादलों से हस्ती की आखिरी ताकत तक इल्तिजा करती है कि, “बरस जा मेरे मीत! अब तो बरस जा!” ठीक यही तड़प बुल्लेशाह में मचल रही थी।

*आसमानों से उतरकर मेरी धरती पे विराज,*

*मैं तुझे दूँगा पनपती हुई गीतों का खिराज।*

*नब्ज़-ए-हालात में अब रेंगकर चलता है लहू,*

*काश! रखले तू उतरते हुए दरिया की लाज।*

पूरी जान झोंककर बुल्लेशाह गा रहा था। तूफानों से झुझती लौ की तरह नाच रहा था। हर सूरत में उसे रूठे सद्गुरु को जो मनाना था। आज ही, अब ही और बहुत जल्द ही।

*मुझे बस ये एक रात नवाज दे -2,*

*फिर उसके बाद सुबह न हो।*

*मेरी तरसती रूह को लगा गले,*

*कि फिर बिछड़ने का डर न हो।*

बस एक रात का, उसके भी कुछ लम्हों का ही खेल बाकी था। जो बुल्लेशाह को नहीं हारना था, हरगिज नहीं। मगर मैं क्या करूँ? कैसे करूँ? किस तरह रूठे सद्गुरु को मनाऊँ? यही सोच-2 कर बुल्लेशाह की दिमाग की नसें फ़टी जा रही थी।

पता नहीं, गुरुजी को याद भी है या नहीं कि बुल्ला नाम का उनका एक सिरफिरा मुरीद भी था। जो उनकी बेरुखी के धक्के खाकर आश्रम से दफ़ा हो गया था। पता नहीं उन्हें ख़याल भी है या नहीं कि उस दिन से आजतक उस पगले का जी नहीं सँभला है। उसे जमाने की हवा रास नहीं आई है। वो घुट-2 के साँसे ले रहा है। सिर्फ दर्द खाता है और आँसू ही पीता है। कैसे उन्हें बताऊँ ये सब?

परन्तु साधक और सतशिष्य की पुकार कभी बेबस या बेचारी नहीं होती। उसके आँसू ही उसकी हिम्मत होते हैं। उसका दर्द ही उसका हौसला बनता है। बस! बहोत हो गया छुपके-2। अब मुरीदी भरी महफ़िल में बेपर्दा होकर नाचेगी, अगर तब भी इनायत का तख्त नहीं डोला तो यह मुरीदी उनके हाथ में ख़ंजर थमाकर कहेगी –

*एक झटके में हलाल करदो मुझे,*

*क्यों रफ़्ता-2 दम खिंचते हो।*

*मुझे और कितना सताओगे?*

*किस हदतक मुझे मिटाओगे?*

*रिसरिसाना लहू का बहोत हो गया,*

*सीधा ख़ंजर कब चलाओगे?*

*जी-जाँ तुमपे फ़नाहकस,*

*अब मौत दे दो कि मैं थक गया।*

*मुझे हाथ उठाके दुआ बक्ष,*

*जा का दिल बनने का तुझे हक दिया।*

एक नौजवान बुल्लेशाह महफ़िल में नाचता-2 पागल-जुनूनी हो चला और इसतरह कि नाचते-2 उसने अपना बुरखा चीरकर उतार फेका। सभी ने देखा कि, एक नौजवान मुजरे की चमकीली-दमकीली पोशाक में? तमाम निगाहों के तीर सीधे बुल्लेशाह में जा धँसे। त्यौरियां सिकुड़ गई। मगर बुल्लेशाह को दुनियावी अखाड़ों की उठापटक से क्या वास्ता? वो तो मुरीदी के मैदाने जंग में कमर कस के आया था। इसलिए उसीमें डटा रहा। उसके घुंगरू फिर से छनन-2 कर उठे। चूड़ियाँ साफ खनकती दिखने लगी। घागरा पंखे की तरह गोल-2 फिरकने लगा। बुल्लेशाह अपने पूरे फ़न में नाच उठा।

इतिहास कहता है कि आज बुल्लेशाह इतना नाचा कि उसके घुंगरू तक टूटकर बिखर गए। तलवो की बिवाइयाँ फट गई और उनसे खून चुनें लगा। पूरा फर्श खून-2 हो गया। ढोल-ढफली और तबला बजैये की उंगलियों की अच्छ- खाँसी इंतिहान ली गई। ऊँचे फ़नकारों ने भी बारियां बदल-2 कर साज बजाएँ। मगर मुरीदी का यह फ़नकार बिना रुके, झिजके, अटके नाचता ही रहा। सारा शरीर पसीने से तरबतर, तलवे से चूँ रहा खून, आँखों से अश्कों की रिमझिम! बुल्लेशाह सिर से पाँवतक भीगता हुआ नाचता रहा। मगर शरीर के साज की भी तो एक सीमा होती हैं। जज्बातों की बिजली भला उसे कितना थिरकाती।

बुल्लेशाह फिरकते-2 धम्म से जमीन पर जा गिरा। गिरा भी कहा…? सीधे इनायत के तख्त के तल में। उसने हाँफते-2 सिर उठाया। सामने इनायत आज अपनी पूरी खुदाई में पुर-नूर प्रकटे थे। बाहर से तो सूरजमुखी सी खिली-2 मुस्कान लिए बैठे थे, मगर उनका अन्दुरुनी आलम क्या था?

सचमें, खूब सधे हुए कलाकार होते हैं सद्गुरु। जज्बातों को कब और कितना दिखाना है या छुपाना है, कोई इनसे सीखे। बाहर से तो ख़ुश्क आँखे लिए बैठे होते हैं मगर अंदरसे इश्क की छम-2 बौछारों से भीगे रहते हैं। ऐसे होते हैं सद्गुरु!

*यह और बात ख़ुश्क है आँखे,*

*मगर कहीं खुलकर बरस रही है घटा।*

*गौर से सुनो!*

*शाखों से टूटते हुए पत्तों को देखकर,*

*रोती है मुँह छुपाके हवा।*

*गौर से सुनो!*

सद्गुरु को गौर से सुनने और समझनेवाला दिल चाहिए, ईमानदार सतशिष्य चाहिए। तभी पता चलता है, उनके रूखे-सूखे चितवन की आड़ में प्यार का कैसा रसीला सावन बरसता है। आज बुल्लेशाह को यूँ टूटता-बिखरता देखकर, उसकी हस्ती के चिथड़े उड़ते देखकर इनायत की ममता में कैसा ज्वर उमड़ रहा था, यह केवल वहीं और वहीं जानते है। किसी और पर वे जाहिर नहीं होने दे रहे थे। शायद वे उस एक रूहानी लम्हे के इंतजार में थे, जो बस आने ही वाला था।

बुल्लेशाह ने देखा कि सद्गुरु अरसे बाद एकदम सामने हैं। बीच में कोई फाटक, कोई दीवार नहीं। बाकी सब दर्शकों की तरह उनकी रूहानी निगाहें भी उस पर ही टिकी थी। उन निगाहों की ईलाही छुहन मिलते ही वह बिलख उठा। मानो किसी सबसे अपने ने प्यारसे सहलाकर पूछ लिया हो कि, “कैसा है तू?”

इतिहास अपनी ठिठकी सी जुबाँ से हमें उन जज्बातों को बताता है, जो इस वक़्त बुल्लेशाह ने बड़े नाज़ो से अपने सद्गुरु इनायत के कदमों में रखे थे।

*जेडे दिनदा तू मुख मोड़ीया*

*हासिया भी मुख मोड़े।*

*प्यारदे फूल बिन खिननु सोखे*

*ऐसे पै बिछोडे।*

हे मेरे सद्गुरु! ए मेरे हबीब! कैसे बताऊँ तुझे? जिस दिन से तूने मुझसे मुँह मोड़ा है, हँसी भी मुझसे रूठ गई है। मुस्कान मेरे होठों का रास्ता भूल गई है। सच्ची कहता हूँ मेरे शाहजी! इमानसे जिस दिन से तू बिछड़ा है, मैं बस रोया ही रोया हूँ। मैंने रोने के सिवा दूसरा कोई काम नहीं किया। मेरे माही!मेरे साजन! जिस दिन से तेरे आश्रम की गोद मुझसे छीनी है, मैं एक लम्हा भी चैन से सोया नहीं हूँ । रात को जब सारी खुदाई मीठी नींद में मदहोश हो जाती है, तब भी मैं पागलों की तरह आसमान पर बस तेरी सूरत तलाशता रहता हूँ। तेरे यादों में रोता रहता हूँ। इतनी लम्बी-2 राते, बरसों जितनी लम्बी मैंने सिर्फ तेरी याद में रो-2 कर ही गुजारी है। तेरी रुसवाई ने मेरी आँखो को इतना रुलाया है कि , देख यार ! इनकी हालत तो देख! ये बेचारी रो -2 कर सूज गई है। ये फोड़े जैसे दुखती है, मेरे मालिक! फोड़े जैसी। अब तो पलकें उठाने -गिराने में भी दर्द होने लगा है।

*तुझको जो बसाया आँखो में,*

*जीवन ने ये कैसा मोड़ लिया?*

*इन दो हँसते हुए नैनों ने,*

*अश्को से नाता जोड़ लिया।।*

*मैनु तेरे घुलेखे पैंदे ने,*

*मैनु लोक शुदाई कहेंदे ने।*

तू मेरे पास कही नहीं होता, लेकिन फिर भी मुझे दिन रात तेरी होने के भुलावे होते रहते है। कभी लगता है कि तू यहाँ है, कभी लगता है कि वहाँ है। मैं तेरी परछाई के पीछे दीवानों की तरह भागता फिरता हूँ। क्या करूँ? अब तो दुनिया मुझे पगला शुदाई तक कहने लगी है।

बुल्लेशाह रातभर नाचते रहे, गाते रहे, अपने जज्बातों को अपने सद्गुरु के आगे सुनाते रहे।

बुल्लेशाह ने कई खट्टी-मीठी काफ़िया गाई। उन काफियों में छिड़कियाँ भी दी और अपने गुरु को याद भी दिलाते रहे। समय के अभाव के कारण हम इन काफियों को पूरा नहीं पढ़ पाएँगे।

अंत मे बुल्लेशाह कहते है कि, “मेरे सीने में इस वक़्त इतना दर्द -2 है कि मैं उसे एक लम्हा भी और झेल नहीं सकता। या तो तू अपने पाक कदम मेरे इस जलते सीने पर रखके मुझे ठंडी साँसे बक्ष दे, या फिर हमेशा के लिए मेरी फड़फड़ाती रूह को इस जर्जर पिंजरे से आजाद कर दे। मुझ पर आखिरी करम करदे। आखिरी करम!” इतना कहकर बुल्लेशाह ने आँखे मूँद ली और सिर सिजदे में रखकर वहीं बिछ गया।

*मौत पर हमको यकीन,*

*तुम पर भी एतबार है।*

*देखते है पहले कौन आता है ?*

*हमे तो दोनों का इंतज़ार है।।*

अब ऊँचे तख्त पर हरकत हुई इलाही कदम नीचे उतरे। आज भरी महफ़िल ने सूरज को भी भीगा हुआ देखा। बुल्लेशाह की सजल आहों की बादलों ने इनायत को पूरी तरह ढ़क दिया। रूहानी आँखे कोरो तक अश्को से भरी थी, दुशाला गिर गया था, सारी खुदाई बिसर गयी थी, इनायत अपने दम तोड़ते मुरीद के पास घुटनो के बल आ बैठे।

*रिमझिम घटाओ को क्या भेजना? आसमाँ अपनी ऊँचाई छोड़कर खुद ही ज़मी पर उतर आया था।*

भरी रसाई से इनायत ने बुल्लेशाह की बालो में उंगलियाँफेरी जज्बातों से ठसे कंठ से पूछा , “बता मुझे, तू बुल्ला ही है न..? मेरा बुल्ला है न…. ? “

बुल्लेशाह ने सिर उठाया। देखा कि उसका रब उसका खुदा उसके पास खड़ा है ,बस कदमो से कसकर लिपट गया ।बच्चों की तरह फुट-2 कर रोया। बेतहाशा उन्हें चूमने लगा। दिल की गहराइयों से चीख-2 कर बोला, “नही-2! मैं बुल्ला नही हुजूर मैं भुल्ला हु..2 जरूर मैं कुछ भूलकर गया था जो…। “

नही -2 कहते हुए इनायत ने खींचकर बुल्ले को उठाया और अपने सीने से लगा लिया, बाहों में कसकर जकड़ लिया। पता नही चल रहा था कि यहाँ गुरु कौन है और शिष्य कौन है ? क्योंकि दोनों एक टक रोये जा रहे थे।

इनके इस मिलन को ये हवाएँ देख रही थी, समा देख रहा था, दिशाएँ देख रही थी। इतिहास अपनी तरबतर आँखों में इस लम्हे को समेट रहा था। ऐसा ही लम्हा हम सभी साधको के जीवन मे आये, जो हमे हमारे बापू से मिलन हो। यही हम सबकी चाह है, यही हम सबकी अपनी गुरुदेव के चरणों मे प्रार्थना है।

सद्गुरु शिष्य से दूर जाते है तो विरह का कुम्भ रखकर उसके पास जाते है, ताकि शिष्य में से सत्शिष्य बनकर चमके, सत्शिष्य बनकर उभरे। गोपियों ने इस विरह अगन को शांत न होने दिया और अपने इष्ट को पा ही लिया। ऐसे ही मीरा, शबरी, नरसिंह मेहता आदि। गुरुजी दूर है तो यह नही समझना चाहिए हम सभी को कि कोई दुनियावी बन्धन या दुनियावी मजबूरी ने कही उन्हें बांधा है। नही सद्गुरु बंधे है तो सिर्फ और सिर्फ अपने साधको के भावनाओ से। अपनी दूरी से विरह की अगन देकर हमे निखालिस दमकता हुआ देखना चाहते है ,परंतु कहि हम इस अगन को बुझा तो नही रहे है।

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यह साईं बुल्लेशाह जी की जीवन गाथा बार बार सुनने से, मनन करने से शिष्यत्व को बड़ा बल मिलेगा। गुरु के चरणों मे हमारा अनुराग बढेगा। सद्गुरु के प्रेम की कीमत ठीक ठीक समझ में आएगी। गुज़ारिश है कि आप अपने दिलो ज़ज़्बातों में इसे हमेशा हमेशा के लिए कायम रखे, ताकि सच्ची मुरीदी की मिशाल सदैव जलती रहे।

महान संकट की ओर बढ़ रहें थे कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग-10)


कल हमने सुना कि बुल्लेशाह आपा के साथ बुरखा पहनकर दरगाह की तरफ चल पड़े।

एक ऐसा चमन है ,जिसकी खुशबू
साँसों से बसाये फिर रहा हूँ।
एक ऐसी जमीं है, जिसको छूकर
तकदिशे हरम से आसना हूँ।
एक ऐसी गली है, जिसकी खातिर
हर गली में भटक रहा हूँ।
ए मुझको सुकूँ देनेवाले मसीहा!
तुझको ही ढूँढ रहा हूँ।

बुल्लेशाह का तरसता हुआ वजूद अपनी जड़ों में लौटना चाहता था। वही चमन, वही गली, वही जमीं, वही मसीह ! उसकी साँसे इनायत की पाक सोहगत की खुशबू पाने के लिए बेकरार थी, उसकी रूहानी राहत के जाम माँग रही थी। जो बुल्लेशाह को इनायत के करीब बैठकर, उनकी झरने सी हँसी सुनकर, उनकी भोली अदाएँ, उनकी लीलाएँ देखकर मिलता था।

कितना सस्ता होता है ना उस समय यह सब, जब गुरु हमारे पास होते हैं। तब साधक शायद उसका मोल नहीं जानता। बुल्लेशाह के लिए भी कितना सस्ता था उस समय ये सब। मगर आज इन नियामतों को पाने के लिए बुल्लेशाह अपना सबकुछ दाँव पर लगा बैठा है। अपना मान -ईमान, लियाकते, अपना सईदी रुतबा, यहाँ तक की मर्द होने का गुरुर भी। आज वह लहँगा-चोली पहनकर, हाथों में चूड़ियाँ डालकर एक नाचनेवाली तवायफ़ के साथ मजार पर पहुँचा है।

हे मन ! आज हम सभी साधको के साथ भी कुछ ऐसी ही परिस्थिति है। हमने भी अपने बापू को पुनः प्राप्त करने के लिए सबकुछ तो दाँव पर लगाने का दावा किया है। परन्तु हे मन! क्या सचमें हमने दाँव पर कुछ भी लगाया है, यह विचारणीय है। हे मेरे प्यारे मन! परिस्थितियाँ तो हम सभी साधको की भी बुल्लेशाह जैसी ही है। परन्तु क्या वो तड़प मुझमें है,जो बुल्लेशाह को अपने गुरु के लिए थी? क्या मेरी धड़कने, मेरी श्वासें सच में उनको पुकारती है?

हे मेरे प्यारे मन! काश तूने अपनी तड़प भी बुल्लेशाह जैसी बापू को पाने के लिए की होती तो शायद आज तेरे खुदा तेरे पास होते।कहते तो है कि परिस्थितियाँ जरूर बुल्लेशाह जैसी है,कि गुरुदेव हमारे पास अभी नहीं है, रूठे है। परन्तु यहाँ तो मेरे सद्गुरु बादशाह स्वयं तन से कष्ट और पीड़ा झेल रहे हैं और मुझे सुरक्षित कर इस आश्रम में रखा है।

खैर, आज बुल्लेशाह अपना सबकुछ दाँव पर लगा बैठा है, अपने गुरु के लिए। यहाँ मज़ार पर दुनिया का मेला सजा था। हजारों कद्रदान पीरों की महफिले याद में शरीक होने आई थी। दरगाह का कोना-2 आबाद था। मजारों पर चमचम सितारोवाली चादरें चढ़ रही थी। ताजे फूलों से बिंधी चुनरियाँ चढ़ाई जा रही थी। सैकड़ों लोग नियाज़ अर्थात लंगर में पंगत में बैठकर रूहानी दावत खा रहे थे।

दूसरी तरफ दरगाह से सटे हुए बड़े से मैदान में फ़नकार और इल्मी जुड़ने लगे थे। वहाँ सुल्तानी फ़कीरो और पीरों के लिए ऊँचे-2 तख्त सजे थे। इसी मैदान में बुल्लेशाह छम-2 करता हुआ आपा के साथ पहुँचा। उसके चेहरे पर बुरखे का चिलमन था और हाथ में सारंगी। साथ में थी फ़नकारों की पूरी मण्डली। सभी तख्तों से थोड़ी दूरी पर गोलाई में बैठ गए।

बुल्लेशाह के ठीक पीछे गुसल की रस्म निभाई जा रही थी। गुसल में लोग गुलाबजल और चंदन से पिरि मकबरों को धोते है। हवा में गुलाब की रूमानी महक घुलि थी।कुछ उस्तादों ने कहा कि अभी तो महफ़िल सजने में वक्त है, चलो हम भी गुसल कर आये।परन्तु इधर बुल्लेशाह तो एक अनोखा गुसल करने को बेताब था। उसकी साँसे अपने सद्गुरु, अपने मुरीद की खुशबू को तलाश रही थी। अपने मुर्शिद की खुशबू को तलाश रही थी। वो आये और बुल्लेशाह अपने आँसुओं से उनके जाविंदा कदमो को धो पाएँ। इसी गुसल के लिए उसकी मुरीदी मचल रही थी।

धीरे-2 मैदान पर गहमागहमी बढ़ने लगी। खुदापरस्तो और नमाज़ियों की बारात चली आई। उम्दा पीर भी अपने शागिर्दों के साथ तशरीफ़ ले आये। बुल्लेशाह बुरखे की जाली से टुकुर-2 सब निहार रहा था। ज्यो ही कोई पीर आते, आपा घूमकर बुल्लेशाह की आँखों में झाँकती। मानो पूंछती, क्या यही तुम्हारे इनायत है? मगर बुल्लेशाह की बेजार नजरें बिना कहे ही कह देती, नही आपा!

अब तो महफ़िल ने रौनक़ का पूरा जामा ओढ़ लिया था। सभी पीरी तख्तों पर ऊँचे दरवेश मौजूद थे। बस एक तख्त खाली था। न इनायत आये थे, न ही आश्रम का कोई मुरीद ही रूबरू हुआ था। यह मंजर देख बुल्लेशाह की श्वासें भारी हो गई।बुल्लेशाह अब निराश हुआ जा रहा था।

वो आये नहीं बहार की खुशबू लिए हुए -2
बैठा है प्यार आंखों में आँसू लिए हुए।

इनायत-3! बुल्लेशाह की एक-2 धड़कन, पुलकन-2 तस्बीह फेरने लगी थी। दिल में लगातार हुक उठ रही थी कि –

आ भी जा सोनिया! -2
वा जा दिल मेरा हुन मारदा, आ भी जा!
सुन ले मेरी सदा, देख ले हाल बीमार दा,
आ भी जा सोनिया, आ भी जा!

किनारे पर खड़ा कोई इंसान बवंडर में घिरे बदनसीब की हालत का अंदाज नहीं लगा सकता। हम और आप भी आज इतिहास के ऐसे ही साहिल पर बिल्कुल रूखे-सूखे खड़े हैं। सद्गुरु की जुदाई में सतशिष्य की क्या हालत होती है, वो तो वो ही जाने जिसने यह महसूस किया है। बाकी मैं यहाँ से बुल्लेशाह की बेताबी की हालत आप लोगों को पढ़कर नहीं सुना सकता। आप स्वयं अपने गुरु के लिए भाव लाकर बुल्लेशाह की भावनाओं को महसूस करे।

गूँजी नहीं तेरे कदमों की आहट अबतक,
बरसी नहीं बरखाएँ नगमात अबतक।
आ जा कि तेरी बोलती सूरत के बग़ैर,
चुप है मेरे ख्वाबों की तस्वीर अबतक।

अभी यह कुक पूरी भी न हुई थी कि ईलाही कदमों की आहट गूँज उठी। एक रूहानी काफिला मौसमे शबाब लेकर मैदान के आखिरी सिरे पर दाखिल हुआ। सबसे आगे थे ‘हुजुरे आलम हजरत शाह इनायत।’ खुदा की हूबहू तस्वीर, आफताब जैसा नूरानी चेहरा’। लीजिए नदी के सूखने से पहले सागर उसे बाहों में समेटने के लिए आ ही गया। कहते है ना कि-

अश्को की एक नहर थी,
जो खुश्क होने लगी थी।
आग का गोला सूखा रहा था
उसकी छाप को,
पर कितना ही बेकिनार समंदर हो,
रहता है बेकरार नदी के मिलाप को।

सद्गुरु चाहे कैसा भी बेकिनार अमीर समुद्र हो, मगर अपनी हर नदी के लौटने का इंतजार करते ही हैं। इनायत भी बर्दाश्त करने की आखिरी कगार पर आ खड़े हुए। यह ऐन मौका था, इसके आगे बुल्लेशाह ही नहीं रहता। अगर वे एक और लम्हा भी गुजारकर आते तो फिर बुल्लेशाह से उसके उसी जिस्म में कभी न मिल पाते।

सच! सद्गुरु तो हम सबकी हदे जानते है परन्तु बस इस हद तक पहुँचाने के लिए ही वह पीछे छुपे रहते हैं। अब बुल्लेशाह हद की रेखापर आ खड़ा था तो देखिये सामने इनायत भी खड़े थे। उनके तशरीफ़ रखते ही तमाम महफ़िल का सिर सिजदे से झुक गया। ‘पीरों के पीर, क़ामिल मुर्शिद है इनायत’ यह कस्बे की हर रूह मानती थी। इसलिए उनके कदमों में रेशमी रुमाल और फूल बिछाये जाने लगे।

उधर एक अकेले से कोने में बैठे एक गरीब की सूखी, तरेड़ खाई पथराई आँखों के सामने अचानक से जैसे रसराज सावन आ गया हो। जिन्हें तजुर्बा है वे ही जानते है , इस रसराज सावन को।

अब मान लीजिए, हमारे समक्ष बिना किसी को खबर किये अभी इसी वक्त व्यासपीठ पर बापूजी आकर बैठ जाये, तो अचानक गुरुदेव को देखकर हमारी क्या प्रतिक्रिया होगी…? हम उनको कैसे निहारेंगे…? इतने वर्षों बाद क्या हमारी आंखे अपनी पलकें झपकाने को तैयार होगी…? क्या हम अपनी भावधारा को रोक पाएँगे…? अरे! उस समय तो ऐसा लगेगा कि बापूजी आप बस व्यासपीठ से उतरिये तो आपको मैं आज लिपट ही जाऊँ। बिना लिपटे आज आपको जाने ही ना दूँ।

सद्गुरु की प्यारी सी सूरत को आंखे कभी देखती नहीं है। सतशिष्य की आँखे सद्गुरु को पीती है। और जो पीया जाता है, उसमे रस तो होता ही है।बुल्लेशाह की प्यासी आँखों के सामने भी जैसे ही इनायत का खुदाई चेहरा आया, वही पुरानीवाली रूहानी सी चाशनी उसके अंग-2 में घुल गई। दीद का वही जाम घोट-2 कर हस्ती पर छा गया। बुल्लेशाह ने कसके दिल थाम लिया, लम्बी-2 साँसे भरने लगा। इनायत बादशाही चाल में चलते हुए आगे बढ़ने लगे। बुल्लेशाह के बेहद करीब से गुजरे। उसकी तरफ बिना देखे ही अपनी मुस्कुराती तिरछी नजरों से निशाना गए।

खैर, ये सद्गुरु के तिरछी दृष्टि का निशाना ही तो है कि हम सभी घायल होकर उनके कदमों में पड़े है । इस आश्रम में है। बुल्लेशाह भी इन्हीं तिरछी निगाहों से घायल हो पंख कटे पँछी की तरह छटपटा उठा। वह घायल, पागल सा हो गया।

नजर चुराके वह गुजरा करीब से लेकिन,
नजर बचाके मुझे देखता भी गया।
गजल के लहजे में हो गई गुफ्तगू उससे,
खाँ के दिल का हर जर्रा रौशन कर गया।

इनायत चलकर अपने पीरी तख्त पर जा बैठे। फिर हाथ उठाकर महफ़िल को रवानगी दी। इशारा मिलते ही कव्वालों न चुप्पी के ताल खोले। तान साधकर एक ऊँचा सुरीला आलाप उठाया। ढोलचियों ने अपनी ढोलकी सँभाली। मीठी-2 थाप उठनी शुरू हो गई। सारंगियों की तारे भी झूम-झननकर झनक उठी। सारा आलम मस्ताना हो चला। इस मस्त लहर में हर दिल बहने लगा। पाँव थिरके बिना न रह सके। सिर होले-2 झूमने लगे।

उधर इनायत भी अपनी रूहानी हुस्न का जादू बिखेर रहे थे। पता नहीं क्या बात थी, शायद मैदान के सारे ठंडे झोंके उन्हीं की इबादत में जुट गए थे। उनके बालो को सहला-2 कर उड़ा रहे थे। उनका पाक दामन भी लहराने लगा था। यूँ ही या फिर उसकी यह मचल किसीको अपने मे समेटने को बेताब थी।

वे खूब मुस्कुरा-2 कर ईलाही जलवा भी लूटा रहे थे। यूँ ही या फिर मुस्कान भी किसी के गिरे हौसले को उठाने का जरियाँ थी। ये तो वे ही जाने। मगर बुल्लेशाह पत्थर का चकोर बन गया था।उसकी निगाहें एकटक इनायत पर रुकी थी। बिना सुर्खियों के ही इनसे एक धार आँसू बहे जा रहे थे। होठों पर सूखी पपड़ी जमी थी। हाँ, वह प्यासा था, बेहद प्यासा।

बापूजी मेरे तरफ देखे, एक दृष्टि मिल जाये बस। मुझसे बात हो जाये। एकबार, सिर्फ एकबार बात हो जाये। पूज्यश्री जब कोर्ट की तरफ जाते हैं गाड़ी में। लोग दर्शनों के लिए खड़े रहते हैं। कुछ लोग तो ऐसे होते हैं कि, उनसे पूँछो कि भाई दर्शन हुए? तो कहते हैं कि हाँ हो गये। गुरुदेव के दर्शन हुए तो कहते है गुरुदेव के दर्शन तो हो गये, परन्तु ठीक से नहीं हुए। तो दर्शन तो दर्शन होता है। इसमें ठीक – बेठीक क्या? तो वे कहते हैं, मुझे दर्शन तो हुए परन्तु बापूजी की दृष्टि नहीं मिली। इसे प्यास कहते हैं।

आज दरिया खुद चलकर बुल्लेशाह के सामने आ गया था। मगर अभी तक उसका एक कतरा भी उसे पीने को नहीं मिला था। दरिया को देखकर बुल्लेशाह की प्यास तो और भी बढ़ गई।

सामने तख्त पर तमाम क़ायनात का मालिक था रूहानी इश्क की छलकती सुराही हाथ लिये। नीचे झूमते हुजूम के बीच बुरखे की जाली के आड़ में थे दो प्यासे प्याले। बड़ी शिद्दत से जो साकी की दरवाजा-ए-दिल पर अलख जगा रहे थे। उसकी रजा, उसके मोहब्बत के दो घूँट जाम माँग रहे थे।

आज मैखाने में साकी के कदम आये हैं,
इसलिए सिर को झुकाये हुए हम आये हैं।
चरणों में साकी के जवी रखके कहेंगे,
प्यासे हम जन्मों के खाली जाम लाएँ है।

बाकी सबके लिए तो महफ़िल खूब रंगीली, खूब नशीली हो चुकी थी। कंधे मस्ती से हिचकोले खाने लगे थे। धुनें बहने लगी थी, कव्वाले गा रहे थे। आपा ने भी नाचने का इशारा पाया ,तो फिर वह भी खुदा की इबादत में नाचने और फिरकने लगी।

बुल्लेशाह वही बैठा रहा गया। उसके हाथ-पाँव सुन्न थे, एकदम जाम! इनायत तो थे ही नृत्य के शौकीन।इसलिए जैसे ही आपा और दूसरे फ़नकारों ने थिरकना शुरू किया, इनायत शाह की निगाहें उन्हीं की तरफ घूम गई।

बस! अब तो बुल्लेशाह बैचैन हो उठा। मेरे सारे दर्दों का दरमा है एक निगाह! लेकिन वो एक निगाहें मोहब्बत कब मिलेगी…? यही मुस्कुराती निगाहें पाने के लिए तो उसने अपने जिस्म को रियाज़ की रस्सियों से कस-2 कर साधा था। आज यह साधना, यह तालीम परवाना चढ़नी थी। इंतहा का वक़्त आ खड़ा था।

बुल्लेशाह के कतरे-2 में गजब की मचल लहराने लगी। सुन्न कदम अंगड़ाइयाँ ले उठे। वो मुठ्ठियाँ भींचकर सारी ताकद बटोरने लगा। उसकी बौराई आँखे इनायत की रूहानी मूरत पर अपलक टिकी थी। अपने सरताज़ से रास्ता और हिम्मत माँग रही थी।

तभी एक बड़ी नाज़ुक सी-बारिक सी घटना घटी। इतनी ईलाही थी वह कि सिर्फ सद्गुरु और सतशिष्य के बीच में घट गई और दुनिया को भनक भी नहीं लगी। हुआ क्या?…कि सुरूर से गीली इनायत की नजरें आहिस्ते से मैदान के उस कोने की तरफ सरक गई, जहाँ बुल्लेशाह अकेले जज्बातों के तूफ़ान से जुझ रहा था। उनकी आँखे सीधे जाली के पीछे से झाँकती बुल्लेशाह की आंखों से जा मिली। फिर होले से उनकी पलकें गिरी और उठी। फिर वापस नाचने-गाने की तरफ घूम गई।

मानो इस चुटकीभर लम्हें में बुल्लेशाह को हौसलों का चप्पू थमा गई। चुपचाप गुनगुना गई कि मेरे लखते जिगर उठ खड़ा हो। यह आखिरी तूफानी लहर है। आजमाइश का आखिरी पड़ाव है। तारीख़ बनाकर दिखा दे इसे भी। इसके ठीक आगे हाथ भर की दूरी पर ही मैं खड़ा हूँ। हाँ, मैं खड़ा हूँ बाँहे पसारे तेरे लिए बुल्ले! तुझसे मिलने को बेकरार!

सच! दुनिया कह देती है कि इश्क की राहे बड़ी पेचीदा है। इंतिहानों के खौफनाक घाटियों से अटी हुई। मगर इन घाटियों में चप्पे-2 पर अपना दामन थामनेवाले मसीह को कोई देख नहीं पाता।दुनिया ने यह तो देखा कि बुल्लेशाह इनायत की याद में गल गया। बुल्लेशाह रोया-खोया, परवाना बनकर ख़ाक हो गया। लेकिन एक हकीकत दुनियावी नजरें नहीं देख पाई।

अरे भाई! अगर शिष्य गला तो सद्गुरु ही उसकी आँखों से आँसू बनकर बहे। अगर शिष्य याद में याद के चिराग जला पाया तो इसलिए क्योंकि मुर्शिद ने, सद्गुरु ने उसकी मुक़ामे दिल पर अपनी पाक दरगाह आबाद रखी। बुल्लेशाह परवाना बना तो इसलिए क्योंकि इनायत ने शमा जलाये रखी।

माना कि इश्क की घाटी
खतरों से है अटी हुई,
मगर ए दिल! रसाई होगी मंजिल,
गुरु तेरा निगहबाँ है।
न घबरा इश्क की
पुरपेच राहों से तू!
पुकारेगी तुझे मंजिल,
मुर्शिद तेरा निगहबाँ है।

बुल्लेशाह को भी इस दौरे इंतहा में अपने गुरु, अपने निगहबाँ का इशारा मिल गया था। बस अब कौन रोके इश्क की पुरजोर रफ़्तार को? दीवानगी की मलंग झूम को बेबसी की सारी जंजीरें चटककर गिर गई। सरसारी सिर तक चढ़ आई। बुल्लेशाह उठ खड़ा हुआ और…