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परिप्रश्नेन…


प्रश्नः संसार किनके लिए नरक है और किनके लिए भगवन्मय है ?

पूज्य बापू जीः जो संसार में से सुख लेना चाहते हैं उनके लिए संसार नरक है । व्यक्ति जितना जगत का सुख लेगा उतना नारकीय स्वभाव बढ़ेगा । चिड़चिड़ा, सनकी, डरपोक, गुस्सेबाज हो जायेगा । यूरोप में, अमेरिका में लोग ज्यादा चिड़चिड़े हैं, गुस्सेबाज हैं क्योंकि वे जगत का मजा लेते हैं और इधर भारत में लोग ज्यादा खुश मिलेंगे क्योंकि अपने आत्मा का मजा लेते हैं । जो अपने-आप तृप्त हैं उनके लिए संसार भगवन्मय है, ब्रह्म का विवर्त है । जो अपने ‘सोऽहम्’ स्वभाव में जग गये उनके लिए संसार ब्रह्म का विवर्त है । विवर्त कैसे ? जैसे रस्सी में साँप दिखता है पर विवर्त (मिथ्या प्रतीति) है, सीपी में रूपा (चाँदी) विवर्त है, मरूभूमि में पानी दिखता है लेकिन वह विवर्त है ऐसे ही ब्रह्म में जगत विवर्त है । जैसे मरुभूमि के आधार पर पानी, रस्सी के आधार पर साँप दिखता है ऐसे ही ब्रह्म के आधार पर ही जगत दिखता है । गहराई से देखो तो रस्सी और दूर से देखो तो साँप….. और वह साँप सपेरे के लिए गुजारे का साधन होगा और डरपोक के लिए मुसीबत है । वास्तव में वह न गुजारे का साधन है न मुसीबत है, वह तो रस्सी है । ऐसे ही न सुख है न दुःख है, वह तो आनंदस्वरूप ब्रह्म है लेकिन मूर्खों को पता नहीं चलता है इसीलिए बेटा जी होकर मर जाते हैं और जिनको पता लग जाता है सद्गुरु की कृपा से, वे बापू जी हो के तर जाते हैं और दूसरों को भी तार लेते हैं । ऐसा ज्ञान सब जगह नहीं मिलेगा ।

प्रश्नः कौन उन्नत होता है और किसका पतन होता है ?

पूज्य श्रीः जो प्रसन्न हैं, उदार हैं वे उन्नत होते हैं और जो खिन्न हैं, फरियादी हैं उनकी अवनति होती  है, पतन होता है । दुःख आया तो भी फरियाद क्या करना ! दुःख आया है आसक्ति छुड़ाने के लिए और सुख आया है दूसरों के काम आने के लिए । सुख आया है तो दूसरों के काम आ जाओ और दुःख आया है तो संसार की आसक्ति छोड़ो । और ये सभी के जीवन में आते हैं । दुःख का सदुपयोग करो, आसक्ति छोड़ो । सुख का सदुपयोग करो, बहुतों के काम आओ । बहुतों के काम आ जाय आपका  सुख, आपका सामर्थ्य तो आप यशस्वी भी हो जायेंगे और उन्नत भी हो जायेंगे । एकदम वेदों का, शास्त्रों का समझो निचोड़-निचोड़ बता रहा हूँ आपको ! पढ़ने-वढ़ने जाओ तो कितने साल लग जायें तब कहीं यह बात आपको मिले या न भी मिले । तो सत्संग में तैयार मिलता है । अपने-आप तपस्या करो फिर यह बात समझो और उसके बाद चिंतन करो तो बहुत साल लग जायेंगे… और सत्संग से यह बात समझ के विचार में ले आओ तो सीधा सहज में बड़ा भारी लाभ !

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 34 अंक 335

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यात्रा की कुशलता व दुःस्वप्न-नाश का वैदिक उपाय


जातवेदसे सुनवाम सोमरातीयतो न दहाति वेदः ।

स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिंधुं दुरितात्यग्निः ।।

‘जिस उत्पन्न हुए चराचर जगत को जानने वाले और उत्पन्न हुए सर्व पदार्थों में विद्यमान जगदीश्वर के लिए हम लोग समस्त ऐश्वर्ययुक्त सांसारिक पदार्थों का निचोड़ करते हैं अर्थात् यथायोग्य सबको बरतते हैं और जो अधर्मियों के समान बर्ताव रखने वाले दुष्ट जन के धन को निरंतर नष्ट करता है वह अनुभवस्वरूप जगदीश्वर जैसे मल्लाह नौका से नदी या समुद्र के पार पहुँचाता है, वैसे हम लोगों को अत्यंत दुर्गति और अतीव दुःख देने वाले समस्त पापाचरणों के पार करता है । वही इस जगत में खोजने के योग्य है ।’ (ऋग्वेदः मंडल 1, सूक्त 99, मंत्र 1)

यात्री उपरोक्त मंगलमयी ऋचा का मार्ग में जप करे तो वह समस्त भयों से छूट जाता है और कुशलपूर्वक घर लौट आता है । प्रभातकाल में इसका जप करने से दुःस्वप्न का नाश होता है ।

(वैदिक मंत्रों का उच्चारण करने में कठिनाई होती हो तो लौकिक भाषा में केवल इनके अर्थ का चिंतन या उच्चारण करके लाभ उठा सकते हैं ।)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, नवम्बर 2020, पृष्ठ संख्या 33 अंक 335

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जपमाला में 108 दाने क्यों ?


पूज्य बापू जी के सत्संग-वचनामृत में आता हैः “शास्त्र में मिल जाता है कि माला में 108 दाने ही क्यों ? 109 नहीं, 112 नहीं… 108 ही क्यों ? कुछ लोग 27 दाने की माला घुमाते हैं, कोई 54 दाने की माला घुमाते हैं और कोई 108 दाने की घुमाते हैं । इसका अपना-अपना हिसाब है ।

शास्त्रकारों ने जो कुछ विधि-विधान बनाया है वह योग विज्ञान से, मानवीय विज्ञान से, नक्षत्र विज्ञान से, आत्म-उद्धार विज्ञान से – सब ढंग से सोच-विचार के, सूक्ष्म अध्ययन करके बनाया है ।

कई आचार्यों के भिन्न-भिन्न मत हैं । कोई कहते हैं कि ‘100 दाने अपने लिए और 8 दाने गुरु या जिन्होंने मार्ग दिखाया उनके लिए, इस प्रकार 108 दाने जपे जाते हैं ।’

योगचूड़ामणि उपनिषद् (मंत्र 32) में कहा गया हैः

षट्शतानि दिवारात्रौ सहस्राण्येकविंशतिः ।

एतत्सङ्ख्यान्वितं मंत्रं जीवो जपति सर्वदा ।।

‘जीव 21600 की संख्या में (श्वासोच्छ्वास) में दिन रात निरंतर मंत्रजप करता है ।’

हम 24 घंटों में 21600 श्वास लेते हैं । तो 21600 बार परमेश्वर का नाम जपना चाहिए । माला में 108 दाने रखने से 200 माला जपे तो 21600 मंत्रजप हो जाता है इसलिए माला में 108 दाने रखने से 200 माला जपे तो 21600 मंत्रजप हो जाता है इसलिए माला में 108 दाना होते हैं । परंतु 12 घंटे दिनचर्या में चले जाते हैं, 12 घंटे साधना के लिए बचते तो 21600 का आधा कर दो तो 10800 श्वास लगाने चाहिए । अधिक न कर सकें तो कम-से-कम श्वासोच्छवास में 108 जप करें । मनुस्मृति में और उपासना के ग्रंथों में लिखा है कि श्वासोच्छवास का उपांशु जप करो तो एक जप का 100 गुना फल होता है । 108 को 100 से गुना कर दो तो 10800 हो जायेगा । परंतु माला द्वारा साधक को प्रतिदिन कम-से-कम 10 माला गुरुमंत्र जपने का नियम रखना ही चाहिए । इससे उसका आध्यात्मिक पतन नहीं होगा । (शिव पुराण, वायवीय संहिता, उत्तर खंडः 14.16-17 में आता है कि गुरु से मंत्र और आज्ञा पाकर शिष्य एकाग्रचित्त हो संकल्प करके पुरश्चरणपूर्वक (अनुष्ठानपूर्वक) प्रतिदिन जीवनपर्यन्त अनन्यभाव से तत्परतापूर्वक 1008 मंत्रों का जप करे तो परम गति को प्राप्त होता है ।)

दूसरे ढंग से देखा जाय तो आपके जो शरीर व मन हैं वे ग्रह और नक्षत्रों से जुड़े हैं । आपका शरीर सूर्य से जुड़ा है, मन नक्षत्रों से जुड़ा । ज्योतिष शास्त्र में 27 नक्षत्र माने गये हैं । तो 27 नक्षत्रों की माला सुमेरु के सहारे घूमती है । प्रत्येक नक्षत्र के 4 चरण हैं, जैसे अश्विनी के ‘चू, चे, चो, ला’, ऐसे ही अन्य नक्षत्रों के भी 4-4 चरण होते हैं । अब 27 को 4 से गुणा करो तो 108 होते हैं ।

तो हमारे प्राणों के हिसाब से, नक्षत्रों के हिसाब से, हमारी उन्नति के हिसाब से 108 दानों की माला ही उपयुक्त है ।”

कुछ अन्य तथ्य

ऐसी भी मान्यता है कि एक वर्ष में सूर्य 2,16,000 कलाएँ बदलता है । सूर्य हर 6—6 महीने उत्तरायण और दक्षिणायन में रहता है । इस प्रकार 6 महीने में सूर्य की कुल कलाएँ 1,08,000 होती है । अंतिम तीन शून्य हटाने पर 108 की संख्या मिलती है । अतः जपमाला में 108 दाने सूर्य की कलाओं के प्रतीक हैं ।

ज्योतिष शास्त्रानुसार 12 राशियों और 9 ग्रहों का गुणनफल 108 अंक सम्पूर्ण जगत की गति का प्रतिनिधित्व करता है ।

शिव पुराण (वायवीय संहिता, उत्तर खंडः 14.40) में आता हैः

अष्टोत्तरशतं माला तत्र स्यादुत्तमोत्तमा ।

‘108 दानों की माला सर्वोत्तम होती है ।’

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