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बात 16 वी सदी की है जब ब्राह्मण तीर्थाटन करते लोधिराम नगर पहुँचे….


शिष्य को अपने गुरु के अनुकूल होना और उनसे हिल-मिल जाना चाहिए। अच्छी तरह बर्ताव करना माने अपने गुरु के प्रति अच्छा आचरण करना। गुरु शिष्य के आचरण से उसका स्वभाव तथा उसकी मन की पद्धति जान सकते हैं।बात 16 वीं सदी की है। जब तीन कर्मकांडी ब्राह्मण तीर्थाटन से घूमते-घामते अहमदाबाद शहर का लोधिराम नगर में पहुँचे। वे संत दादू दीनदयाल जी को ढूंढने निकले थे। चलते-2 वे पहुंचे एक गाँव के सुनसान से कोने में जहाँ बाढ़ी से घिरे आँगन के बीचोबीच एक कुटिया बनी थी। ये तीनो ब्राह्मण ताका-झाँकी कर रहे थे कि तभी कुटिया से एक साधारण सा व्यक्ति बाहर आया। उसके सिर पर एक भी बाल नहीं था। उसे देखते ही ब्राह्मणों के माथे पर सिलवटें पड़ गई। धत तेरे की! नाक-मुँह सिकोड़कर वे धिक-2 कर उठे।”अरे! यह टकलू कहाँ से धमक पड़ा ,घोर अपशकुन!” उनमें से एक ब्राह्मण ने कहा।”ये लो, हो लिया जो होना था! कहाँ तो हम दादूजी की तलाश में निकले हैं और कहाँ यह सफाचट खाली मैदान दिख गया। अब तो न मिलनेवाले दादूजी शर्त या बात है। ” दूसरा ब्राह्मण भी अफसोस मनाता हुआ कहा।तिसरे से भी न रहा गया। कानों पर हाथ लगाता हुआ बोल पडा कि, “बड़े-बुजुर्ग कह गए हैं कि शुभ कारज में अगर कोई गंजा दिख जाय तो फिर वह कारज भी उसकी खोपड़िया की तरह बेरंग ही रह जाती है। सच में नीम्बू कट गया सब किये कराये पर। अब तो यह सोचो कि, क्या है कोई इस अपशकुन को टालने का उपाय?तीनो ब्राह्मण विचार करने लगे कि ये अपशकुन कैसे टले। तभी उनमें से एक ने कहा , “है ना उपाय, बिल्कुल है! 1802 पीठाधीश्वर विवेकराज बाणभट्ट स्वामीजी महाराज ने कहा है कि, ऐसे में उसी टकले व्यक्ति के सिर पर ठोंग मारो, तब ईश्वर की दया से बला टल जायेगी। शुभ कार्य में आये हुए अपशकुन टल जायेगा। “सुझाव मिलते ही बाकी के दो ब्राह्मण उस केशहीन भले मानस की ओर दौड़ पड़े। “ओय गंजे! ठहर, ठहर तो जरा!”वह व्यक्ति रुक गया। अब दोनों ब्राह्मणों ने उसके सिर पर 2-3 बार ठोंग मारी। तिसरे ने भी मौका नहीं चूका। ऊँचा उछलकर उस व्यक्ति की टाल पर टकटक ठोंग बजा डाली।उसके बाद वह ब्राह्मण बड़े रौब से उस व्यक्ति से बोला, “बस! बन गया हमारा काम। अब तू जा अपने रास्ते और हम अपने रास्ते।ओय! जाते-2 यह तो बताता जा कि, परम पूजनीय संत दादू दयालजी महाराज कहाँ मिलेंगे? उनका पावन-पुनीत धाम कहाँ पर है?”उस व्यक्ति ने चुपचाप सहज भाव से बाड़ी की ओर उँगली तान दी और अपनी राह चला गया। तीनो ब्राह्मण उल्टे पाँव बाड़ी की तरफ दौड़ पड़े। बड़ी बेसब्री से उन्होंने कुटिया में झाँका। वहाँ कोई नहीं था। इसलिए तीनो बाहर आँगन में ही बैठ गये और संतप्रवर की बाँट जोहने लगे। थोड़े ही देर बाद वही केशहीन व्यक्ति दोबारा लौटा। परन्तु अब की बार उसके साथ एक और व्यक्ति भी था। जो उनके पीछे झुककर हाथ जोड़े हुए चल रहा था।ब्राह्मणों का दिमाग फिर से ठनका। “अरे, वही टकलू! बार-2 अपशकुन के दर्शन हो रहे हैं, इसलिये शायद हमें दादूजी के दर्शन नहीं हो पा रहे हैं। खैर छोड़ो इसे।”यही सोचकर उन्होंने उसके साथ आये हुए दूसरे व्यक्ति से पूछा, “भाईजी! हम पूजनीय दादू दयालजी महाराज जी की प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे कब अपनी कुटिया में पधारेंगे?”वह आदमी फुसफुसाया और उस केशहीन पुरुष की ओर इशारा करते हुए बोला, “अरे ,आप ही तो है दादूजी महाराज!”बस! अब तो तीनों के रंग ही उड़ गये। उनके चेहरे लज्जा से लाल हो गये।”महाराज-2 ! क्षमा करें महाराज !” ऐसा कहते हुए तीनों जिज्ञासु दादूजी के चरणों में जा गिरे। कलप-2 कर क्षमा माँगने लगे। साथ ही अपने ही सिर पर ठोंग बजाते गये।यह देख दादू दयालजी ठहाका लगाकर हँस दिये। फिर तीनों को धीरज बंधाते हुए दादूजी ने कहा, “शांत हो जाओ। आप लोगों से कोई अपराध नहीं हुआ है। अरे भाई! जब कोई छोटा सा मिट्टी का घड़ा खरीदता है तो उसे भी भली प्रकार ठोक बजाकर देखता है, टकोरकर जाँचता है कि कहीं वह घड़ा फूटा हुआ तो नही और तुम तो मुझे गुरु बनाने आये हो। अपने जीवन, अपनी आत्मा का सौदा करना चाहते हो। फिर ऐसे में तुम्हारा मुझे ठोंग मारकर, ठोक बजाकर देखना ठीक ही तो है। इसमें कोई भूल नहीं।”इतना कहकर दादूजी आँगन में बिछे एक ऊंचे तख्त पर जा विराजे। तीनों जिज्ञासु भी उनके सामने नीचे जमीन पर बैठ गए। कंधे से कंधा सटाकर संकोच करते हुए उनमें से एक ब्राह्मण ने कहा, “सच है महाराज! आपका तो नाम ही दादू दयाल है। दयालुता आपके नाम से जुड़ी हुई है। आपने हमें माफ कर असाधारण दया की है।”इतने में दूसरा भी बोला, मैंने दूर-2 की कस्बो में सच ही सुना था- *दादू हंस रहे सुखसागर, आये पर उपकार।* “दादू दयालजी सुख के सागर है।उपकार के लिए वह अवतरित हुए हैं।”ब्राह्मणों से स्तुतिगान सुनकर दयामयी दादू मुस्कुरा दिये। फिर उनकी दृष्टि तीनो की हालत की तरफ गई। दरअसल वे तीर्थों, मंदिरों और धामों की यात्रा करके आये थे। इसलिये थकान से उनके शरीर निढाल हो चुके थे, चेहरे पर मायूसी का आलम छाया था, पैरों में मोटे-2 छाले थे। तीर्थयात्रा के दौरान उन्हें किसी ने संत दादूजी के बारे में बताया था। इसलिए अब थक-हारकर वे दादूजी के घाट पर ईश्वरामृत पीने आये थे।जाननहार, अंतर्यामी गुरु ने उनसे सीधा यही सवाल किया, “अच्छा बताओ! क्या तुम्हें उन घाटो या धामों पर ईश्वर मिल गया?””नहीं महाराज! यही तो व्यथा है।””तो जानना नहीं चाहोगे, क्यों नहीं मिला?””वही तो जानने आये हैं आपके पास।”दादूजी ने कहा, “क्योंकि ईश्वर को पाने की राह बाहर नहीं हमारे अंदर है। भीतर के तीर्थ पर ही ईश्वर का मिलन होता है।”*कोई दौड़े द्वारिका, कोई काशी जाही।**कोई मथुरा को चले, साहिब घट ही माही।।*”महाराज! हमने तो त्रिवेणी की घाट पर भी खूब डुबकियाँ लगाई, मगर तब भी सूखे ही रह गए। राम का दर्शन नहीं हुआ।””यही तो समझने की बात है। सच्चाई यही है कि – *शरीर सरोवर राम जल, माहे संजनसार।**दादू सहजे सब गहे, मन के मैल विकार।*”इस शरीर में ही ऐसा दिव्य सरोवर है, जहाँ राम नाम का पानी भरा हुआ है। उसी अंदरूनी सरोवर में डुबकी लगाने पर मन के मैल-विकार कटते हैं। साक्षात राम के दर्शन होते हैं।””महाराज! आपका कहना है कि राम हमारे अंदर ही है! साहिब अंदर के घट पर ही मिलता है। परन्तु महाराज! हमने तो आजतक उस राम, उस प्रभु को अपने भीतर नहीं देखा।”इतना सुनना था कि दादूजी तुरंत उठ खड़े हुए। आँगन में एक तरफ दही की हांडी पड़ी थी। उन्होंने इशारे से एक ब्राह्मण को बुलाया और कहा, “बंधू! क्या इस दही में माखन है?””जी महाराज! बिल्कुल है!””परन्तु कहाँ है? हमें तो दिखाई नहीं दे रहा।””महाराज, यूं न दिखेगा। इस दही को पहले मथना पड़ेगा।”दादूजी मुस्कुराये और आँगन के कोने में बने एक चूल्हे के पास पहुंचे। एक सूखी लकड़ी उठाई ।दूसरे ब्राह्मण से पूछा, “कहो प्यारे! क्या इस लकडी में आग है?””जी महाराज! बिल्कुल है। अन्यथा आँच लगने पर लकड़ी कभी नहीं जलती।””अच्छा! परन्तु हमें तो इसमें कोई आग नहीं दिखती ?””महाराज, ऐसे कैसे दिखेगी? सूक्ष्म है, आँच लगने पर ही चमकेगी।” दादूजी तिसरे ब्राह्मण के पास पहुंचे। धरती पर दो बार जोर-2 से पाँव पटका और फिर पूछ बैठे, “क्या इस जमीन में पानी है?””हाँ महाराज, पानी है। “”परन्तु हमें तो नहीं दिखता?””ऐसे कैसे दिखेगा महाराज! खोदेंगे तभी तो दिखेगा?”*ज्यों महि बिलौवे माखन आवे,**त्यों मन मथिया ते तत पावे।*”जैसे दही के बिलौने से माखन निकलता है, वैसे ही भीतर मथने से वह परम तत्व मिलता है।” *काठ हो तासन रह्या समाई,**त्यों मन माहि निरंजन राहि।*”जैसे लकड़ी में आग समाई है, वैसे ही अंतर आत्मा में निरंजन समाया है। आँच देनेपर ही प्रकट होगा।”*ज्यों अवनी में नीर समाना,**त्यों मन माहे साँच सयाना।*”जैसे धरती में पानी बसा है वैसे ही तेरे मन में साचा साहिब समाया है। भीतर की खुदाई करने पर ही मिलेगा।””परन्तु महाराज, उस सूक्ष्म सत्ता को हम कैसे मथें ? कैसी आँच दें ,जो वे प्रगट हो जाय? किसतरह करें खुदाई कि वह मिल पाये?”*आप आपन में खोजे रहे रे भाई,**बस तू अगोचर गुरु लखाई*”मेरे प्यारों अपने भीतर ही प्रभुसत्ता को खोजो, लेकिन तुम अपने आप यह खोज अभियान पूरा न कर पाओगे। एक सद्गुरु ही तुम्हें उस सूक्ष्म अगोचर अर्थात इन्द्रीयों से परे ईश्वर कोे दिखा सकते हैं। प्रभु का सम्पूर्ण साम्राज्य अपने पूरे साज-बाज के साथ तुम्हारे अपने ही भीतर समाया है।” लेकिन इस अंदुरूनी सत्ता को पाने के लिए,*दादू पाया परम गुर किया एकमकार।*”हमें पूर्ण सद्गुरु चाहिए। सद्गुरु ही हमें अंदर समाये साहिब से एकमकार यानी एक कर देते है।” *कायानगर निधान है माहे कौतिक होये।**दादू सद्गुरु संगी ले भूलि पड़े जिन कोई।।*”कायानगरी में ही वह कृपानिधान बैठा है। अंतर जगत में ही उसकी लीलायें और कौतुक घट रहे हैं। सद्गुरु को संग ले लो तभी यह रहस्य जान पाओगे।”अंत में दादूजी ने सार समेटता आखिरी सूत्र कहा,*काया मह करतार है सो निधि जाने नाहिं।**दादू गुरुमुख पाइये सबकुछ काया माहि।।**काया माहे बास करि रहे निरंतर छाई।**दादू पाया आदिघर सद्गुरु दिया दिखाई।।*”हमारे अंतर जगत में वह करतार बसा है। एक सच्चे गुरु का शिष्य अपने अन्तरघट में सबकुछ पा लेता है। सद्गुरु की कृपा से हर जिज्ञासु अपनी काया में परमात्मा के आदिघर को पा सकता है।उसमें प्रवेश कर प्रभु से मिलन कर सकता है।”अंततः ब्राह्मणों ने दादूजी के श्रीवचन सुनते हुए ऐसा महसूस किया कि उनके समस्त तीर्थों का पुण्यफल उन्हें प्राप्त हो गया और दादूजी ने भी उन्हें शिष्यरूप में स्वीकार कर कृतकृत्य कर दिया।

सैकड़ों वर्ष पूर्व हो चले त्रिकालज्ञ संत देवायत पंडितजी की भविष्यवाणियां


गुरु की कृपा गुरुभक्तियोग का आखिरी लक्ष्य है। गुरुभक्तियोग का अभ्यास जीवन के परम लक्ष्य आत्मसाक्षात्कार का स्पष्ट एवं सचोट मार्ग प्रस्तुत करता है। जहाँ गुरुकृपा है वहाँ योग्य व्यवहार है और जहाँ योग्य व्यवहार है वहाँ रिद्धि-सिद्धि और अमरता है । मायारूपी नागिन के द्वारा डसे हुए लोगों के लिए गुरु का नाम एक शक्तिशाली रामबाण औषधि है। सैकड़ों वर्ष पहले ‘ जूनागढ़ ‘ गुजरात के पास एक गाँव में एक शिव उपासक निःसंतान ब्राह्मण दम्पत्ति रहते थे। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर एक दिन भगवान शिव ने ब्राह्मण को सपने में दर्शन दिये और कहा कि – “भक्तराज मैं तुम्हारी मनोव्यथा को जानता हूँ। तुम्हारे भाग्य में संतानसुख नहीं है, परन्तु मेरे आशीर्वाद से मेरा अंश तुम्हारे घर पुत्र रूप में पलेगा। कल सुबह मंदिर की फूलों में तुम्हें एक बालक मिलेगा। उसे ही अपनी संतान मानकर पालन-पोषण करना। वह बड़ा होकर त्रिकलज्ञानी बनेगा।”सुबह पति-पत्नी दोनों बड़ी प्रसन्नता से मंदिर में पूजा कर ही रहे थे कि, इतने में किसी बालक की रोने की आवाज आई। पास जाकर देखा तो फूलों के ढेर में एक नवजात शिशु लेटा है। ब्राह्मणी ने उस तेजस्वी बालक को तुरंत गले से लगा लिया। सीने से लगाते ही माँ का वात्सल्य दूध बनकर फूट पड़ा।ब्राह्मण दम्पति बच्चे को घर ले आये। नामकरण की बात चली तो गाँव के मुखिया ने कहा, “यह तो देव का दिया हुआ है इसलिए इसका नाम देवो ही रखो।”बालक संस्कृत के श्लोकों को सहज में ही याद कर लेता था।उसकी वाणी रहस्यमयी थी।कभी-2 सुननेवालों को उसका रहस्य समझ में नहीं आता था।वही बालक बड़ा होकर देवायत पंडित के नाम से सुप्रसिद्ध हुआ।देवायत पंडित ने भजनों के माध्यम से कई सचोट भविष्यवाणियां की है। कई शताब्दियों पहले उन्होंने पहली भविष्यवाणी की थी। जिसके कुछ अंशो का भावार्थ इस प्रकार है कि, हमारे गुरु शोभाजी महाराज ने आगम अर्थात भविष्य के बारे में बताया है। सद्गुरु की वाणी झूठी नहीं होती, जैसा लिखा है, जैसा कहा है वैसे दिन आयेंगे।पाप का दौर आएगा और धरती पापिजनो का भोग माँगेगी। उनमें कुछ परस्पर लड़ाई-झगड़े करेंगे और उनका खड्ग से अर्थात आधुनिक शस्त्रों से संहार होगा।कुछ लोग विविध प्रकार के रोगों से पीड़ित होकर मरेंगे।पहले तेज हवाएँ चलेंगी, तूफान उठेंगे, अकाल से मनुष्य पीड़ित होंगे, नदियों का पानी सूख जायेगा। इसमें प्राकृतिक आपदाओं का संकेत है और परमाणु बम्ब विस्फोट के बाद ही ऐसा वातावरण बनता है। इसलिए तिसरे विश्वयुद्ध का भी संकेत है।हे देवलदे! देवायत पंडित की धर्मपत्नी का नाम था ‘ देवलदे ‘।हे देवलदे! ऐसे विकट समय में नर-नारी धर्म के आदेशों का पालन नहीं करेंगे। धर्मग्रंथ झूठे है और उनके आदेश झूठा है, ऐसा मानने लगेंगे।हे संतो! उत्तर दिशा से साहब अर्थात भगवान आयेंगे। यह बात गुजरात में कही गई है और सिंध प्रांत गुजरात की उत्तर में है।साबरमती के तट पर यति अर्थात पूज्य बापूजी और सती अर्थात पूजनीय मैय्याजी आसन जमायेंगे।वहाँ अच्छाई और बुराई के बीच संग्राम होगा। पूज्य बापूजी एवं उनके शिष्यों द्वारा देशधर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए विरोधी शक्तियों के साथ पिछले कई दशकों से सतत संघर्ष किया जा रहा है। वे सदा के लिए बुराई को मारकर निष्कलंक नाम धारण करेंगे।हे देवलदे! ऐसा समय आयेगा कि सौ-2 गाँवों की सीमा में रहनेवाले शहर और गाँव के लोग एकमत हो जायेंगे। अहमदाबाद आश्रम में जो ध्यानयोग शिविर लगते हैं, उनमें देश के अनेक गाँवो और शहरों के लोग सम्मिलित होकर एक आत्म उन्नति के लिए संमत होते थे, इस बात का संकेत है।और काकरियाँ तालाब पर बड़े तम्बू तानकर रहेंगे।उस समय अहमदाबाद का नाम कर्णावती था, परन्तु यह नाम बाद में बदल जायेगा यह बात जानकर देवायत पंडितजी ने कर्णावती नगर के बदले काकरियाँ तालाब का नाम दिया।उस समय की वे घड़ियाँ बड़ी रमणीय होगी। सूर्य अपनी 16 कलाओं से सम्पन्न तथा धरती खुशहाल होगी। कलियुग होगा फिर भी सत्य के आग्रही सच्चे संतो के तपोबल से सतयुग जैसा समय आयेगा। ऐसे भविष्य के लक्षण गुरुजी ने मुझे सुनाये है।सभी जानते हैं कि सनातन धर्म संस्कृति की रक्षा करने के लिए पूज्यश्री 50 वर्षों से लगे हुए हैं। आज पाश्चात्य जगत की पाश्विक शक्तियां भारत की संस्कृति, संस्कार व परम्पराओं को नष्ट करने में लगे हैं। पूज्य बापूजी अनेक प्रकार के झूठे आरोप सहकर भी संस्कृति की रक्षा में अपने करोड़ों साधको को साथ लेकर लगे हुए हैं। वे तो कहते हैं कि, विश्वगुरु हो भारत प्यारा , ऐसा है संकल्प हमारा!अब निश्चित ही सुंदर सुहावना समय आयेगा। युग परिवर्तन होकर सतयुग जैसा समय आयेगा। देवायत पंडित की भविष्यवाणी आज भी पत्थर पर शिलालेख के रूप में गुजराती भाषा में अंकित है।सामुद्रिक शास्त्र के एक प्रसिद्ध विद्वान ने पूज्य बापूजी के श्रीचरणों और करकमलों का अवलोकन करके पंचेड़ आश्रम (जो मध्यप्रदेश में है) में कहा था कि, *पूज्य बापूजी 16 बार अवतार ले चुके हैं और अब सत्रहवीं बार आये हैं।*इसलिए स्वामी शिवानंदजी कहते है कि ऐसे भक्तवत्सल सद्गुरु बिल्कुल हिचकिचाहट से रहित निःशेष एवं सम्पूर्ण आत्मसमर्पण के सिवा और कुछ भी नहीं चाहते। जैसे प्रायः आजकल के शिष्य करते हैं, वैसा आत्मसमर्पण केवल शब्दों की बात ही नहीं होनी चाहिए। उनको जितनी अधिक मात्रा में आत्मसमर्पण करोगे उतनी अधिक मात्रा में उनकी कृपा आप प्राप्त कर सकोगे।

युक्तेश्वर जी ने अपने शिष्य योगानंद जी से पहले ही दिन जो कहा उसे आप भी पढें..


गुरु में श्रद्धा गुरुभक्तियोग की सीढ़ी का प्रथम सोपान है। गुरु में श्रद्धा दैवी कृपा प्राप्त करने के लिए शिष्य को आशा एवं प्रेरणा देती है। गुरु में सम्पूर्ण विश्वास रखो। तमाम भय, चिंता और जंजाल का त्याग कर दो, बिल्कुल चिंतामुक्त रहो।गुरु के उपदेशों का आज्ञापालन या उनके मार्गदर्शन के आगे समर्पण गुरु-शिष्य संबंध का एक अन्य मूल नियम है। इसका इतना महत्व क्यों? क्योंकि अपने अहंकार और अहमजनित भ्रमो से ऊपर उठने के लिए मनुष्य का अपने से उच्चतर ज्ञान का आज्ञापालन सीखना अत्यावश्यक है।अगणित जन्म-जन्मांतरों में जबसे हम मानवजाति के सबसे अज्ञानी लोग थे तबसे हमारे अहंकार ने अपनी मनमानी की है। उसने हमारे आचरण, हमारे दृष्टिकोण, हमारी पसंद-नापसंद को, हमारी भावना तथा इन्द्रिय दास्ताँ के माध्यम से शासित किया है।अहंकार इच्छाशक्ति को अपनी दासी बनाकर चेतना को तुच्छ शरीर की सीमाओं में बाँध देता है। नित्य परिवर्तनशील मनोदशायें, भावनाओं की तरंगे, नित्य बदलती पसंद-नापसंद मानव की चेतना को किसी न किसी भावना से निरन्तर हिन्दोलती रहती है। आज उसे जो अत्याधिक पसंद है, वही उसे कल शायद बिल्कुल ही पसंद नहीं आयेगा और तब वह किसी और वस्तु की तलाश करने लगता है।चेतना की इस प्रकार के नित्य हिन्दोलित अवस्था मनुष्य को सत्य की अनुभूति से दूर रखती है। शिष्य के शिष्यत्व में एक मूल आवश्यकता है उसकी अपनी अनुशासनहीन, अविवेकी इच्छाशक्ति को अपने गुरु के उपदेशों के आज्ञापालन में झुकाने की। जो शिष्य यह कर पाता है वह बंधनकारी अहंकार की शक्तिशाली पकड़ को तोड देता है। जब परमहंस योगानंद जी ने अपने गुरु स्वामी श्री युक्तेश्वर जी के आश्रम में उनके शिष्य के रूप में प्रवेश किया, तब लगभग तुरन्त ही उनके गुरुदेव ने उनसे यह निवेदन किया कि मुझे तुम्हें अनुशासित करने दो। क्योंकि इच्छाशक्ति का स्वातंत्र्य जन्मपूर्व और जन्मोउपरांत की आदतों के आदेशों अथवा अविवेकी मन के अनुसार बर्ताव करने में नहीं, बल्कि विवेक और स्वतंत्र चयन के अनुरूप बर्ताव करने में निहित है। तुम यदि अपनी इच्छा को मेरी इच्छा में लीन कर दोगे तो मुक्त हो जाओगे और यही शिष्यत्व का कर्तव्य है।शिष्य अपनी इच्छा को गुरु की इच्छा में लीन कैसे करता है? कि प्रत्येक आध्यात्मिक पथ के अपने कुछ यम-नियम होते हैं। इसी अनुशासन को, यम-नियम को विधि निषेध जिन्हें शिष्य की ईश्वर खोज के लिए आवश्यक मानकर गुरु निर्धारित करते हैं। हिन्दू शास्त्रों में इसे ही साधना कहा गया है। अर्थात गुरु द्वारा निर्धारित नियमों को ही साधना कही गई है। उनके आदेशों के मनःपूर्वक पालन से और उचित आचरण द्वारा गुरु को प्रसन्न करने के प्रयास से शिष्य अपनी इच्छा और गुरु की इच्छा के बीच अहंकार से निर्माण की हुई प्रत्येक दीवार को गिरा देता है।