दोषों से बचना है तो जीवन में दोष किस तरह आते हैं यह बात समझना बहुत आवश्यक है । इस संदर्भ में एक घटित प्रसंग बताते हुए भी हनुमान प्रसाद पोद्दार जी कहते हैं कि ‘मेरे एक मित्र कलकत्ता (कोलकाता) में रहते थे । वे घुड़दौड़ में जाते थे । धीरे-धीरे वे क्लब में जाने लगे । कुछ दिनों बाद उनके मित्रों ने कहाः “तुम यहाँ आते हो, बातचीत करते हो, हम लोग खाते हैं पर तुम कुछ खाते-पीते नहीं, यह अच्छा नहीं लगता । तुम घर से खाना लाया करो और अपने बर्तन में निकालकर खा लिया करो ।”
यह बात उनको जँच गयी, वे ऐसा करने लगे । कुछ दिन बाद मित्रों ने समझायाः “भाई ! यह तो पक्की बनी हुई चीज है, 5-7 दिन के लिए एक साथ लाकर अलमारी में रख दो और यहाँ से ले के खा लिया करो ।” उन्होंने ऐसा ही किया ।
थोड़े दिन के बाद मित्र पुनः बोलेः “तुम जो चीज खाते हो वह यहीं अलग से बनवा लिया करो ।” ऐसा होने लगा, वे वहीं खाने लगे । होते-होते वे फिर अंडा खाने लगे । फिर मांस खाने लगे । वे बिल्कुल निरामिषभोजी (शाकाहारी) थे । अंडे, मांस से बड़ी घृणा करते थे । पर होता यही है, पहले उपेक्षा-बुद्धि होती है, फिर घृणा निकलती है, फिर उसमें यथार्थ-बुद्धि हो जाती है, फिर वह आवश्यक लगने लगता है – उसके बिना काम नहीं चलता । इस तरह जीवन में पाप आ जाता है ।”
विषयी लोगों के संग से बचने के लिए भगवान कहते हैं-
सङ्गं न कुर्यादसतां शिश्नोदरतृपां क्वचित् ।
तस्यानुगस्तमस्यन्धे पतत्यन्धानुगान्धवत् ।।
‘साधारण लोगों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जो लोग विषयों के सेवन और उदर-पोषण में ही लगे हुए हैं, उन असत् पुरुषों का संग कभी न करें क्योंकि उनका अनुगमन करने वाले पुरुष की वैसी ही दुर्दशा होती है जैसे अंधे के सहारे चलने वाले अंधे की । उसे तो घोर अंधकार में ही भटकना पड़ता है ।’ (श्रीमद्भागवतः 11.26.3)
साधकों को संगदोष से बचने के लिए सावधान करते हुए पूज्य बापू जी कहते हैं- “संयमी-सदाचारी सज्जनों, साधुपुरुषों का संग जीव को ऊर्ध्वगामी बनाता है जबकि विषयी पुरुषों का संग अधोगामी बना देता है । जो साधक हैं, पवित्र लोग हैं वे भी अगर विषयी और विकारी लोगों के बीच बैठकर भोजन करें, विषयी पुरुषों के साथ हाथ मिलावें, उनकी हाँ में हाँ करें तो साधक की साधना क्षीण हो जाती है । साधक के सात्त्विक परमाणु नष्ट हो जाते हैं ।”
स्रोतः ऋषि प्रसाद, मार्च 2021, पृष्ठ 20 अंक 339
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