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महान संकट की ओर बढ़ रहे थे कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग-3)


पिछली बार हमने सुना कि किस प्रकार बुल्लेशाह के वालिद इनायत शाह से रजामंदी लेकर बुल्लेशाह को निकाह में शरीफ होने की इजाजत लेकर उसे हवेली के जाते हैं इधर इनायत शाह के प्रतिनिधि के रूप में आश्रम से एक साधक आता है जिसे बुल्लेशाह नज़र अंदाज़ कर देते है वह साधक पेड़ की ओट में बुल्लेशाह का देर तक इंतजार करता रहा परन्तु शाम होने पर भूखे पेट ही आश्रम की ओर लौट पड़ा सुबह इनायत शाह के पूछने पर उसने सारी बातें बताई तब इनायत शाह ने ऐलान कर दिया कि चलो आज से हम अपनी फ़ुहारों का रूप उसकी क्यारियों से हटाकर तुम्हारी तरफ कर देते है।बुल्लेशाह से संबंधित ऐतिहासिक साहित्य बताता है कि उधर जैसे ही इनायत शाह नाराज़ हुए वैसे ही इधर बुल्लेशाह की अंदरूनी दुनिया पर काला पर्दा पड़ा चला गया इनायत शाह का बस इतना ही कहना था कि चलो उसकी क्यारी से हम फुहारा हटा देते है कि उसकी भीतरी मालिकियत ही ढह गई मानो उसका खजाना कंगाल हो गया आज निकाह पूरा हुआ बुल्लेशाह ने वालिद से आज्ञा ओर आश्रम की तरफ चल पड़ा लेकिन दिल मन में कुछ कमी सी महसूस हो रही थी यह सब महसूस कर बुल्लेशाह किसी लूटे पीटे खजांची की तरह छाती पीटकर कराह उठा।एक ही धुन एक ही तर्रानूम सानू आ मिली यार प्यार आ, कितनी अजीब बात है देखा जाय तो बुल्लेशाह इनायत शाह से मिलने आश्रम की ओर जा रहा था लेकिन वैसे इनायत शाह को खुद से मिलने के लिए पुकार रहा था इससे साफ जाहिर होता है कि बुल्लेशाह को अपनी भीतरी बस्ती में गुरु की गैर हाजिरी का एहसास पहले से ही हो गया था, सदगुरु की नाराज़गी का इशारा मिल चुका था तभी तो इस काफ़ी के जरिए उसने यह भी कहा है कि मेरे प्यारे शाह आप अचानक मेरे घर को वीरान कर दूर कहा चले गए? किस कसूर किस जुर्म की वजह से आपने मुझे बिसार दिया समझ लो मेरे बड़े परिवार वाले। बड़े परिवार वाले इसलिए कहा क्यों कि इनायत शाह के आश्रम में कई सारे शागिर्द रहा करते थे समझ लो ए मेरे बड़े परिवार वाले सदगुरु आप ही मेरा करार है मेरा इकलौता प्यार मेरे यार है इसलिए फौरन अपने घर वापस लौट आओ और मेरे जिगर में लगी भभक को बुझाओ इधर बग्गी के पहिये और बुल्लेशाह की निहोरे मंजिल छूने ही वाले थे उधर उसके गुरू भाईयो को दूर से ही घोड़े की टापे और उनके गले में बंधे घुंघरुओं की खनक सुनाई दी आश्रम में जश्न की सी लहर दौड़ गई तीन चार दिनों से वे रात के मुशायरे में बुल्लेशाह की लज़ीज़ काफियो की कमी महसूस कर रहे थे।आज उनकी रूह का रसोइया उनका अलबेला गुरु भाई लौट आया था इसलिए सभी अपनी अपनी कुटिया से बाहर निकल आए सुलेमान और अब्दुल तो बाजी मारने के इरादे से दौड़कर गुरु की कुटीर तक पहुंच गया खुशी से खबर दी शाहजी शाहजी आपका बुल्ला लौट आया मगर शाहजी का रवैया और जवाब दोनों उम्मीद से उल्टे मिले इनायत शाह रोबीली आवाज़ में लगभग चीखते हुए बोले जाओ आश्रम के फाटक बंद कर दो बुल्लेशाह अंदर दाखिल ना होने पाए। गुरु का यह हुक्म आश्रम पर कहर की तरह बरसा माना बिजली कड़क कर दिलों के अंदर तक जा गिरी और उन्हें अंदर तक छेद गई।सभी साधक सुन्न से खड़े रह गए सभी की तरफ देखते हुए इनायत शाह फिर गुर्राए सुना नहीं फाटक पर ताला जड़ दो उस मग्रुर सैय्यद के लिए अब हमारे आश्रम का कोई चप्पा खोलो नहीं हमारी देहलीज तक उस नामाकुल की आहट से मैली नहीं होनी चाहिए, पांच छह साधक फाटक की तरफ दौड़े थरथराते हाथो से उन्होंने लौहे कुंडी को पकड़ा। एक पल सहमी नज़रों से शाही बग्गी पर सवार बुल्लेशाह को निहारा फिर धड़ाक से फाटक के दोनों पल्ले जोड़ दिए हुकमानुसर जंजीरे खींचकर ताला भी जड़ दिया उधर बुल्लेशाह की तबियत पहले से ही नाशाग थी, फाटक बंद होते देखकर तो घबराहट का बुखार ज्यादा सुर्ख हो गया वह झट बग्गी से उतरा बग्गी को विदा किया फिर फाटक खटखटाया, ऊंची आवाज़ से पुकारा सुलेमान, अब्दुल, रहीम, अफ्जु कहां हो सब भाई? यह आज सुबह सुबह ही फाटक क्यों बंद कर दिया खोलो में तुम्हारा बुल्ला।बुल्लेशाह की इस पुकार में अपनेपन का वास्ता या साथ ही खौफ की लड़खडा़हट थी मगर यह लड़खडा़हट इनायत के सख़्त रुख़ को न पिघला पाई, अपनेपन का वास्ता गुरु भाईयो के पैरो पर बंधी गुरु के हुक्म की बेड़ियों को न काट पाया आश्रम के अंदर पत्ते तक ने हरकत नहीं की बुल्लेशाह का दिल बैठ गया क्यों कि अंदरूनी और बाहरी दुनिया में उसके लिए किवाड़ गुरु ने बंद कर दिए थे एक शायर ने खूब फरमाया है कि मेरी दिवानगी पर होश वाले बेशक बहस फरमाए, मेरी ही दिवानगी पर होश वाले बेशक बहस फरमाए मगर पहले उन्हें दीवाना बनने की जरूरत है यकीनन दिवानगी एक दर्द है पागलपन की हद तक का जुनून है एक मदहोशी है, बेहोशी है इसलिए होश हवास के साथ इसे न तो महसूस किया जा सकता है और नहीं समझा या परखा जा सकता है तभी तो दुनिया की होशमंद मंडी से गुजरते वक्त एक बार खुद बुल्लेशाह ने गाया था कि दिल की वेदना न जाने अंदर दे सब वेगाने, ये लोग तो अंदरूनी दुनिया से बेखबर दीवाने हैं ये क्या मेरे दिल की पीर को समझेंगे फिर कौन जान सकता है इस पीर की तासीर को जिस नू चाट अमर दी होवे सोई, अमर पछाड़े।इस इश्क़ दी औखी घाटी जो चढ़ैया सो जाने वहीं जिसने खून पसीना एक करके इश्क़ के पहाड़ की खड़ी चढ़ाई की है वहीं जिसने तबीयत से सदगुरु के जामे इश्क़ पिये है जिसे उनकी रूहानी लज्जत का चस्का लग गया है वही समझ सकता है कि इस जाम मे बूंद भर भी कटौती होती है तो साधक के दिल पर क्या गुजरती हैं आज बुल्लेशाह से तो दो बूंदे नहीं पूरा का पूरा जाम छीना जा चुका था, मछली को आबे जम जम के तालाब से दूर फेकने की तैयारी हो रही थी ऐसे मे छटपटाहट तो होती तो लाजमी ही है परन्तु किस दर्जे की छटपटाहट यह भी जुबान लिखाई था फिर जज़्बाती जुबान तक से पूरी तक बयान करना नामुमकिन है इसे मात्र पढ़कर श्रोताओं को सुनाया या समझाया नहीं जा सकता मगर इन शब्दों के साथ इंसाफ तक होगा जब श्रोता इन्हें सुनेंगे नहीं महसूस भी करेंगे कि गर गुरु से जुदाई की तड़प क्या होती हैं साधक जब संसार को लात मार सदगुरु के चरणों में आसरा लेता है और सदगुरु उसे ठुकरा देते है तो शिष्य का तीनों जहां में कुछ भी शेष नहीं रहता गुरु का ठुकराना शिष्य का और मजबूती प्रदान करने के लिए लीला होती हैं क्यों कि समस्त जहां मे एक सतगुरु ही है जो कभी हाथ नहीं छोड़ते परन्तु उनका अभिनय भी तो सम्पूर्ण होता है शिष्य को झकझोर देता है खैर जब कसौटी के निमित गुरु कह दे कि निकल जा आश्रम से तो उस समय शिष्य से क्या गुजरता है वह शब्दों में बया नहीं हो सकता या पढ़कर सुनाया नहीं जा सकता वह तो एक समर्पित साधक ही महसूस कर सकता है बुल्लेशाह कभी कुंडी खड़खड़ाता तो कभी जंजीरे खनखनाता कभी हथेली से ही फाटक को पीटता, रह रहकर अपने एक एक गुरु भाई का नाम पुकारता शक और डर के मारे उसके दिल से तेज़ धुक धुकी उठ रही थी मगर उधर इनायत का मिज़ाज इतना ही सख़्त और कड़क रुख इख्तियार कर रहा था।वे अंदर फाटक के ठीक सामने बरगद के चबूतरे पर आ बैठे थे आश्रम का एक एक साधक आंगन में इसी बरगद के इर्द गिर्द खड़ा था सहमा हुआ सभी फाटक की छाती पर बुल्लेशाह की बेकरार दस्तक सुन रहे थे तभी इनायत शाह का तेज़ तर्रार स्वर उभरा कहा दो उसे की यहा से दफा हो जाएं अपने लिए कोई दूसरा ठिकाना ढूंढे लेकिन इस हुक्म की तामील कौन करे, कौन इस हुक्म नामे का बेदर्दी खंजर बुल्लेशाह के सीने में घोपे सारे गुरु भाई एक एक कदम पीछे सरक गए और एक दूसरे को देखने लगे कि कौन कहने जाए इनायत की सुर्ख आंखे सीधे अफजल वहीं को सैय्यदो के निकाह मे गया था सीधे अफ़ज़ल पर जा टिकी वे निगाहें भृकुटी टिकाकर गुरु ने उन्हें इशारा किया अफ़ज़ल बेचारा खुद को इस कांड का मंथरा मान रहा था।परन्तु इनायत ने इस बार उसे ही मोहरा बनाकर अपनी रूहानी बाजी चलना चाहते थे अफजल भी क्या करता? अपने मनो भारी क़दमों को घसीटता हुआ फाटक तक पहुंचा खटखटाहट से फाटक अब भी कांप रहा था इस कंपन मे अफ़ज़ल को बुल्लेशाह के जिगर को कहा अफ़ज़ल पलटा होंठ लटका कर गुज़ारिश भरी नज़रों से गुरु की तरफ निहारा लेकिन गुरु ने फिर कड़क आवाज़ में कहा सुनता नहीं है आवाज़ सुनते ही अफ़ज़ल धीरे से भिन भिनाया बुल्लेशाह अफ़ज़ल की आवाज़ सुनते ही बुल्लेशाह की जान मे जान अाई मानो खौफनाक समुद्री तूफान मे बेशक तिनके का ही सही मगर उसे सहारा मिल गया फौरन उसकी आवाज़ पर लपका इसे पहले की अफ़ज़ल कुछ कहता उसने उसे इस दोस्ताना डांट लगा डाली, अफजु कहां था भाई फाटक बजा बजाकर यहां बेहाल हो गया चल अब जल्दी से खोल तब अफ़ज़ल ने अपनी सारी ताकत बटोरकर बोला बुल्ले वो शाह जी कह रहे है कि। क्या कह रहे है? किन्तु कहीं ओर चला जा और यहां आश्रम में नहीं रहता तुझे अफ़ज़ल ने बस कह डाला जितनी नर्मी से कह सकता था कह डाला मगर हुक्म भी खुद में ही खुद किसी अंधड़ आंधी से कहा कम था, बुल्लेशाह यकीन नहीं कर पाया मानो इस आंधी ने उसके सोचने समझने की बत्तियां ही गुल कर दी हो इस बंद दिमागी के चलते वह गिड़गिड़ा गिड़गिड़ा कर वहीं अलाप अलापने लगा एक दफा खोल तो सही अफ्जु मुझे शाहजी के पाक क़दमों का बोसा करना है तूने उन्हें खबर नहीं दी कि उनका बुल्ला फाटक पर खड़ा है अब चुप परन्तु बुल्लेशाह को गिड़गिड़ाकर अपनी आंखो में भरकर उसने गुरुजी तक पहुंचने की कोशिश की मगर उधर शाह जी ने तो जैसे बेरुखी की मिसाल कायम करने की ठान ली थी इनायत शाह ने अपने गमछे की धूल झाड़ी उसे कंधे पर डाला और कट्टर चल से अपनी कुटिया की तरफ बढ़ गए यहां अफ़ज़ल नाखून से नाखून छीलता रह गया उसके हाथ पांव जुबां ये सब बेबसी की जंजीरों में जकड़े हुए थे उसने एक दो लंबी सांसे ली और दरवाज़े के पास जाकर कहा बुल्लेशाह गुरुजी ने तुझे कहीं ओर चले जाने को कहा है इसलिए मेरे भाई तू चला जा यहां से चला जाऊ पर कहा? बुल्लेशाह का गला भर आया यह सुनते ही अफ़ज़ल वहां से मायूस होकर दौड़ गया दूसरे गुरु भाई भी मायूसी से गर्दन झुकाए लंगड़ाते हुए वहां से चले गए मगर उधर बुल्लेशाह की जड़े थर्राने लगी, चोटी से तलवो तक का एक एक पुर झन्ना उठा सीना खून नहीं दर्दनाक दर्द बहाने लगा जज्बातों की नदी उछल कूद कर बाड़ बन गई बुल्लेशाह उनके तेज बाहर में बहता हुआ मानो पूछ रहा था कहा जाऊ? यह तो बता दो अच्छा में तो उठा लेता हूं अपना सिर पर इतना बता दुनिया में इसके सिवा कोई और भी दर नहीं है परवाना शमा को छोड़कर कहा परवाना होए साईं किस ठिकाने को तलाशे वह बताओ तो सही।उसके लिए तो आग के अलावा सब राख ही है साईं ईमान की कसम चाहे मेरे रूह की गवाही ले लो लेकिन यकीन मानो जेब से मेरे जिस्म को आपकी पाक देहलीज की खाक मिली है बुल्ला बेखबर बेहोश होकर जिया मुझे कुछ होश खबर नहीं क्या सच मे इस भरे जमाने मे कोई दूसरा भी है जहां जिंदगी जी जा सकती है मुझे नहीं मालूम मेरे वजूद का जर्रा जर्रा तो आपके आश्रम मे दफन है सांसो की एक एक लड़ी इन्हीं है हवाओं मे जसब है फिर कौन से वजूद को ठोकर कहा चला जाऊ? सांसों को इस अंजुमन से कैसे जुदा करू? इतना तो बता दो निकलकर कहा जाऊ?तेरी अंजुमन के सिवा चमन की बुहो बसू फिर कहां चमन के सिवा बुल्लेशाह वहीं खड़ा खड़ा सुबक रहा था जज्बातों के फंदे उसके हलक को घोट रहे थे इसके लिए सांसे सिसकियों मे बदल रही थी वह सिसकता हुआ बहुत से अफसाने कह रहा था, दलीलें, अपीले लगा रहा था उसका सीना इतना बोझिल था मानो किसी ने बड़ा भारी पत्थर लाद दिया हो जिस्म थकान से नहीं हादसे से चूर चूर और घायल था बुल्लेशाह बस फाटक की लौह जंजीरों के सहारे लटका हुआ झुल रहा था कभी कभी बदहवास होकर उन्हें ज़ोर ज़ोर से खनका डालता इसी आलम मे सारा दिन गुजर गया शाम भी ढलकर काली रात बं गई मगर बुल्लेशाह की उम्मीद की शाम अभी भी नहीं ढली, दिल ना उम्मीद तो नहीं नाकाम ही तो है लंबी है मगर शाम मगर शाम ही तो हैं बुल्लेशाह के जहन में अब भी इस उम्मीद की रोशनियों की कल यह खौफ़नाक ख्वाब खत्म हो जायेगा गुरु के पीड़े समंदर इनायतो के मीठे समंदर उसके गुरुजी इतने खारे नहीं हो सकते आज भी बेशक प्यासा रखें परन्तु कल मीठी बारिश बरसाएंगे तभी उसके मन मे एक ख्याल आया कि हो ना हो कल चारगाह तो जरूर जाएंगे क्यों कि सुबह गुरुजी आज भी नहीं गए इस तरह आश्रम के जानवरो को भूखा थोड़े ही मारेंगे तब वह दौड़कर कदमों से लिपट जायेगा हरगिज नहीं छोड़ेगा उन क़दमों को उनसे अपनी खता सुनेगा सजा सुनेगा हा हा बिल्कुल ऐसा ही करेगा और साथ मे यह भी कहेगा कि रहमत का तेरी मेरे गुनाहों को नाज है बंदा हूं जानता हूं कि तू बंदा नवाज़ है इसी ख्याल के तारे आंखो मे संजोए वह आकाश के तारे गिनने लगा वही आश्रम के बाहर घास के कुदरती बिछोने पर बैठा वह बुल्लेशाह गुरु को याद करने लगा।

महान संकट की ओर बढ़ रहे थे कदम और बुल्लेशाह अनजान था (भाग – 2)


कल हमने सुना कि जैसे ही बुल्लेशाह से अपने गुरु भाई को देखा तो उसकी तरफ दौड़ पड़ा परन्तु अचानक रुक गया, उसके पैरो में अदृश्य जकड़न महसूस हुई कुछ बोझ का अहसास हुआ खैर यह सब झेलते हुए उसने फिर हिम्मत की आगे कदम बढ़ाए और गुरु भाई की ओर बढ़ा उधर गुरु भाई इस तारों जड़ी दुनिया की चकाचौंध अपनी इस आंखो से देख रहा था हैरानगी में उसका थोड़ा मुंह भी खुला हुआ था मगर साथ ही दिल तेज तेज धड़क रहा था।इस माया की ठंड और मायापोश लोगो की भीड़ भाड़ मे किसी अपने का गर्माइश भरा हाथ ढूंढ़ रहा था इसलिए जैसे ही अपना बुल्ला दिखा उसके खिचे चेहरे पर एकदम चैन पसर हो गया, वह बच्चे की तरह उसकी तरफ लपका मानो उसकी आड़ में दुबकना चाहता हो मगर आज यह हो क्या रहा था शायद बुल्लेशाह पर मायावी ठंड अपना असर कर चुकी थी गुरुभाई को उसके हाथ में चाही गरमाईश मिल नहीं पाई, बुल्लेशाह ने थोड़ा पीछे हटते हुए बोला और सुनाओ क्या हाल चाल है अफजल? अब अफजल को खटका हुआ परन्तु फिर सब नजर अंदाज़ करता हुआ बोला रहम है इनायत का।वैसे बुल्ले आज शायद पहली मर्तबा तूने इतनी तहजीब से अफजल कहकर पुकारा है नहीं तो तुम मुझे अफ़्जू अफ्जू कहकर तुम मुझे अपना नाम ही भूलवा दिया था, गुरु भाई की इस बात में एक शिकायती लहज़ा था, उसका आधे से ज्यादा बुल्लेशाह का आधे से ज्यादा दिमाग कहीं ओर उलझा हुआ था इसलिए बुल्लेशाह यह शिकायती लहज़ा समझ न सका, वह बस हल्का सा मुस्करा भर दिया फिर नज़रे अफजल के हुलिये पर दौड़ाता हुआ बोला क्या बात है सीधे चारगाह से आ रहे हो क्या?हा यार वो दरअसल चारगाह से लौटते वक्त रास्ते में ही गुरुजी ने यहां आने का बोल दिया तो मैं क्या करता? तो मैं वहीं से ही चल दिया, वैसे जनाब तुम तो हूबहू दूल्हे लग रहे हो, यह सुनकर बुल्लेशाह बस एक उपरी हंसी हंस दिया, अब तक बेशक वह अफजल के सामने खड़ा था मगर उसकी आंखे पंडाल के ओर छोर का मुआयना कर रही थी, कहीं कंटीली मुस्कानों के तीर भी झेल चुकी थी बहुत सी तंजिया नज़रों को अपनी ओर अफजल की तरफ घूरते हुए भी देख लिया था, उसकी किसी से कोई कहा सुनी नहीं हुई थी मगर फिर भी मेहमानों और परिवार वालों के सिले होंठो से नफ़रत के शोर उसे साफ सुनाई दे रहा था, इश्को उल्फत की लय में छेड़ उसे टूट जाए ना ज़िन्दगी का साज शोर ए नफ़रत है आज जोरों पर दब न जाए कहीं ज़मीर की आवाज़, मगर हुआ वहीं जिसका डर था इस तिलस्मगर माहौल का तेज शोर शराबा आखिर बाजी मार ही गया, बुल्लेशाह समझ नहीं पाया कि वह करें तो क्या करें? सब जाय भाड़ में ऐसा कहकर और अपने गुरु भाई का हाथ पकड़कर वह वापिस आश्रम भी नहीं लौट सकता था क्योंकि निकाह में शामिल होने का हुक्म गुरुजी ने ही उसे दिया था दूसरा उसे अपने पसीने से तर बत्तर, बदहाल गुरु भाई के साथ भी खड़ा नहीं हुआ जा रहा था लोक मर्यादा के कारण क्या बुल्लेशाह को लोक लाज का भूत चिपट गया था, तन के साथ साथ मन भी माया की पोशाक से ढक गया था या फिर आज अर्से बाद उसे सैय्यद खानदान की दिली हमदर्दी मिली थी और एक आस जगी थी शायद अब वे भी इनायत की मुर्शिदगी कबूल कर लेंगे इसलिए ये वह उन पर आश्रम की कोई ग़लत छाप नहीं पड़ने देना चाहता था या कोई फिर अलग ही वजह थी पता नहीं क्यों कि इस विषय में बुल्लेशाह का इतिहास एकदम मौन है, इतिहास के पन्ने सिर्फ इतना बयान करते हैं कि इस वक़्त बुल्लेशाह ने अपने गुरु भाई की अच्छी तरह खातिरदारी या मेहमान नवाजी नहीं की। एक बहाना बनाकर उसके पास से खिसक गया, अफजल तुम दो फकत, दो लम्हा यही रुको मैं कुछ इंतजामों को देखकर आता हूं, देखा जाय तो यह वहीं बुल्लेशाह है जिसने कभी गधे पर सवार होकर कस्बों में घूम घूमकर डंके की चोट पर ऐलान किया था कि चोली चुन्नी थे फोक्या जुग्गा, मैने अपनी चोली चुनरी सब फाड़ कर जला दिया है यानी सब लोक लाज शर्म हया बेच डाली है अपने सतगुरु के इश्क़ में यह वहीं दीवाना है जिसने एक दफा बीच चौराहे हिजड़ों के साथ बेताल नाचते हुए तराना छेड़ा था। *बुल्ला शोहदी जात न कोई, में शोर इनायत पाया है* इसी मर्जी बड़े आशिक ने कभी दुनियावी रस्मो रिवाज के खिलाफ बगावत का नगाड़ा बजाया था और सीना ठोक कर कहा था चलो देखिए उस मस्तानड़े नू यानी चलो मेरे मस्त मुस्तफा सतगुरु को आश्रम मे जिसके नाम की आसमानों पर धूम मची है जो जातपात के तंग दायरों से निकालता है, अद्वैत के रंग में रंग चढ़ा देता है, चलो उस मेरे सतगुरु के आश्रम में मगर आज अचानक इस तरानों और नगाड़ो को बुल्लेशाह के जहन का हाथ नहीं मिल रहा था उसके पुराने ऐलानो की गुंज हवाले के शानदार फाटक से टकराकर लौट गई थी इसलिए शायद वह अपने गुरु भाई के पास वापस ही न लौटा, कई लम्हे गुजर गए मगर बुल्लेशाह के तथाकथित इंतजामों को अंजाम नहीं मिला इधर अफजल मिया ने अपनो के लिए एक अंधेरा कोना ढूंढ़ लिया था, पेड़ो के झुरमुट तले शायद यह इकलौती ही ऐसी जगह होगी जो माया की चकाचौंध से आंख बचा गई थी इसलिए सबकी आंखो से बचने के लिए अफजल मियां भी इसी की ओर में जा छिपे मगर वहां से एक टक मायूस नज़रों से बुल्लेशाह को निहारते रहे कभी देखते की बुल्लेशाह बड़ी अदब से किसी को आदाब फरमा रहा है।कभी किसीको गले लगा रहा है कभी मौलवी साहब उसे बाह से पकड़कर किसी अजीज से मिलवा रहे हैं, कभी वह हवेली के मुनाजीमो को हाथ से इशारा कर रहा है जहां जहां बुल्लेशाह जा रहा था वहीं वहीं अफजल की आंखे घूम रही थी।इसी इंतजार में की बुल्लेशाह उसकी ओर रुख करें, आखिर ये मायूस आंखे थककर मिच गई और इनसे टपके दो आंसू और बुल्लेशाह को बिना खबर किए उल्टे पांव हवेली के बड़े दरवाज़े से बाहर निकल गया, देर रात तक आश्रम पहुंचा भूखा प्यासा जिस्म और दिमाग से थका हुआ इसलिए धीरे धीरे लंगड़ाते हुए उसने अपनी कुटिया में कदम रखा सुराही भर पानी पिया फिर घुटने पेट से लगाए सो गया अगली सुबह इनायत शाह के बुलावे ने ही इस थके मांदे बंदे को हिलाया और उठाया चल हाथ मुंह धोकर हुक्म बरदारी में हाज़िर हुआ इनायत शाह की पहली मर्तबा आज इतना खुश मिजाज पाया, उसने झुककर आदाब किया तो इनायत शाह प्यार से उसकी पीठ पर थपकी दी यह वहीं थपकी थी जो अक्सर बुल्लेशाह को ही मिलती थी और जिसे पाने के लिए वह बरसों से तरस रहा था मगर आज यह अचानक ही उसकी पीठ को निहाल कर गई।सच मे मालिक अगर दीनता की कद्र तू भी नही डालेगा तो इस जहां भर में उसे पूछेगा कौन? वह तो गुरूर या ना समझी के पाटो से पीसकर खत्म ही हो जाएगी इसलिए आज जहान के मालिक सदगुरु इनायत खुद अफ़ज़ल की दीनता को थपथपाकर हौसला दे रहे है इनायत शाह ने कहा और अफजल सब दुरुस्त रहा न कल? अफजल ने धीरे से हां में सिर हिला दिया अरे क्या हुआ सब खेरियत से तो है न अफजल ने फिर हां जाहिर करते हुए सिर को दायी तरफ झुका दिया वह बोला कुछ नहीं मगर उसके चेहरे से मायूसी साफ टपक रही थी और वैसे भी सामने अन्तर्यामी गुरु जो बैठे थे जिनकी रूहानी नज़रों पर पलकें ही नहीं होती है जो नज़रे कभी सपकती नहीं और कायनात के ज़र्रे ज़र्रे की हर हरकत की चश्मदीद गवाह हैं इन्हीं नज़रों में बेशुमार प्यार लिए इनायत ने अफजल की तरफ देखा मानो उससे कह रहे हो मै सब कुछ से वाकिफ हूं सब देख आया हूं।मगर एक मर्तबा तेरी जुबां से सच्चाई सुनना चाहता हूं सतगुरु की नज़रे पढ़कर अफ़ज़ल ने सारी बात बताई कि शाहजी शायद बुल्लेशाह को रईसी फिर से रास आने लगी है वह सेय्यदो की दुनिया मे इतना खो गया कि मुझ अरई जाति के लिए उसे वक़्त ही नहीं मिला और मैं इंतजार और ऐसे अफजल ने सब बाते गुरु के सामने कह दी सब सुनकर इनायत शाह की आंखे एकदम खुश्क हो गई, चेहरा सख्त आकार लेने लगा और कड़ी आवाज़ में बोले यकीनन बुल्लेशाह ने तुम्हारी ही नहीं हमारी तौहीन है, इसकी इतनी जुर्रत एक लम्हा रुके फिर यह प्रलयकारी ऐलान किया जो इतिहास के हर शिष्य के लिए किसी श्राप से कम नहीं ठीक है हमें भी इस नामाकुल से क्या लेना देना चलो आज से हम अपनी फ़ुहारों का रुख़ उसकी क्यारियों से हटाकर तुम्हारी तरफ कर देते है। इसी ऐलान के साथ शुरू होता है बुल्लेशाह की जिंदगी का एक रोमांचकारी रास्ता जिसके चप्पे चप्पे पर प्रलय का तांडव होगा अब बुल्लेशाह का पुराना सब तहस नहस हो जायेगा और एक नई शक्सियत का सृजन होगा I

महान संकट की ओर बढ़ रहे थे कदम और बुल्लेशाह अंजान था (भाग-1)


गुरु के चरण कमल में आत्मसमर्पण करना यह शिष्य का आदर्श होना चाहिए, गुरु महान हैं विपत्तियों से डरना नहीं है, वीर शिष्यों आगे बढ़ो, शिष्य के ऊपर जो आपत्तियां आती है वे छुपे वेश मे गुरु के आशीर्वाद के समान होती है, कल हमने सुना कि इनायत शाह ने बुल्लेशाह को अहंकार से दूर रहने की हिदायत दी और उसे क्षमा भी किया।इन्हीं दिनों बुल्लेशाह के पिता मौलवी साहब आश्रम आए दरअसल बुल्लेशाह के किसी नजदीकी रिश्तेदार मौलवी साहब उसे कुछ दिनों के लिए अपने साथ ले जाने आए थे, इसके लिए उन्होंने शाह इनायत से मंजूरी ली, हुक्म देने के लिए गुरुदेव ने बुल्लेशाह को अपनी कुटिया में बुलवाया, बुल्लेशाह तुम्हारे वालिद आए हैं तुम्हे अपने किसी अजिज के निकाह में ले जाने की ख्वाहिश ले आए हैं इसलिए तुम चंद रोज़ के लिए इनके साथ चले जाओ।शाह जी वैसे तो आप कुल कायनात के कायदे बनाने वाले है मगर फिर भी मेरे जहां में एक बात उठ रही है, क्या बात है कहो, शाह जी *जिस दे अंदर वसिया यार, एवे बैठा खेड़े हाल*, गुरुदेव जिसके अंदर आप समा गए हो आपकी हर खबर, आपका ही ख्याल कैद हो फिर वह भला गैर की महफ़िल में क्यों जाए, जिसकी अंदरुनी में गुरुदेव आपके करम से इलाही नग्मे बज उठे हो उसे जश्नों निकाह के बाजो से क्या काम? गुस्ताखी हो तो माफ़ करना गुरुदेव मगर निकाह, टिकाह में जाकर क्या करूंगा? हम तेरे जज्बातों की कद्र करते हैं बुल्लेशाह लेकिन तेरे वालिद के जज्बातों को भी ऐसे दरकिनार करना वाजिब नहीं और फिर चंद रोजो कि तो बात है चले जा। जो हुक्म गुरुजी। लेकिन आपसे एक दरख्वास्त है कि इस निकाह के मौके पर आप भी जरूर तशरीफ़ लाए। इंशाअल्ला आपका नूरानी दर्शन पाकर सैय्यद खानदान में रूहानी इबादत की तरफ दिलचस्पी पैदा हो जाएगी, ठीक है बुल्ले हम इस पर जरूर गौर फरमाएंगे।बुल्लेशाह अपने गुरु के हुक्म से अपने पिता मौलवी के साथ चल दिया, आश्रम के फाटक पर ही शाही बग्गी उसका इंतजार कर रही थी, दोनों उसमे जा बैठे, इस वक़्त बुल्लेशाह पर खामोशी और संजीदगी का आलम छाया हुआ था, ना जाने कैसा अनजान सा खौफ दिल के किसी कोने को कुरेद रहा था, क्यों ये कैसा है खौफ? क्या गुरुजी से जुदा होने की बैचेनी है या कोई दूर अंदेशा है, आगे घटने वाले किसी हादसे की खबर है कहीं मुझसे कोई गलती तो नहीं होने वाली या फिर इतने समय बाद परिवार वालो से मिलना है इसलिए कुछ घबराहट सी हो रही है, बुल्लेशाह कुछ समझ नहीं पा रहा था खैर वह इन ख्यालों मे ज्यादा उलझा भी नहीं रहा, मन ही मन रास्ते मे बुल्लेशाह अपने गुरु से प्रार्थना करने लगा जो इतिहास के पन्नों में दर्ज है *आपने संग रलाई प्यारे, आपन संग रलाई, मै पाया कि तिद लाईया, आपणी ओर निभाई, भोंकड़ चित्ते चित्तम चिते भोंकड अदाई पार, तेरे जगात्तर चढ़ैया कंदी लख बधाई हौर दिले दा थर थर कंबदा पार लगाई,आपणे संग रलाई प्यारे,आपणे संग रलाई।* हे मेरे मालिक, मेरे गुरुदेव मुझे हमेशा अपनी कृपा के साये में चलाते रहना, इश्क़ की शुरुआत मैंने आपसे की या आपने मुझसे, इससे क्या फर्क पड़ता है परन्तु इस लगी का आखिरी मुकाम तो आपको ही निभाना है आपको ही बरकरार रखना है क्योंकि हे गुरुदेव इस प्रेम को निभाने की ताकत मुझमें नहीं है मैं जानता हूं कि इस रूहानी रास्ते पर चलना इतना आसान नहीं मुझे तो कभी कभी लगता है यह रास्ता एक उबड़, खाबड़, खौफ़नाक जंगल से जाकर गुजरता है जिसमें माया डाके डालती रहती हैं, यह माया अपनी तिलस्मी ताकत की कटार दिखाकर मेरी साधना की सारी कमाई लूट ले जाती हैं, विषय विकारों के खूंखार कुत्ते और शेर,चीत्ते यहां पर भौंकते और दहाड़ते रहते है सांसारिक वासनाओं की नदी भी इसमें उफन, उफन कर पूरी रवानगी से बहती है, इसके किनारे पर वासनाओं के भूत प्रेत घात लगाकर बैठे है, इसके किनारे पर तालाब है मुझे धोखे से इस नदी में धकेलने को यह तैयार रहते है।हे मेरे मालिक, मेरे गुरुदेव यह सब महसूस कर मेरा दिल थर, थर कांपने लगता है इसलिए आपसे प्रार्थना है कि आप ही मेरी नौका को इस नदी से पार करना रहम कर इस खौफ़नाक जंगल से मुझे सही सलामत गुजार देना, गुरुदेव मुझे अपने साए में चलाते रहना आखिरी मुकाम तक निभाना इस तरह रास्ते भर बुल्लेशाह प्रार्थना करता रहा अब तक बग्गी सैय्यदो के पुश्तैनी दरवाजों के अंदर मुड़ चुकी थी, बुल्लेशाह की आंखे खुली तो सामने हवेली को ऐसे सजा देखा मानो निकाह दुल्हन का नहीं हवेली का हो, मौलवी साहब बुल्लेशाह को कंधे से पकड़कर हवेली मे दाखिल हुए, कुछ इस अंदाज़ से लो देखो में ले आया अपने फकीर साहब जादे को इस खानदानी जश्न के मौके पर। जैसे ही परिवार वालों की नजर बुल्लेशाह पर पड़ी, चारों ओर से कई आवाजों ने एक ही लब्ज सुनने को मिला, खुशामदीन,खुशामदीन सुस्वागतम। मां और बड़े बुजुर्गो ने आगे बढ़कर बलाए ली, भाईयो ने गले लगाया और थपकी दी समस्त परिवार ने बुल्लेशाह को घेर लिया, हाल चाल पूछने के बाद हंसी मसकरी का दौर चला निकाह अगले दिन का तय था ऐसे मे आप सोच ही सकते है कि निकाह के एक दिन पहले का माहौल। जब सब परिवार एक छत तले इक्कठा हो दिल्लगी बाजी किस इम्तिहान होती है और वह भी किस दर्जे की एक दम सांसारिक दिल्लगी।दुनियावी मस्करी इसलिए महफ़िल का कोई सुर इस साधक के सुरो से मेल नहीं खा रहा था उसके इस हाले दिल को एक शायर ने कुछ यूं बया किया है कि कहीं जिकरे दुनिया कहीं जिक्रे उकबा। हाय कहां आ गया में मयकदे से निकलकर। खैर वह अपनी इस नापसंदगी को खुले तौर पर जाहिर भी नहीं कर सकता था इसलिए अपना पूरा जोर लगाकर एक बनावटी मुस्कान होठो पर चिपकाकर बैठा रहा शायद इसे ही आशिकों ने भरी महफ़िल तन्हा होना कहा है, रात जब उनकी महफ़िल में जाना पड़ा, नाज मजबूरियों का उठाना पड़ा उनकी महफ़िल में हम रसे महफ़िल बने मुस्कराते थे सब इसलिए मुझे भी मुस्कुराना पड़ा, किसी तरह मजबूरियों की यह रात ख़तम हुई मुकर्रर समय तक सैय्यदो की मिल्कियत का कोना कोना अपने जलाल में आ गया, बिल्कुल एक मायावी दुनिया की तरह जहां की हर चीज बढ़ चढ़कर अपने दाम गिना रही थी।चीजे ही नहीं इस दुनिया के बाशिंदे भी वे भी सिर से पांव तलक माया के कपड़ों से ढके थे, माया के सतरंगी रंगो मे रंगे थे भाईयो ने इसी रंग की होली बुल्लेशाह के संग भी खेली, उसका सीधा सादा सूत का कुर्ता, पायजामा उतरवा दिया उसकी जगह पहना दी एक रेशमी और कढ़ाईदार शेरवानी दुपट्टा, तिलेदार जूती, लाजवाब टोपी और इत्र छिड़क दिया। सो इस तरह बुल्लेशाह के तन को तो अपने रंग में रंग दिया, उधर बड़े दरवाजे से मेहमानों का आना शुरू हुआ, शहर की ऊंची ऊंची हस्तियां अपनी शानो शौकत के साथ तशरीफ़ लाने लगे, रईसी तो मानो उनके चेहरों, पोशाकों से टपक रही थी, बुल्लेशाह के भाई और घर वाले भी उनकी मेहमान नवाजी मे अपनी पलकें बिछा रहे थे मगर तभी इस आलीशान दरवाज़े से अलग ही तरह के मेहमान ने प्रवेश किया अकेले खाली हाथ फटे हाल फकीरी के लिबास में निहायत बदसूरत हुलिए में साफ अराई जाति के निशान लिये गोबर की बदबू आ रही थी उसे देखते ही भाई वगैरह समझ गए कि यह मेहमान बुल्लेशाह के आश्रम से है, मन ही मन सोचने लगे कि क्या चुना हुआ नमूना भेजा है, इनायत शाह ने क्या आश्रम भर में इससे बदसूरत शक्ल और फकड़ हालत का आदमी ओर कोई नहीं था उन्होंने हाथ, मुंह सिकोड़कर इस आगे बढ़ते मेहमान को दो एक पल तो घुरा फिर उसे नजर अंदाज़ करने के लिए स्वागत स्थल से ही खिसक गए उधर बुल्लेशाह को भी पता चला की आश्रम से उसका एक गुरु भाई आया है, गुरुजी खुद नहीं आए परन्तु अपने एवज में अपने एक शिष्य को भेजा है, बस अब क्या था यही है जिंदगी अपनी और यही है बंदगी अपनी की उनका नाम आया और गर्दन झुक गई अपनी अपनी गुरु का जिक्र उनकी चर्चा एक साधक के लिए इबादत का पैगाम है किसी मस्जिद से उठती आजान है।मंदिर में बजती घंटियों की मीठी खनखनांहटे है जिसे सुनते ही दिल खुद मुहब्बत की नमाज़ पढ़ने लगता है सांसे पूजा की धूप अगरबत्ती सी महक उठती हैं फिर आज बुल्लेशाह के पास तो उसके गुरुदेव का सिर्फ जिक्र ही नहीं बल्कि उनका जीता जागता प्रतिनिधि आया था, बुल्लेशाह रफ्तार भरे क़दमों से वह बड़े दरवाज़े की तरफ दौड़ पड़ा अभी अभी पच्चास साठ के रंग भरे होंगे की उससे दूर से ही गुरु भाई नजर आया वाह अफजू आया है, बुल्लेशाह के दिल की धड़कने फुदक उठी परन्तु यह क्या? बुल्लेशाह को अपने कदमों में किसी अदृश्य फंदे की जकड़न महसूस हुई सीने पर भारी बोझ का एहसास हुआ परन्तु क्या था इतना बोझिला या सख्त? जो बुल्लेशाह के क़दमों को रोक रहा था उसे अपने गुरु भाई से मिलने के लिए।