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ऐसे समर्थ सद्गुरु व साधक विरले ही होते हैं – संत निलोबा जी


संत निलोबाजी अपने सद्गुरु संत तुकाराम जी को विरह-व्यथा से व्याकुल होकर पुकार रहे थे । तब भगवान विट्ठल प्रकट हुए । निलोबाजी ने उन्हें जो रोमांचकारी वचन कहे वे निलोबाजी की अभंग-गाथा में आज भी कोई पढ़ सकता है । प्रस्तुत है उन दिव्य वचनों का भावानुवादः

हे प्रभु ! आपको यहाँ किसने बुलाया ? किसी भी प्रकार की प्रार्थना किये बिना ही आप यहाँ क्यों आये हैं ? हिरण्यकशिपु दैत्य को दंड देने के लिए खम्भे से प्रकट होकर आप प्रह्लाद के रक्षक बन गये थे लेकिन इस प्रकार का कोई संकट मुझ पर आया नहीं है तो भी आपने व्यर्थ में यहाँ आने का परिश्रम क्यों किया ? हे भगवान ! तुम्हें पहचानने की क्षमता हममें नहीं है किंतु गुरुकृपा होने पर ही हम तुम्हारे वास्तविक रूप को पहचान सकते हैं । इसलिए हम तो केवल सद्गुरु श्री तुकारामजी को ही सदा पुकारते रहते हैं ।

कृपावंत सद्गुरुनाथ तुकाराम स्वामी ने आकर मेरे मस्तक पर अपना हाथ रखा और अपना कृपा-प्रसाद दे के मुझे परम सुख कर दिया । सद्गुरु के दिव्य स्वरूप का गुणगान करने के लिए मेरी मति को बढ़ा के मुझे स्फूर्ति दे दी । यहाँ मैं बोलता हुआ दिख रहा हूँ फिर भी यह जो बोलने की सत्ता है वह मेरी न हो के मेरे सद्गुरु तुकाराम जी की ही है ।

यह कोई सुनी-सुनाई बात नहीं है । वास्तव में सद्गुरु की महिमा ही अद्भुत है । वे जीव में स्थित जीवपने का कलंक मिटाकर अर्थत् तथाकथित जीव की जीवत्व की मलिन मान्यता हटा के उसे कभी न भंग होने वाले ब्रह्मस्वरूप में जगा देते हैं । वे जिनका भी हाथ पकड़ लेते हैं (जिन्हें भी अपनी शरण में लेते हैं) उन्हें अपने मूल स्वरूप में स्थित कर देते हैं । हृदयपूर्वक उनकी सेवा करने से वे जीव को परम भाग्यवान बना देते हैं ।

जीव को अपने वास्तविक स्वरूप का बोध स्वयं नहीं होता, सद्गुरु उसका अनुभव करा देते हैं यही सच्चे सद्गुरु की पहचान है । इस प्रकार सद्गुरु द्वारा शिष्यों को ब्रह्म का बोध कराया जाते हुए उनके (शिष्यों के) अंतःकरण में दिव्य ज्ञान-प्रकाश की क्या कमी रहेगी ? जो आत्मज्ञानरूपी सद्वस्तु के अभ्यास में नित्य तन्मय रहते हैं, उन्हें गुरुकृपा से अपने सच्चे स्वराज्य की प्राप्ति होती है । संत निलोबा जी कहते हैं कि ऐसी सद्गुरु की ब्रह्मबोध कराने की कला है किंतु ब्रह्मबोध कराने वाले ऐसे समर्थ सद्गुरु और वह बोध प्राप्त कर लेने वाला साधक – दोनों विरले ही होते हैं ।

शिष्य को गुरु की पूजा करनी चाहिए क्योंकि गुरु से बड़ा और कोई नहीं है । गुरु इष्टदेवता के पितामह हैं । भक्तों के लिए भगवान हमेशा गुरु के रूप में पथप्रदर्शक बनते हैं ।

गुरु ही मार्ग हैं, जीवन हैं और आखिरी ध्येय हैं । गुरुकृपा के बिना किसी को भी सर्वोत्तम सुख प्राप्त नहीं हो सकता ।

(स्वामी शिवानंद जी के ‘गुरुभक्तियोग’ सत्शास्त्र से)

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 23 अंक 342

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परलोक के भोजन का स्वाद


एक सेठ ने अन्नसत्र खोल रखा था । उनमें दान की भावना तो कम थी पर समाज उन्हें दानवीर समझकर उनकी प्रशंसा करे यह भावना मुख्य थी । उनके प्रशंसक भी कम नहीं थे । थोक का व्यापार था उनका । वर्ष के अंत में अन्न के कोठारों में जो सड़ा गला अन्न बिकने से बच जाता था, वह अन्नसत्र के लिए भेज दिया जाता था । प्रायः सड़ी ज्वार की रोटी ही सेठ के अन्नसत्र में भूखों को प्राप्त होती थी ।

सेठ के पुत्र का विवाह हुआ । पुत्रवधु घर आयी । वह बड़ी सुशील, धर्मज्ञ और विचारशील थी । उसे जब पता चला कि उसके ससुर द्वारा खोले गये अन्नसत्र में सड़ी ज्वार की रोटी दी जाती है तो उसे बड़ा दुःख हुआ । उसने भोजन बनाने की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली । पहले ही दिन उसने अन्नसत्र से सड़ी ज्वार का आटा मँगवाकर एक रोटी बनायी और सेठ जब भोजन करने बैठे तो उनकी थाली में भोजन के साथ वह रोटी भी परोस दी । काली, मोटी रोटी देखकर कौतूहलवश सेठ ने पहला ग्रास उसी रोटी का मुख में डाला । ग्रास मुँह में जाते ही वे थू-थू करने लगे और थूकते हुए बोलेः “बेटी ! घर में आटा तो बहुत है ! यह तूने रोटी बनाने के लिए सड़ी ज्वार का आटा कहाँ से मँगाया ?”

पुत्रवधु बोलीः “पिता जी ! यह आटा परलोक से मँगाया है ।”

ससुर बोलेः “बेटी ! मैं कुछ समझा नहीं ।”

“पिता जी ! जो दान पुण्य हमने पिछले जन्म में किया वह कमाई अब खा रहे हैं और जो हम इस जन्म में करेंगे वही हमें परलोक में मिलेगा । हमारे अन्नसत्र में इसी आटे की रोटी गरीबों को दी जाती है । परलोक में हमें केवल इसी आटे की रोटी पर रहना है इसलिए मैंने सोचा कि अभी से हमें इसे खाने का अभ्यास हो जाय तो वहाँ कष्ट कम होगा ।”

सेठ को अपनी गलती का एहसास हुआ । उन्होंने अपनी पुत्रवधू से क्षमा माँगी और अन्नसत्र का सड़ा आटा उसी दिन फिंकवा दिया । तब से अऩ्नसत्र में गरीबों व भूखों को अच्छे आटे की रोटी मिलने लगी ।

आप दान तो करो लेकिन दान ऐसा हो कि जिससे दूसरे का मंगल-ही-मंगल हो । जितना आप मंगल की भावना से दान करते हो उतना दान लेने वाले का तो भला होता ही है, साथ में आपका भी इहलोक और परलोक सुधर जाता है । दान करते समय यह भावना नहीं होनी चाहिए कि लोग मेरी प्रशंसा करें, वाहवाही करें । दान इतना गुप्त हो कि देते समय आपके दूसरे हाथ को भी पता न चले ।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 21 अंक 342

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एकादशी को चावल खाना वर्जित क्यों ?


पूज्य बापू जी एकादशी के बारे में एक वैज्ञानिक रहस्य बताते हुए कहते हैं- “संत डोंगरेजी महाराज बोलते थे कि एकादशी के दिन चावल नहीं खाना चाहिए । जो खाता है, समझो वह एक-एक चावल का दाना खाते समय एक-एक कीड़ा खाने का पाप करता है । संत की वाणी में हमारी मति-गति नहीं हो तब भी कुछ सच्चाई तो होगी । मेरे मन में हुआ कि ‘इस प्रकार कैसे हानि होती होगी ? क्या होता होगा ?

तो शास्त्रों से इस संशय का समाधान मेरे को मिला कि प्रतिपदा से लेकर अष्टमी तक वातावरण में से, हमारे शरीर में से जलीय अंश का शोषण होता है, भूख ज्यादा लगती है और अष्टमी से लेकर पूनम या अमावस्या तक जलीय अंश शरीर में बढ़ता है, भूख कम होने लगती है । चावल पैदा होने और चावल बनाने में खूब पानी लगता है । चावल खाने के बाद भी जलीय अंश अधिक उपयोग में आता है । जल के मध्यम भाग से रक्त एवं सूक्ष्म भाग से प्राण बनता है । सभी जल तथा जलीय पदार्थों पर चन्द्रमा का अधिक प्रभाव पड़ने से रक्त व प्राण की गति पर भी चन्द्रमा की गति का बहुत प्रभाव पड़ता है । अतः यदि एकादशी को जलीय अंश की अधिकता वाले पदार्थ जैसे चावल आदि खाये जायेंगे तो चन्द्रमा के कुप्रभाव से हमारे स्वास्थ्य और सुव्यवस्था पर कुप्रभाव पड़ता है । जैसे कीड़े मरे या कुछ अशुद्ध खाया तो मन विक्षिप्त होता है, ऐसे ही एकादशी के दिन चावल खाने से भी मन का विक्षेप बढ़ता है । तो अब यह वैज्ञानिक समाधान मिला कि अष्टमी के बाद जलीय अंश आंदोलित होता है और इतना आंदोलित होता है कि आप समुद्र के नजदीक डेढ़ दो सौ किलीमीटर तक के क्षेत्र के पेड़-पौधों को अगर उन दिनों में काटते हो तो उनको रोग लग जाता है ।

अभी विज्ञानी बोलते हैं कि मनुष्य को हफ्ते में एक बार लंघन करना (उपवास रखना) चाहिए लेकिन भारतीय संस्कृति कहती हैः लाचारी का नाम लंघन नहीं…. भगवान की प्रीति हो और उपवास भी हो । ‘उप’ माने समीप और ‘वास’ माने रहना – एकादशी व्रत के द्वारा भगवद्-भक्ति, भगवद्-ध्यान, भगवद्-ज्ञान, भगवद्-स्मृति के नजदीक आऩे का भारतीय संस्कृति ने अवसर बना लिया ।

उपवास कैसे खोलें ?

आप जब एकादशी का व्रत खोलें तो हलका फुलका नाश्ता या हलका-फुलका भोजन चबा-चबा के करें । एकदम खाली पेट हो गये तो ठाँस के नहीं खाना चाहिए औ फलों से पेट नहीं भरना चाहिए अन्यथा कफ बन जायेगा । मूँग, चने, मुरमुरा आदि उपवास खोलने के लिए अच्छे हैं । लड्डू खा के जो उपवास खोलते हैं वे अजीर्ण की बीमारी को बुलाएँगे । एकदम गाड़ी बंद हुई और फिर चालू करके गेयर टॉप में डाल दिया तो डबुक… डबुक करके बंद हो जायेगी ।

भगवान मिले तो आधिदैविक लाभ है पर आत्मा और परमात्मा का तात्त्विक स्वरूप, वैदिक स्वरूप ‘अयं आत्मा ब्रह्म ।’ यही मेरा आत्मा ब्रह्म है, यही घटाकाश महाकाश है – इस प्रकार अपने को और भगवान को तत्त्वरूप से जानना यह आध्यात्मिक लाभ है । – पूज्य बापू जी

स्रोतः ऋषि प्रसाद, जून 2021, पृष्ठ संख्या 22 अंक 342

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