सद्गुरु की ख़ुदाई अदाओं की आँधी संसार के परखच्चे उड़ा देती है। फिर शिष्य की इस जमीं पर गुरु अपने प्यार भरे हाथों से रूहानियत का एक नया नगर बसाते है। ऐसा नगर जहाँ सिर्फ शुद्ध प्रेम की ठंडी बयार बहती है।जिसमें सहज समर्पण की सुगंध घुलि होती है। जहाँ विश्वास पूरे यौवन में गुलज़ार होता है। जहाँ आनन्द की सुनहरी सुबह खिली रहती है और कभी रात आती भी है तो पूर्णमासी सी।बुल्लेशाह के अन्दर भी इनायत शाह के सधे हुए हाथ यही रूहानी दुनिया रच रहे थे।*न गर्ज किसी से न वास्ता,* *मुझे काम अपने काम से ।**तेरे जिक्र से, तेरी फ़िक्र से,* *तेरी याद से, तेरे नाम से।*बुल्लेशाह की यह अज़ब मस्ती गज़ब कर गई। उसके सगे-संबंधी बौखला उठे। उसकी इस रूहानी दुनिया पर विष बुझे तीर कस बैठे। विरोध की घनघोर आँधी बनकर गरज़ उठे।*इधर हमने एक शाम सजाई चिरागों से! और उधर लोगों ने शर्त लगाई हवाओं से!*पहले पहल जिगरी दोस्त आश्रम आया। दुनियावी कायदे-कानूनों की दुहाइयाँ देकर वह एड़ी-चोटी का जोर लगाता रहा। फिर भाभीयाँ और बहनों का एक पूरा काफ़िला ही तंज, टोंच और फिकरों की सौगात लिए वहाँ आ धमका। उन्होंने भी डरा- धमकाकर, चढ़ा-गिराकर, हँस-रोकर हर पैतरा आजमाकर देखा। परन्तु सब बेकार!*वो संकल्प रखता हूँ जो हादसों में पलता है-2**कि बेसब्र आँधियों में मेरा चिराग जलता है।*यह बुल्लेशाह के मुरीद ज़िगर का ऐलान था। खिलाफ़ी रुख़ भी उसके इस संकल्प की आग में ईंधन फूंक गये। उसकी अन्दरूनी- रूहानी दुनिया में जले चिरागों को और चकमक-रोशन कर गये।इधर जब भाभीयाँ और बहने हवेली पहुँची तो वहाँ मातमी सन्नाटा छा गया। सय्यदों को भाभीयों से पूरी उम्मीद थी, परन्तु वे तो अपने कुचले हुए फणों के साथ थक-हार कर लौटी आई थी। अब भाइयों ने सोचा कि फुंकारो से काम नहीं चलेगा। चलो फिर कुछ सिंह गर्जना की जाए।इसलिए वे आश्रम पहुँचकर बुल्लेशाह पर ख़ूब दहाड़े। उन्हें डराया-धमकाया, परन्तु ये खूँखार दहाड़े बुल्लेशाह के बन्द कानों से टकराकर उल्टे दहाड़ने वालों को ही अधमरा कर गई।दरअसल पूरी सय्यद कौम में एक दरवेश की हैसियत से मशहूर थे उनके परिवारवाले। इसलिए उनके सुपुत्र के कारनामों के चर्चे भी आग की तरह फैल गए। यही वज़ह थी कि कभी तो कोई सगा-संबंधी बुल्लेशाह को समझाने-बुझाने आश्रम में चले आता। कभी विद्वानों की मंडली उससे शास्त्रार्थ करने पहुँच जाती।तो कभी मज़हबी व कौमी भाईयों का वहाँ ताता लगा रहता।आखिरकार बुल्लेशाह की सहनशक्ति जबाब दे गई। मन तंग आकर बिफ़र उठा। एक दिन बेहद खिन्न और परेशान होकर बुल्लेशाह ने अपने गुरुदेव से अर्ज किया कि,” साँई! मेरी पिछली जिंदगी से जुड़ी यह जमा हमको यहाँ जीने नहीं देगी। इनकी आँखों पर तो उँची जाति, लियाकतो और झूठी शानो-शौकत की पट्टी बँधी है। ये ना आपकी रूहानियत को समझ सकते है और न ही मेरे पाक इरादे को। साँई, बेहतर यही होगा कि हम यह बस्ती ही छोड़ दे। यहाँ से कहीं दूर-दराज़ इलाके में जाकर बसर करें। जहाँ न कोई हमारी जात से वाकिफ़ हो,ना हमारी कौम से और ना हमसे।आप मेरे मुर्शीद अर्थात गुरु और बंदा आपका मुरीद अर्थात शिष्य, बस सबको फ़कत यही पता हो।”*चल बुल्ल्या! चल उत्थे चलिए,* *जित्थे होण अक्ल दे अन्ने!**न कोई साडी जात पहचाने,* *न कोई सानु मन्ने।*परन्तु गुरु इनायत शाह तो शिष्य को इस आँधी में भी मजबूत बनाना चाहते थे। वे जानते थे कि, ख़िलाफ़त का यह दौर बुल्लेशाह का निर्माण ही करेगी। इसलिए उन्होंने गंभीर होकर बुल्लेशाह को कहा कि,”नहीं बुल्ले, इस आश्रम को छोड़ना वाज़िब नहीं। ख़ुदा की रजा में राजी रहो। उसकी हर बक्षीस में रूहानी राज़ होता है।बातों-2 में गुरु ने बुल्लेशाह पर एक रूहानी दृष्टि डाल दी। बुल्लेशाह वह रूहानी राज तो जान न सका। मगर उस पल उसने अपने गुरु की नजरों से एक नूरानी जाम जरूर पी लिया। ऐसा जाम जिसे पीकर उसकी डिगी रूह मस्त हो उठी और वह कह उठा,*अगर तलब है उन्हें बिजलियाँ गिराने की -2**तो हमें भी ज़िद है यहीं आशियाँ बनाने की।*दो प्रेमी शायर हो गये, उन दोनों ने एक ही बात कही। लेकिन अपने-2 तरीकों से कही। पहले शायर ने कहा कि, *”शबे बिसाल है अर्थात मिलन है, बुझा दो इन चिरागों को।ख़ुशी की बज़्म में क्या काम जलनेवालों का?”*और दूसरे प्रेमी ने यही बात कही कि, *”शबे बिसाल हैं अर्थात मिलन है, रोशन करो इन चिरागों को।ख़ुशी की बज़्म है जलने दो जलनेवालों को।”*पहले तो बुल्लेशाह का नज़रिया भी पहले प्रेमी की भाँति था कि *ख़ुशी का बज़्म है, क्या काम जलनेवालों का?* उसने इस भभकती दुनिया से दूर भाग जाना चाहा, परन्तु गुरु के चन्द लफ़्जों ने उसकी सोच पलटकर रख दी।उनकी नूरानी आँखों की अनकही बोली ने उसे बहुत कुछ समझा दिया। उसे दूसरे प्रेमी का नज़रिया दे दिया । यही कि अगर संसार की खुशामत छोड़कर करतार से नाता जोड़ेगा तो खुशामत पसन्द बौखलायेंगे ही। *ख़ुशी की बज़्म है, जलने दो जलनेवालों को!*ये दुनियावी चिराग दहकेंगे ही, दखलबाजी तो होगी ही, सो होने दो। जो जलते है उन्हें जलने दे। तुम ख़ुदापरस्ती की बज़्म में खो जाओ। इन खुदपरस्तो के अँगारों, चिनगारियों को अनदेखा कर के जलवा-ए नूर की चमकार आँखों मे बसा लो। बुल्लेशाह को गुरु की आज्ञा व दृष्टि से बहुत बल मिला। बुल्लेशाह घोषणा कर उठा कि,*हम वो पत्ते नहीं जो शाख से टूट जाया करते हैं।- 2**आँधियों से कहो कि,औकात में रहे!*हम क्यों अपने आश्रम, अपने वतन की जमीं को छोड़कर कहीं जाएं? हम क्यों पीठ दिखाकर रुख़सत हो? क्यों ना पुरजोर होती इन खिलाफ़ी आँधियों को ही औक़ात में रहना सीखा दिया जाए? एक पुख़्ता सबक पढ़ा दिया जाए?बुल्लेशाह का मन इन्कलाबी नारे लगा उठा। दिलोदिमाग पर एक जुनून सवार हो गया। अब जरूर कुछ ऐसा करूँगा कि ये रिश्तेदार मेरा पीछा छोड़ दे। ये उँची नाकवाले सय्यदी मुझे देखने से कतराये, मुझसे नफ़रत करे,ताकि मैं इनके लिए जीते-जी ही मर जाऊँ। ये मुझे बेअदब, वाहयात, कुछ भी कहे। बेशक़ पागल करार दे-दें, परन्तु आज़ादी बक्षे। मेरी जिन्दगी में अब और दखल न दे।मुझे अपने गुरु के चरणों में शान्तिपूर्वक रहने दे।एक ऐसे ही मस्त फ़क़ीर हुए स्वामी रामतीर्थ। जब उन्होंने फ़कीरी की राह चुनी तो उनके परिवारवालों ने भी विद्रोह किया।उन्हें वापस लीवा लाने के लिए बहुत संदेश भेजे। कहते है, जबाब ने रामतीर्थ ने उन्हें एक करारा ख़त लिखा। खरे शब्दों में झिड़का। उन्होंने लिखा कि, “क्या कभी किसी ने एक मरे हुए को लौटने का संदेश भेजा है? मैं मर चुका हूँ! इस मायामय दुनिया और इसके बाशिन्दों के लिए । इसलिए एक मुर्दे को वापिस बुलाने की बेकार कोशिश ना करो। हाँ!अगर वाक़ई मुझसे मिलने की इच्छा हो, तो मेरे जैसे बन जाओ। एक मृतक से मिलना है, तो खुद मर जाओ। तभी मिलन संभव है।”हो सकता है कि स्वामीजी का यह खत अपने समय में कारगर रहा हो। लेकिन बुल्लेशाह जानता था कि उसके कट्टर और अख्खड़ भाई-बंधुओं के लिए ऐसे ख़त बेअसर है, महज़ कागज़ के टुकड़े ही सिद्ध होंगे। उनके लिए तो कोई कड़ा कदम ही उठाना होगा, कुछ धमाकेदार करना पड़ेगा, परन्तु क्या……?—————————————————आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा …
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बाबा बुल्लेशाह कथा प्रसंग (भाग – 5)
उधर बुल्लेशाह फाका मस्त फकीरी में दिन बसर कर रहा था… गुरू के आश्रम में दीन दुनिया से बिल्कुल बेखबर अपने मौला… अपने सद्गुरू.. इनायत शाह की खुदाई रहनुमाई मे।उसे क्या पता था उसकी वजह से सय्यद हवेली में कलह कलेश की आँधी उठ खड़ी हुई है। वह तो रोजाना की तरह इस दोपहर भी आश्रम की सेवा मे व्यस्त था।तभी आश्रम के बाहर एक शाही बग्गी रुकी। उसमे से भाभीयाँ और बहने नीचे उतरी। मित्र ने आश्रम की ओर दिखाकर कहा “यही है इनायत शाह का आस्ताना जहाँ नवाब साहिब ने जिंदगी गुजारने की ठानी है। ये.. ? भाभीयो की भौए तन गई , इत्र गंध से महकती बहनों का हाथ बरबस ही नाक पे चले गया । अभी वे आस्ताने के मुख्य फाटक पर ही पहुँची होंगे कि भीतर से पाँच छे अराई चरईया निकलते हुए दिखाई दिए साथ में उनके करीबन दर्जनभर भैंसे भी थी भाभीयां बहने बुरके के जाली से उन्हे टुकुर ट्कुर देखने लगी। तभी मित्र तंजीया स्वर मे बोला “भाभीजान ये जो सबसे आगे मुखिया बनके चल रहे है ना… ये ही है हुजूर इनायत शाह बुल्ले के गुरु। “क्या ? यह है इनायत शाह ? कमाल है ! न जाने इस फटे हाल अधेड बुढ्ढे मे भाईजान को क्या दिखा जो इसके पीछे हो लिए। सच मे उनके अकल पर तो ताले लग गए है। भाभीयां माथा ठोकते हुए बोली बहनो का भी तेज तरार हो उभरा…. यह भी तो हो सकता है कि ये बुढ्ढा कोई बड़ा टोटके बाज तांत्रिक हो इसने ही हमारे भाईजान पे कोई टोटका फेका हो।”हाँ हाँ हो सकता है, बिल्कुल मुमकीन है। पर ये साहिब जादे है कहाँ?” भाभीयां एक स्वर मे बोली। कर रहा होगा अंदर भैसो की मालिश । मित्र तड़ाक से बोल पड़ा पीछले दफा उसको यही करते पाया था शायद यहाँ उसको यही काम मिला है । चलो अंदर चलकर देखते है। सभी आश्रम के भीतर अहाते मे चले आए चारों ओर नजरे दौड़ाई परंतु बुल्लेशाह कहीं नजर नही आए। तब मित्र ने एक गुरुभाई द्वारा बुल्लेशाह तक अपने आने का पैगाम भेजा । पैगाम मिलते ही बुल्लेशाह बेखौफ होकर इनके पास आए उसे देखते ही सभी ने अपने बुरको के नकाब उठा दिए। अरे बहने भी आई है। कहो.. कैसी तबीयत है बहनों ? एक बहन ने उखड़े हुए स्वर मे कहा कि तबीयत तो हमारी आपने नासाज कर दी है भाईजान। बुल्लेशाह मुसकराते हुए बोले हमने? अब इतने अंजान भी मत बनिए। यह बताएं कि आप वापस क्यों नही लौटे? हमने तो अपना पैगाम मित्र के जरीए पहुँचा दीया था। क्या आप सबको नही मिला? बहन ने कहा मिला था ,पंरतु यकीन नही हुआ कि हमारे नरम दिल भाईजान ऐसा कहरी और कठोर पैगाम भी भेज सकते है, इसलिए हम खुद चले आए। बुल्लेशाह हसते हुए बोले..क्यों? ऐसा क्या कहर ढा दीया हमने ?बहन बोली “अम्मीजान इतने चाव से आपके निकाह के रंगीन ख्वाब बुनती रही और आपने फकीरी की राह चुनकर एक झटके मे उन्हें तारतार कर दिया। क्या यह किसी कहर से कम है ? बताइए? उन्होंने आजतक आपको लेकर जो अरमान संजोए रखे थे उनका क्या होगा ? फैसला लेने से पहले सोचा आपने ? आपके वालीद अर्थात पिताजी बड़े भाई, भाभीया, हम बहने सभी तो आपसे मोहब्बत करते है सभी का कितना कितना लगाव है आपसे। और आपने इन रिश्तो का जरा कदर भी नही किया। आपको रब की सौगंध भाईजान सच बोलीए क्या हमारे लिए आपके दिल मे थोडी सी भी खीज नही उठती? घर कुनबे का एक लमहा के लिए भी खयाल नही आता । कैसे आप अपनो को छोडकर ये गैरो की बसती मे आ बैठे है। और यह क्या हाल बना रखा है अपना। देखिये आपने संसार की रीत जजबातों के कैसे कैसे पैतरे फेके जा रहे है। गुरू दर पर रहनेवालो के कदमों मे मोह की बेड़ियां कैसे डाली जा रही है। सुबकीयो सुसकियो के रोड़े कंकड़ बिखेरे जा रहे है। दूहाईयो, कसमो, सुगन्धों के जाल बिछाए जा रहे है। आसुओ का ऐसा गहरा दरिया बनाया जा रहा है ,जिसे गुरुभक्त पार न कर सके उसमे डुबकर संसार का ही हो जाए ।संसारवालो तुम्हारे शातीर पैतरे कैसे उसे फासेंगे जो साक्षात प्रेम मूर्ती गुरु की घुघंराली लटो मे उलझ चुका हो। उसकी आलौकीक मुस्कान का कायल हो गया हो। भला क्यों बेकार मेहनत करते हो? सोचो क्या कभी शहद चुसती मधुमक्खी कुड़े के घर की ओर उड़कर जा सकती है। और शिष्य के लिए तो गुरू के चरण ही शहद है और संसार कूड़ा है।बुल्लेशाह को भी प्रेम का वही शहद प्याला मिल चुका था। उसपर अपने गुरू इनायत के सच्चे प्रेम का नशा चढ़ चुका है ऐसा नशा जो कभी नही उतरनेवाला.. ऐसी मादकता जो केवल मन नही आत्मा को भी मदहोश कर देती है। बहनो, भाभीयो ने इस नशे को उतारने की भरसक कोशीश की ,जज्बाती दुहाइयों की छीटें मारी। तर्कों, दलीलों से उसे भरपूर झंझोरा पर सब बेअसर….। *अब हम गुम हुए प्रेम नगर के शहर, बुल्ला शह है दोही जाहनी कोई न दीस्ता गैर ।* भाभी बहनो हम तो इस प्रेम नगर मे गुम हो चुके है, हमारा दिल इसकी नुरानी गलियो मे खो गया है। हमारे पास बचा ही क्या है जिसे साथ लेकर हम आपकी मोह नगरी मे वापिस लौट चले ।हम तो अपने गुरू को बिक चुके है अगर आप जोर जबरदस्ती करेंगे तो फकत् हमारी जिंदा लाश ही आपके साथ लौटेगी । क्या अम्मीजान इस चलती फिरती लाश से अपने अरमान पुरे कर सकेगी ? क्या अम्मी और अब्बूजान एक मुरदे को हवेली मे रखकर खूश रह पाएगे ? अगर आप सभी वाकई हमसे मोहब्बत करते है तो हमे यहीं रहने दीजीए। हमारी दुनीया सदगुरू तक सीमट गयी है। वे हमारे लिए दोनों जहां बन चुके है। अब उनसे अलग हम तीसरा जहाँ कहाँ बसांएगे ये मुमकीन नही…।बहन पल्लु से आँखो की कोर पोछेते हुए बोली ” भाईजान ! बस चंद रोज मे इनायत आपको हमसे भी जादा अजीज हो गए। बरसो के रिश्तों की क्या कोई अहमीयत नही? “इनायत से हमारा नाता चंद रोज का नही जन्मो का है। बल्कि *कुन फैकुनो अग्गेदिया लग्गीया* अर्थात सृष्टी के पहले से है। अबतक बहने जोर-जोर से सुबकने लगी। अपनी कीमती रूमालो से मुह ढापे हुए रोने लगी, परंतु बुल्लेशाह कुटिया की दहलीज पर एकदम तटस्थ बैठा था। अचानक उसकी दृष्टि उसी बाद के वृक्ष पर चली गई जिसके नीचे उसे गुरु ने दीक्षा दी थी। इन यादों का मस्त झोंका उसे भीतर तक छू गया उसके चेहरे पर मुस्कान छा गई गुरु की याद आ गई।बहने सिसक रही हो और भाई बेपरवाह से मुस्कुरा रहा हो अब यह बात अध्यात्म के आंख से देखने पर तो समझ आ सकती है मगर सांसारिक दृष्टी मे तो यह घोर निर्लज्जता है। मोह ममता की अदालत में भीषण अपराध है। भाभीयो से भी यह बरदाश्त नही हुआ एकदम तमक उठी,”भाईजान हमने तो सुना था खुदा से इश्क करनेवाले खुदा के बंदों का भी ख्याल रखते है। उनमे कुटकुट कर इनसानियत भर जाती है पर हम यह क्या देख रही है आपके अदंर का भाई तो क्या इंसान तक कहीं दफन हो गया है। आप अपनो को रुसवा करके मुस्कुराना सीख गए है। आपको तो बस अपने अरमानों का किला खड़ा करने से गर्ज है । फिर भले ही उसकी बुनियाद मे कितनो के अरमानो की लाशें बीछी हो… समझ नही आता यह खुदा परस्ती है या खुदपरस्ती ।”बुल्लेशाह बोले ‘आप हमे गलत समझ रही है भाभीजान… भला हम क्यों किसी को रुसवा करेंगे आपने कहा कि हमें सिर्फ अपने अरमानों से गर्ज है मगर इसी अरमा को ही तो अंजाम देने के लिए हम सभी को यह इंसानी जिस्म मिला है। यह हमारा नही दुनिया भर के संतो और शास्त्रों का फरमान है, रही बात मेरे भीतर के इसांन और भाई की तो भाभीजान वो दफ़न नहीं हुए है अब तो वो मोह के तंग कब्र को फाड़कर रूहानी इश्क… गुरू के इश्क के खुले आकाश में जी उठे हैं। इसी पाक मोहब्बत के वास्ते मै आपसे कहता हूँ कि आप अपने जीगर अरमानों या दर्द का नही रूह के मकसद का खयाल करे। इसके लिए आप भी इनायत शाह की शागिर्दी हासिल करे उनसे दीक्षा ले लीजिए।” सच मे यह सुनकर तो भाभीया झीप गई उन्हें अपने सभी जज्बाती पैतरे विफल होते दिखाई दिए अब उनके पास कोई दलील शेष न बची इसलिए हवेली से जो भावुकता का नकाब ओढ़कर आयी थी उन्हें उतार फेका।अचानक उनकी आवाज में तीखे विद्रोही स्वर निकले एक भाभी बोली “क्या ? कहा उस अराइ बूढ़उ की शागिर्दी? वही ना जो अभी मैली कुचैले चीथड़ों में भैसे हाकता हुआ बाहर जा रहा था” दूसरी बोली “हां हां.. वही.. “बुल्ले शाह मुस्कुराते हुए बोले, ‘अच्छा तो आप सभी को साईं जी का दीदार हो ही गया , सुभानल्लाह ! परंतु मेरी नासमझ भाभियों जिन्हें तुम अधेड़ उम्र का चीथड़ों में लिपटा हुआ बुड्ढा जान रही हो अरे उनकी हकीकत और असलियत कुछ और ही है। हां… मैं मानता हूं मेरे गुरु… हाथ में डंडा, कंधे पर कंबल डालकर जंगल जंगल फीरता है । उसने मामूली चरवाहे जैसी शक्ल बनाई हुई है । उसकी मुकुट भैंसों के बीच रूलती दिखाई देती है ,जंगल की झाड़ झाँखड़ो में छिपी पड़ी है ,परंतु एक बात समझ लो भाभीयो मेरे सतगुरु साक्षात खुदा है, परवरदिगार है वह गरीब नवाज और शाहों के शाह है।”भाभी व्यंगात्मक हंसी के साथ बोली, ‘शाहो के शाह ..जो खुद तो गुदड़ लत्तो में तो था ही आपके भी शाही रेशमी वस्त्र उतरवा लिए और यह चिथड़े पहना दिए ऐसा है वह शाहो का शाह। “सभी भाभियों और बहने तीखे अट्टहास कर उठी चुभते माखौल करने लगी।परंतु एक शिष्य को इससे क्या… *मेरी राहों में आकर वो सदा कांटे बिछाते हैं वह कांटे ही मेरी हिम्मत मेरी कशिश बढ़ाते हैं ।*”ओ भाभियों मुझ पर यू ताने उलाहने क्यों कसती हो अरे सब रल मिलकर मुझे बधाई दो। गुरु के मिलने से मेरी जिंदगी में मुबारक दिन चढ़ आया है, मेरी रूहे हीर को मुर्शीदे रांझा मिल गया है चिरंजीवी शोहर से उसका निकाह हो गया है।’इतना सुन भाभियों ने तेज तर्रार स्वर में कहा “अब्बू जान का तो आपने जीते जी कत्ल कर दिया है, पूरी सय्यद परिवार में जो उनका रुतबा था आन बान था उसे बेदर्दी से आप ने कुचल डाला। वाह क्या नायाब सिला दिया है उनकी मोहब्बत का। जो मौलवी साहब पहले कस्बों की गलियों में सीना तान कर चलते थे आज हवेली की एक कोठरी में मुंह छुपाए शर्मसार हैं, केवल आपके कारण। दिन-रात इसी सोच में घुल रहे हैं कि उनके नूरे चश्म ने खानदान को रौशन करने की बजाय जो कलंक लगाया है उस पर कौन सा नकाब चढ़ाएं सय्यदो की आबरू पर लगे इस शर्मनाक धब्बों को किस दलील से धोया जाए । *बूल्ले नु समझावन आइया बहना ती घर जाइयां आल नबी औलाद अली नो तू क्यों लिका लाइया मन में बुल्यां कहना साड्डा छड़ दे पल्ला राइया* “अरे भाई जान हमारा तो हजरत मोहम्मद और हजरत अली का हैसियत दार कुल है क्यों एक बज्जात अराई की दहलीज पर बैठकर उसे बेआबरू कर रहे हैं। बात की नजाकत समझीये वापस चलिए। छोड़िए इस आराई बुड्ढे का पल्ला, उसकी तो नस्ल तक इंसान की नहीं लगती न शक्ल से न अक्ल से। जिन्हें चराता हांकता है उन्हीं जैसा लगता है। खुद की तो आगे पीछे कोई है नहीं और हमारा भी बसा बसाया घर उजाड़ दिया इस बुड्ढे ने। “”जुबां काबू में रखो भाभी खबरदार अगर अब एक भी लफ्ज़ मेरे गुरु की शान के खिलाफ बोला तो वरना हम भी अपनी सारी तहजीब और हदें भूलने पर मजबूर हो जाएंगे। बुल्ले शाह गरज उठा। भाभियों और बहनों आप सब भी जरा तहज्जुद देकर सुन ले हम डंके की चोट पर ऐलान करते हैं कि आज से हमारी जाति वही है जो हमारे सद्गुरु की जाति है हम भी उसी बिरादरी के हैं जिसके हमारे मौला इनायत है।” *जेहड़ा सानो सैयद सद्दे दोजख मिलन सजाइया जो कोई सानू अराइ आखें भिजती पिंगा पाइया ।* “भाभी जान अब कयामते गिरे या फिर जनाजा निकले हमे रत्ती भर भी परवाह नहीं। हम तो खरा सौदा कर चुके हैं। अपने गुरु के कदमों में बेमोल बिक चुके हैं । इस सिर के लिए कोई दूसरी दहलीज नहीं।” *बुल्लेशाह इक सौदा कित्ता न कुछ लाहा टोटा लित्ता* भाभीया बोली लेकिन आप? बुल्लेशाह तुरंत टोकते हुए बोले “बस काफी हो गया अब आप जाइए यहां से हमे अब इनायत के बागे बहारो मे ही रहना है । उन्हीके पाक पनाहो मे हमारा अमन चैन और रूहे करार है।”—————————————————आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा …
बाबा बुल्लेशाह कथा प्रसंग (भाग-4)
उधर कई दिन बीत गए जब बुल्लेशाह हवेली नहीं लौटा तो उसके परिवार वाले चिंतित हो उठे। किसी को नहीं पता था कि वह कहाँ और क्यों गया है।इसलिए गहरी खोजबीन शुरू हो गई। हर मुमकिन ठौर-ठिकानें पर उसे ढूँढा जाने लगा। खोज की इस दौर में वे जा पहुँचे बुल्लेशाह के उसी दोस्त के घर जिसके सलाह पर वह लाहौर के लिए रवाना हुआ था। इस दोस्त ने उन्हें बताया कि बुल्लेशाह रब की खोज में लाहौरी फ़क़ीर इनायत शाह के आश्रम पर गया है।कुटुम्बी पहले ही बुल्लेशाह के वैरागी रंग-ढंग देखकर दहशत में रहते थे। सय्यद खानदान के छोटे नवाब कहीं फ़कीर की राह ना चुन बैठे, यह डर उनके दिल के किसी कोने में हरपल बना ही रहता था।अब जब बुल्लेशाह के किसी फ़कीर के आश्रम पर जाने की बात सुनी तो एक पल के लिए तो उनकी साँसे ही अटक गई। उन्होंने उसी क्षण बुल्लेशाह को लीवा लाने के लिए उसके मित्र को लाहौर भेज दिया।मित्र भी पूछता-2 आखिर आश्रम पहुँच ही गया, परन्तु जैसे ही उसने भीतर प्रवेश किया उसके कदम रुक गए। क्योंकि आँखो देखी पर उसे विश्वास नहीं हुआ। क्या सामने देहाती लिबास में खड़ा नौजवान बुल्लेशाह ही है? नहीं-2 ,लेकिन शक्ल तो हुबहू बुल्ले से ही मिल रही है। परन्तु ये साहबजादे क्या कर रहे है- भैंसों की मालिश? छी-छी! समीप जाकर धीरे से बोला, “बुल्ले ,वाह बुल्ले! यहाँ तो काफी ठाट-बाठ से रह रहे हो!”मित्र का स्वर कटाक्षपूर्ण था, परन्तु बुल्लेशाह को होश ही कहां था। वह तो अपनी मस्ती में, सेवा में मग्न था। आनंदरस में लबालब डूबा था। इसलिये बस अपनी ही धुन में कह उठा,”हाँ यार , क्या बताऊँ? मुझे यहाँ कौन से ठाट-बाठ मिले हैं ,कैसा सुकून मिला है, लब्जों में तो ताकत ही नहीं है, कैसे बयाँ करूँ?”मित्र उत्साहित होते हुए बोला कि, “सब छोड़ ,पहले बता इनायत मिले या नहीं? क्या तेरा काम बना? जो नूरानी दीद के लिए तू मारा-2 फिरता था? वह हासिल हुआ या नहीं?”बुल्लेशाह बोले, *इनायत का मैं मोहताज़ हुआ**महाराज मिले मेरा काज हुआ**दर्शन पियादा मेरा इलाज हुआ**आप में आप समाया है**मेरे सद्गुरु अलख लखाया है।*हाँ, यहाँ महाराज इनायत भी मिल गए और उनका रहमों-करम भी।उन्होंने मेहरबान होकर मेरी बेकरार रूह को क़रार दे दिया।ख़ुदा का नूरानी दीद करा दिया।जो रूहानी नज़ारे आजतलक नहीं लखे थे उन्हें लखा दिया। जो अन्तःकरण सूखकर कुम्हला चुका था वह अमृतसुधा से सराबोर हो गया है। जहाँ विकारों की दुर्गंध बसी थी वहाँ सुमिरन की सुगन्ध बिखर गई है। आनन्द की कमल खिल उठे हैं। अब तो हर ओर आनन्द ही आनन्द है, रूहानी सुरूर है।मित्र बुल्लेशाह के कंधे पर हाथ रखते हुए बोला ,”बस, बस बुल्ले!सचमें आज बरसों बाद मैने तुझेे यूँ ख़ुशदिल देखा है। पर पता है? हवेली में तेरे वालिद, अम्मी, भाईजान सब कितने परेशान हैं?उन्होंने ने ही तुझे लौटा लाने को मुझे यहाँ भेजा है।””लौटूँगा तो मैं हरगिज़ नहीं और लौटूँ भी क्यों उस कसुमबड़ेे के बाग में?”मित्र ने कहा, “कसुमबड़े का बाग! क्या मतलब?”हाँ बिल्कुल! यह संसार कसुमबड़े का बाग ही तो है! तूने कसुमबड़े के फूल देखे है ना, कितने सुन्दर और आकर्षक होते हैं। लेकिन छूने पर पता चलता है कि, उसका रंग कितना कच्चा है, कितने बारीक काँटे छिपे हैं उनमें? कैसे जहरीले डंक मारते हैं वे? कोई समझानेवाला नहीं था इसलिए मैं ताउम्र उन्हीं की फुहीयाँ चुगता रहा, उन्हीं की कँटीली झाड़ी में अपना दामन उलझाता रहा। पर अब,अब मैं यह नादानी नहीं करनेवाला। साईंजी ने मुझे रूहानियत के बाग में ला खड़ा किया है। अब तो मैं यहाँ इबादत के फूल सँजोऊँगा ,पाके इश्क़ की कलियाँ चुमूँगा।अच्छा!तो अब नवाबजादे यहीं रहेंगे! परन्तु शायद आपको पता नही कि,यह आपका दो दिन का बुख़ार है! यह दो दिन का नशा है!जब गर्मियों से इस छप्पर से छनकर अँगारे गिरेंगे और जाड़े में कहर बरसेगा तब पता चलेगा? सारी ख़ुमारी चुटकियों में ही उतर जायेगी। जब रोज-2 रूखी-सूखी खाने को मिलेगी ना तो इनायत के शक्ल में ख़ुदा नहीं गरीबी के दर्शन होंगे। सख्त ज़मीन पर सोकर जब शरीर अकड़ेगा तब उनके क़दमों में जन्नत नहीं धूलि-कंकड़ बिखरे दिखेंगे।बुल्लेशाह मुस्कुराते हुए बोले, “नहीं यार ! यह कोई चंद रोज़ का नशा नहीं है। मेरे सद्गुरु इनायत तो अब मेरी ज़िन्दगी बन चुके हैं।”*समाँ गए हैं मेरे जिस्म में वे जाँ की तरहा!**है जज्ब मेरे रूह में वे नबी ख़ुदा की तरहा!बस उनकी रहमतों की साये में ज़िन्दगी गुज़र जाएँ,मुझे ज़िन्दगी से और क्या चाहिए?**उनके क़दमो में आए गर मौत भी आए, ये एक एहसान बस मौत का भी चाहिए!*मित्र ठिनककर बोला, “ठीक है बुल्ले! अगर तूने इस डगर पर चलने की ठान ही ली है, तो मेरे कुछ कहने का अब क्या फायदा?तुझे तेरी रूहानियत का बाग मुबारक हो! मैं तो चला अपने उसी कसुमबड़े के बाग में फ़ुहीये चुनने , ख़ुदा हाफ़िस!”मित्र ने यहाँ से सीधा बुल्लेशाह की हवेली का रास्ता लिया। वहाँ परिवारवाले बड़ी बेसब्री से उसकी बाँट जोह रहे थे। इसलिये जैसे ही उसने आँगन में क़दम रखा पूरा का पूरा सय्यद खानदान वहीं उमड़ आया। सबके पूछने पर मित्र ने बताया कि,”बुल्लेशाह नहीं आयेगा। वह उस अराई जाति के फ़कीर का शागिर्द हो गया है।उसने उन्हीं के आश्रम पर जिन्दगी गुजारने का फैसला किया है।इसलिए वह वापस नहीं लौटेगा।”यह सुनते ही भाइयों की तो तोरियाँ तन गई, नथुने फड़कने लगे, मुठ्ठियाँ भिच गई । गुर्राकर वे बोले, “उसकी यह हिमाक़त! देखते हैं कैसे नहीं लौटेगा? पहले तो रब का भूत सवार था, अब फ़कीरी का चढ़ा लिया। लगता है उसके ये भूत उतारने ही पड़ेंगें!”वहीं बुल्लेशाह के पिता की आँखों में बदनामी का डर तैर गया।ऊँच-नीच, जातिभेद की सैकड़ों दलीलें उनके भीतर कोहराम मचाने लगी। इन्हीं दलीलों को बुलन्द करते हुए वे बोले कि, “उसे कुल-मर्यादा का कोई लिहाज़ है की नहीं? एक अराई जातिवाले की झुग्गी में जाके बैठ गया!समाज क्या कहेगा? किस-2 को जबाब देते फिरेंगे? कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ा इस लड़के ने?”माँ छाती पीट-2 कर रोते हुए बोली,” कैसा पत्थर का ज़िगर है उसका? अपनी अम्मी का भी ख़याल नहीं आया? क्या यही दिन देखने के लिए उसे जना था?दुलार के आँचल में झुलाया था?उससे कहो, पहले यह कर्ज़ा उतारे नहीं तो मेरी लाश को लाँघकर जाये!”बुरखे की आड में से भाभीयाँ बोली,”भाईजान की कुछ ज़िम्मेदारियाँ भी तो हैं कि नहीं? जरा तो सोचा होता, घर में जवान बहनें बैठी हैं? कल को इनका निक़ाह भी करना है? 36 बातें बनेगी, किस-2 का मुँह बन्द करते फिरेंगे?”देखते ही देखते बुल्लेशाह का सद्गुरु को समर्पित होना एक संगीन जुर्म क़रार दे दिया गया। कल तक जो खानदान का जगमग चिराग़ था, आज अचानक कलंक घोषित कर दिया गया।”नामाकुल, बेग़ैरत, एक पैसे का लिहाज़ बाकी नहीं रहा उसे। जो जी में आया करता है। कम्बख्त! अब उस अराई जातिवाले के छप्परखाने में जाकर बैठ गया। अब तो हमें उसकी वह आवारागर्दी, मनमर्जी तोड़नी ही पड़ेगी। चलो लाहौर चलते हैं।देखते है कैसे नहीं लौटेगा? हम भी सय्यद जाती के हैं!” बुल्लेशाह के भाइयों का गुस्सा सातवें आसमान पर था। बौखलाहट सिर चढ़कर बोल रही थी। इसी गर्मजोशी में उन्होंने इनायत शाह के आश्रम जाने का फ़ैसला किया।पर रवाना होने के लिए जैसे ही उठे, उनकी पत्नियों ने उन्हें टोका,”अरे-2! आप सभी तो आपे से बाहर हो रहे हैं। देखिए हालात बहुत नाजुक हैं। बड़ी नज़ाकत से काम लेने की जरूरत है। इतने गर्म मिज़ाज से तो काम बनने की बजाय बिगड़ सकता है।डराने-धमकाने या ज़ोर -जबरदस्ती करने से तो कुछ होने-जानेवाला नहीं। वे अपने इरादों से नहीं हिलेंगे। हाँ, फ़कत रिश्तों का वास्ता देकर उन्हें कमजोर किया जा सकता है।विवाह योग्य बहनों की सौगन्ध देकर लौटाया जा सकता है। उनसे निहायत ही जज़्बाती ढ़ंग से बात करनी होगी। जो आप भाइयों के बस की बात नहीं ।इसलिए हम जाएगी भाईजान को लिवाने।”भाभियों का परामर्श भाइयों को जँच गया। माता-पिता ने भी उसे एकमत से स्वीकार किया। करते भी क्यूँ ना?आखिर अहम मुद्दा तो खानदान के चिराग को आँगन में वापस लाने का था? उसके लिए फिर मार्ग चाहे कोई भी अपनाना पड़े। ऐसे नहीं तो वैसे ही, कठोरता नहीं तो भावनात्मक दबाव डालकर ही सही।अगले दिन ही बुल्लेशाह की भाभीयाँ और बहने उसके मित्र के साथ लाहौर के लिए चल पड़े।परन्तु क्या विरोध की यह विक्राल आँधी बुल्लेशाह को डिगा पायेगी? प्रेमडगर के इस मतवाले को मोहनगरी में लौटा सकेगी?ए आँधियों! तुमने दीवारों को गिराया होगा! क्या गुल से लिपटे एक भँवरे को गिरा पाओगी……..?—————————————————आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा …