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इसका नाम है आत्मसाक्षात्कार !


जिज्ञासु साधकों को अपने परम लक्ष्य ‘आत्मसाक्षात्कार’ सुस्पष्ट तात्पर्य-अर्थ जानने की बड़ी जिज्ञासा रहती है, जिसकी पूर्ति कर रहे हैं करुणासिंधु ब्रह्मवेत्ता पूज्य बापू जीः

अपने-आपका बोध हो जाय, अपने-आपका पता चल जाय इसे बोलते हैं आत्मसाक्षात्कार । यह साक्षात्कार किसी अन्य का नहीं वरन् अपना ही साक्षात्कार है । आत्मसाक्षात्कार का तात्पर्य क्या है ? भगवान दत्तात्रेय कहते हैं कि नाम, रूप और रंग जहाँ नहीं पहुँचते ऐसे परब्रह्म में जिन्होंने विश्रान्ति पायी है, वे जीते जी मुक्त हैं ।

जिसकी सत्ता से ये जीव, जगत, ईश्वर दिखते हैं, उस सत्ता को ‘मैं’ रूप से ज्यों का त्यों अनुभव करना-इसका नाम है आत्मसाक्षात्कार । जीव की हस्ती, जगत की हस्ती और ईश्वर की हस्ती जिसके आधार से दिखथी है और टिकती नहीं है, बदलती रहती है फिर भी जो अबदल आत्मा है उसे ज्यों का त्यों जानना, यही है आत्मसाक्षात्कार । जो तुमसे अलग नहीं है उससे मिले रहो और जो तुमसे अलग हैं – आने जाने वाले विकार, उनसे नहीं मिलो इसी का नाम है आत्मसाक्षात्कार ! लो !

अपना-आपा ऐसी ही चीज है जो बिना मेहनत के जानने में आता है और एक बार समझ में आ जाता है तो फिर कभी अज्ञान नहीं होता । अपने स्वरूप का, अपने आत्मा का ऐसा ज्ञान हो जाना, पता चल जाना इसको बोलते हैं आत्मसाक्षात्कार । यह बड़े में बड़ी उपलब्धि है । इसके अतिरिक्त जितनी भी उपलब्धियाँ प्राप्त हों, फइर चाहे सब देवी-देवता ही खुश क्यों  न जायें, तब भी यात्रा अधूरी ही रहेगी । संत नरसिंह मेहता ने ठीक ही कहाः

ज्यां लगी आत्मतत्त्व चीन्यो नहीं, 

त्यां लगी साधना सर्व झूठी ।

जब तक आत्मदेव का अनुभव नहीं किया, ब्रह्मस्वरूप को नहीं जाना तब तक साधना अधूरी है ।

देखने के विषय अनेक लेकिन देखने वाला एक, सुनने के विषय अनेक – सुनने वाला एक, चखने के  विषय अनेक – चखने वाला एक, मन के संकल्प-विकल्प अनेक किंतु मन का द्रष्टा एक, बुद्धि के निर्णय अनेक लेकिन उसका अधिष्ठान एक ! उस एक को जब ‘मैं’ रूप में जान लिया, अनंत ब्रह्मांडों में व्यापक रूप में जिस समय जान लिया वे घड़ियाँ सुहावनी होती हैं, मंगलकारी होती हैं । वे ही आत्मसाक्षात्कार की घड़ियाँ हैं ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2020, पृष्ठ संख्या 2 अंक 326

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अरे पकड़ो-पकड़ो ! चोर जा रहा है….


एक बार महमूदपुर गाँव (हरियाणा) में एक मंडली का कथा-कीर्तन हो रहा था । स्वामी नितानंद के कानों में भी भक्तिरस से सिक्त वह मधुर ध्वनि पड़ी तो वे भी वहाँ पहुँच गये । मंडली के प्रधान ने उन्हें सितार लेकर कुछ गाने को कहा । प्रतिदिन नितानंद जी के अलबेले व्यवहार को देखने वाले गाँव वालों ने कहाः “इन्हें सितार मत दीजिये, कहीं तोड़ न दें ।” नितानंद ने सितार हाथ में लिया और संगीत के साथ आध्यात्मिक मस्ती में यह भजन उनके होठों से निर्झर की तरह बहने लगाः

सोई जन मस्ताना-मस्ताना, जिन पाया पद निरवाना ।….

अंतर की गहराई से निकले उनके बोल आत्मचैतन्य की मिठास बिखेर रहे थे । भजन पूरा कर उन्होंने सितार दिया और चल दिये ।

मंडली के मुख्य महंत बहुत प्रभावित हुए । दूसरे दिन वे नितानंद जी के पास गये और उस भजन का तात्पर्य पूछकर लिखने लगे । उन्होंने नितानंद से ईश्वर अनुभूति का मार्ग पूछा । संत कुछ कहते उससे पहले महंत की दृष्टि उस ओर आ रहे ग्वालों पर पड़ी । महंत जी तुरंत उठकर चलने लगे । स्वामी नितानंद जोर से हँसते हुए कहने लगेः “अरे पकड़ो-पकड़ो ! चोर जा रहा है ।”

लोगों ने कहाः “स्वामी जी ! ये तो महंत जी हैं, आप यह कैसी अजीब बात कह रहे हैं ?”

इन अलमस्त साधुपुरुष ने मुस्कराते हुए कहाः “महंत जी के मन में यह भाव आया कि ‘मैं एक महंत होकर एक अप्रतिष्ठित संत से निर्देश ले रहा हूँ ।’ और वे अपने इस अहंभाव को छुपाकर चोरों की भाँति यहाँ से चलते बने इसलिए मैंने ऐसा कहा ।”

लोगों ने महंत जी को शपथ दिलाकर उनके मन के भावों को सच-सच प्रकट करने की प्रार्थना की । महंत जी ने कहाः “नितानंद जी ने बिल्कुल सत्य बात कही है । भाइयो ! आज मुझे अनुभव हुआ कि पद-प्रतिष्ठा, धन, सत्ता – किसी भी प्रकार का अहंकार इतना धोखेबाज है कि अंतर्यामी परमात्मा ऐसे संतों के रूप में धरती पर आ के हमें अपनी ओर आकर्षित करके बुला भी लेता है लेकिन यह अहंकार हमें वहाँ से भी रीता ही रखकर भगा के ले जाता है ।”

नितानंद जी बोलेः “महंत ! मैं यही अहंकार परमात्मा में लीन करने की बात तुम्हें बताने वाला था किंतु तुच्छ अहं इसके पहले ही तुम्हें यहाँ से ले जा रहा था ।  परमात्मा में अपने व्यक्तित्व को, अहं को खो दिया तो मुझे निर्वाण पद का सुदृढ़ निश्चय अर्थात् ब्रह्म का ज्ञान हुआ । तुम भी ऐसा अभ्यास करो ।”

संत का अंतर्यामित्व एवं ऊँची अनुभूति देखकर वहाँ उपस्थित सभी लोग नतमस्तक हुए । उन्हें सीख भी मिली की परम सत्य को पाये हुए ऐसे संतों को अपनी मति से तौला नहीं जा सकता । अतः उनके बारे में कुछ मान्यता बनाने के बजाय उनके ज्ञान का लाभ उठाकर अपना जीवन धन्य करना चाहिए ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2020, पृष्ठ संख्या 7 अंक 326

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गौण और मुख्य अर्थ में सेवा क्या है ?


सांसारिक कर्तव्यपूर्ति मोह के आश्रित एवं उसी के द्वारा प्रेरित होने से गौण कर्तव्यपूर्ति कही जा सकती है, मुख्य कर्तव्यपूर्ति नहीं । अतः वह गौण या स्थूल अर्थ में ‘सेवा’ कहलाती है, मुख्य अर्थ में नहीं । वेतन लेकर रास्ते पर झाड़ू लगाने  वाली महिला का वह कार्य नौकरी अथवा ‘डयूटी’ कहलाता है सेवा नहीं । घर में झाड़ू लगाने वाली माँ या बहन की वह कर्तव्यपूर्ति गौण अर्थ में सेवा कहलायेगी ।  परंतु शबरी भीलन द्वारा गुरु मतंग ऋषि के आश्रम परिसर की झाड़ू बुहारी वेतन की इच्छा या पारिवारिक मोह से प्रेरित न होने के कारण एवं ‘सत्’ की प्राप्ति के उद्देश्यवश मुख्य अर्थ में सेवा कहलायेगी और यही साधना-पूजा भी मानी जायेगी । यहाँ तीनों महिलाओं की क्रिया बाह्यरूप से एक ही दिखते हुए उद्देश्य एवं प्रेरक  बल अलग-अलग होने से अलग-अलग फल देती है ।

पहली महिला को केवल वेतन मिलता है, माता या बहन को पारिवारिक कर्तव्यपूर्ति का मानसिक संतोष और परिवार के सदस्यों का सहयोग मिलता है परंतु शबरी भीलन को अपने अंतरात्मा की तृप्ति-संतुष्टि, अपने उपास्य ईश्वर के साकार रूप के दर्शन व ईश्वरों के भी ईश्वर सच्चिदानंद ब्रह्म का ‘मैं’ रूप में साक्षात्कार भी हो जाता है । प्रथम दो के कर्तव्य में परमात्म-भाव, परमात्म-प्रेम एवं परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य की प्रधानता न होने से बंधन बना रहता है किंतु शबरी भीलन की सेवा में कर्म करते हुए भी वर्तमान एवं पूर्व के कर्मों के बंधन से मुक्ति समायी हुई है । अतः केवल ईश्वरप्राप्ति के लिए, ब्रह्मज्ञानी महापुरुष के अनुभव को अपना अनुभव बनाने के लिए अद्वैत वेदांत के सिद्धान्त के अनुसार सर्वात्मभाव से, ‘मेरे सद्गुरुदेव, मेरे अंतर्यामी ही तत्त्वरूप से सबके रूप में लीला-विलास कर रहे हैं’ इस दिव्य भाव से प्रेरित हो के जो सेवा की जाती है वही पूर्ण अर्थ में सेवा है, निष्काम कर्मयोग है । अतः पूज्य बापू जी की प्रेरणा से देश-विदेशों में संचालित समितियों का नाम है ‘श्री योग वेदांत सेवा समिति’ ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, फरवरी 2020, पृष्ठ संख्या 16 अंक 326

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