हजरत इनायत ने देखा कि बुल्लेशाह का जूनून परवान चढ़ चूका है। ईश्वर प्राप्ति बस उसकी एक अभिलाषा नही है, जीवन का मकसद बन चुका है। बुल्लेशाह की तड़प देख कर हजरत इनायत ने बुल्लेशाह को दीक्षा दे दी।दीक्षा पाते ही बुल्लेशाह के भीतर रूहानी रास प्रकट हो गया। वह अलौकिक दौलत से मालामाल हो गया। शाह इनायत ने एक लम्हे से भी कम देरी मे उसकी गैबी आँखें अर्थात दिव्य दृष्टि खोल दी। बुल्लेशाह के नैन एक बार फिर जल से भर आए उनसे आसुओं की धाराए बह निकली परंतु अब ये आसूँ वियोग मे नही झर रहे थे तड़प या विरह के वेदना को संजोए हुए नहीं थे, इनमे तो मिलन की सुनहली चमक थी, परमानंद का मौन इजहार था, जिस अपार खुशी को वाणी व्यक्त नही कर सकती थी ये बिन बोले कह रहे थे। बुल्लेशाह की इन सजग आँखों मे झांककर इनायत शाह हँसे और बोले “अब?” “अब क्या? कुछ नहीं साईं, अब और कुछ नहीं सब मिल गया। निराकार भी मिल गया और साकार भी मिल गया, निराकार को दिखा देने वाले आप मेरे साकार खुदा है।” इतना कहकर बुल्लेशाह इनायत के चरणों से लिपट गया। इनायत शाह ने कहा, “बुल्ले जो रुहानी ज्ञान आज तुमने पाया है वह सबसे सर्वोत्तम है, सब इल्मो का सुल्तान है। दोनों जहाँ मे इससे उमदा कुछ नहीं। परंतु, होशियार ध्यान रहे अभी सफर का केवल आगाज़ हुआ है, नुरे इलाही का दीद भर हुआ है उसमे टीकना अभी बाकी है। इसमें एकमिक होना शेष है, मंजिल अभी बहुत दुर है। उसे पाने के लिए तुम्हे ब्रह्म ज्ञान की डगर पर चलना होगा पुरे हौसले के साथ और विश्वास रखकर बढ़ना होगा।”आजतक बुल्लेशाह ने सिर्फ ग्रंथो मे पढा था कि गुरु अनंत कृपा के दाता होते है उनकी महिमा बेहिसाब होती है करुणा अपरंपार होती है वे शिष्य को जिलाते हैं एक नया रुहानी जीवन बख्शते है, पालते हैं, कदम कदम पर संभालते है और अंततः मंजिल उसके कदमों तले ला बीछाते हैं, परंतु आज ग्रथों मे दर्ज ये बातें उसके आत्म अनुभव बन रहे थे ।इनायत शाह ने बुल्लेशाह को विविध प्रकार के उपदेश दिए ,सेवा सुमिरन, समर्पण के अध्यायो पर भी उन्होंने रौशनी डाली। बुल्लेशाह एक एक हिदायत को धारण कर रहे थे,उनके ह्रदय से एक ही अरदास उठ रही थी कि, *जानता हुँ कि काबिल नही हुँ मैं, परंतु देना हौसला कि काबिल बन सकु।* *इन राहो पर चलना है बड़ा मुश्किल, पर दिना जज़्बा की हुक्म की तालिम कर सकूं।*आखिर मे इनायत बोले “अच्छा बुल्ले सांझ होने को है अब तुम घर लौट जाओ…।” “लौट जाऊं?पर कहाँ,क्यों ? साईं… जन्नत से भला कोई पीठ करता है क्या ? जिस मुल्क मे साक्षात रब मिला उसे कैसे छोड़ जाउ.. मेरे साईं मेरे मौला मै लौट जाने के लिए यहाँ नही आया हूँ, सदा सदा के लिए आपका बन जाने आया हूँ, आपको अपना बनाने आया हुँ तन मन से अपने सर्वस्व से आपका हो जाने आया हूँ कि,*अब तुझी मे समाने को जी चाहता है,**तुझमें मिल जाने को जी चाहता है।**ये हकीकत है कि तू आफताब है गगन का,* *मेरा बस एक किरण बन जाने को जी चाहता है।* *अब तो आपके पाक कदम ही मेरा ठीकाना है..,**आपका आश्रम ही मेरा आशियाना है।*सच कहता हूँ साईं… ये जो आपकी दहलीज है, न इससे अब बुल्ले का जनाजा ही निकलेगा, जीते जी तो यह दर छुटने वाला नही।”इनायत शाह भी ये जानते थे परंतु फिर भी ठीठोली करते हुए बोले “परंतु बुल्ल्या ! तू तो ठहरा ऊंची सय्यत जाती का और हम है एक साधारण से अराई जाती हमारे पास न हवेली के शाही ठाटबाट है न लजीज पकवान यहां तो सोने को सख्त जमीन है और खाने को रुखा सुखा, सोच लो क्या तुम मेरे आश्रम मे रह पाओगे? बुल्लेशाह भीगे गले से बोले कि “हे गरीब नवाब ! क्यूँ मुझ गरीब की हसीं उडा रहे हो आज मैं आपकी शहनशाही का जलवा देख चूका हूँ ,आपकी दरबार की शानोशौकत तो हवेली से कहीं आला है..यहाँ का तो जर्रा-जर्रा दौलत खाना है… ऐसी लज्जत है यहां कि रुह की भूख मिट जाती है ,जीगर की प्यास बुझ जाती है और इस रुहानी भूख प्यास के आगे जीस्मानी की क्या औकात है। कौन बेअक्ल उसकी कीमत डालेगा। दूसरा यह जमीन जो हरपल आपके चरणों को चूमती है यह सख्त नही साईं…सख्त नहीं… खूशनसीब है। इसमे लोटकर मै भी किस्मत का धनी हो जाऊंगा। हे खुदाबंध ! रहम करो.. मुझसे यह खुदाई दौलत मत छीनो.. पड़ा रहने दो मुझे अपने आश्रम के एक कोने मे। वाह रे शाहो के शाह सदगुरू.. तेरे नुरानी खजाने के सदके आज एक सय्यत खानदान का राजकुँवर भिखारी बना दामन फैला रहा है तेरी छत पर पड़ी कुटिया की पनाह चाह रहा है।” उसका अब एक ही भाव था कि *मिली है बांग रसूल दी, फुल खिडिया मेरा।* *सदा होया मैं हाजीरी हा हाजीर तेरा,**हरपल तेरी हाजरी ए हो सजदा मेरा।* अर्थात ए मेरे ओलिया ! तेरी रहमत के बाग ने मेरे दिल की बंजर जमीन पर फुल खीला दिए है अब तो हर पल हर लम्हा तेरे कदमों में हाजिर रहूं यही मेरी आरजू यही मेरा सजदा है। इनायत भी इस सबका भरपुर आनंद ले रहे थे अब उनके चहरे पर एक नटखटी मुस्कान फैल गई। शोख अंदाज में बोले, “और.. और वे तेरे अब्बू अम्मी क्या उनके मोहपाष को तोड़ पाएगा तू? “अब यह सूनकर तो बुल्लेशाह मचल उठा बालक की तरह ठीनकता हुआ बोला, “बस करो साईं क्यूँ दील्लगी करते हो भीतर से भर भर इश्क की प्याले पीला रहे हो और बाहर से अलग-अलग दुहाइयाँ देकर दूर करना चाहते हो। इन चंद लम्हो मे मैंने आपके पाक इश्क का इतना रस पी लीया है कि सांसारिक रिश्तों का मोह जहर लगने लगा है।” *पीया बस कर बहुती होई, तेरा इश्क़ मेरी दिल जोई।**मेरा तुझ बिन अवर न कोई, अम्मा बाबल बहन न भाई।* अम्मा बाबुल भाई बहन मुझे सब रीश्ते आपमें दिख रहे है साईं …बाहरी बधंन टूटने लगे है दिल की हर डोर आपके कदमो से जुड़ती जा रही है, *इस जहाँ को क्या दूँ तवज्जू, जो तू हुआ है हासिल।**ये जहाँ गमें जमी है, मै इसको भूल रहा हूँ।* *यू आपकी नजर मे मुझको पनाह मिली जो, मै आजतक जहाँ था उस घर को भुल रहा हूँ।*इनायत शाह राजी हो गए हाथ उठाकर उन्होंने बुल्लेशाह को अपनी रजामंदी दी इस तरह बुल्ले के ह्रदय में इनायत शाह का और इनायत के आश्रम मे बुल्ले का घर बन गया। परंतु बुल्लेशाह के परिवार वाले जिन्हें बुल्लेशाह बिना बताए ही निकल गये थे वे क्या सोच रहे होंगे।—————————————————आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा …
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बाबा बुल्ले शाह कथा प्रसंग (भाग – 2)
आज बुल्लेशाह सूर्य की पहली किरणों के साथ ही हवेली से निकल पड़े गुरु की तलाश में। उपर सूर्य तप रहा था और यहाँ बुल्लेशाह भी अतप्त न रहा। एक तो सीने की दाह और उपर से सूर्य का आक्रोश। भूख-प्यास से व्याकूल बुल्लेशाह एक इमली के पेड़ के नीचे बैठ गए। तन की तपन शांत तो हुई परन्तु मन, उसकी व्याकुलता ज्यों की त्यों रही। बुझती भी कैसे? वह तो इनायत शाह की नंदन छत्रछाया की खोज में था। लेकिन वे मिलेंगे कहाँ? बुल्लेशाह के सामने यही सबसे बड़ा सवाल खड़ा था।लाहौर कोई छोटा शहर तो ना था।कई मीलों तक पसरा हुआ था।अपार जनसमुदाय था वहाँ और फिर शाह इनायत का कोई अता-पता भी तो नहीं था। ऐसे में किधर जाएँ? क्या करें? कैसे ढूँढे उन्हें? *कैसे की पतझड़ में बसन्त की तलाश करूँ? इस अन्धी सुरंग की अंत की तलाश करूँ?* *जिधर देखूँ दीद रहे हैं बाणे ही बाणे,**इन बाणों के भीतर कैसे शाह की तलाश करूँ?* हे परवरदिगार! रहम कर! मेरे मौला, अपने बंदे पर करम कर! दुनिया तो तेरे आगे ऐशोआराम के लिए दामन फैलाती हैं, तू उन्हें वह भी बक्ष देता है। मुँह माँगी मुरादे देता है। मेंरे नयन कटोरे तो सिर्फ तेरे दीदार के प्यासे हैं। रूह तेरे लिए तड़प रही है। क्या मेरी यह दिली फ़रियाद पूरी नहीं होगी?कदम यूँही दरबदर भटकते रहेंगे? डगर-2 की ख़ाक छानते रहेंगे? क्या कभी इनके तले मन्ज़िल नहीं बिछेगी? मेरे मालिक! अब तो मेहरबानी कर! सद्गुरु कोई राह दिखा दे! मैं जानता हूँ, तेरे निर्गुण रूप का दीद करानेवाला तेरा ही कोई सगुण रूप होगा। उसके क़दमों की धूलि चूमने को मेरे ज़िगर में हजारों जिहदे तड़प रहे हैं। *अब ए हक़ीक़ते मुमतजर* *नजर आ लिबासे मज़ाज में,**कि हजारों सिजदे तड़प रहे हैं, मेरी जबिनी निज़ाज में।* बुल्लेशाह रोके हुए कदम फिर से गतिमान कर दिए। दीवानों की मानिन्द वह इनायत की राह टोहने लगा। खोज का यह सिलसिला एक या दो दिन नहीं कई दिनों तक चलते रहा। कड़ाके की धूप में बुल्लेशाह इधर-उधर सद्गुरु की खोज करते रहे। “भाई! इनायत शाह का आश्रम कहाँ है ,जानते हो?””नहीं।””इनायत शाह का नाम सुना है?””नहीं।”पूछते-2 बुल्लेशाह को कई दिन बीत गए। लेकिन आखिरकार राह मिल ही गई। प्यासे को रूहानी कुएँ का पता लग ही गया। बुल्लेशाह पूछते-2 शाह इनायत की पाक दहलीज़ तक पहुँच गए। वह नहीं जानता था कि सामने बिछी यह दहलीज़ उसके लिए नवजीवन का आह्वाहन है। इससे गुज़रकर उसका जीवन आमूल बदल जायेगा। इनायत शाह का आश्रम उसके जीवनभर का आशियाना हो जाएगा। वह सोच भी नहीं सकता था कि आज जिस इनायत शाह को वह ईश्वरप्राप्ति का माध्यम बनाने आया है आनेवाले समय में वे ही सद्गुरु उसकी मंज़िल बन जायेंगे। साधन ही साध्य हो जायेगा। वह इनायत की क़दमों में बसेगा और इनायत उसकी श्वासों में। इनायत के रूप में उसे केवल मुर्शिद नहीं मिलेंगे, सर्वस्व मिलेगा। मुँदी आँखो को, निराकार अपलक आँखों को साकार, प्राणों को आधार बिन्दू, मस्तक को पाक क़दमों का ठौर, रगो में दौड़ते लहू के कतरे-2 को एक लक्ष्य, उसका कोई अपना वजूद नहीं रहेगा। वह सिर्फ एक शिष्य होगा। उसकी शिष्यत्व की यही पहचान होगी। बुल्लेशाह दहलीज पार कर आश्रम में प्रवेश कर गया। आश्रम लगभग 1200 गज का फैला हुआ था। बीचोंबीच एक छाँवदार बरगद का वृक्ष खड़ा था। उसके तने के चारों ओर एक पक्का चबूतरा बना था। दाई तरफ एक से एक सटी हुई 10-11 कुटिरें थी। आखिरी कुटीर से 30 का कोन बनाता हुआ एक कुंड था पानी से लबालब भरा हुआ।बरगद से बाँई ओर कुछ गज में बड़े सलीक़े से बाग़वानी की गई थी। अलग-2 तरह के वृक्ष झूम रहे थे। नीचे क्यारियों में तरकारिओ और साग-पात की पौध लगी थी।बुल्लेशाह पहले पहल कुटिर की ओर बढ़ा। ठिठके कदमों से उसका दिल जोर-2 से धड़क रहा था। इतना कि वह अपनी धड़कनों को साफ सुन सकता था। आज सद्गुरु से मिलन होगा। यह खयाल लिए बुल्लेशाह आगे बढ़ा। उसने एक-2 कुटिर में झाँककर देखा परन्तु कहीं कोई न मिला। नितान्त नीरवता, और सन्नाटा था वहाँ। एक बार फिर निराशा ने उसे आ घेरा। वह भारी मन से निकास द्वार की ओर मुड़ गया। लेकिन तभी एक युवक ने अन्दर प्रवेश किया। बुल्लेशाह ने उससे झट पूछा, “हजरत इनायत कहाँ मिलेंगे?”युवक ने बगीचे की ओर संकेत कर दिया। बुल्लेशाह ने ग़ौर से इंगित दिशा में देखा। पौधों के झुंड बीच एक मानवीय आकृति हिलती-डुलती दिखाई दी। वह बेसब्र कदमों से उस ओर बढ़ा।पास पहुँचने पर पाया कि, वे प्याज़ की पनिरी बो रहे थे। सफेद बाल, कमजोर शरीर, त्वचा पर झुर्रियाँ, अंग-2 पर वृद्धावस्था के निशान! उन्हें देखते ही बुल्लेशाह के अन्दर संशयों का तूफ़ान खड़ा हो गया। उसने अपने मानस पटल पर गुरु का जो दिव्य चित्र खिंचा था, इनायत उससे बिल्कुल अलग थे।उसने तो सोचा था कि ,”खुदाए नूर को दिखानेवाला ख़ुद भी नूरानी व्यक्तित्व होगा! परन्तु यह क्या? अधेड़ उम्र, कीचड़ से लथपथ काया, पसीने से तरबतर बदन। “बुल्लेशाह के भीतर अहम की नागफ़नी नाचने लगी। देखते ही देखते उसने अनेकों सवाल फुफकार डाले। इस दीन-हीन में क्या रूहानियत होगी? प्याज़ की पनिरी बोनेवाला यह वृद्ध क्या मुझे नूरे ईलाही दिखायेगा? क्या इस वृद्ध के पास शास्त्रों का ज्ञान होगा?”वाह रे इन्सानी फ़ितरत! गुरुसत्ता को भी बाहरी आवरण के आधार पर परखने चली है ! नहीं जानती कि,गुरु तो ईश्वरत्व का विराट पुंज होते हैं। देहातीत सत्ता है। किसी वेष-भेष का गुलाम नहीं। किसी विशेष कर्म में बँधा हुआ नहीं। ऐसा नहीं कि उसका रूप मनभावन ही हो। वह उँची जाति और संपन्न कुल से संबंध रखता हो। उसकी पहचान तो उनकी ज्ञान निष्ठा होती है। उनकी नूरानी दृष्टी होती है। फिर भी मनुष्य उन्हें कैसे पहचाने?बुल्लेशाह एक आलिम फाजिल, शास्त्रवेत्ता ,महान ग्रंथक्य, रिद्धि-सिद्धियों का स्वामी इस सूक्ष्म सूत्र से अंजान था। इसलिए फटे हाली के बाने के अन्दर छिपे एक शहनशाह को पहचान नहीं पाया। अहम में सराबोर होकर लगा अपनी करामाती शक्तियों का प्रदर्शन करने। सामने एक आम का पेड़ था। बुल्लेशाह ने बिस्मिल्लाह कहा और आमों से लदी टहनियों पर एक नज़र डाली। दृष्टि पड़ने की देर थी कि 3-4 आम डालियों का हाथ छोड़कर धड़धड़ उसकी झोली में आ गिरे। शाह इनायत तुरन्त मूड़े और अल्हड़ शेख अन्दाजी से बोले, *सुन तू मर्दा रहिया, अम्ब चुराया तुद असाडा।* *देदे से सानो भाईयाँ।* “ओ भाई! तूने हमारे आम क्यों चुराये? इसी पल वापस कर दे।” बुल्लेशाह भी तुनककर बोले, “न में तुम्हारे पेड़ों पर चढ़ा और न ही आमों पर कंकड-पत्थर मारे। यह तो हवा के एक मस्त झोंके की शरारत है। नाहक़ मुझपर क्यों बिगड़ते हो?””वाह! चोरी भी और चतुराई भी!”इनायत बोले , *बिस्मिल्ला पड़ अम्ब उतारियाँ कित्ती है तू चोरी* मैं जानता हूँ कि, बिस्मिल्लाह कहकर तूने ही मेरे आमों की चोरी की है। बात करते-2 शाह इनायत बुल्लेशाह को भाँप रहे थे। बातों ही बातों में बुल्लेशाह पर अपनी नूरानी दृष्टी डाल दी। अपनी नजरें पाक से ऐसे तीखे बाण छोड़े जो सीधे बुल्ले के अंतःकरण में जा लगे। क्या कशिश थी इन निगाहों में? सद्गुरु की निगाहों में क्या जादू होता है यह एक शिष्य ही जानता है। यह वही जादूई दृष्टि थी जो जब निजामुद्दीन औलिया ने अमीर ख़ुसरो पर घुमाई थी। तो वह सदा-2 के लिए उनका मुरीद हो गया था। मस्ती में छका हुआ पगले की नाई थिरक-2 कर गा उठा था- *छाप-तिलक सब छिनी रे मोसे नैना मिलाइके*यह वही मोहिनी नज़र थी। जो जब कान्हा ने गोपीयों पर डाली थी। तो वे भी सुध-बुध खोकर घायल विरहिणी बन उठी थी।आज बुल्लेशाह भी ठगा सा रह गया। शाह इनायत की एक ही नज़र ने उसे कायल कर दिया। वह बेमोल बिकनेपर मजबूर हो गया। उसका रोम-2 पुलककर कह उठा, बुल्लेशाह भी जन लया, है बरकत ईह विच होरी ये कोई साधारण बाबा नहीं पूर्ण पीर हैं। इसके नयन प्याले ,ओह! कितने आला है! ईलाही नूर के झरोखे बुल्लेशाह के अहम पर करारी चोट लगी। इठलाती नागफ़नी झुक गई। गर्दन की ऐठन ढिली पड़ गई। सिर भी तना न रह सका और वह उसी पल सद्गुरु के चरणों मे लोट गया। उन्हीे कीचड़ से सने कदमो में दण्डवत प्रणाम करते हुए आत्मा की गहनुमत गहराई से बोला, “महाराज मैं बुल्लेशाह हूँ। रब को पाने आया हूँ। मेरी रूह रो-रोकर थक चुकी है। अब इस ग़रीब को यह दात बक्ष दो। मेरे मौला, नजरें इनायत कर दो!”इनायत शाह बिना कुछ बोले मूड़े और क्यारियों से बाहर निकल आये। बरगद की इर्दगिर्द बनी मुँड़ेर पर जा बैठे। बुल्लेशाह भी सम्मोहित सा हुआ, उनके पीछे-2 चला आया। उनके चरणो में नीचे कंकड़ीली ज़मीन पर ही बैठ गया। इसपल उसे न तो अपने सय्यद होने का मान था, न रिद्धि-सिद्धियों का ध्यान था। न ही विद्वत शास्त्रवेत्ता होने का भान था। भान था तो बस इस बात का कि वह बेहद प्यासा है और सामने सद्गुरु के रूप में अमृत का सोता है। वह चातक है और सामने अथाह जल बिन्दुए लिये स्वाती नक्षत्र चमक रहा है। रूह ने दावे से कहा कि, उसकी जन्म-जन्मांतरों पिहू-2 बस इन्हीं चरणों में थमेगी। बुल्लेशाह गुरु के सामने बैठ प्रार्थना करने लगे कि,अवगुण वेख न भूल मियाँ राँझा,याद करि उस कारेनु ,दिल लोचे तख्त हजारेनु”मेरे औलिया ! मेरे हिमाक़तों और अवगुणों को बिसार दो, याद करो अपने उस अज़्ल के कार्य अर्थात आदिकाल के वायदे को। उसे निभा दो । मेरी रूह मुद्दत से परवरदिगार के लिए तड़प रही है।अब उसका नूरानी दीद करा दो।”यहां बुल्लेशाह किस वायदे की ओर संकेत कर रहा है ? सूफ़ी संत, सूफ़ी मत के अनुसार जब ख़ुदा ने सृष्टि की रचना की तो जीवात्मा उससे अलग होकर धरा पर आना नहीं चाहती थी। ऐसे में सृष्टिकर्ता ने उनसे वादा किया तुम चलो, मैं भी तुम्हारे पीछे-2 साकार रूप धारण कर ज़मीन पर उतरूँगा। पीर, औलिया, मुर्शिद, सद्गुरु बनकर तुम्हें वापस लीवा ले आऊँगा। अपने में पुनः समा लूँगा। इसी कलाम की आज बुल्लेशाह हजरत इनायत को याद करा रहे हैं। ढेरों युक्तियाँ देकर निहोर कर रहा है और हर निहोर, हर तर्क ,हर युक्ती में फ़क़त एक ही पिर है, “साँई मैं रबनु पावना है। मुझे उससे मिला दे ।”अबतक इनायत शाह मौन थे। बुल्लेशाह बोल रहा था। वे सुन रहे थे। वैसे भी वह कौनसी घड़ी या पल था जब उन्होंने उसकी अनकही पिर को नहीं सुना था।उसकी निःशब्द वेदना को नहीं समझा था। वे तो उसकी शब्दहीन गुहार से तबतक तब भी परिचित थे। जब वह उन्हें जानता तक नहीं था। उन्होंने उसकी हर सिसकियों भरी धड़कनों को गिना था। वे उसकी ह्रदय में बैठी ईश्वर जिज्ञासा की पूरी ख़बर रखते थे।आज फ़र्क बस इतना था कि, बुल्लेशाह अपनी अन्दरूनी दर्द को शब्दों का रूप देकर उनके सामने रख रहा था। जब बुल्लेशाह कह चुका, तब शाह इनायत मुस्कुराये । क्यारिओ की तरफ़ मुँह किया और बोले ,”बुल्ल्या, रबदा की पाना? ऐधरो पुटना तै उधर लाना?”अर्थात ,”बुल्लेशाह! रबका भी क्या पाना? इधर से उखाड़ कर उधर रोपना। “बाग़वानी की शैली में एक सादी-सी पंक्ति थी यह परन्तु एक गहरे सूत्र को सँजोये हुए रूहानियत के सार को लिए हुए । इसके जरिए इनायत ने रहस्योद्घाटन कर दिया कि, “बुल्ले! अगर ईश्वर को पाना है तो अपने मन को बाहर से समेटकर अन्दर रोप दे। अन्तर्मुखी हो जा।मायारूप इस बाहरी संसार में ईश्वर को चाहे तो कहीं भी और किसी भी तरह ढूँढ ले, तेरी खोज फल नहीं देगी। भीतर जा अन्दर झाँक ! नुराहे ईलाही वहीं मिलेगा!”शाह इनायत ने जब यह रूहानी उपदेश दिया बुल्लेशाह तुरन्त उसके मायने को समझ गया। उनके बारीक़ इशारे और मार्गदर्शन को उसीपल भाँप गया।ऐसा भी नहीं था कि यह आध्यात्मिक सूत्र उसके लिए नया था। वह शास्त्र अध्ययन से भलीभाँति जानता था कि खुदा मिलेगा तो भीतर से ही। परन्तु भीतर जाएँ कैसे? अन्तर्मुखी हुये किस तरह ? यही तो असली सवाल था?—————————————-आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जाएगा….
बाबा बुल्ले शाह कथा प्रसंग (भाग -1)
गुरूभक्तियोग के अभ्यास से अमरत्व, सर्वोत्तम शान्ति और शाश्वत आनन्द प्राप्त होता है। गुरु के प्रति भक्ति अखूट और स्थायी होनी चाहिए।गुरुभक्तों की शृंखला में एक नाम साँई बुल्लेशाह का भी आता है।जिसे लोग बड़े ही आदर से याद करते हैं। बड़े-2 संत-महापुरुष बुल्लेशाह की गुरुभक्ति की तारीफ करते हैं।बुल्लेशाह की महानता किसी मत-पंथ, मजहब, दौलत या जाति से नहीं थी। उनकी महानता, उनकी पहचान उनकी गुरुभक्ति से होती है। उनकी पहचान उनके गुरु के प्रति उनके समर्पण से होती है।पंडोके नाम के छोटे से गाँव में मौलवी शाह मोहम्मद के घर एक बालक का जन्म हुआ। नाम रखा गया अब्दुल्ला शाह। प्यार से लोग उसे बुल्लेशाह बुलाते थे। कोई उसे बुल्ला भी कहते।बालक को अपार ममता मिली परिवार के द्वारा। सुसंस्कारों की पर्याप्त खाद मिली। धार्मिक विचारों की किरणों की कभी कमी ना रही। परन्तु उस नन्हे फूल को सबसे ज्यादा प्रभावित करनेवाले थे, उनके पिता मोहम्मद शाह।शाहजी धार्मिक प्रवृत्तिवाले नेक दिल इन्सान थे। वे मौलवी तो थे ही और उनका गाँव में बड़ा रूतबा था। शाह का परिवार सय्यद जाति का था। जो उस समय मुस्लिम समाज में रईसी के लिए जानी जाती थी और इस जाति को बड़ा ही उच्च दर्जा दिया गया था।बालक बुल्ला को उच्च कोटि की शिक्षा का इंतजाम करवाया गया।जिसमें इस्लामिक शिक्षा प्रधान थी। घर में आध्यात्मिक संस्कारों के कारण बालक का रूझान धर्मग्रंथों की ओर अधिक रहता।इस कारण से उसने इस्लामी और सूफी धर्मग्रंथों का भी गहन और विस्तृत अध्ययन किया।इस अध्ययन से उसके अन्दर जिज्ञासा का अंकुर फूट पड़ा।एक-2 अक्षर हृदयद्वार पर दस्तक देने लगे। बुल्लेशाह ग्रंथों पर नजरें गड़ाये, विचार तरंगों पर झूलता रहता कि – “क्या हक़ीकत में खुदा है? यदि हाँ, तो कहाँ है?” सभी कामिल फकीर तो यही बयाँ करते हैं कि ,”अंदर रूहानी नूर झर रहा है!” परन्तु आज तलक उसका दीद क्यों नही हुआ? क्या करूँ? कैसे ईलाही रौशनी का दीदार करूँ?छोटी उमर में बुल्लेशाह की ईश्वर पिपासा बढ़ती ही जा रही थी। मन वैरागी सा हो गया। उसने ढेर सारे निवली कर्मों का सहारा लिया। हठयोग की क्रियाओं को भी आजमाकर देखा। इससे उसे चमत्कारिक रिद्धि-सिद्धियाँ हासिल हो गयी। दूर-2 तक ख्याती की खुशबू भी फैल गई। लोगों ने उसे *’शेखे-हरदो-आलम’* अर्थात दोनो लोकों का शेख जैसी सन्मान-सूचक उपाधियाँ भी दे डाली। परन्तु उसके भीतर का ईश्वर उसे नहीं प्राप्त हुआ। ईश्वर का साक्षात्कार नहीं हुआ। *आ की तुझ बिन इस तरह अकुलाता हूँ मैं।* *जैसे हर क्षय में किसी क्षय की कमी पाता हूँ मैं।।*हुबहू यही दशा बुल्लेशाह की थी। वैसे तो उसके चहुँ ओर बहुरंगी माया का पसारा था। नवाबी महल था। हर तरफ यश-कीर्ति के चमचमाते मोती बिखरे हुए थे।सय्यदी शानों-शौकत का रस बरस रहा था हर क्षय खुबसूरती से भरी थी परन्तु इनके बीच भी बुल्लेशाह का जी अकुलाता था।उसे खुदाई नूर की कमी जो खल रही थी। बुल्लेशाह की व्याकूल आत्मा उससे बार-2 यही कहती कि – “उस नूर के बिना हर क्षय कितनी बदरंग, कितनी बेमानी, कितनी बेरस है! सबकुछ कितना बदसूरत और अधूरा है!”सच में मोहब्बत के लिए कुछ खास दिल मख़सूस होते हैं। यह वो नगमा है जो हर साज पर गाया नहीं जाता। बुल्लेशाह के पास एक ऐसा ही खास दिल था। एक ऐसा साज था जिसे प्रभु ने अपने मोहब्बत का नगमा गाने के लिए चुन लिया था। यह उसी जादूगर का असाधारण कौतुक था, क्योंकि मायावी नगरी में रहते हुए मायापति की याद आना कोई साधारण बात नहीं!एक दिन बुल्लेशाह अपनी शाहाना हवेली में धार्मिक पुस्तकें खोलकर आसमाँ की ओर टिकटिकी लगाकर देखता हुआ उदास बैठा था। इतने में बुल्लेशाह का एक घनिष्ठ मित्र उससे मिलने आया। बचपन से जवानी तक का काफी सफर दोनों ने साथ-2 तय किया था।मित्र को देखते ही बुल्लेशाह में खुशी की लहर उमड़ गई। गंभीर चेहरे पर प्रसन्नता की रेखाएँ खींच गईं। उसने बाँह फैलाकर मित्र को गले लगाया। परन्तु मित्र बुल्लेशाह को बख़ूबी समझता था। आँखो में झाँककर उसका मन पढ़ सकता था। इसलिए बुल्लेशाह की बुझी आँखो को देखकर उसे भाँपते देर न लगी कि, वह किसी कश्मकश में उलझा हुआ है। किसी मुद्दे को लेकर अकुल-व्याकूल है। फिर यह मुद्दा भी तो उससे छिपा हुआ न था – वह भलीभाँति जानता था कि इन दिनों बुल्लेशाह में ईश्वर दर्शन की इच्छा जोर मार रही है।वह ग्रन्थों के अध्ययन में डूबा हुआ है।उसने पूछा कि,”मियाँ क्या आलम है? आजकल किस ग्रंथ पर नजरें करम हैं?”बुल्लेशाह ने मायूस स्वर में कहा कि,”अरे यार! क्या ग्रंथ और क्या शास्त्र! अब तो इनसे भी मन उचट सा गया है। पढ़ने में लुफ्त ही नहीं आता। ऐसा लगता है, मानो ज़हन में थोते उपदेश उड़ेले जा रहे हैं। रूह की प्यास तो ज्योंकि त्यों बनी हुई है। बस कोरे इल्म के ऊँचे-2 ढेर लग रहे हैं। कौनसी ऐसी पोथी, कृती या ग्रंथ है जिसे मैंने नहीं पढ़ा? सबको घोटकर पानी की तरह पी गया, लेकिन भीतर तो उजियारा हुआ ही नहीं।ग्रंथ जिस खुदाए नूर की बात करते हैं, उसकी एक झलक तक मुझे नहीं मिली अब भी जिगर में वही अमावस्या है, वही काली बदली छाईं है। सूफ़ी दरवेशों ने लिखा है कि,”एक इन्सान चाहे 70 वर्षों तक ग्रंथों के लफ़्जों से सिर टकराता रहे, उसके अंदर ज्योति प्रगट नहीं हो सकती, वह हक़ीकत का दर्शन नहीं पा सकता।मित्र ने कहा ,” बात तो सही है! परन्तु बुल्ले! तुम क्यों हवेली की दरों-दीवारों में कैद बैठे हो? कहीं तीर्थाटन पर जाओ? कही कुछ खोज करो?”ये सब भी करके देख चुका हूँ।तुम्हें क्या लगता है ? मैंने परवरदिगार को सिर्फ अपनी ख्याली दुनिया मे खोजा है? कौनसा वह रूहानी मुकाम अर्थात धार्मिक स्थल है, जिसकी दहलीज़ की धूल मैंने नहीं चूमी? कौनसा नामी मकबरा है, जिसकी छुवन से मेरा माथा महरूम रहा हो? हर नेम-धर्म का सहारा लिया, तहे दिल से पाँचो वक़्त नमाजें अदा करके देख ली परन्तु सच कहूँ, अब मैं थक गया हूँ! हताश, निराश हो चुका हूँ!मित्र ने चिंता जताते हुए कहा, “लेकिन बुल्ले! ऐसे कबतक चलेगा? कबतक तू यूँ सीने में आग और आँखों में बेइन्तहाँ प्यास लिए तड़पेगा? कहीं कोई तो तरीका होगा इन्हें बुझाने का?”बुल्लेशाह कुछ सोचते हुए बोले कि,”ग्रन्थों में एक बात तो है!”मित्र ने कहा,”क्या बात है?”जगह-2 कामिल मुर्शिद अर्थात सद्गुरु का ज़िक्र किया गया है।जैसे अभी हाल ही में मैं हजरत सुल्तान बाहू का एक फ़िकरा पढ़ रहा था। उसमें उन्होंने फरमाया है कि,”एक कामिल मुर्शिद अर्थात सद्गुरू अंतर में प्रियतम से मिलाप करने की वह तरकीब देते हैं, जिससे अन्दर ही खुदा के नाम का पौधा उग जाता है, अन्दर ही खुदा का दीदार हो जाता है और किसी प्रकार की बाहरी क्रिया करने की कोई जरूरत ही नहीं रह जाती। *जददा मुर्शद फ़ड़िया बाहू* *छुट्टी अब अज़ाबे हूँ*हुजुर तुलसी साहब की एक किताब में भी एक प्रसंग पढ़ने को मिला कि,”एक बार एक मुसलमान दरवेश मेरी ही तरह खुदा की खोज में दर-2 की खाक छान रहा था। तुलसी साहब की उसपर नजरें इनायत पड़ गईं। उसे दो शब्द सुना दिए। कहते हैं कि उसी हिदायत पर, उनके दो शब्दों पर चलकर दरवेश ला मुक़ाम अर्थात मंजिल पा गया।” ऐसी ग्रन्थों में सद्गुरु की महिमा है, मैने पढ़ी है। मित्र ने कहा कि, “वह हिदायत क्या थी? जो तुलसी साहेब ने दी थी?”बुल्लेशाह कहते हैं कि, *सुने तकि न जाइयों जिन हार देखना* *अपने में आप जलवाएँ दिलदार देखना*उन्होंने समझाया कि,”ए तकि दिलदार का जलवा देखने के लिए कहीं बाहर न जाना, अपने ही अन्दर उसका जलवा देख।”इसी रौ में आगे गाया उन्होंने कि, *तुलसी बिना करम किसी मुर्शिद रसिदा के,* *राहे निजाद दूर है उस पार देखना।*मतलब कि,”किसी सद्गुरु की मेहर के बिना अन्दर की इस रूहानी मुल्क में कदम नहीं रखा जा सकता, खुदा का जलवा देख पाना नामुमकीन है, नामुमकीन है।।”फिर शम्स तबरेज ने भी तो यही कहा, अंदाज चाहे अलग था परन्तु बात तो यही थी ना कि, *औलिया चष्मे ग़ैब बकु शायिन्द*अर्थात ,”एक औलिया ग़ैबी आँख अर्थात दिव्य दृष्टि खोल देता है।जिससे अपने अन्दर ही माशूक़ के नजारे दिखाई देते हैं।”एक या दो नहीं, सभी अव्वल फ़कीरो का यही कलाम हैं, यही कहना है कि,”सद्गुरु बिना उस ईश्वर का दीद नहीं हो सकता।”मित्र ने कहा, “मियाँ! ये सब तो गुज़रे ज़माने के फकीरों की कहानियाँ हैं। हमारे पूर्वजों के ज़माने में हुआ करते होंगे ऐसे पीर, औलिया, सद्गुरु जो ईश्वर का दीदार करा सकते हो। आजकल तो नुमाइशी ढोंगियों का दौर है। कहाँ होंगे ऐसे कामिल मुर्शिद? ऐसे पहुँचे हुए सद्गुरु?”बुल्लेशाह बोले यही शुबहा अर्थात संशय मेरे ज़हन में भी खटका था, परन्तु हाल ही में कुरान की एक हिदायत पढ़ने को मिली। उसमें कहा है कि, “उस ख़ालिक द्वारा हर समय में पैगम्बर भेजे जाते हैं।अपनी मति को छोड़कर खुदा के बनाए कानून के मुताबिक उसकी खोज करो। धरती कभी सद्गुरु से रिक्त नहीं होती। वह ईश्वर सदैव इस धरती पर सद्गुरु के रूप में मौजूद रहते हैं।”मित्र ने कहा,”लेकिन ज़नाब! आप इतनी बड़ी दुनिया में उनकी खोज कहाँ करेंगे? यह तो बिल्कुल ऐसे है, जैसे सागर के किनारे पर बिखरी बेशुमार ख़ोकि सीपियों के बीच एक मोती ढूँढना!”बुल्लेशाह बोले,”बात तो सही है, परन्तु मैने लाहौर के हजरत इनायत शाह का नाम बहुत सुना है। कहते हैं कि लोग दूर-2 से उनकी शागिर्दी पाने आते हैं। सोच रहा हूँ कि उनके अस्ताने अर्थात आश्रम पर भी एक बार हो ही आऊँ। जहाँ इतने दरवाज़े खटखटायें हैं, एक बार इनका भी खटकाकर देख लूँ। हो सकता है मेरे मर्ज की दवा वहाँ मिल जाए।”हम आगे देखेंगे कि किस प्रकार महलों के नवाब बुल्लेशाह सद्गुरु को ढूँढने निकल पड़ते हैं। उनको किन- 2 कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है और उनको कैसे सद्गुरु प्राप्त होते हैं।—————————————————आगे की कहानी कल के पोस्ट में दिया जायेगा …